भारत के प्राचीन राजवंश/१. क्षत्रप-वंश

पृष्ठ ३५ से – ७७ तक

 


भारतके प्राचीन राजवंश ।


१. क्षत्रप-वंश।


क्षत्रप-शब्द। यद्यपि 'क्षत्रप' शब्द संस्कृतका सा प्रतीत होता है, और इसका अर्थ भी क्षत्रियोंकी रक्षा करनेवाला हो सकता है। तथापि असल में यह पुराने ईरानी ( Persian) 'क्षत्रपावन' शब्दका संस्कृतरूप है। इसका अर्थ पृथ्वीका रक्षक है। इस शब्दके 'खतप' (खत्त्प), छत्रप और छत्रव आदि प्राकृत-रूप भी मिलते हैं।

संस्कृत-साहित्य में इस शब्दका प्रयोग कहीं नहीं मिलता। केवल पहले पहल यह बाद भारत पर राज्य करनेवाली एक विशेष जाति राजाओंके सिक्कों और ईसाके पूर्वकी दूसरी शताब्दीके लेखों में पाया जाता है।

ईरानमें इस शब्दका प्रयोग जिस प्रकार सम्राट्के सूबेदारक विषयमें किया जाता था, भारतमें भी उसी प्रकार इसका प्रयोग होता था। केवल विशेषता यह थी कि यहॉ पर इसके साथ महस्य-सूचक 'महा' शब्द भी जोड दिया जाता था। भारतमें एक ही समय और.एक ही स्थानके क्षत्रप और महाक्षत्रप उपाधिकारी भिन्न भिन्न नामोंके सिक्के मिलते हैं। इससे अनुमान होता है कि स्वाधीन शासकको महाक्षत्रप और "उसके उत्तराधिकारी युवराज-को क्षत्रप कहते थे। यह उत्तराधिकारी अन्तमें स्वयं महाक्षत्रप हो जाता था। ________________

भारत के प्राचीन राजवंश सारनायते फुमन राजा कनिष्कके राज्यके तीसरे वर्षका एक लेख मिला है। इससे प्रकट होता है कि महाक्षत्रप सर पलान कामरकका सूबेदार था । अतः यह बहुत सम्मन है कि महाक्षवप होने पर भी ये लोग किसी बड़े राजाके सूबेदार ही रहते हों। पृथक पृथक चंश । ईसा पूर्वकी पहली दातान्हीसे ईसाकी चौथी शताब्झा मध्य तक भारतम क्षत्रपति तीन मुख्य राज्य थे, दो उच्चरी और एक पश्चिमी भारतमें । इतिहासज्ञ तक्षशिला ( Tarilar उत्तरपश्चिमी पमान) और मथुराके क्षत्रपोंको उत्तरी क्षत्रप तया पश्चिमी भारतके क्षेत्रों को पश्चिमी क्षनप मानते हैं। राज्य विस्तार । ऐसा मतीत होता है कि साकी पहली शताब्दीके उतार्थ ये लोग गुजरात और सिन्धसे होते हुए पश्चिमी भारतमें माये थे। सम्भवतः इस समय ये उत्तर-पश्चिमी मारतके कुदान राजाके सूबेदार ये। परन्त अन्तमें इनका प्रभाव यहाँतक बहा कि मालबा, गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, सिन्ध, उत्तरी कौन और राजपूतानेके मेवाड़, भारवाह, सिंगही, हालाबाह, कोटा, परतापगड़, किशनगढ़, डूंगरपुर, वासनाड़ा और अजमेरत इनका अधिकार होगयो । जाति । यदपि पिउले क्षत्रपोंने बहन का भारतीय नाम धारण कर दिये थे, केवळ 'जद (सव ) और 'दामन 'न्ही दो शदास इनकी वैदेशिकतामाट होती थी, तथापिहनका विदेशी होना सर्वसम्मन है। सम्भवतः ये लोग मध्य एशियासे आनेवाटी दरा-जातिके थे। भूमक, नपान और चटनके सियों में सरोष्ठी अक्षरों के होने से तथा महपान, चपन, समोलिक, दामजद आदि नामोंसे मी एका विदेशी टोना ही पद है। ( RE, III 1. (२)Ep. ind, VOL. Vil1 p:38. ________________

क्षनप वा। नासिकसे मिले एक लेखमें क्षत्रप नहपान जामाता उपनदानयो शक लिया है। इसमें पाया जाता है कि, यद्यपि करीब ३०० वर्ष भारत में राज्य करके कारण इन्होंने अन्समें भारतीय नाम और धर्म रहण कर लिया था और क्षत्रियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध गी करने लग गये थे, तथापि पहलेके क्षनप वैदिक और बौद्ध दोनों धोको 'मानते थे और अपनी कन्याओं का विवाह केवल गोसे ही करते थे। भारतमें करी ३०० वर्ष राज्य करनेपर मी इन्होंने 'महाराजाधिराज' 'आदि भारतीय उपाधियाँ ग्रहण नही की और अपने मियमोंपर भी शक-सयत ही लिखवाते रहे । इससे भी पूर्वोक्त बातकी पुष्टि होती है। रिवाज । जिस प्रकार अन्य जातियों में पिताके पीछे क्या पुन और उसके पीछे उसका लड़का राज्यका अधिकारी रोता हे उस प्रकारक्षनपोंके यहाँ नहीं होता था। इनके यहॉ यह विलक्षणता थी कि पिता पाछे पहले बहा पुन, और उसके पीछे उससे छोदा पुन । इसी प्रकार जितने पुत्र डोथे ये सब उमरके हिसाबसे क्रमशः गद्दी पर बैठते थे । तथा इन सबके मर चुकने पर यदि बड़े भाईका पुन होता तो उसे अधिकार मिलता था अतः अन्य नरेशोंकी तरह इनके यहाँ राज्याधिकार सदा बडे पुनके घशमें ही नहीं रहता था। शक संवत् । फर्गुसन साहबका अनुमान है कि क सवत् कनिष्पने चलाया था। परन्तु आज कल इसके विरुद्ध अनेक प्रमाण उपस्थित किये जाते है। इनमें मुख्य यह है कि कनिष्क शक वशका न होकर मान यशका था। लेकिन यदि ऐसा मान लिया जाय कि यह संवत् सीने प्रचठित किया था, परन्तु क्षत्रपोंके आकार-प्रसारके साथ जनके लेखादिकाम लिखे जाने से सर्वसाधारणम इसका प्रचार हुआ, और इसी कारण इसके चलाने वाले कुशन राजाके नाम पर इसका E Ind, rol VTIL P. 85. ________________

भारतके प्राचीन राज्ञवा नामकरण न होकर, इसे प्रसिद्धिमें लानेवाले के नाम पर हुआ, तो किसी प्रकारकी गड़बड न होगी । यह बात सम्भव भी है । परन्तु जर्म तक पूरा निश्चय नहीं हुआ है । | बहुतसे विद्वान इसको प्रतिष्ठानपुर ( इकिंगके पैठण) के राजा शालिवाहन ( सातवाहन ) का चलाया हा मानते है। जिनममूरि-- गचित कल्पप्रदीप भी इसी मती अग्नि होती है। अलनीने लिखा है कि शक राजाको हरा कर विमादित्पने ही उसे विनयकी यादगारमें यह सवत् प्रचलित किया था। कच्छ और कार्डिंगगड से मिले हुए चसे पहले के क्-सत् ५२ से १५३ तक क्षेत्रपाके लेखों में और कीव शक-सवत् १०० से शक-सुबत् ११० तब के सिक्कमि केवल सवत् ही लिखा मिलता है, उसके साथ कृथि 'श' शब्द नहीं जुड़ा रहता ।। | पले पहुल इस सबके साय शकशदका विशेषण बराAreरचित सस्कृती पञ्चसिद्धान्तिकामें ही मिला है। यथा | 4 सप्ताश्ववैदस्य शाहमपाद बैंगा' इसमें प्रकट होता है कि ४२७ वें वर्ष यह सवत् शङ्क-सवनकै नामले प्रसिद्ध हो चुका था । तया शकसयत् १ २६३ कके लैस | और ताम्रपत्नसे प्रकट होता हैं कि उस समय तक यह सब ही Bा जाता था, जिंसा 'इक राजाका सन् !' या का सवत् ' में दोनों ही अयं हो सकते हैं। शक-वन १२७, के यादव रागा बुरा प्रपम दानप इस सबके साय शालिवाहन ( सातवाहन ) का भी नाम जुड़ा हुआ 1ला है। यया (7)EIod, Tol FOL, P 19 ________________

