भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र/5
(६८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र "श्री ब्रजराज समाज को तुम सुन्दर सिरताज । दीजै टिकट नेवाज करि नाथ हाथ हित काज॥" (२२ जनवरी १८७४) स्वय इस समाज मे तदीय नामाङ्कित अनन्य वीर वष्णव की पदवी ली थी। उसका प्रतिज्ञा पत्र यहाँ प्रकाशित होता है -- "हम हरिश्चन्द्र अगरवाले श्री गोपालचन्द्र के पुत्र काशी चौखम्भा महल्ले के निवासी तदीय समाज के सामने परम सत्य ईश्वर को मध्यस्थ मानकर तदीय नामाङ्कित अनन्य वीर वैष्णव का पद स्वीकार करते है और नीचे लिखे हुए नियमो का प्राजन्म मानना स्वीकार करते हैं १ हम केवल परम प्रेम मय भगवान श्री राधिका रमण का भी भजन करेंगे २ बडी से बडी आपत्ति में भी अन्याश्रय न करेंगे ३ हम भगवान से किसी कामना के हेतु प्रार्थना न करेंगे और न किसी और देवता से कोई कामना चाहेंगे ४ जुगल स्वरूप मे हम भव दृष्टि न देखेंगे ५ वैष्णव मे हम जाति बुद्धि न करेंगे ६ वैष्णव के सब प्राचार्यों में से एक पर पूर्ण विश्वास रक्खेंगे परन्तु दूसरे प्राचार्य के मत विषय मे कभी निन्दा वा खण्डन न करगे। ७ किसी प्रकार की हिंसा वा मास भक्षण कभी न करेंगे ८ किसी प्रकार की मादक वस्तु कभी न खायेंगे न पीयेंगे ६ श्री मद्भगवद्गीता और श्री भागवत को सत्य शास्त्र मानकर नित्य मनन शीलन करेंगे। १० महाप्रसाद मे अन्न बुद्धि न करेंगे। ११ हम आमरणान्त अपने प्रभु और प्राचार्य पर दृढ विश्वास रखकर शुद्ध भक्ति के फैलाने का उपाय करेंगे। १२ वैष्णव माग के अविरुद्ध सब कम करेगें और इस मार्ग के विरुद्ध श्रौत स्मात वा लौकिक कोई कम न करेगें। १३ यथा शक्ति सत्य शौच दयादिक का सवदा पालन करेंगे। १४ कभी कोई बाद जिससे रहस्य उद्घाटन होता हो अनधिकारी के सामने न भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६६) कहेंगे। और न कभी ऐसा बाद अवलम्बन करेंगे जिस्से आस्तिकता की हानि हो। १५ चिन्ह की भॉति तुलसी की माला और कोई पीत वस्त्र धारण करेंगे। १६ यदि ऊपर लिखे नियमो को हम भग करगे तो जो अपराध बन पड़ेगा हम समाज के सामने कहेंगे और उसकी क्षमा चाहेंगे और उसकी घणा करेंगे। मिती भाद्रपद शुक्ल ११ सवत १९३० साक्षी हरिश्चद्र प० वेचन राम तिवारी हस्ताक्षर तदीय नामाङ्कित अनन्य प० ब्रह्मदत्त वीर वैष्णव चिन्तामणि यद्यपि मैंने लिख दिया है तथापि दामोदर शर्मा इसकी लाज तुम्हीं को है शुकदेव (निज कल्पित अक्षर मे) नारायण राव मुहर | तदसीय। माणिक्यलाल जोशी शर्मा समाज - - - . - - - लोक-हितकर सभा आदि इस समाज के अतिरिक्त "हिदी डिबेटिङ्ग क्लब", "यन मेन्स एसोसिएशन", "काशी सार्वजनिक सभा", "वैश्य हितैषिणी सभा", अदालतो मे हिन्दी जारी कराने के लिये सभाएँ प्रादि कितनी ही सभा सोसाइटिएँ इन्होने स्थापित की थीं कि डिनका अब पूरा पूरा पता तक नहीं लगता। इन अपनी सभा सोसाइटिनो के अतिरिक्त जितने ही देशहितकर तथा लोक- हितकर कार्य होते थे सभो मे ये मुख्य सहायक रहते थे। "बनारस इन्स्टिट्यट" के ये सस्थापको मे से थे । इस 'इन्स्टिटयट' मे इनसे और राजा शिवप्रसाद से प्राय चोट चलती थी। "कारमाइकल लाइब्रेरी" तथा "बाल-सरस्वती-भवन" के सस्थापन मे प्रधान सहायक थे, हजारो ही ग्रन्थ दिए थे। "काशीपत्रिका", "भारतमित्र", "मित्रविलास", "प्रायमित्र" आदि यावत् प्राचीन हिन्दी पत्रो को प्रोत्साहन तथा लेखादि सहायता द्वारा जन्म देने के ये प्रधान कारण थे। खानदेश (७०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न के अकाल में सहायता देने के लिये ये बाजार मे खप्पर लेकर भीख मांगते फिरे थे, हजारो ही रुपए उगाह कर भेजे थे। काशी के कम्पनी बाग मे लोगो के बैठने को लोहे को बेञ्चे अपने व्यय से रखवाई थी। मणिकर्णिका कुड मे हजारो यात्री गिरा करते थे, उस मे लोहे का कटघरा अपने व्यय से लगवा दिया। माधोराय। के प्रसिद्ध धरहरे पर छड नहीं लगे थे, जिससे कभी कभी मनुष्य गिरकर चूर हो गए हैं, उस पर छड अपने व्यय से लगवाया इन कार्यों के लिये म्यूनिसिपलिटी ने धन्य- वाद दिया था। म्यो मेमोरिमल मे १५०० रु० दिया था। फ्रास और जर्मन की लडाई का इतिहास तथा सर विलियम म्योर की जीवनी, गोरक्षा पर उपन्यासमादि कितने ही ग्रन्थ रचना के लिये पारितोषिक नियत किया था। प्रात स्मरणीया मिस मेरी कारपेन्टर के स्त्रीशिक्षा सम्बन्धी उद्योग मे प्रधान सहायक थे। विवाह आदि मे अपव्ययिता कम करने के आन्दोलन के सहकारी थे। मिस्टर शेरिङ्ग, डाक्तर हानली, डाक्तर राजेन्द्र लाल मित्र, पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर प्रभृति कितने ही ग्रन्थकारो के