बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १४९ से – १५० तक
अति कृसगात भई हैं तुम बिनु बहुत दुखारी गाय॥
जल समूह बरसत अँखियन तें, हूंकत[१] लीने नाँव।
जहाँ जहाँ गोदोहन करते ढूँढ़त सोइ सोई ठाँव॥
परति पछार खाय तेहि तेहि थल अति व्याकुल ह्वै दीन।
मानहुँ सूर काढ़ि डारे हैं बारि मध्य तें मीन॥१७१॥