क्षत्रप वंश । "नृपशालिवाहन शके १२५६ इससे प्रकट होता है कि ईसवी सन्की १४ वीं शताब्दीमें दक्षिणबालांने उत्तरी भारतके मालवसंवतके साथ विक्रमादित्यका नाम जुड़ा हुआ देखकर इस संबवके साथ अपने यहाँकी कथाओं में प्रसिद्ध राजा शालिवाहन ( सातवाहन ) का नाम जोड़ दिया होगा। यह राजा आन्धमृत्य-वंशका था । इस वंशका राज्य ईसवी सन् पुर्वकी दूसरी शताब्दीसे ईसवी सन २२५ के आसपास तक दक्षिणी भारत पर रहा। इनकी एक राजधानी गोदावरी पर प्रतिधानपुर भी या। इस वंशकै राजाओंका वर्णन वायु, मत्स्य, ब्रह्माण्ड, विष्णु और भागवत आदि पुराणों में दिया हुआ है । इसी वंशमै हाल शातकर्णी घडामसिद्ध राजा हुआ था। अतः सम्भव है कि दक्षिणमालों ने उसका नाम संवत्के साथ लगा दिया होगा । परन्तु एक तो सातवाहनके घशजोंके शिला-लेखों में केवल राज्य-वर्ष ही दिखे होनेसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्होंने यह संचन प्रचटित नहीं किया था। दूसरा, इस वंशका राज्य अस्त होनेके याद करी ११०० वर्ष तक कहीं भी उक्त सवतके साथ जुड़ा हुआ शालिन बाहनका नाम न मिलनेसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है । कुछ विद्वान इस संवतको तुक (कुशन) वी राजा कनिष्कका, कुछ क्षनप नहपानका पुछ शक राजा चेन्सकी और कर सक राजा अय (अज-A20) का प्रचालित किया मानते हैं । परन्तु अभी तक कोई बात पूरी तोरसे निश्चित नहीं हुई है। फ-संवनका प्रारम्म विक्रम संवत् १३६ की बेनाका प्रतिपदाको हुआ था, इसलिए मत शक संवनमें १३५ जोइनेसे गत चैचादि विक्रम-संपत जोर ७८ जोडनेसे ईसवी सन जाता है। अर्थात् शक-संपतका और विक्रम संवत्का अन्तर १३५ वर्षका है, तथा चाक-संवत्का और TKat it insts India, PTES. . इसवीसनका अन्तर करीब ७८ वर्षका है, क्योंकि की कमी ५१ जोड़नसे ईसवीसन आता है। मापा । नहपानी कन्या दमित्रा और उसके पति उघवदास और पुत्र मिदेवके टेस तो माकृतमें हैं। केवल उपवदात के बिना संवतके एक लेगका युछ भाग संस्कृत में है। नहपानके मंगी अपमका ठेस भी प्राकृतमें है। परन्तु रुद्रदामा प्रथम, रुद्रसिंह प्रथम, और स्ट्रसन प्रथमके लेस संस्कृतमें है । तथा भूमकसे लेकर आजतक जितने क्षत्रपोंके सिक्के मिले हैं उन परके एकाध लेखको छोड़कर बाकी सबकी भाषा मातमिश्रित संस्कृत है। इनमें बहुधा पष्ठी विभनि 'स्य' की जगह 'स' होता है। किसी किसी राजाके दो तरह के सिक्के भी मिलते हैं। इनमें से एक प्रकारके सिक्कीमें तो पी विभरिका योतक 'स्य' या 'स' लिसा रहता है और दूसरे में समस्त पट्ट करके विमान के चिह्नका लोप किया हुआ होता है । यथा-- पहले प्रकारक---मद्रसेनस्य पुत्रस्य या रुद्रसेनस पुनस । दूसरे प्रकार--सनपुनस्य । इन सिकॉमें एक विलक्षणता यह मी है कि'सो क्षवपस्म' पदों कार्गके सम्मुख होन पर भी सन्धि-नियमके विरुद्र राशन विरागंको ओकारका रूप दिया हुआ होता है । उनका अलग अलग सुहासा हाल प्रत्येक राजाके वर्णन में मिलेगा। ___ लिपि।क्षपके सिकी और लेखों आदिके असर प्रान्नी दिगिक हैं। इमीका परिवर्तित म्प भाजपलकी नागरी लिपि समझी जाती है। परन्तु भूमक, नहपान और अष्टन सिंकों यर बादी और रोधी दोनों रिपियोंके लेस हैं गौर बाइके राजामीके सिंधों पर फेवल बादी हिपिके काकुप्पो : क: कोप(ब.4110) है। पूर्वोक्त खरोष्ठी लिपि, फारसी अक्षरोंकी तरह, दाई तरफसे बाई तरफको लिखी जाती थी। इनके समयके अङ्कोंमे यह विलक्षणता है कि उनमें इकाई, दहाई आदिका हिसाब नहीं है। जिस प्रकार से ९ तक एक एक अङ्कका बोधक अलग अलग चिह्न है, उसी प्रकार १० से १०० तकका बोधक भी अलग अलग एक ही एक चिन्ह है । तया सौके अङ्कमें ही एक दो आदिका चिह्न और लगादेनेसे २००, ३०० आदिके चोधक अडू हो जाते हैं। उदाहरणार्थ, यदि आपको १५५ लिखना हो तो पहले साँका अङ्ग लिसा जायगा, उसके बाद पत्रासका और अन्तमें पाँचका र यथा--- १०.५०+१५५ आगे क्षत्रपोंके समयके ब्राह्मी अक्षरों और अडॉकी पहचान के लिए उनके नक्शे दिये जाते है, उनमें प्रत्येक अक्षर और अन्के सामने आधुनिक नागरी अक्षर लिखा है। आशा है, इससे सस्कृत और हिन्दीके विज्ञान भी जस समयके लेखों, ताम्रपत्रों और सिकोको पढ़ने में समर्थ होंगे। इसके आगे खरोष्ठी' अक्षरॉका मी मकशा लगा दिया गया है, जिससे उन अक्षरोंके मढने में भी सहायता मिलेगी। लेग । अबतक इनके केवल १२ लेख मिले है। ये निम्नलिखित पुरुषोंके हैं उपवदात-(अपभदत्त )-पह नहपानका जामाता था। इसके ४ लेख मिले हैं । इनमेंसे दोमें तो संरह है ही नहीं और तीसरेम टूट गया है। केवल चैत्र शुक्ल पूर्णिमा पढ़ा जाता है। तथा चौथै लामें शक-संवत् ४१, ४२ और ४५ ठिसे है । परन्तु यह लेस श०सं० ४२ के बैशाखमासका है। (OTHVITIES Ey Tad, Val VIII, p. 78, ( Ep. THA, TO THI, PE, Ep. Ind, Vol. VIII,P &s, दक्षमिना-यह नहपानकी कन्या और अपर्युक्त उपनदातकी हरी यी। इसका १ लेख मिला है। मित्र देवणक-(मिजदय)-यह उपवातका पुन था । इसका भी एक लेख मिला है। अयम (अर्यमन) यह वत्समोठी बाह्मण और राजा महाक्षतप स्वामी नहपानका मन्त्री था । इसका शक-संवत् ४६ का एक. लेख मिला है। रुद्रदामा प्रथम---यह जयदामाका पुत्र या । इसके समयफा एक लेख शक-सवत् ७२ मार्गशीर्ष-कृष्ण प्रतिपदाका मिला है, यद्रसिंह प्रथम-यह रुद्रदामा प्रथमका पुत्र था। इसके समयके दो लेख मिले हैं। इनमें से एक शक संवत् १०३ वैशाख शुक्ला पञ्चमीका और दूसरा चैत्र शुक्ला पञ्चमीका है। इसका सवत् टूट गया है। रुद्रसेन प्रथम---यह रुदसिंह प्रथमका पुत्र था । इसके समयके २ लेख मिले हैं । इनमें पहला शक संबत् १२२ बैशाख कृष्णा पञ्चमीका और दूसरा शक संवत् १२५ ( या १२६) भादपद कृष्णा पंचमीका है। सिगे । भूमफ और नहपान कररत वशी या चपन और उसके वान शवपवशी कहलाते थे। मूमर केवल तब सिमें मिले हैं। इन पर एक तरफ नीकी तरफ फलकवाला तार, बज और सरोटी अक्षरोम दिरा स राधा पसरी तरफ सिंह, धर्म-चक्र और बाही अक्षरोंका देख होता है। (1) Ep Iod VoL VIL, B1, (a) Ep Iod 1 YII' p 36 (1) Do Dr Hof A. 600, Yol. V. p 169. ( Ep Ind, Yo VIII, 20, () Ind Art, Vol 3,101 JRA 2,18001651.(ONIRABIBOOP453 १८)Id. AL, FoL ZII, PIE, ________________