कितने ही ग्रन्थ रचना मे ये सहायक रहे हैं, जिन्हें उन्होने निज ग्रन्थो मे धन्यवाद पूर्वक स्वीकार किया है। थिनासोफिकल सोसाइटी के सस्थापक कर्नल पालकाट और मडेम ब्लेवेट्स्की का काशी मे जब जब पाना हुमा तब तब ये उनके सहायक रहे। अपने स्कूल के छात्र दामोदरदास के बी० ए० पास करने पर सोने की घडी और काशी सस्कृत कालेज से प्राचाय परीक्षा मे पहिले पहिल जितने लडके पास हुये थे सभी को घडिएँ पारितोषिक दी थीं। भारतवर्ष के भिन्न भिन्न प्रान्तो मे जितनी लडकियाँ अग्रेजी परीक्षामो मे उत्तीर्ण हुई थीं सभो को शिक्षाविभाग द्वारा साडिएँ पारितोषिक दी थीं। इनमे से कलकत्ता बेथुन कालेज की लडकयो को जो साडिएं भेजी गई थीं उन्हें श्रीमती लेडी रिपन ने अपने हाथ से बाँटा था। बङ्गाल के डाइरेकटर सर प्रालफ्रेड क्राफ्ट साहब ने लिखा था कि जिस समय श्रीमती ने हष पूर्वक यह पाप का उपहार कन्याओ को दिया था, उस समय आनन्द ध्वनि से सभास्थल गूंज उठा था। ब्राह्म विवाह पर जिस समय कानून बन रहा था उस समय इन्होने जो सहायता दी थी उसके लिये उक्त समाज के नेता स्वर्गीय केशवचन्द्र सेन ने अपने पत्र द्वारा हवय से इन्हें धन्यवाद दिया था। सन् १८५३ ई० मे भारतबन्धु लार्ड रिपन के समय मे जो इलबर्ट बिल का आन्दोलन उठा था उसे इन्होने अपने "काल चक्र" में "पार्यों मे ऐक्य का सस्थापन (इल्बर्ट बिल) सन् १९८३" लिखा था । वास्तव मे उसी समय से हिन्दुस्तानियो मे कुख ऐक्य का बीजारोपन हुआ। उस समय सुप्रसिद्ध बाबू सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने एक भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (७१) "नेशनल फण्ड" स्थापित किया था, उस के लिये वह काशी भी पाए थे, ये उस के प्रधान सहायक हुए और बाबू सुरेन्द्रनाथ को एक "ईवनिङ्ग पार्टी" भी दी थी। इसके पीछे ही "नैशनल काङग्रेस" का जन्म हुआ, अत यह आन्दोलन भी उसी में विलीन हो गया। जिस समय सर विलियम म्योर के स्वागत मे काशी मे गङ्गातट पर रौशनी हुई थी उस समय इन्होने एक नाव पर Oh Tax और दूसरी पर- "स्वागत स्वागत धन्य प्रभु श्री सर विलियम म्योर । टिकस छोडावहु सबन को, बिनय करत कर जोर"। यह रोशनी मे लिखवाया था। निदान जितने ही देश-हितकर तथा लोकहितकर काय होते सभी मे ये जी जान से सहायक होते थे। ____श्री मुकुन्दराय जी के छप्पन भोग के उत्सव के निमित्त ११००J३० की सेवा की थी। स्ट्रेन्जस होम, सोलजर्स सोसाइटी, जौनपुर के बाढ़ की सहायता, प्रादि जो अवसर पाते उनमे ये मुक्तहस्त हो सहायता करते थे । प्रसिद्ध बङ्ग कवि हेमचन्द्र बानर्जी, राजकृष्ण राय, द्वारिका नाथ विद्याभूषण, बङ्किमचन्द्र चटर्जी, पञ्जाब यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार तथा हिन्दी के सुलेखक नवीनचन्द्र राय, हिन्दू पेट्रियट सम्पादक कृष्णदास पाल, रईस रैयत सम्पादक डाक्तर शम्भूचन्द्र मुकर्जी, पूना सार्वजनिक सभा के सस्थापक गणेश वासुदेव जोशी, बम्बई के प्रसिद्ध विद्वान डाक्तर भाऊ दाजी और पजाब के प्रसिद्ध रईस और विद्यारसिक सर अतर सिंह भदौडिया आदि से इनसे विशेष स्नेह था और इनके कामो मे बराबर सहायक होते थे। गुणि यो का आदर यह हम ऊपर कह पाए हैं कि गुणियो का आदर और गुणग्राहकता इनका स्वभाव था। काशी मे कोई गुणी आकर इनसे प्रादर पाए बिना नहीं जाता था। कवियो के तो ये कल्पतरु थे । कवि परमानन्द को बिहारी सतसई के सस्कृत अनुवाद करने पर ५००) पारितोषिक दिया था। महामहोपाध्याय पडित सुधाकर द्विवेदी जी को निम्नलिखित दोहे पर १००Jऔर अग्रेजी रीति पर अपनी जन्मपत्री बनवाकर ५००) दिया था (७२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र "राजघाट पर बँधत पुल जहा कुलीन की ढेर । आज गए कल देख के आजहि लौटे फेर ॥" __इस प्रकार से कितनो का क्या क्या सत्कार किया इसका ठिकाना नहीं। परन्तु कुछ गुणियो के गुण का यहाँ पर वर्णन करना परमावश्यक है, क्योकि ऐसे अद्भुत गुणो का भारतवासियो मे होना परम गौरव की बात है। अब वे गुणी नहीं है, परन्तु उनको कीर्ति इतिहास मे रहनी चाहिए। सुप्रसिद्ध विद्वान् भारत- मातण्ड श्री गटू लाला जी की विद्वत्ता, प्राशु कविता और शतावधान आदि पाश्चय शक्तिये जगत प्रसिद्ध हैं, उसका वर्णन निष्प्रयोजन है। इन गटटू लालाजी के सम्मान मे इन्होने काशी मे महती सभा की थी, जिसमे यूरोपीय विद्वान् भी प्राकर अच- म्भित हुए थे। एक दक्षिणी विद्वान् आए थे, नका नाम नारायण मार्तण्ड था, इनकी गणित मे विलक्षण शक्ति थी, गणित के ऐसे बडे बडे हिसाब जिनको अच्छे अच्छे विद्वान पॉच चार दिन के परिश्रम मे भी नहीं कर सकते, उन्हें यह पाँच मिनिट के भीतर करते थे