भ्रमरगीत-सार/१८२-ऊधो हमैं दोउ कठिन परी
जो जीवैं तो, सुन सठ! ज्ञानी, तन तजैं रूपहरी॥
गुन गावैं तौ सुक-सनकादिक, संग धावै तौ लीला करी।
आसा अवधि संतोष धरैं तौ धार्मिक ब्रज-सुन्दरी॥
स्यामा है सब सखी सुजाती पै सब बिरह-भरी।
सोक-सिंधु तरिबे की नौका जिहि मुख मुरलि धरी॥
निसिदिन फिरत निरंकुस अति बड़ मातो मदन-करी[१]।
डाहैगो सब धाम सूर जो चितौ न वह केहरी॥१८२॥
- ↑ करी=हाथी।