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१२५ वि० सं० १७६ से १८१) तक ही मिले हैं। अतः इसने कितने वर्ष राज्य किया था इस बात का निश्चय करना कठिन है। परन्तु अनुमानसे पता चलता है कि शक्-संवत् ४६ के बाद इसका राज्य थोड़े समयतक ही रहा होगा । क्योंकि इस समयके करीब ही आधि-- बंशी राजा गौतमी-पुन शातकर्णिने इसको हरा कर इसके राज्यपर अधिकार कर लिया था और इसके सिक्कोंपर अपनी मुहरें लगवा दी थीं। नहपानके सिक्कों पर बाह्मी लिपिमें “राज्ञो छहरातस नहपानसग और खरोष्ठी लिपिमें “रनो छहरतस नहपनस" लिखा होता है । परन्तु गौतमीपुत्र श्रीशातकर्णिकी मुहरदाले सिकॉपर पूर्वोन लेखोंके सिवा ब्राह्मीमें “ रामो गोतमिपुतस सिरि सातकगिस" विशेष लिखा रहता है। 'नहपानके चाँदी और तनिके सिक्के मिलते हैं। इन पर क्षत्रप और महाक्षत्रपकी उपाधियाँ नहीं होती, परन्तु इसके समयके लेखोंमें इसके नामके आगे उक्त उपाधियाँ भी मिलती है। इसकाजामाता यमदच (उपवशत) इसका सेनापति था। कपमदत्तके पूर्व तितित लेखोंसे पाया जाता है कि इस ( ऋषभइत्त) ने मालपादालसि क्षत्रिय उत्तमभद्रकी रक्षा की थी। पुष्कर पर जाकर एक गाँव और तीन हजार गायें दान की थीं। मभासक्षेत्र (सोमनाथ-काठियाबार) में आठ ब्राह्मण-कन्याओंका विवाह करवाया था। इसी प्रकार और भी कितने ही गाँव तथा सोने चाँदीके सिक्के बाह्मणों और बौद्ध भिक्षुकों को दिये थे, सरायें और घाट बनवाये थे, कुएँ खुदवाये थे, और सर्वसाधारणको नदी पार करने के लिए छोटी छोटी नौकायें नियत चटन। ET .४५-17(ई.स. १२४.--१५ = _ वि. स.10.-१०७) के मध्य ) यह स्मोतिकका पुत्र था उसने नहपान समयमें नए हर क्षत्रपोंके राज्यको फिर कायम किया। नीमूगोठ टालेमी ( Ptoleray)ने अपनी पुस्तकमें चटनका उल्लेख किया है। यह पुस्तक उसने ई स १३० के करीब लिखी थी में यह भी लिग है कि इस समय पैठन, आन्धवशी राजा बसिष्ठीपुत्र श्रीपुलमाचीकी राजधानी थी। इससे प्रकट होता है कि प्दष्टन और उक्त पुलमावी समकालीन थे। चानके और इसके उत्तराधिकारियोंके सिक्कोंको देखनेसे अनुमान होता है कि चानने अपना नया राजवश कायम किया था। परन्तु सम्मुनत यद यश मी महपानका निकटका सम्वन्धी ही था। नासिककी चौगुफासे यासिपुर पुलमाधी समयका एक लेख मिला है। यह पुलमाडीके राज्यके १८वे या १९ वर्षका है। इसमें गौतमीपुत्र श्रीवातकार्णिको क्षहरत-चशका ना करनेवाला भीर शास्तथा स्म-वशको उन्नत करनेवाला लिखा है। इससे अनुमान होता है कि शायद बटनको गौतमीपुरने नहपानसे छीने हुए राज्यका सूबेदार नियत किया होगा और जाल में यह स्वाक्षन होमया होगा। . चनका अधिकार मालबा, गुजरात, कानियादाह आर राजपूतानेके कुछ हिस्से पर था। सीने उनको अपनी राजधानी बनाया, जो अन्त तक इसके वंशजोंकी भी राजधानी रही। इसके और इसके वाजोंक सिक्कोंपर अपने बापने नामों और अश -धियोंके सिवा पिताके नाम और उपाधियाँ भी लिखी होती हैं। इससे पता चलता है कि चटनका स्थापित किया हुआ राज्य क्षत्रम विश्वसेनके समय (ई० स०३०४) तक बराबर चलता रहा था। श० स. १२७ (0स ३०५) में उस पर क्षत्रप रुद्रसिंह द्वितीयका अधिकार होगया था । यह रुदसिह स्वामी जीषदामाझा पुत्र था। चटनके चाँदी और ताँबे के सिक्के मिले हैं। इनमें क्षत्रप उपाधिवाले चाँदीके सिक्कोंपर नादी अक्षरोंमें “राज्ञो क्षयपस समोतिमपुनस ..." और 'महाक्षत्रप उपाधिवालों पर " राज्ञो महाक्षपस समोतिक पुरस चष्टनस 11 पड़ा गया है । तथा खरोष्ठीम क्रमशः “रो छ.." और " चटनस" पढ़ा जाता है। हम पहले लिख चुके हैं कि नएनके और उसके बाजोंने सितागर त्य बना होता है । इससे भी अनुमान होता है कि इसकी राज्यपातिसे आनाका कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य ही था। क्योंकि नहपानको जीत कर आन्धवशी शातकर्णिने ही पहले पहल उक्त चैत्यका चिह्न उसके सिक्कोंपर लगवाया था ! __ पद्यपि चटनके तांबेके चौरस सिक्के भी मिले हैं। परंतु उन पर लिखा हुआ लेख साफ साफ नहीं पढ़ा जाता । जयदामा। [श. म.४६-७३(३. स. १२४-१५-नि १८१-२००)के मध्य] यह चटनका पुत्र था। इसके सिक्कों पर केवल क्षत्रप उपाधि ही मिलती है। इससे अनुमान होता है कि या तो यह अपने पिताके जीते जी ही मर गया होगा या अन्भोंने हमला कर इसे अपने अधीन कर लिया होगा । यद्यपि इस विषयका अब तक कोई पूरा प्रमाण, नहीं 'मिला है, तथापि इसके पुत्र सददामाके जूनागढसे मिले लेखोंने पिछले अनुमानकी ही पुष्टि होती है। उसमें रुदामामा स्वमुजबलसे महाक्षत्रय वनना और दक्षिणापथके शातकर्णको दो बार हराना लिखा है। जपदामाके सिक्कोंपर राजा और क्षप शब्दले सिवा स्वामी शन्द मी लिखा होता है। यद्यपि उन 'स्वामी' उपाधि लेखोंमें इसके पूर्व राजामांक नामंकि साथ भी लगी मिलती है, तथापि सिक्कोंमें यह स्वामी रुददामा दितीयसे ही वरावर मिलती है। जयदामाके समयसे एमके नामोंमें भारतीयता आ गई थी। केवल जद (सद) और दामन इन्हीं दो शब्दोंसे इनकी वैदेशिकता प्रकट होती थी। इसके तांबेके चौरस सिक्के ही मिले हैं। इन पर नाली अक्षरोंमें "राशो क्षपण स्वामी जगदामस" लिखा होता है। इसके एक प्रकारके और भी तांबेके सिपके मिलते है, उन पर एक तरफ हापी बोर दूसरा तरफ उनका चित्र होता है। परन्तु अब तकके मिले इस प्रकारके सिक्कों में माझी लेखका केवल एक आप अक्षर ही पढ़ा गया। इसलिए निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि ये सिक्के जयदामाके ही है या किसी अन्यके।