और विशेषता यह थी कि उसी समय कोई उनके साथ ताश खेलता, कोई शतरञ्ज, कोई चौसर, कोई उनको बकवाता और तरह तरह के प्रश्न करता जाता परन्तु इन सब कामो के साथही वह मन ही मन हिसाब भी कर डालते और वह हिसाब अभ्रान्त होता । इनका बाबू साहब के कारण काशी मे बडा आदर हुआ। काशिराज ने भी इन्हें आदर दिया था। एक मद्रासी ब्राह्मण वेङ्कट सुप्पैया- चार्य पाए थे, इनका गुण दिखाने के लिये अपने बाग रामकटोरा मे सभा की थी। उसमे बनारस कालिज के प्रिन्सिपल ग्रिफिथ साहब तथा अन्य यूरोपीय और देशीय सज्जन एकत्रित थे। धनुविद्या के आश्चर्य गुण इन्होने दिखाए । अपनी आँखो मे पट्टी बाँधकर उस तीक्ष्ण तीर से जिससे लोहे की मोटी चादरों मे छेद हो जाय, एक व्यक्ति की प्रॉख पर तिनका बाँध कर उसमे मोम से दुअन्नी चपकाकर केवल शब्द पर बाण मारा, दुअनी उड गई और तिनका ज्यो का त्यो रहा, जैसे अर्जुन ने महाभारत मे जयद्रथ का सिर तीरो के द्वारा उडाकर उसके पिता के हाथ मे गिराया था, वैसेही इन्होने एक नारङ्गी को तीरो के द्वारा उडाया और लगभग तीस चालीस कोस की दूरी पर खडे एक मनुष्य के हाथ मे गिरा दिया, अंगूठी को कूए मे फेंककर बीच ही से तीरो के द्वारा रहट की भाँति उसे बाहर ला गिराया, निदान ऐसे ही पाश्चर्य तमाशे किए थे। यूरोपियनों ने मुक्तकठ हो कहा था कि महाभारत मे लिखी बातें इस को देखकर सच्ची जान पड़ती हैं। एक पहलवान तुलसीदास बाबा पाए थे, इनका कौतुक नार्मल स्कूल मे कराया था। हाथी बाँधने का सूत भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (७३) का रस्सा पर के अगूठे मे बाँधकर तोड डालते, मोटे से मोटे लोहे के रम्भो को मोम की बत्ती की तरह दोहरा कर देते, दो कुसियो पर लेटकर छाती को अधड मे रखकर उस पर छ इञ्च मोटा पत्थर तोडवा डालते, नारियल की जटा सहित सिर पर मार कर तोड डालते निदान मानुषी पौरुष की पराकाष्ठा थी। पण्डितवर बापूदेव शास्त्री जी को नवीन पञ्चाङ्ग की रचना पर दुशाले प्रादि से पुरष्कृत किया था। प्रसिद्ध वीणकार हरीराम वाजपेई कितने ही दिनो तक इनसे ५०)रु० मासिक पाते रहे। निदान अपने वित्त से बाहर गुणियो का आदर करते। इनके अत्यन्त कष्ट के समय में भी कोई गुणी इनके द्वार से विमुख न जाता। पुरातत्त्व पुरातत्त्व के अनुसन्धान की ओर इनकी पूरी रुचि थी। इनके द्वारा डाक्तर राजेन्द्रलाल मित्र को बहुत कुछ सहायता मिलती थी। इनके अविष्कृत कितने ही लेख “एशियाटिक सोसाइटी" के 'जर्नल' तथा 'प्रोसीडिङ्ग' मे छपे हैं । इनके पुस्तकालय की प्राचीन पुस्तकों से उक्त सोसाइटी को बहुत कुछ सहायता मिलती थी। गवन्र्मेण्ट द्वारा प्रकाशित सस्कृत ग्रन्थो की सूची तथा पुरातत्त्व सम्बन्धी अन्य इन उपकारो के बदले गवर्मेण्ट इन्हें उपहार देती थी। इन्होने एक अत्यन्त प्राचीन भागवत को 'एशियाटिक सोसाइटी मे उपस्थित करके इस बात का निणय करा दिया कि श्रीमद्भागवत वोपदेव कृत नहीं है। प्राचीन सिक्को और अफियो का संग्रह भी अमूल्य किया था, परन्तु खेद का विषय है कि किसी लोभी ने उसे चुराकर उनको अत्यन्त ही व्यथित कर दिया । अब भी पैसे रुपए तथा स्टाम्प का अच्छा संग्रह है। पुरातत्व विषयक अनेक लेख भी लिखे हैं। परिहास प्रियता परिहास-प्रियता भी इनकी अपूव थी। अंगरेजी मे पहिली अप्रैल का दिन मानो होली का दिन है । उस दिन लोगो को धोखा देकर मूर्ख बनाना बुद्धिमानी (७४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र का काम समझा जाता है। इन्होने भी कई बेर काशीवासियो को योही छकाया था। एक बेर छाप दिया कि एक यूरोपीय विद्वान् प्राए हैं जो महाराजा विजियानग्रम् की कोठी मे सूर्य चन्द्रमा आदि को प्रत्यक्ष पृथ्वी पर बुलाकर दिखलावैगे। लोग धोखे मे गए और लज्जित होकर हंसते हुए लौट पाए । एक बेर प्रकाशित किया कि एक बडे गवैये पाए हैं, वह लोगो को 'हरिश्चन्द्र स्कूल मे गाना सुनावैगे। जब हजारो मनुष्य इकट्ठे हो गए तब पर्दा खुला, एक मनुष्य विचित्र रङ्गो से मुख रंगे, गदहा टोपी पहिने, उलटा तानपूरा लिए, गदहे की भॉति रेक उठा । एक बेर छाप दिया था कि एक मेम रामनगर से खडाऊँ पर चढकर गङ्गा पार उतरेगी। इस बेर तो एक भारी मेलाही लग गया था। परन्तु सन्ध्या को कोलाहल मचा कि "एप्रिल फूल्स"। लडकपन मे भी अपने घर के पीछे अँधेरी गली मे फासफरस से विचित्र मूर्ति और विचित्र आकार लिखकर लोगो को डरवाते थे। मित्रो के साथ नित्य के हास परिहास उनके परम मनोहर होते थे। श्री जगन्नाथ जी को जो फूल की टोपी पहिनाई जाती है वह इतनी बड़ी होती है कि मनुष्य उसमे छिप जाय, इन्होने यह कौतुक किया कि आप तो टोपी मे छिप गए और छोटे भाई बाबू गोकुल- चन्द्र