भ्रमरगीत-सार/२३३-ऊधो! निरगुन कहत हौ तुमहीं अब धौं लेहु

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६८

 

ऊधो! निरगुन कहत हौ तुमहीं अब धौं लेहु।

सगुन मूरति नंदनन्दन हमहिं आनि सु देहु॥
अगम पन्थ परम कठिन गवन तहाँ नाहिं।
सनकादिक भूलि परे अबला कहँ जाहिं?
पञ्चतत्त्व प्रकृति कहो अपर कैसे जानि?
मन बच क्रम कहत सूर बैरनि की बानि॥२३३॥