रुग्दामा प्रथम । [.. ७२(ई.स. १५०वि० स. २00)] यह जददामाका पुत्र और चाटनका पौत्र था। इनके वंशमें यह बड़ा प्रतापी राजा हुआ। इसके समयका शक-संवत् ७२ का एक लेख जूनागडसे मिला है। यह मिटमार-पर्वतकी उस चट्टानके पीछेकी तरफ खुदा हुआ है जिस पर मावशी राजा अशोकने अपना लेस खुदवाया था। इस सिस पाया जाता है कि इसने अपने पराकमसे ही महामनपकी उपाधि प्राप्त की थी तथा आकर (पूर्वी मालवा), अवन्ति (पश्चिमी मालवा), अनूप, आनत ( उत्तरी काठियावाड), सुराष्ट्र (दक्षिण काठियावाड), श्वभ (उत्तरी गुजरात ), मरु ( मारवाड), कच्छ, सिन्धु (सिन्ध), सौवीर (मुलतान), कुखुर (पूर्वी राजपूताना), अपरान्त (उत्तरी कॉकन), और निपाद (भीलोंका देश) आदि देशों पर अपना अधिकार जमाया था। इसने योद्धय (जोहिया) लोगों को हराया और दक्षिणके राजा शातकर्णीको दो बार परास्त किया । परन्तु उसे निकटका सम्बन्धी समझकर जानसे नहीं मारा। शायद यह राजा (पातिधीपुत्र) पुल मावी द्वितीय होगा, जिसका विवाह इसी रुदामाकी पन्यासे हुआ था। रुददामाने अपने आन और मुराष्ट्र के सूनेदार सुविशास द्वारा सुदर्शन झीलका जीर्णोद्धार करवाया था। उक्त समयकी यादगारमें ही पूर्वोक्त लेख भी खुदवाया था। यह राजा बड़ा विद्वान और प्रतापी था। इसे अनेक स्वमेवरीम राजगन्यानि वरमालायें पहनाई थी । इसकी राजधानी मी उफोन ही मी। परन्तु राज्य-प्रबन्धकी सुविधाके लिए इसने अपने राज्यके भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें सूबेदार नियत कर रखे थे। ___ रुददामाके केवल महाक्षत्रप उपाधिवाले चाँदीके सिक्के ही मिलते हैं। इन पर " राज्ञो क्षत्रपस जयदामपुत्रस राज्ञोमहाक्षपस ददामस" लिखा होता है । परन्तु किसी किसी पर “...जयवानपुत्रस..." बजाय "...जयदामस पुत्रस...." भी लिखा मिलता है।" इसके दो पुत्र थे । दामजद और स्वासह । सुदर्शन झील। उपर्युक्त झील, जिसकी यादगारमें पूर्वोलिखित लेख खोदा गया था, जूनागढ़ में गिरनार-पर्वतके निकट है । इसे मोर्यवंशी राजा चन्द्रगुप्त (ईसाके पूर्व ३२२ से २९७ ) के सूबेदार वैश्य पुप्याने बनवाया था। उक्त चन्द्रगुपके पौत्र राजा अशोकके समय ( ईसाके पूर्व २७२-२३२) ईरानी तुपास्फने इसमें से नहरें निकाली थी । परन्तु महाक्षनप रुदामाके समय मुवर्णसिकता और पटाशिनी आदि नदियोंकि प्रवाहसे इसका बांध टूट गया। उस समय उक्त राजाके पेझार सुविशाखने इसका जीर्णोद्धार करवाया। यह सुधिशास पदब-बंशी फुलापका पुत्र था । तया इसी कार्यकी यादगारमें उस लेख परमार पर्वतकी उसी चट्टानके पीछे खुदवाया गया था जिसपर अशोकने नहरें निकलवाते समय अपनी आज्ञाय खुदवाई थी। अन्त में इसका बाँध फिर टूट गया। तब गुप्तवंशी राजा स्कन्दगुप्तने, ईसवी सन ४५८ में, इसकी मरम्मत करवाई। - दामजश्री

(दामसद) प्रथम ! [- 1-1-1(ई. स. १५०-१७६-वि० सं० २०४-२३५)] यह रुद्दामा प्रथमका पुत्र और उत्तराधिकारी था । यद्यपि इसके भाई रुद्रसिंह प्रथम और भतीजे स्ट्रसेन प्रथमके लेखोंमें इसका नाम नहीं है तथापि जपदामाका उत्तराधिकारी यही हुआ था। इसके भाई और पुत्रके संववाले सिकोंको देखने में पता चलता है कि दामजद के बाद इसके भाई और पुत्र दोनोंमें राज्याधिकारके लिए झगडा चला होगा । परन्तु अन्तम इप्सका माई रुद्रसिंह प्रथम ही इसका उत्तराधिकारी हुआ। इसीसे रुदसिंहने अपने टेसकी यशावलीमें अपने पहले इसका नाम म लिख कर सीधा अपने पिताका ही नाम लिख दिया है। बहुधा वंशावलियों में लेखक ऐसा ही किया करते हैं। - इसने केवळ चाँदीके सिक्केही ढलवाये थे। इन पर क्षत्रप और महाक्षत्रप दोनों ही उपाधियां मिलती हैं। इसके क्षत्रप पापियाले मिचकोपर "रा महाक्षपस रुददामपुनस गोक्षापस दामध्यवरा" या "राज्ञो १८ महाक्षत्रपस काददामपुजस राज्ञ क्षत्रपस दामजदप्रिय" लिखा रहता है। परन्तु कुछ सिके ऐसे भी मिले हैं जिन पर “राज्ञो महाक्षयस्य रुद्रदान पुनस्य राज्ञ क्षत्रपस्थ दामस. "लिखा होता है। तथा इसके महाक्षत्रप उपाधेिवाले सिक्कों पर “राज्ञो महाक्षम्पस रुद्रदाम्नपुत्रस राज्ञो महाक्षत्रपस यामजनश्रिय लिखा रहता है। इसके दो पुत्र थे---सत्यदामा और जीवदामा ।

जीवदामा। [मा स० [ 0]-१२.३० सं० [४०]-१९८=वि. स. २३५-२५५)] यह दामजसका पुत्र और रुद्रसिहका भतीजा था । इस राजासे क्षत्रपोंके चाँदीकि सिकको पर सिरके पीछे ब्राह्मी लिपिमें बराबर संवत लिखे मिलते हैं। परन्तु जीवदामा मिश्र धातुके सिक्कों पर भी संवत् लिखा रहता है। जीवदामा दो प्रकारके चाँदी के सिक्के मिले हैं। इन दोनों पर महाक्षत्रपको उपाधि लिखी होती है। राया इन दोनों प्रकारके सिक्कोंको ध्यानपूर्वक देखनेसे अनुमान होता है कि इन दोनोंके ढलवाने में कुछ समयका अन्तर अवश्य रहा होगा । इस अनुमानकी पुष्टिमें एक प्रमाण और भी मिलता है। अर्थात् इसके चचा दासिंह प्रयमके सिक्कों से प्रकट होता है कि यह दो दफे क्षत्रप और दो ही दफे महाक्षत्रप हुमागा। इससे अनुमान होता है कि जीवदामाके पहली प्रकारके सिक्के रुद्रसिह के प्रथम चार क्षत्रप रएमे समय और दूसरी प्रकारके अपने रचा रदसिंहके दूसरी बार क्षत्रप होने के समय ढलबाये गये होंगे। जीपदानाके पाले प्रकार के सिक्का पर इररी तरफ “राशो महाक्षपस दाम अभियं पुत्रस राशो महाक्षपस जीवा " और सीधी तरफ सिरके पीने शक-मनट १ [+'+] लिखा रहता (1) सप एक सारे खगले मदार यमदी बने हैं। भारत के प्राचीन राजवंश- ________________

है । यद्यपि उक्त सवत् सट तौर से लिवा पड़ा नहीं जाता तथापि इसके बचा रुद्भसिंह प्रथमके सिक्कोंपर विचार करनेसे इसका कुछ कुछ निर्णय हो सकता है । म्द्रसिंह पहुली बार श० सु. १०३ से ११० तर्क और दूसरी बार ११३ चे ११८ या ११६ तक महाक्षप रहा या। इससे अनुमान होता है ॐि या तो जवामा इन हों पर शू० स० १०० से १०३ तइकें या ११० से ११३ तकके वच सयतू होंगे। क्योंकि एक समयमें दो महाक्षत्रप नहीं होते मैं । इन विझोके ले। आदि बहुत कुछ इसके पिता सिक्कों के रेसादसे मिलते हुए है। | इसके दूसरी करके मि ॐ पर एक तरफ * राज्ञो महासत्रास द्दामजद्म पुरस राज्ञो महाक्षपस जीवदामन" और दूसरी तरफ इश सु, ११९ र १२१ टिसा रडता है। ये 8 बड़े इसके पचा हि प्रथमके सिंकर्स बहुत कुछ मिटने दूर हैं। जीवदामा मिअधातुके घेयकों पर उसके पिताका नाम नहीं होता । केवल एक तरफ "ज्ञोमहाक्षेत्रपस जीवदामम" लिखा होता है और दूसरी तरफ शक-सवत् बिता रहता हैं जिससे अब तक केवळ ० १८ ११५ हीं पर मपा है । ज्ञान तक ऐसा एक भी स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है जिससे यह पता घलै 1 रुद्रGि के महाक्षत्रप रहने के समय आयामकी उपाधि क्या भी। | झसिंह प्रथम ! | [ • • •५- १५८, ११९ (ई. ए• १८०-१५६, १९॥ १-३० • ३१-३५१,५४ }} | प कद्दामा प्रपम' पुन और दमनका छोरा माई था। चा। और मिगतुके सि के निळे है। इसके पना मना है कि यह ० ० १०३-१०३ नफ क्ष और वा सु. १० ते ११• सई ________________