ने लोगो से कहा कि श्री जगदीश का प्रत्यक्ष प्रभाव देखो कि टोपी आप से आप चलती है, बस टोपी चलने लगी लोग देखकर अचम्भे मे आ गए। अन्त मे आपने टोपी उलट दी तब लोगो को भेद खुला। उदारता-धन के बिना कष्ट इनको उदारता जगत्-प्रसिद्ध है। हम केवल दो चार बातें उदाहरण स्वरूप यहाँ लिखते हैं। हिस्सा होने के थोडे ही दिन पीछे महाराज बितिया के यहाँ से इनके हिस्से का छत्तीस हजार रुपया वसूल होकर आया। इन्होने उसको अपने दर्बारी एक मुसाहिब के यहाँ रख दिया। कुछ थोडा बहुत द्रव्य उसमे से प्राया था कि उन्होने रोते हुए पाकर कहा "हुजूर | मेरे यहाँ चोरी हो गई। आपके रुपये के साथ मेरा भी सवस्व जाता रहा।" उनके रोने चिल्लाने से घबराकर इन्होने कहा "तो रोते क्या हो गया सो गया, यही गनीमत समझो कि चोर तुम्हें उठा न ले गए"। चलिए मामला ते हुआ। लाख लो नाही हे भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (७५) तग करके रुपया वसूल किया जाय, परन्तु भारतेन्दु जी ने कुछ न किया और कहा "चलो, बिचारा गरीब इसी से कमा खायगा"। कुछ करने की कौन कहे, उन्हें अपनी मुसाहिबी से भी नहीं निकाला। उक्त व्यक्ति एक दिन इतना बढा कि लखपती हो गया। कुछ दिनो पीछे जब द्रव्याभाव हो गया था और प्राय कष्ट उठाया करते थे उस अवस्था मे एक दिन बहुत से पत्र और पैकेट लिखकर रक्खे थे कि उनके एक मित्र के छोटे भाई (लाला जगदेवप्रसाद गौड) उनसे मिलने पाए। उन्होने पूछा "बाबू साहब ! ये सब पत्र डाक मे क्यो नहीं गए ?" उत्तर मिला "टिकट बिना" उक्त महाशय ने २) रु० का टिकट मँगाकर उन सभो को डाक मे छुडवाया। उस २) को भारतेन्दु महोदय ने उन्हें कम से कम दस बेर दिया। उक्त महाशय का कथन है कि "जब मै मिलने गया २) १० टिकट वाला मुझे दिया, मैंने लाख कहा कि मै कई बेर यह रुपया पा चुका हूँ, पर उन्होने एक न माना, कहा तुम भूल गए होगे, मैंने विशेष आग्रह किया तो बोले अच्छा, क्या हुआ, लडके तो हो, मिठाई ही खाना" । एक प्रालबम चित्रो का इन्होने अत्यन्त ही परिश्रम के साथ सग्रह किया था, जिसमे बादशाहो, विद्वानो, प्राचार्यों प्रादि के चित्र बडे व्यय और परिश्रम से सग्रह किए थे। एक शाहजादे महाशय उस प्रालबम की एक दिन बडी ही प्रशसा करने लगे। आपने कहा कि "जो यह इतना पसन्द है तो नजर है"। बस फिर क्या था, उक्त महोदय ने उठकर लम्बी सलाम की और लेकर चलते बने। उदार-हृदय हरिश्चन्द्र को कभी किसी पदार्थ को देकर दुख होते किसी ने नहीं देखा, परन्तु इस प्रालबम का उन्हें दुख हुआ। पीछे वह इसका मूल्य ५००) रु० तक देकर लेना चाहते थे, परन्तु न मिला। एक दिन आप कहीं से एक गजरा फूलो का पहिने आ रहे थे। एक चौराहे पर उसे लपेटकर रख दिया। जो नौकर साथ मे था उसे कुछ सन्देह हुना। वह इन्हें पहुंचा- कर फिर उसी चौराहे पर लौट आया, तो उस गजरे को ज्यो का त्यो पाया। उठाकर देखा तो उसमे पाँच रुपए लपेट कर रक्खे हुए थे। एक दिन जाडे की ऋतु मे रात को श्राप पा रहे थे, एक दीन दुखी सडक के किनारे पडा ठिठुर रहा था, दयाचित्त हरिश्चन्द्र से यह उसका दुख न देखा गया, बहुमूल्य दुशाला जो श्राप प्रोढ़े हुए थे उस पर डाल चुप चाप चले आए। ऐसा कई बार हुआ है । एक दिन मोतियो का कठा पहिनकर गोस्वामी श्री जीवनजी महाराज (मुम्बई वाले) के दर्शन को गए। महाराज ने कहा "बाबू ! कठा तो बहुत ही सुन्दर है"। आपने चट उसे भेट कर दिया। कितने व्यक्तियो को हजारो रुपए के फोटोग्राफ उतारने भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र के सामान, तथा जादू के तमाशे के सामान लेकर दे दिए कि जिनसे वे आज तक कमाते खाते है । निदान कितने ही उदाहरण ऐसे हैं जिनका पता लगाना या वणन करना असम्भव है। लिफाफे मे नोट रखकर या पुडिया मे रुपया बाधकर चुपचाप देना तो नित्य की बात थी। कोई व्यक्ति दो चार दिन भी इनके पास आया और इन्हें उसका खयाल हुआ,, आप कष्ट पाते परन्तु उसे अवश्य कुछ न कुछ देते। यह अवस्था इनको भरने के समय तक थी। सन् १८७० मे इन्होने अपना हिस्सा अलग करा लिया था, परन्तु चारही पाँच वष मे जो कुछ पाया सब खो बठे। लगभग १४, १५ वष वह इस पथ्वी पर इस प्रकार से रहे कि न तो इनके पास कोई जायदाद थी और न कुछ द्रव्य । कभी कभी यह अवस्था तक हो गई कि चबना खाकर दिन काट दिया, परन्तु उदार-प्रकृति बीर हरिश्चन्द्र की दातव्यता कभी बन्द नही हई । आज पैसे पैसे के लिये कष्ट उठा रहे हैं, और कल कहीं से कुछ द्रव्य पाजाय तो फिर उसकी रक्षा नहीं, वह भी वैसेही पानी की भाँति बहाया जाता, दो ही तीन दिन मे साफ हो जाता। बहुत कुछ धनहीनता से कष्ट पाने पर भी इन्हें धन न रहने का कुछ दु ख न होता, सिवाय