बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५८
कै तन गए भलो मानैं, कै हरि ब्रज आय रहौ॥
कानन-देह विरह-दव लागी इन्द्रिय-जीव जरौ।
बुझै स्याम-धन कमल-प्रेम मुख मुरली-बूँद परौ॥
चरन-सरोवर-मनस[१] मीन-मन रहै एक रसरीति।
तुम निर्गुनबारू महँ डारौ; सूर कौन यह नीति?॥२०३॥