अन्नपचंश। महाक्षत्रप था । परन्तु ॥ ४२ ११० से ११२ सक अह फिर क्षत्रप हो गया था और श६ सु० ११३ से ११८ या ११५ सक दुबारी महाक्षत्रप रहा था। । अब तक इसका कुछ भी पता नहीं चला है कि सिंह महाक्षत्रप होकर फिर क्षेत्र क्यों हो गया । परन्तु अनुमानसे ज्ञात होता है कि सम्भवत् जामदामाने ठरु पर विजय प्राप्त करके उसे अपने अधीन कर लिया होगा। अयवी यह भी सम्भव है कि यह किसी दूसरी शक्तिके इस्ताक्षेपको फल हो । | रुदास क्षत्रप उपाघिबाले १ सय ११० के दले चौके किम जल्टी तरफ कुछ फरक है । अत् चन्नुमा, जो केि इस यशॐ प्रजाई सिङ्गों पर चैत्यकी थाई तरफ होता है, दाहेनी तरफ ३, और इस प्रकार दाईं तरफा सारमल याई तरफ है । परन्तु यह फरक श६ स० ११२ में फिर ठीक फर इया गया है । र यह नहीं कह सकते कि यह फरक यों ही हो गया था या किसी विशेष कापा वश किया गया था। रूद्धसिह पएली मारके क्षेइर्ष उपाधिवाले एक पर * ॥ महाक्षस रुद्दामपुर राज्ञोक्षपस रुट्सहस " और महाक्षत्रप उपाधिचाला परे * राज्ञो मनपस दादाम्न पुत्र राज्ञो महाक्षत्र पस छमएस* *यया कद्रदाम्न पुरस के स्थानमें ' सद्दामपुत्रस' लिखा रहता १। तया दूसरी चार वाजप उपाधेिवाले सिक्कों पर * राज्ञो महानपरा दग्नि इनमें राज्ञो क्षनपस रुईसीसे गई मनप उपाधिवाद्यों पर * राज्ञो महाक्षत्रपस कद्दामपुरस शो मापसे रुद्रसस " अयउ। 'कदामपुर' की जगह 'सद्भदाप्पुस' ला होता है । जया इन सरके दूसरी सरफ अम्वाः पूर्वोक्त शर्क-सत् लिखे इएले हैं। २१ ________________

मारतके प्राचीन राजबंश इसके मिश्रधातुके सिक्कों पर एक तरफ राज्ञो महाक्षबपस रुद्रसीहस" और दूसरी तरफ श० स० ११' x लिंवा मिलता है ।। इयं सिहके समय दो देश भी मिले हैं। इनमें से एक श० सं० १०३ की वैशाख शुक्ल पञ्चमीका है। यह गुंडा ( कार्डियावाई) में मिला है। इसमें इसकी उपाधि क्षत्रप लिपी है। दूसरा लेख चैत्र वा पद्यमीका है। यह जूनागढमें मिला है और इसका सवत् टूट गया है। इस लेतमें राजाका नाम नहीं लिखा । केवल जयदामा के पनका उल्लेख्न है । अत पूरी तोरसे नहीं कह सकते कि यह लैस इसका है। या इसके माई दामज्ञवफा है ।। इसके तीन पुत्र थे। रुसैन, संघदामी र डामसेन । सत्पदामा ।। [ सन्मवत • सु+ १११-१२ (६० सं० १५५ १ =वि० स= ३५१-२५५}} यह दानजी थमका पुत्र था। इसके क्षेप उपाधियाले चाँदीके सिक्के मिले हैं। इन पर एक तरफ * राजा महान पस्य दामजदयं पुत्रस्य रज्ञिो क्षतपस्य, रात्पदान" टिं। हता है । यह ३१ करीब करीब सस्त-रूपसे मिला हुआ है। इन सिक्का दूसरी एफ शक-यन् लिखा होता है । परन्तु अप तक एङ्ग से अगले अङ्क नहीं पन्ने गये हैं। | सत्यमार्क सिक्कों वि-मासे अनुमान होता है कि प तो यह अपने पिता दामन प्रश्रमके मजिप होने के समय क्षत्रप या या अपने भाई विद्ामा प्रपन बार महाभनय हुन समय । () मह | स्पष्ट नक्की पा जाता है। | (२) Ind Anal, Fal. *, ", 17, (१), t , 6, 1897. " !, ________________

क्षत्रय वंश । पिसने 'साहचका अनुमान है कि शायद यह सन्यदामा नवदामाका बढी भाई होगा। रुद्धसेन प्रथम [ मा ब्रम् १२१–१४४ (६० स० १६१-२२२३ म स० २५६-३७९ }] यह कृसिंह प्रथमका पुत्र थी । इसके चोंदी और मिश्रधातुके सिक्के मैिलते हैं । इन पर शक-संवत लिखा हुआ होता है । इनमैसे क्षत्रप उपाधिवाले चॅदीके सिकफ पर एक तरफ "राज्ञी महाक्षनपस रुट्सहसपुनम राज्ञः क्षत्रपस रुद्रसेनस " और दूसरी तरफ श० स० १११ या १२३' लिखा रहता है । तथा महाक्षप उपाधेिवालों पर उलटी तरफ "राज्ञो महाक्षत्रपस रुद्रसीस पुनस रात अहापस रुसेनस " और सीची तरफ श० स० १२३ से १४४ सर्कका कोई एक संवत् लिखा होता है। | इसके मिश्रधातुके #िकॉपर बैस नहीं होता। केवल श० १० १३१ पा १३३ होने विति होता है कि मैं नि भी इसी समयके हैं। कुसेनके सभपके दो 5G भी मिले हैं। पहला मूलवार ( बौदा राज्य ) गवर्ने मिला है। यह 5 से ०१२३ की वैशाख कृष्ण पञ्चमका है। इसमें इसकी उपाधि "राजा महाक्षत्रप स्वामी " लिखी है । दुसरा लेस जसघन ( उत्तरी काठियावाड़) में मिला है। यह श० स० १५५ (गा १२६ } की भाद्र कृष्णा पञ्चमीका है । इसमें एक झार चनमानेका वर्णन है। इसमें इनकी दशावळी इस प्रकार दी है (१) यद् ३ का ६ स्पष्ट पदा नहीं जाता है। (१) I A 5,1B90, 52, (1) J, R 4, 5, 1520, ________________

मारत प्राप्त राजबंश १ राजा महाविप भद्रमुख स्वामी चन २ राना क्षत्रप स्वामी जयदीमा ३ राजा महाझुप भन्छ स्याम कुद्दामा १ रन मात्रप भद्मः स्वामी सिंह ५ राजा महाक्षत्र स्वामी ट्रसेन । इसमें जयामा नाम के आगे ममुखर्की उपाधि नहीं है। इसका फारण शायद इस महाक्षत्रप न हो सङ्गना ही होगा । तपा पैदा पैशावलीमें दामद कौर जीवदामाका नाम ही नहीं दिया है । इसका कारण उनका स्री शारनामें होना ही है। रुद्रसेनके दो पुत्र थे । पृषीसेन और दामजश्री (द्वितीया )। प्रवर्मन ।। शि० भ० १rt (ई. • १३१ = नि• • १७९}] यह झुसेन हुनुका पुत्र या ।। इसके जल क्षनप उपाघिद्राले चाँदीके हैं। सि में मिले हैं। इनपर एक तरफ “रा महासनपस #नस पुन राशी अननस पूर्थिविना " और दूसरी तरफ न सं० १४४ लिई राता है। | पर राज्ञा क्षम्य ही रहा है । महाक्षत्रप न हो सका, क्यों? इसी वर्ष इसका पता मर गया और इसके दन्ना परमाने राज्यपर अपना अधिक झार कर दिया। (इस घाइ सन् १९५४ तर्फका एक मी कप उपाध्विनि €िा अब तक नहीं मिटा है।)