उस अवस्था के जब कि हाथ मे धन न रहने से किसी दयापान वा किसी सज्जन का क्लेश दूर न कर सकते, अथवा कोई धनिक इनके आगे अभिमान करता । ऋण इनके जीवन का साथी था। ऋण करना और व्यय करना । परतु आश्चर्य यह है कि न तो मरने के समय अपने पास कुछ छोड मरे और न कुछ भी उचित ऋण देने बिना बाकी रह गया | इनकी इस दशा पर महाराज काशिराज ने जो दोहा लिखा था हम उसे उद्धृत कर देते हैं-- "यद्यपि आपु दरिद्र सम, जानि परत त्रिपुरार । दीन दुखी के हेतु सोइ, दानी परम उदार ॥" लेखन शक्ति लेखनशक्ति इनको आश्चर्य थी, कलम कभी न रुकता। बातें होती जाती हैं कलम चला जाता है। डाक्तर राजेन्द्रलाल मित्र ने इनकी यह लीला देखकर 'इनका नाम Writing Machine (लिखने की कल) रक्खा था। उर्दू अंगरेजी वालो से कई बेर बाजी लगा कर हिन्दी लिखने मे जीता था। सब से बढ़कर आश्चर्य यह था कि इतना शीघ्र लिखने पर भी प्रक्षर इनके बडे सुन्दर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (७७) और साँचे मे ढले से होते थे। नागरी और अंगरेजी के अक्षर बहुत सुन्दर बनते थे। इसके अतिरिक्त महाजनी, फारसी, गुजराती, बॅगला और अपने बनाए नवीन अक्षर लिख सकते थे। कलम दावात और कागजो का बस्ता सदा उनके साथ चलता था। दिन भर लिखने पर भी सतोष न था, रात को उठ उठकर लिखा करते। कई बार ऐसा हुआ कि रात को नींद खुली और कुछ कविता लिखनी हुई, कलम दावात नहीं मिली तो कोयले या ठीकरे से दीवार पर लिख दिया, सवेरे हमलोग उसकी नकल कर लाए। कितनी ही कविता स्वप्न मे बनाते थे, जिनमे से कभी कभी कुछ याद आने से लिख भी लेते थे। 'प्रेमतरङ्ग' मे एक लावनी ऐसी छपी है। इस लावनी को विचारपूर्वक देखिए तो सपने को कविता और जागने पर पूर्ति जो की है वह स्पष्ट विदित होती है। कागज कलम दावात का कुछ विशेष विचार न था, समय पर जैसी ही सामग्री मिल जाय वही सही। टूटे कलम से तथा कुछ न प्राप्त होने पर तिनके तक से लिखा करते थे, परन्तु अक्षर की सुघरता नहीं बिगडती थी। आशु कविता कविताशक्ति इनकी विलक्षण थी। कई बेर घडी लेकर परीक्षा की गई कि चार मिनिट के भीतर ही समस्या पूर्ति कर लेते थे। बड़े बड़े समाजो और बडे बडे दर्बारो मे इस प्रकार समस्यापूर्ति करना सहज न था। इतने पर प्राधिक्य यह कि किसी से दबते न थे, जो जी मे प्राता था उसे प्रकाश कर देते थे। उदयपुर महाराणा जी के दर्बार मे बैठकर निम्न लिखित समस्यापूर्ति का करना कुछ सहज काम न था- राधाश्याम सेवै सदा वृन्दावन बास करै, रहे निहचिन्त पद आस गुरुवर के । चाहै धनधाम ना पाराम सो है काम हरिचन्दजू, ___ भरोसे रहै नन्दराय घर के॥ एरे नीच धनी । हमे तेज तू दिखावे कहा, गज परवाही नाहिं होय कबौं खरके । (७८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र होइ ले रसाल तू भलेई जगजीव काज, पासी ना तिहारे ये निवासी कल्पतरु के॥१॥ काशिराज के दर्बार मे एक समस्या किसीने दी थी, किसी से पूर्ति न हुई, ये प्रागए। महाराज ने कहा "बाबू साहब, इस समस्या की पूर्ति पाप कीजिए, किसी कवि से न हो सकी"। इन्होने तुरन्त लिखकर सुना दी, मानो पहिले ही से याद थी। कवियो को बुरा लगा। एक बोल उठे "पुराना कवित्त बाबू साहब को याद रहा होगा"। बस इन्हें क्रोध प्रागया, दस बारह कवित्त तुरन्त बनाते गए और कविजी से पूछते गए "क्यो कविजी। यह भी पुराना है न?" अन्त मे काशिराज के बहुत रोकने पर रुके । इनके इन्हीं गुणो से काशिराज इनपर मोहित थे। इनसे अत्यन्त स्नेह करते थे। काशिराज को सोमवार का दिन धातवार था, उस दिन वह किसी से नहीं मिलते थे। एक बेर इन्होने भी लिख भेजा कि "प्राज सोमवार का दिन है इससे मैं नहीं पाया" । काशिराज ने उत्तर में यह दोहा लखा-- "हरिश्चन्द्र को चन्द्र दिन तहाँ कहा अटकाव । प्रावन को नहिं मन रह्यो इहो बहाना भाव ॥" इस के अक्षर अक्षर से स्नेह टपकता है। सुप्रसिद्ध गटू लाल जी इन की समस्यापूर्ति पर परम प्रसन्न हुए थे। वृन्दाबनस्थ श्री शाह कुन्दनलाल जी की समस्या पर इन की पूर्ति और इन की समस्या पर उन की पूर्ति देखने योग्य है। काशिराज के पौत्र के यज्ञोपवीत के उपलक्ष मे "यज्ञोपवीत परम पवित्र" पर कई श्लोक बडे धूमधाम के कोलाहल के समय बात की बात में बनाए थे। केवल समस्या पूर्ति ही तत्काल नहीं करते थे, ग्रन्थ रचना में भी यही दशा थी। 'अन्धेर नगरी' एक दिन मे लिखी गई थी। 