भ्रमरगीत-सार/१२६-ऊधो! कछु कछु समुझि परी

भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १३५

 

ऊधो! कछु कछु समुझि परी।

तुम जो हमको जोग लाए भली करनि करी॥
एक बिरह जरि रहीं हरि के, सुनत अतिहि जरी।
जाहु जनि अब लोन लावहु देखि तुमहिं डरी॥
जोग-पाती दई तुम कर बड़े जान[] हरी।
आनि आस निरास कीन्ही, सूर सुनि हहरी[]॥१२६॥

  1. जान=सुजान, चतुर।
  2. हहरी=दहल गई।