भ्रमरगीत-सार/१०९-ऊधो! ब्रज की दसा बिचारौ

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२८ से – १२९ तक

 

राग सोरठ
ऊधो! ब्रज की दसा बिचारौ।

ता पाछे यह सिद्धि आपनी जोगकथा बिस्तारौ॥

जेहि कारन पठए नँदनंदन सो सोचहु मन माहीं।
केतिक बीच बिरह परमारथ जानत हौ किधौं नाहीं॥
तुम निज[] दास जो सखा स्याम के संतत निकट रहत हौ।
जल बूड़त अवलम्ब फेन को फिरि फिरि कहा गहत हौ॥
वै अति ललित मनोहर आनन कैसे मनहिं बिसारौं।
जोग जुक्ति औ मुक्ति बिबिध बिधि वा मुरली पर वारौं॥
जेहि उर बसे स्यामसुंदर घन क्यों निर्गुन कहि आवै।
सूरस्याम सोइ भजन बहावै जाहि दूसरो भावै॥१०९॥

  1. निज-ख़ास।