'विजयिनी विजय वजयन्ती' टाउनहाल की सभा के दिन लिखी गई थी। बलिया का लेकचर और हिन्दी का लेकचर (पद्य- मय) एक दिन मे लिखा गया। ऐसे ही उनके प्राय काम समय पर ही हुआ करते थे, परन्तु आश्चर्य यह है कि उतनी शीघ्रता मे भी त्रुटि कदाचित ही होती रही हो। देशहित नसो मे भरा हुआ था। कदाचित् ही कोई ग्रन्थ इनके ऐसे होगे जिसमे किसी न किसी प्रकार से इन्हो ने देशदशा पर अपना फफोला न निकाला हो। कहाँ धर्मसम्बन्धी कविता "प्रबोधिनी" और कहाँ "बरसत सब ही बिधि बेबसी भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (७६ ) अब तो जागो चक्रधर"। अपने बनाए ग्रन्थो मे निम्नलिखित ग्रन्थ इन्हें विशेष रुच ते थे-- काव्यो मे--प्रेमफुलवारी नाटको मे--सत्यहरिश्चन्द्र, चन्द्रावली धर्म सम्बन्धी मे--तदीयसर्वस्व ऐतिहासिक मे-काश्मीर कुसुम (इसमे बडा परिश्रम किया था) देशदशा मे--भारतदुदशा। एक दिन एक कवित्त बनाया। जिस के भावो के विषय मे उन का विचार यह था कि ये नए भाव हैं, परन्तु मैने इन्हीं भावो का एक कवित्त एक प्राचीन सग्रह मे देखा था, उसे दिखाया, इन्होने तुरन्त उस अपने कवित्त को (यद्यपि उसमे प्राचीन कवित्त से कई भाव अधिक थे) फाड डाला और कहा "कभी कभी दो हृदय एक हो जाते हैं। मैने इस कवित्त को कभी नहीं देखा था, परन्तु इस कवि के हृदय से इस समय मेरा हृदय मिल गया, प्रत अब इस कवित्त के रहने की कोई प्राव- श्यकता नहीं"। वह प्राचीन कवित्त यह था।-- "जैसी तेरी कटि है तू तैसी मान करि प्यारी, ___ जैसी गति तैसी मति हिय तें विसारिए । जैसी तेरी भौंह तैसे पन्थ पै न दीजै पाँव, ___ जैसे नैन तैसिएँ बडाई उर धारिए। जैसे तेरे ओठ तैसे नैन कीजिए-न, जैसे, कुच तैसे बैन मुख तें न उचारिए । एरी पिकबैनी । सुनु प्यारे मन मोहन सो, जैसी तेरी बेनी तैसी प्रीति बिसतारिए ॥१॥" उनका कथन था कि "जैसा जोश और जैसा जोर मेरे लेख मे पहिले था वैसा अब नहीं है, यद्यपि भाषा विशेष प्रौढ और परिमार्जित होती जाती है, तथापि वह बात अब नहीं है"। वास्तव मे सन ७३।७४ के लगभग के इन के लेख बडे ही उमङ्ग से भरे और जोश वाले होते थे। यह समय वह था जब कि ये प्राय राम- कटोरा के बाग मे रहते थे। प्रस्तु, इन की इस अलौकिक शक्ति तथा इन के ग्रन्यो की रचना पर मालोचना की जाय तो एक बडा ग्रन्थ बन जाय । (८०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र ग्रन्थ रचना यह हम पहिले कह पाए है कि जिस समय इन्होने हिन्दी की ओर ध्यान दिया, उस समय तक हिन्दी गद्य मे कुछ न था। अच्छे ग्रन्थो मे केवल राजा लक्ष्मणसिह का शकुन्तलानुवाद छपा था और राजा शिवप्रसाद के कुछ ग्रन्थ छपे थे। इन्होने पहिले पहिल शृङ्गार रस की कविता करनी प्रारम्भ की और कुछ धम सम्बन्धीय ग्रन्थ लिखे। उस समय कुछ निज रचित और कुछ दूसरो के लिखे ग्रन्थ तथा कुछ सग्रह इन्होने छपवाए। 'कार्तिक कम विधि', 'मागशीर्ष महिमा', 'तहकीकात पुरी की तहकीकात', 'पञ्चकोशी के मार्ग का बिचार', 'सुजान शतक', 'भागवत शडा निरासवाद' प्रादि ग्रन्थ सन् १८७२ के पहिले छपे। इसी समय 'फूलो का गुच्छा' लावनियो का ग्रन्थ बनाया। उस समय बना- रस मे बनारसी लावनीबाज़ की लावनियो का बडा चर्चा था। उसी समय 'सुन्दरी तिलक' नामक सवैयो का एक छोटा सा सग्रह छपा। तब तक ऐसे ग्रन्थो का प्रचार बहुत कम था। इस ग्रन्थ का बडा प्रचार हुअा, इसके कितने ही सस्करण हुए, बिना इनकी आज्ञा के लोगो ने छापना और बेचना प्रारम्भ किया, यहाँ तक कि इनका नाम तक टाइटिल पर छोड दिया। परन्तु इसका उन्हें कुछ ध्यान न था । अब एक सस्करण खगविलास प्रेस मे हुआ है जिसमे चौदह सौ के लगभग सवैया हैं, परन्तु इन सवैयों का चुनाव भारतेन्दु जी के रुचि के अनुसार हुप्रा या नहीं यह उनकी प्रात्मा ही जानती होगी। 'प्रेमतरङ्ग' और 'गुलजार पुर बहार' के भी कई सस्करण हुए, जो एक से दूसरे नहीं मिलते, जिनमे से खगविलास प्रेस का सस्करण सब से बढ गया है। इस प्रकार कुछ काल तक चलने पर ये यथाथ मे गद्य साहित्य की ओर झुके । 'मैगजीन' के प्रकाश के अतिरिक्त पहिले नाटको ही के ओर रुचि हुई। सन् १८६८ ई० मे रत्नावली नाटिका का अनुवाद प्रारम्भ किया था, पर वह अधूरा रह गया। इससे भी पहिले 'प्रवास नाटक' लिखते थे, वह भी अधूरा ही रह गया। सब से पहिला नाटक 'विद्या सुन्दर', फिर 'वैदिको हिंसा हिसा न भवति', फिर 'धनञ्जय विजय' और फिर 'कर्पूर मजरी' । 'कर्पूर मञ्जरी की भाषा सरल भाषा की टकसाल कहने योग्य है। इसी समय 'प्रेमफुलवारी' भी बनी। इस समय वास्तव मे ये 'प्रेम फुलवारी के पथिक थे, अत इसकी कविता भी कुछ और ही हुई है। इसके पीछे 'सत्य हरिश्चन्द्र' और 'चन्द्रावली नाटिका' बनी और पूरे नाटकों भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (१) मे से सबसे अन्तिम 'नीलदेवी' तथा 'अन्धेर नगरी' है और अधूरे मे 'सती प्रताप' तथा 'नव मल्लिका'। 