भ्रमरगीत-सार/२१२-ऊधो समुझावै सो बैरनि

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६१ से – १६२ तक

 

राग सोरठ
ऊधो! समुझावै सो बैरनि।

रे मधुकर! निसिदिन मरियतु है कान्ह कुँवर-औसेरनि[]

चित चुभि रही मोहनी मूरति, चपल दृगन की हेरनि।
तन मन लियो चुराय हमारो वा मुरली की टेरनि॥
बिसरति नाहिं सुभग तन-सोभा पीताम्बर की फेरनि।
कहत न बनै काँध लकुटी धरि छबि बन गायन घेरनि॥
तुम प्रबीन, हम बिरहि, बतावत आँखि मूँदि भटभेरनि[]
जिहि उर बसत स्यामघन सो क्यों परै मुक्ति के झेरनि[]
तुम हमको कहँ लाए, ऊधो! जोग-दुखन के ढेरनि।
सूर रसिक बिन क्यों जीवत हैं निर्गुन कठिन करेरनि?॥२१२॥

  1. औसेर=बाधा या दुःख।
  2. भटभेर=मुठभेड़, धक्कमधुक्का।
  3. झेर=झंझट।