बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १३५
तुम जो हमको जोग लाए भली करनि करी॥ एक बिरह जरि रहीं हरि के, सुनत अतिहि जरी। जाहु जनि अब लोन लावहु देखि तुमहिं डरी॥ जोग-पाती दई तुम कर बड़े जान[१] हरी। आनि आस निरास कीन्ही, सूर सुनि हहरी[२]॥१२६॥