भ्रमरगीत-सार/१०८-ऊधो! हम अति निपट अनाथ
ऊधो! हम अति निपट अनाथ।
जैसे मधु तोरे की माखी त्यों हम बिनु ब्रजनाथ॥
अधर-अमृत की पीर मुई, हम बालदसा तें जोरी।
सो तौ बधिक सुफलकसुत लै गयो अनायास ही तोरी॥
जब लगि पलक पानि मीड़ति रही तब लगि गए हरि दूरी।
कै निरोध निबरे तिहि अवसर दै पग रथ की धूरी॥
सब दिन करी कृपन की संगति, कबहुँ न कीन्हों भोग।
सूर बिधाता रचि राख्यो है, कुबजा के मुख-जोग॥१०८॥