भ्रमरगीत-सार/१८२-ऊधो हमैं दोउ कठिन परी

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५३

 

ऊधो! हमैं दोउ कठिन परी।

जो जीवैं तो, सुन सठ! ज्ञानी, तन तजैं रूपहरी॥
गुन गावैं तौ सुक-सनकादिक, संग धावै तौ लीला करी।
आसा अवधि संतोष धरैं तौ धार्मिक ब्रज-सुन्दरी॥
स्यामा है सब सखी सुजाती पै सब बिरह-भरी।
सोक-सिंधु तरिबे की नौका जिहि मुख मुरलि धरी॥
निसिदिन फिरत निरंकुस अति बड़ मातो मदन-करी[]
डाहैगो सब धाम सूर जो चितौ न वह केहरी॥१८२॥

  1. करी=हाथी।