  • पदामा । [ • • १४r; १४५ (६• • १२, १५=वि• B+ १७५, १८•} यह रुद्र प्रमो पुन या 1

१४ । ________________

क्षबप-वेश । इसके केवल दकि महानप उपाधिबाले सिक्के हीं मिले हैं। इन | पर एक तरफ * राज्ञो महाक्षत्रप कुमास पुचस राज्ञो महाक्षत्रपस्य धाम्ना गौर दूस। सरफ श० सं० १४५ १५५ लिदा होता है। श० सं० १४४ में इसका बड़ा माई रुद्रसैन प्रथम और श० सं। १४५ में इराफा उत्तराधिकारी दामसेन महाक्षत्रप था 1 अतः इसका राज्य इन दोन वर्षों मध्यमें ही होना सम्भव है। शमसेन । [६० सं० १४५---१५८ ( ई० सु. ३३३-२३६=वि० सं० १८०-२५३)] यह रुद्रसिंह प्रयमका पुत्र था। इसके चॉदी जोर मिश्रघातुके सिक्के मिलते हैं। चादीके सिक्कों पर उलटी तरफ" राज्ञी भक्षत्रप साहू उस राज्ञी महाशत्रपसे दामसेनस " और सीधी तरफ श० सं० १५५ से ११८ तक का फोई एक संवत् लिङ्गी रहता है । इसमें प्रकट होता है कि इसने श० सं० १५८ के करीब तक र राज्य किया था। क्योंकि इसके बाद वा० सं० १५८ र १६१ के बीच ईश्वरदत्त सहाक्षत्रप हो गया था । इस ईश्वरदत्त रिकों पर दाक-संवत् नहीं लिखा होला । कैयह उसका राज्य-वर्ष ही लिंगा रहता है । | श० सं० १५१ के दामनके चादीके सिक्कों पर भी { सिंह प्रथमके क्षय उपाधिशले १ ६ ११० के चांदी के स्किॉझी झरह) चैत्यकी बाईं तरफला चन्द्रमा दाई तरफ और दाईं तरफ़ा तारामण्डल बाई तरह होता है। | इफे मिला 10वकों पर नाम नहीं होता कंबल वित्री हो जाना जाता है कि ये सिक्के भी इसके समपके हैं। इसके चार पुत्र थे । यरिदभा, यशोदामा, विजयसेन और दामादर्भ ( प्राय)। ________________

भारतके प्राचीन राजर्वेश दीमजश्री ( द्वितीया )। [श० सं० १५४, १५५(३• स० २३३, २३३=मि सुं० २८, २९० }} '. यह दसैन अयमका पुत्र था। | इन सकसे पता चलता है कि यह अपने चचा महाक्षत्रप दानसेनके समय डा० सं० १५४ और १५५ में वर्ष थी । इसके क्षत्रप उपाधिशाळेचॉदीके रि मिले हैं। इन पर एक तरफ़ * राज्ञो महाक्षत्रपस रुदसैनपुन्नस रातः क्षेत्रपरा दाजश्रियः " और दूसरी तरफ झ० सं० १५५ मा १५५ क्लिकवा होता हैं । । ये सिरे भी दो प्रकार के होते हैं । एक प्रकारके सिक्कों पर चन्द्रमा, और तारामण्डल नमः चैत्यके बारें में दाएँ होते हैं और इस सरहके सिक्कों पर क्रमशः दाएँ और वाएँ । | वीरदामा । [ ६० सं० १५६-१६० (६० स० २३१-२३५=१० सं०२५१-१५)] यई दामना पुत्र था । ।। इसके क्षत्रप उपाधिचाले चादीके सिक्के मिले हैं। इन पर जी तरफ * tो महाक्षस दामसेमस पुर्वस राज्ञः क्षत्रपस वीरपामः ॥ और धी तर ० सं० १५६ के १६० नाकका कोई एक संवत् लिखां रहता है। इसके पुत्र नुनि कुदन (द्वितीय) या ।। ईश्वरत् ।। [ j० १५८ ! ११ (३० • १३५ ॥ ३३= विम, सं० १५१ औं २८६) ६ मयं ।। | इसके मामले और इसके सिमें दिये हुए राज्य-मॉरी अनुमान होता है कि यह प्यासित घटनके यशोमं न म । इसका नाम ________________

---...-.-=- = - = যাধুলা ক্লিক 1८ स्वःमी दन तृतीय। कन्नर 13 मी #िहसेन । २१ स्वामी रात्यसिंह २• स्वामी ससेम तुर्थ ३२ स्तमी खर्चिद् अतीय । - नीट-जिन नामके धागे १ रौ ३१ तरुके अ लिखे ३३ महाप हुए थे। धीर जो पल दानप ही रहे थे उनके नाम आगे कुछ नहीं लिखा है । परन्तु जी ने तो महानप दी हुए और न क्षत्रप ही उनके नाम भागै हारेका *} चिन्न नगर दिला गया है। ( पृष्ठ ३१) ________________

क्षत्रप-चश। और राज्य चर्पोकं लिखनेक प्रणाली भीर-राजाऑसे मिलती है, जिन्होंने नासिक अन्य राजा राज्यपर अधिकार कर लिया था । परन्तु इसकै नामके आगे मेहनपकी उपाधि ' होने अनु| मान होता है कि शायद इसने नमाके राज्य पर हमला कर विजय प्राप्त की हो,' जैसा कि ५० मचानलालू इन्द्रजीका अनुमान है ।। | सन ने ईश्वरदसके सिक्कों पर राजा मस्तकी बनावठसे और अक्षरोंकी लिखावटसे इसकी समय श० स० १५८ और १६१ के वच निश्चित किया है। | क्षश्रर्पोकि सिपको देखनैसे भी यह समय ठीक प्रतीत होता है, करके इस समय चचके महाक्षतपय एक भी सिक्का अब तक नहीं मिला है। ईश्वरवक्के पहले और दूसरे राज्य वर्धके सिक्के मिले हैं। इनके पहले वर्षवापर उलटी तरफ “राज्ञो महाक्षत्रपस ईश्वरदत्तस वर्ष प्रथमे” और सभी तरफ राजाकै सिरके पीछे १ का अङ्क लिखा होता है। या दूसरे के कॉपर उलटी तरफ * शो मक्ष पर धरवत्ता पर्ने द्वितीये में और सीधी तरफ २ का अङ्क लिसा रहता है । यशोदामा ( प्रथम }। शि० स० १६०, १६१(३० स० ३३८, २३९=fa • ३९५, २९,६ }]। यह वीमसेनफा पुत्र था और अपने माई क्षत्रप चीरदामाके बाद श (१) र शियसकै पुत्र ईश्वरसैनके राज्मकै २३ नासिकाहा छैन (En tod, Vo VIII, P 88 ) ( JRA S, 1800, p 057 () Bapao, Catalogan at the Andhra and Sabatrapa dydagilas ole, p OXXXY ________________

भारतर्फे प्राचीन राजवंशसं० १६० में ही त्रिप हो गया था, क्योंकि इस वर्षके इॐ माईके मी क्षत्रप उपाधैिवाले सिक्के मिले है । | यशोदामाके दानप उपार्थिवाले चाँदीकै सिकॉपर उड़ी सरफ “राज्ञों महाक्षतपस दामन पुत्रस राशः क्षत्रप पशाप्त ” और आँधी सरफ शः सं० १६० डिसा होता है। इसके महाक्षप उपाधवाळे सिझे मी मिळते हैं । इससे प्रकट होता है। कि दादव द्वारा छीनी गई अपनी वश-परपरागत महापकी उपाधि| को श० ऋ० १६१ में इसने फिरसे प्राप्त की थी। इस समयके इस सिक्का पर उलटी तरफ ** स महाक्षत्रपत अमरोनस पुत्रप्त शो महाक्षत्रपस यौदाद " और सीची तरफ शः ० १६१ लिया मिलता है । | विजयसेन । [ ० रा ० १६०-१५२ (ई• सु० २३८-३५०वि० सं० १५५-३•v}। यह दामनका पुन और पीरदाम तथा यशोदामाका भाई था । इसने भी शक-संचन् १६० के क्षत्रप उपाधेिवाले चाँदीके सि मिले हैं। इस सवतकें इसके पूर्वोक्त दोनों भाईयोंके मी अनप उपार्थिवाले सिके मिले हैं। विजयसेन इन सिों पर एक तरफ रातो भड़ानन्यस दामनपुस राज़ क्षपस विजयसेनम” अन दूसरी तरफ शक है। १६० किंवा रहता है ।। | शक-स० १६५ से १७२ सक इमन्ने भानप उपाधिबाले सिके भी मिले हैं। इन पर एक तरफ राज्ञो महाङ्कनमग्न दामनपुत्रस रातो महाइपिस विज्ञपसेनस' लिखा रहता है, परन्छ अभी तक यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि शके १६१ में यह क्षत्रप ही था या माप हो गया था। मीशा है उक्त संबई इसके साफ सि मिल जाने पर | यह गईमट्ट मिट जायगी । ________________

