भारत के प्राचीन राजवंश

भारत के प्राचीन राजवंश  (1920) 
विश्वेश्वरनाथ रेउ

पृष्ठ १ से – ५ तक

 

समर्पण ।

जिनकी कृपासे

आज मुझे यह पुस्तक लेकर

मातृभाषा-हिंन्दीके प्रेम विद्वानोंकी

सेवामे

उपस्थित होनेका मौका मिला है;

उन्हीं

राजपूताना म्यूजियम, अजमेरके

सुपरिटैण्डैण्ट.

रायबहादुर पण्डित गौरीशंकर ओझाको

यह तुच्छ भेंट

सादर और सप्रेम

समर्पित करता हूँ ।


निवेदन ।




समस्त सभ्य जगत् में इतिहास एक बड़े ही गौरवकी वस्तु समझा जाता है; क्योंकि देश या जाति की भाषी उन्नति का वही एक साधन है । इसके द्वारा भूतकाल की घटनाओं के फलाफल पर विचार कर आगे का मार्ग निष्कण्टक किया जा सकता है। यही कारण है कि आजकल पश्चिमीय देशों में बालकों को प्रारम्भ से ही अपने देश के इतिहास की पुस्रतकों और माहत्माओं के जीवन चरित पढ़ाये जाते हैं। इसी से वे अपना और अपने पूर्वजों का गौरव अच्छी तरह समझने लगते है । हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है कि जहाँ के निवासी अपनी मातृभाषा-हिन्दी में देशी ऐतिहासिक पुस्तकों के न होने से इससे वंचित रह जाते हैं और आजकल की प्रचलित अँगरेजी तवारीखों को पढ़कर अपना और अपने पूर्वजों का गौरव खो बैठते हैं। इस लिए प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है कि जहॉ तक हो इस त्रुटिंको दूर करने की कोशिश करे।

प्राचीन काल से ही भारतवासी धार्मिक जीवन की श्रेष्ठता स्वीकार करते आयें हैं और इसी लिए वे मनुष्यों का चरित लिखने की अपेक्षा ईश्वर का या उसके अवतारों का चरित लिखना ही अपना कर्तव्य समझते रहे हैं। इसी के फलस्वरूप संस्कृत-साहित्य में पुराण आदि अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं। इनमें प्रसंगवश जो कुछ भी इतिहास आया है वह भी धार्मिक भावों के मिश्रण से बड़ा जटिल हो गया है। ईसा की चौथी शाताव्दी के प्रारम्भ में चीनी यात्री फाहियान भारत में आया था। इसकी यात्रा का प्रधान उद्देश्य केवल बौद्ध धर्म की पुस्तको का संग्रह और अध्ययन करना था। इसके यात्रा वर्णन से उस समय की अनेक यात्राओं का पता लगता हे। परन्तु इसके इतने बड़े इस सफरनामे में उस समय कें प्रतापी राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाम तक नहीं दिया गया है। इससे भी हमारे उप्युर्क्त लेख (प्राधीन काल से ही भारतवासी मनुष्य-चरित लिखने की तरफ कम घ्यान देते थे) की ही पुष्टि होती है।

इस प्रकार उपेक्षा की दृष्टि से देखे जाने के कारण जो कुछ भी ऐतिहासिक सामग्री यहा पर विधमान थी, वह भी कालान्तर में लुतभाव होती गई और होते होते दशा यहाँ तक पहुँची की लोग चारणों और भाटों की दृन्तकथाओं को ही इतिहास समझने लगे।

आज से १५० वर्ष पूर्व प्रसिध्द परमार राजा भोज के विषय में लोगों की बहुत ही कम ज्ञान रह गया था। वृन्त कथाओं के आधार पर वे प्रत्येक प्रसिद्ध विद्वान को भोज की सभा के नव रतनों में समझ लेते थे। और तो क्या स्वयं भोज प्रब्रन्धकार बल्लाल को भी अपने चरितनायक का सच्चा हाल मालूम ना था। इसी से उसने भोज के वास्तविक पिता सिन्धुराज को उसका चचा और चचा मुंज को उसका पिता लिख दिया है। तथा मुंज का भोज को मरवाने का उद्योग करना और भोज का "मग्न्धाता स मदीपतिः" आदि लिखकर भेजना बिलकुल बे-सिर-पैर का किस्सा रच डाला है। पाठकों को इसका खुलासा हाल इसी भाग के परमार-वंश के इतिहास में मिलेगा।

परन्तु अब समय ने पलटा खाया है। बहुत से पूर्वीय और पश्चिमीय विद्वानों कै संयुक्त परिश्रम से प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री की खासी खोज और छानबीन हुई है। तथा कुछ समय पूर्व लोग जिन लेखोको धनके बीज और ताम्र-पत्र को सिद्धमन्य उमझते थे उनको पड़ने के लिए वर्णमालाएँ तैयार हो जानेसे उनके अनुवाद प्रकाशित होगये हैं। लेकिन एक तो उक्त सामग्रीके भिन्न भिन्न पुस्तकों और मासिकपत्रोंमें प्रकाशित होनेसे और दूसरे उन पुस्तकों आदिकी भाषा विदेशी रहनेसे अँगरेज नहीं जाननेवाले सँस्कृत और हिन्दी विद्वान् उससे लाभ नहीं उठा सकते। इस कठिनाईको दूर करनेका सरल उपाय यही है कि भिन्न भिन्न स्थानों पर मिलनेवाली सामग्रीको एकत्रित कर उसके आधापर मातृभाषा हिन्दी में ऐतिहासिक पुस्तके लिखी जॉय। इसी उद्देश्यसे मैंने 'सरस्वती' में परमारवंश, पालवंश, सेनवंश और धान्नपवंशका तथा काशीके 'इन्दु' में हैहयवंशका इतिहास लेख रूपसे प्रकाशित करवाया था और उन्ही लेखको चौहानवंशके इतिहास-सहित अब पुस्तक रूपमें सह्रदय पाठकोंके सम्मुख उपस्थित करता हूँ। यद्यपि यह कार्य किसी योग्य विद्वानकी लेखनी द्वारा सम्पादित होनेपर विशेष उपयोगी सिद्ध होता, तथापि मेरी इस अनधिकार-चर्चाका कारण यहीं हैं कि जबतक समयाभाव और कायधिक्य कारण योग्य विद्धनोंको इस विषयकों हाथमें लेनेका अवकाश न मिले, तब तकके लिए, मातृभाषा-प्रेमीयोका बालभाषितसमान इस लेखमाला से भी थेाड़ा बहुत मनोरंजन करने का उद्योग किया जाय।

यह लेखमाला १९१४ से सरस्वती में समय समय पर प्रकाशित होने लगी थीं। इससे इसमें बहुत से नवव्विकृत ऐतिहासिक तत्वों का समावेश रह गया है। परन्तु यदि हिन्दी के प्रेमियों की कृपा से इसके द्वितीय संस्करण का अवसर प्राप्त हुआ तो यथासाभ्य इसमे की अन्य त्रुटियों के साथ साथ यह त्रुटि भी दूर करने का प्रयत्न फ़िया जायगा।

इन इतिहासो के लिखने में जिन जिन विद्वानों की पुस्तकों से मुझे सहायता मिली है उन सबके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना मै अपना परम कर्त्तव्य समझता हूँ। उनके नाम पाठकों को यथास्थान मिलेंगे।


जोधपुर

आषाढ़ १५ वि० सं० १९७७

१ जुलाई १९२० ई०

निवेदक - विश्वेश्वरनाथ रेउ ।



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