'नव मल्लिका' को महा नाटक बनाना चाहते थे और उसके पात्रो तथा अड्डो की सूची बना ली थी, परन्तु मूल नाटक थोडाही सा बना था कि रह गया । हिन्दी नाटको के अभिनय कराने का भी इन्होने बहुत कुछ यत्न किया, स्वय भी सब सामान किया था, और भी कई कम्पनियो को उत्साहित कर अभिनय कराया था। इनके बनाए 'सत्य हरिश्चन्द्र', 'वदिको हिंसा', 'अन्धेरनगरों और 'नीलदेवी का कई बेर कई स्थानो पर अभिनय हुअा है । उपन्यासो की ओर पहिले इनका ध्यान कम था। इनके अनुरोध और उत्साह से पहिले पहिल' काद- म्बरी' और 'दुर्गेशनन्दिनी' का अनुवाद हुमा, स्वय एक उपन्यास लिखना प्रारम्भ किया था जिसका कुछ अश 'कविवचनसुधा' में छपा भी था। नाम उसका था 'एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जग बीती। इसमे वह अपना चरित्र लिखना चाहते थे। अन्तिम समय मे इस ओर ध्यान हुआ था। 'राधा रानी', 'स्वर्णलता प्रादि उन्हीं के अनुरोध से अनुवाद किए गए। 'चन्द्रप्रभा और पूर्णप्रकाश' को अनुवाद कराके स्वय शुद्ध किया था। राणा राजसिंह को भी ऐसा ही करना चाहते थे। अनुवाद पूरा हो गया था, प्रथम परिच्छेद स्वय नवीन लिखा, आगे कुछ शुद्ध किया था। नवीन उपन्यास 'हमीरह' बड़े धूम से प्रारम्भ किया था, परन्तु प्रथम परिच्छेद ही लिखकर चल बसे । इनके पीछे इसके पूर्ण करने का भार स्वर्गीय लाला श्रीनिवासदास जी ने लिया और उनके परलोक-गत होने पर पण्डित प्रतापनारायण मिश्र ने, परन्तु सयोग की बात है कि ये भी कैलाशवासी हुए और कुछ भीन लिख सके। यदि भारतेन्दु जी कुछ दिन और भी जीवितरहते तो उपन्यासो से भाषा के भण्डार को भर देते क्योकि अब उनकी रुचि इस ओर फिरी थी। यहीं पर हमे यह भी लिख देना आवश्यक जान पडता है कि इनके ग्रन्थो मे तीन प्रकार के ग्रन्थ हैं--(१) आदि से अन्त तक अपने लिखे, (२) कुछ अपना लिखा और कुछ दूसरो से लिखवाया ("नाटक" नामक पुस्तक मे ऐसा ही है), (३) दूसरे से अनुवाद कराया स्वय शुद्ध किया हुना (गो महिमा, चन्द्र- प्रभा-पूर्ण प्रकाश प्रादि)। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे हैं जो उन्होने प्रधूरे छोड़े थे और फिर औरो के द्वारा पूरे होकर छपे (बुर्लभबन्धु, सतीप्रताप, राजसिंह प्रादि)। एकाध ऐसे भी हैं जो उनके हई नहीं हैं, धोखे से प्रकाशक ने उनके नाम से छाप दिया (माधुरी रूपक) । पहिले को छोड शेष ग्रन्थो की भाषा प्रादि मे (८२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र जो भिन्नता कहीं कहीं पाई जाती है वह स्वाभाविक है । 'चन्द्रावली नाटिका' मे अपने तरङ्ग के अनुसार कहीं खडी बोली और कहीं व्रजभाषा लिखकर कवियो की स्वेच्छाचरिता प्रत्यक्ष कर दिया है। इसको पूरी पूरी व्रजभाषा मे इनके मित्र राव श्रीकृष्णदेवशरण सिह (राजा भरतपुर) ने किया था और संस्कृत अनुवाद पण्डित गोपाल शास्त्री उपासनी ने । इस नाटिका के अभिनय की इनकी बडी इच्छा थी, परन्तु वह जी ही मे रह गई। एक बेर लिखने के पीछे उसे ये पुनार लिखते कभी नहीं थे और प्राय प्रूफ के अतिरिक्त पुनरावलोकन भी नहीं करते थे, तथाच प्रूफ में भी प्राय कापी से कम मिलाते थे, योही प्रूफ पढ जाते थे। इन कारणो से भी कहीं कहीं कुछ भ्रम हो जाना सम्भव है। अस्तु, फिर प्रकृत विषय की ओर चलिए। धर्म सम्बन्धीय ग्रन्थो की ओर तो इनकी रुचि बचपन ही से थी, 'कार्तिक कम विधि', 'कातिक नैमित्तिक कर्म बिधि', 'मागशीष महिमा' "वैशाख माहात्म्य' 'पुरुषोत्तम मास विधान', 'भक्ति सूत्र वजयन्ती', 'तदीय सवस्व' प्रादि ग्रन्थ प्रमाण है। धर्म के साथ ऐतिहासिक खोज पर भी ध्यान था ('वैष्णवसर्वस्व', 'वल्लभीय सर्वस्व' प्रादि)। इस इच्छा से कि नाभा जी के 'भक्तमाल' में जिन भक्तो का नाम छूटा है या जो उनके पीछे हुए हैं उनके चरित्र संग्रह हो जायँ, 'उत्तराध भक्तमाल' बनाया। धर्म के विषय में उनके कसे विचार थे इसका कुछ पता 'वैष्णवता और भारतवष' से लग सकता है। धम विषयक जानकारी इनकी अगाध थी। एक बेर स्वय कहते थे कि इस विषय पर यदि कोई सुनने वाला उपयुक्त पान मिले तो हम भारतीय धर्म के रहस्यो पर दो वर्ष तक अनवरत व्याख्यान दे सकते हैं। सस्कृत तथा भाषा के कवियो के जीवन चरित्र भी इन्हें बहुत विदित थे। सब धर्मों की नामावली तथा उनके शाखा प्रशाखा का वृक्ष, तथा सब दर्शनो और सब सम्प्रदायो के ब्रह्म, ईश्वर, मोक्ष परलोक आदि मुख्य मुख्य विषयो पर मतामत का नशा वह बनाते थे जो अधूरा अप्रकाशित रह गया। इस थोडे ही लिखे ग्रन्थ से उन की जानकारी और विद्वत्ता को पूर्ण परिचय मिलता है। यह सब अधूरे और अप्रकाशित ग्रन्थ 'खग-विलासप्रेस' सेवन कर रहे हैं, सम्भव है कि किसी समय रसिक समाज का कौतूहल निवारण कर सकेंगे। इतिहास और पुरातत्वा- नुसन्धान की ओर इनका पूरा पूरा ध्यान रहा। जिस विषय को लिखा पूरी,खोज और पूरे परिश्रम के साथ लिखा। 