विपश। विजयसेनके शङ्क-सं० १६७ र १६८ के द्वले सिकॉमें लेकर इस वहाक समाप्ति तक छिमें उत्तरोत्तर कारीगरीका हास पाया जाता है । परन्तु बीचमचमें इस ह्रासको दूर करने चेष्टाका किया जाना भी प्रकट होता है । दामजश्री तृतीय । [ ३०-० १७३( या १५३ }-१७६१ ३० स० २५० } { । ३५१ } ३५४==३० सं० ३०५ ( या ३०८ -३११ )] यह दामसेनका पुत्र था और श० सं० १७२ या १०३ में अपने भाई विजयसेन। उत्तराधेिझा हुआ ! | झाके महाक्षत्रप उपाधैिवाले चाँदीके सिके मिले हैं। इन पर उलट्टी तरफ 4 राज्ञ मापस दामसेनपुत्रस ज्ञरे महाक्षत्रपस दामजदयः या *... भिय" -और सांघी तरफ संवत् लिखा रहता हैं । रुसेन द्वितीय । 1 माफ-सं। १५८ {{}--१६ १ ई० स० २५६ (3)—२४ Ef३० सु ||१३ --३३१)] यह चीरदानका पुत्र और अपने चचा दामजदुश्री तृतीयका उत्तरधिकारी यो । इसके इसपर बयत साफ पड़े न जानेके कारण इसके राज्य-मयका निशत करना कठिन है । इसके सिरपरका सबसे पहला दत् १६ र १६९ के बीचका और विरी १९६ होना चाहिए । इसके माप उपाधेिवाले चाँदीके सिक्के मिले हैं । इन पर उटी तरफ * राशः क्षपस रामपुत्रस शो .महाक्षत्रपस रुद्रसेन्स " और सीधी तरफ शक-६० लिसा रहता है । शके पुत्र थे । बिड न भर्चुदामा । ________________

भारतके प्राचीन राजवंश विसंह। १९९-२० ५(३० सं० १७७-२५ X =जिस* [ शक- मह रुद्रुसेन द्वितीयका पुत्र या । यह शङ्क-संवत् १९९ और २०० में क्षत्रप या और श-स २०१ में शायद महाक्षत्रप हो गया था। उस समय इसका माई भद्मा क्षत्रप था, जो शक सं० २११ में महान हुआ । इसके सिक्झोंपर संदद साफ नहीं पड़े जाते हैं। ' इसके क्षत्रप उपार्थिवाले सिंक्कों पर उलट्री तरफ 4 राज्ञो महाक्षरपस स्दसेनपुत्र राको क्षेत्रास ववसीहस” और महाक्षत्रप उपर्धवालों पर 4 राज्ञो महाक्षत्रप सेनपुसि राज्ञो महापस बीवीस " हिवा होता है । तया मधी तरफ की तरह ही संवत् जगदि होते हैं। भद्दामा । [ श० स० ३०१-२१ ( ० रा ३७१-२५५ =•ि यू०१६-२५३) | यह रुद्रौन हितोयका पुत्र था और अपने भाई विवसिंहका उत्तराधिकारी हुआ । इ० सं० २०१ में यह क्षत्रप हुमा और कमसे कम श ६० ३०४ तक अवश्य इस पद पर रहा या । तथा श० से २११ में महाक्षत्रप हो चुका था । उक्त सैवत वाघ साफ शबवाले सिकके न मिल्ने कारण इन चातका पूरा पूरा पता लगाना कठिन है कि उक्त संवा घमें कम सङ्ग यह क्षत्रप रहा और झर्व महाशार्प मा। इसने श०सं० २१५ तक क्या किया था। इसके उप उपाधिवाळे सिक्कों पर इट्टी इरफ “ग महाशत्रपसे झनपुगस राज़ क्षत्रपस मर्तृदाश." और महाक्षत्रप पार्थिवालौंपर

  • राज्ञों रुक्षपस रुद्रनुपुनर्स को महासपिस भदामः' लिग मिला है।

(१) यह भी साफ नहीं हो जाता है। ________________

क्षत्रय-चंश । इसके सिक्फोसे पहले सिक्के तो इसके भाई विश्वसिहके सिक्कों से मिलते हुए हैं और शु०-६० २११ के बाद इसके पुत्र विश्वसेनके रसेवक से मिलते हैं । इसके पुत्रका नाम विरुष सैन थे । विश्वसेन । [ ०-० ३१६-२२६(३० १० ११४-३०४=वि सु. ३५१-३६१}] | यह मदामाका पुत्र था । इसके श०सं० २१६ से २२६ तक नप उपापियले चाँदीके सिक्के मिले हैं। इन पर 4 राज्ञो महाक्षत्रपस भवामपुत्रस राज क्षपस बिज्ञसेनस लिखा होता है । परन्तु इन सिवपके सन् विपत्र स्पष्ट नहीं मिले हैं। दूसरी शापा । पूर्वोक्त बप विश्वसेंनसे इस शाखाकी समाप्ति होगई और इनके राज्यपर, स्वामी जबदामा बशजका शिकार हो गया । इस जीवापाकै नाम के साथ स्वामी' शब्दके या 'जा' क्षत्रप' या *भाष की एक । उपधं नहीं मिलती, परन्तु इसकी जमकी उपाधिसे और नामके पिछले भाम 'वामा' दफे होनेसे अनुमान होता है कि इसके और पहनके वंशजकै आपसमें कोई निकटका है सम्बन्ध था। सम्भवतः यह उसी वशीं छोटी शाखा ही तो अभी नहीं । | मुक्त क्षेत्र नके वर्षों में यह नियम था कि राजाकी उपाधि महाक्षत्रप और उसके युवराज या उत्तराधिकारीकी क्षमप होती थीं। परन्तु इस (यानी वदामा) के वैशमें श०सं० २७० तक यह नियम नहीं मिलता है। पहले पहल केच इत्ती (२४० ) संवत् स्पभी संदसेन तृतीयके सिक्कों पर उसके पिता नामके साथ 'महाक्षनेप' उपाधि । भिल है । ________________

भारतके प्राचीन राजवंश महाजप उपाधिकाले उक्त समय के सिक्कों ने मिलनेसै मह भी अनुमान होता है कि शायद उस समय इस राज्य पर किसी विदेशी शक्तिक चाई हुई है और उसका अधिकार हो गया है। परन्तु जब तक जन्य किसी धेशके इतिहाससे इस बातकी पुष्टि न हो तब तक यह निपथ सन्दिग्ध न रहेगा । रुद्रसिंह द्वितीय । 1-सु-२३५–१३»'(ईस ३०५-३१=वि० सं० १६ २-३६+ । यह स्वामी जयघामाका पुत्र था। इसमें सबसे पहले श०सं० २ २७ के क्षत्रप उपाधेिशले चौदीके सिंझे मिले हैं और इसके पूर्व श०सं० २६ तक के क्षत्रप विश्वसेन सिंझे मिलते हैं । अतः पूरी तो नहीं कह सकते कि यह रुद्रसिंह द्वितीय श०सं० २२६ में ही शत्रप होण्या था या श०सं० २२ में हुआ था। | j० २३९ के इस उत्तराधिकारी क्षत्रप यौदामा सिके | मिले हैं। अतः यह स्पष्ट है कि इरफा अधिकार इ०-६२२६ या २२७ से आरम्भ होकर इ०- १३३ ६ समाप्तिके पूर्व किसी समय तक रहा था। प्त निकों पर एक तरफ “वानी विदामपुर राज नपरी रुद्रसिंहसः' और दू तरफ मस्तके पीछे संवत् लिपा निलता है। इसके पुत्रका नाम यशोदामा या। यशोदामा द्वितीय ।। [ ६०- २३१-२५४१६••३१७-११= १० १७४-८५ }] यह राह द्वितीया पुन या । इसॐ श० सं० २३९ से ११४ सक्के गाँदी के 8 ॐ हैं। इन पर "n पस रामपुनम - | ( 1 ) इसके सिर में केस ३११ कई : सत् (पए पो गर्दै ६। अग प्त : साफ नहीं हैं। ________________

