भ्रमरगीत-सार/१३९-ऊधो! खरिऐ जरी हरि के सूलन की
कुंज कलोल करे बन ही बन सुधि बिसरी वा भूलन की।
ब्रज हम दौरि आँक भरि लीन्ही देखि छाँह नव मूलन की॥
अब वह प्रीति कहाँ लौं बरनौं वा जमुना के कूलन की॥
वह छवि छाकि रहे दोउ लोचन बहियां गहि बन झूलन की।
खटकति है वह सूर हिये मों माल दई मोहिं फूलन की॥१३९॥