बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १४५
सुभग कलेवर कुंकुम खौरी। गुंजमाल अरु पीत पिछौरी॥ रूप निरखि दृग लागे ढोरी[१]। चित चुराय लयो मूरति सो, री! गहियत सो जा समय अंकोरी[२]। याही तें बुधि कहियत बौरी॥ सूर स्याम सों कहिय कठोरी! यह उपदेस सुने तें बौरी॥१६०॥