क्षेत्रप-बंश । क्षबपस यशोदाइ' लिखा रहता है । किसी किंसीमें 'दाम्नः' में विसर्ग नहीं लगे होते हैं। स्वामी रुद्दामा द्वितीय । इसका पता केवल इसके पुत्र स्वामी रुद्रसेन दृतीयके सिक्कों से ही | मिलता है। उनमें इसके नामकै आगे ‘महाक्षत्रप' की उपाधि लग हुई है। मदामाकं याद पहले पहल इसके नामके साथ महाक्षेपकी उपाधि सी मिली है। | स्वामी जीवदामा बंशजोड़े साथ इसका क्या सम्बन्ध था, इस बातका पता अब तक नहीं लगा है। सिक्कम दस राजाके और इसके वंशजों के नाम के आगे * राजा महाक्षत्रप वाम ' की उपाधियों लगी | होती हैं । परन्तु स्वामी सिंहसेनके कुछ सिक्कमें 4 महाराजाप स्वामी ' की उपाधियाँ गी है। इसझे एक पुत्र और एक कन्या थी। पुत्रका नाम स्वामी रुदसेन था । स्वामी रुद्रसेन कृतीय। | (शः १० २०७०-३•• (६० स० ३४८-३७८=नि० सं० ४०५-४३५) यह रुद्दामा द्वितीयका पुत्र था। इसके चादीके सिक्के मिले है। इन पर इ० सं० २७० से २७३ तकफे और श० सं० २८६ में ३०० तक संवत् लिखे हुए हैं। परन्तु इस समयके च १३ वषा सिव’ अत्र तक नहीं मिले हैं । इम खिपिर एक तरफ 4 राज्ञ महाक्षनपस स्वामी केंद्रामपुत्रग्न राज्ञमक्षपस स्वामी सनस " और दूसरी तरफ सेंवत् लेखा रहता है। इन सिक्का असर आदि बहुत ही बुरी अवस्थामें होते हैं। परन्तु पिळे समय कुछ सिक्केपर में साफ साफ पड़े जाते है । इस अनमान होता है कि उस समय अधिकारियको भी इस नाता गय हुआ होगा कि यदि अक्षरों वृशा सुE न गई और इस प्रकार उत्तरोत्तर पिगढ़ती गई तो कुछ समय बाद इना पड़ मा कठिन हो जायगा । ________________

आरतके प्राचीन राजधा ८ सं० २० से ३८६ तक १३ वर्षके सिंकी न मिलने से अनुमान होता है कि उस समय इनके राज्यमें अषय ही कोई चडी पहुबह मचा होगी, जिससे सिक्के द्वमानेका कार्य बन्द हो गया था। यही अवस्था पप यशदामा द्वितीय और महाक्षनरी स्वामी रूद्दीमा द्वितीय राज्यके बीच भी हुई होगी ।। | श०स० २८० से २९४ तकके कुछ सीमेॐ चकोई सिक्के मिले हैं । ये क्षत्रप सिकॉमें मिल्ने हुए हैं। हैं । इनमें कुँवल विशेषता इतनी ही है कि इ तरफ चैत्य नाचे ही सपत लिखा होता है। परन्तु निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि ये पिके स्वाम रुद्रसेन तृतीयके ही हैं या इसके राज्य पर हमला करने वाले £िसी अन्य राजाके हैं । स्वामी सिंहसेन । [ १ सय ३५४+३+ +' । ३० स० ३८३ +1८17 * = वि सुरु |४३९-४११) । यह स्बा। रुद्रसेन तृतीयका मानना था 1 इसके महजप उपा-ि चाले यदीके सिक्के मिळे हैं । इन पर एक तरफ “रा महाक्षरपस स्था रोगस राज महापस स्वस्निपरुप स्वामी सिन या *"महाराज क्षत्रप वा कुद्न स्ववियस रास महापस यामी सिंहसेनस्य ? और इस तरह श-स६ ३०४ सिा रहता है। परन्तु एक सिक्के प ३९६ मी पी जा सका है। इसके सिक्कों परके अक्षर चहुत ही जरव हैं। इससे इसमें नीम के पटने में प्रेम हो जाता है, क्या इसमें लिसे 'ह' और ' न ! मैं (१) J ] f] [ A. E, Je , 1259 ), 23 Typ catalogu not the Addora and Kalatrap dyeasts, (१) यइ भइ साप नही पूरा वादा है। (v) Iluon catalogue of 11. COLD1 ot Arder and kitara draattyi OXLYI ________________

क्षन्न-वंश । अन्तर प्रतीत नहीं होता हैं अतः 'सिंह' को “ सेन' और 'सेम' को सिंह भी पढ़ सकते हैं। हम पहले लिख चुके हैं कि इसके कुछ सिक्कों पर राजा महाक्षत्रप ” | और कुछ पर "महाराजा क्षत्रप” लिखा होता है। परन्तु यह फना फाउँन है कि उपर्युक्त परिवर्तन किसी खास वेवसे हुआ था या यही हो गया था । यह भी सम्भव है कि महाराजा'की उपाधिको नकळे इसमें अपने पीस-यक्षिण वैकुटक राजाओं के सिक्के का है; क्योंकि ६० स० ३४९, में इन्होंने अपना बैंकृटक संवत् प्रचलित किया था। इससे प्राप्त होता है कि उस समय कूटका प्रभाव छूय बढा हुआ था। यह भी सम्भव है कि ये फूट राजा ईश्वदृप्तके उत्तराधिकारी / अरि इन्हीं |चढ़ाई अइिके कारण रुद्रुसेन तृतीय राज्यमें १३ वर्षके लिये और उसके पहले (श० सं०२५४ और २७६ के बीच) भी रोक्के झालनर बन्द सिंहसेन के कुछ सिक्कों में संवत् अङ्कके पहले 'य' लिखा होने का अनुमान होता है। इसके पुत्रमा नाम स्वामी रुइसेंन था । स्वामी इमेन चतुर्थे। [ ०-० ३०४-३३० (३" स• ३८३-३८=वि० सं० ४३१-४४५) के बीच ] यह स्वामी चैनको पुत्र और उत्तुचेका था । इसके चहुत थी। चाँईके सिक्के मिले हैं। इनपर *राज्ञ महाक्षपस स्वामी हिम पुस (राश हुक्षन्नपस लामा रुद्रेनर' लिखा होता है । इसके सिंह को पर अर ऐसे पात्र हैं कि इनमें जाके नाम अगले दो अक्षर 'रुद अन्दसे ही पंई गये हैं। इन सिक्कपरके संवत् भी नहीं पड़े जाते । इसलिए इसके ग्य-सगया पु पोरसे निश्चित करना है।केंपळ Rapoa's catalogao ot the corns at the Atlet ad Flissaya lyrusty [ 0 YIII. ३५ ________________

मरिसके प्राचीन राजवाइसके पिता सिंहनके सिक्कोंपर श०-०३०४ र इसके बाद स्वामी रुद्रसिंह तृतीय धिकॉपर संपर विचार छाने इसका समय श०सं० ३६४ र ३१६ के बीच प्रतीत होता है । स्वामी सत्याह । इसका पता केवले इसके धुर स्वामी सदसिंह सीप सिकसे लगता है ! अतः यह कहना भी कठिन है कि इसका पूर्वोक्त शापा क्या चुम्वन्ध थः । शायद यह स्वामी सिहसेनका भाई हो । उस समय भी श० स० ३०और ३१० के बीच हैं किसी समय हो । स्वामी रुद्सिंह तृतीय । [मन्स० ३१४१(१०स०३८८ =» ०४४५.?)] | यह भी राय एका पुन और इस वंशका अन्तिम अधिकारी या । इस चॉदी के सिकेकॉपर एक तरफ 4 राज्ञो महापस स्वामी सत्संहपुनस रात महापंपस स्वामी रुद्रसिंहरा" और दूसरी तरफ श० स०३१५ लिसा होता हैं । समाप्ति । साफ तौरा शताब्दीके उत्तराधसे ही गुप्त राजाभका प्रभाव बढ़ र था और राम्रो के मार से पररवे राजा उनकी ना रुकार करते जाते थे 1 इलाहाबादके समुद्रगुप्त के लैस पता चढ़ता है । शक लोग भी उस ( समुद } व सेवा में रहते थे। ई० स० ३८०६ रामुद्रगुप्त पुत्र चन्द्रगुप्त गद्दी पर बैठा । इसने ई० से ३८८ के आस पास रहें सह

  • राज्यको भी नझर अपने राज्यमें भेजा इलैया और इस हर भारतमें शक ज्यही समाप्त हो गई।

(१) यह भ६ साफ़ नई पहा जाता है। ३६