भ्रमरगीत-सार/१६१-कहाँ लगि मानिए अपनी चूक

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १४५ से – १४६ तक

 

कहाँ लगि मानिए अपनी चूक?

बिन गोपाल, ऊधो, मेरी छाती ह्वै न गई द्वै टूक॥
तन, मन, जौबन वृथा जात है ज्यों भुवंग की फूँक।
हृदय अग्नि को दवा बरत है, कठिन बिरह की हूक[]

जाकी मनि हरि लई सीस तें कहा करै अहि मूक?
सूरदास ब्रजबास बसीं हम मनहूँ दाहिने सूक[]

  1. हूक=ज्वाला, व्यथा, शूल।
  2. दाहिने सूक=इक्षिण शूक्रग्रह होने पर (जो ज्योतिष में बुरा योग माना जाता है)।