'काश्मीर कुसुम', 'बादशाह दर्पण', 'कवियो के जीवन चरित्रादि इस के प्रमाण हैं। भाषारसिक डाक्तर ग्रिअर्सन ने न के सगुण पर मोहित होकर इन्हें स्पष्ट ही "The only critic of Norभारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (८३) thern India" लिखा है। इतिहास की ओर इनका इतना अधिक झुकाव था कि नाटक, कविता, तथा धर्म सम्बन्धी ग्रन्यादि मे जहाँ देखिएगा कुछ न कुछ इसका लपेट अवश्य पाइएगा। कविता के विषय मे हम ऊपर कई स्थलो पर बहुत कुछ लिख चुके हैं, यहाँ केवल इतना ही लिखना चाहते हैं कि शृङ्गार-प्रधान भगवल्लीला के अतिरिक्त इनका उरमान जातीय गीत की ओर अधिक था। यदि विचार कर देखा जाय तो क्या धर्म सम्बन्धी, क्या राजभक्ति (राजनैतिक), क्या नाटक क्या स्फुट प्राय सभी चाल की कविता मे जातीयता का प्रश वर्तमान मिलेगा। हृदय का जोश उबला पडता है, विषाद की रेखा अलक्षित भाव से वर्त- मान है, नित्य के ग्राम्य गीत (कजली, होली, आदि) मे भी जातीय सङ्गीत प्रचलित करना चाहते थे। "काहे तू चौका लगाए जयचंदवा", "टूटे सोमनाथ के मन्दिर केहू लागे न गुहार", "भारत मे मची है होरी", "जुरि पाए फाक्ने मस्त होरी होय रही", आदि प्रमाण हैं। इस विषय मे एक सूचना भी दी थी कि ऐसे जतीय सङ्गीत लोग बनावें, हम इनका सग्रह छापैगे। उर्द की स्फुट कविता के अतिरिक्त हास्यमय "कानून ताजीरात शौहर" बनाया, बँगला मे स्फुट कविता के अतिरिक्त "विनो- दिनी" नाम की पुस्तिका बनाई थी, सस्कृत मे "श्रीसीताबल्लभ स्तोत्र" आदि बनाए, अग्रेजी मे एज्यूकेशन कमीशन का साक्षी ग्रन्थ रूप मे लिखा (स्फुट कविता मेगजीन मे छपी हैं) भक्तसर्वस्व गुजराती अक्षरों मे छपा, गुजराती कविता इनकी बनाई "मानसोपायन" में छपी है, पञ्जाबी कविता "प्रेमतरङ्ग" मे छपी हैं, महा- राष्ट्री में "प्रेमयोगिनी" का एक अङ्क ही लिखा है, एक वष कार्तिकस्नान शरीर की रुग्नता के कारण नहीं कर सके तो नित्य कुछ कविता बनाया उसका नाम 'कार्तिक- स्नान" रक्खा, राजनैतिक, सामाजिक, तथा स्फुट विषयो पर ग्रन्थ और लेख जो कुछ इन्हो ने लिखे थे और उन पर समय समय पर जो कुछ प्रान्दोलन होता रहा या उनका जो प्रभाव हुमा उनका वर्णन इस छोटे लेख मे होना असम्भव है। हम तो इस विषय मे इतना भी लिखना नहीं चाहते थे, किन्तु हमारे कई मित्रो ने आग्रह करके लिखवाया। वास्तव में यह विषय ऐसा है कि उनके प्रत्येक ग्रन्थो का पृथक पथक वर्णन किया जाय कि वे कब बने, क्यो बने, कैसे बने, क्या उनका प्रभाव हुआ, कितने रूप उनके बदले, कितने सस्करण हुए और उनमे क्या परिवर्तन हुआ और अब किस रूप में हैं तब पाठको को पूरा आनन्द पा सकता है। अस्तु हमने मित्रों के आग्रह से प्राभास मात्र दे दिया। (८४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र हिन्दी तथा वैष्णव परीक्षा हिन्दी की एक परीक्षा इन्होने प्रचलित की थी जो थोडे ही दिन चलकर बन्द हो गई। इस पर एक रिपोट इन्होने राजा शिवप्रसाद इन्स्पेक्टर आफ स्कलस के नाम लिखी थी जो देखने योग्य है। उस रिपोर्ट से इनके हृदय का उमङ्ग और हिन्दी यूनीवसिटी बनाने की बासना तथा देशवासियो के निरुत्साह से उदासीनता प्रत्यक्ष झलकती है। एक परीक्षा वैष्णव ग्रन्थों की भी जारी करनी चाही परन्तु कुछ हुआ नहीं। उसको सूचना यहाँ प्रकाशित होती है। श्रीमद्वैष्णवग्रंथों में परीक्षा वैष्णवो के समाज ने निम्न लिखित पुस्तको मे तीन श्रेणियो मे परीक्षा नियत की है और १५०) प्रथम के हेतु और १५०) द्वितीय के हेतु और ५०) तृतीय के हेतु पारितोषिक नियत है जिन लोगों को परीक्षा देनी हो काशी मे श्रीहरिश्चन्द्र गोकुल- चन्द्र को लिखें नियत परीक्षा तो स० १९३२ के वैशाख शुद्ध ३ से होगी पर बीच मे जब जो परीक्षा देना चाहे दे सकता है। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (८५) D00 Meanwaura- श्रीनिम्बार्क श्रीरामानुज श्रीमध्व । श्रीविष्णुस्वामि - -- वेदान्त रत्न यतीन्द्रमत वेदान्त रत्न षोडश ग्रन्थ, प्रविष्ट मजूषा, वेदान्त दीपिका, माला, तत्व षोडशबाद, रत्नमाला, शतदूषणी प्रकाशिका सप्रदाय प्रदीप सुरदुम मजरी वेदान्त कौस्तुभ | श्रुति सूत्र भाष्य सुधा, | विद्वन्मडल स्वर्ण और प्रभा, तात्पय्य निणय, न्यायामृत सूत्र, निबन्ध प्रवीण| षोडशी रहस्य, , प्रस्थान वय श्रावण भग का भाष्य वामहस्त, पडित करभिदिपाल, वहिर्मुख मुख मद्दन पर पारङ्गत अध्यास गिरि | वेदान्ताचाय्य | सहस्र दूषिणी | वज्र सेतुका, का लघु भाष्य, जान्हवी मुक्ता वहच्छतदूषणी वली प्रणु भाष्य, भाष्य प्रदीप, भाब्य प्रकाश, प्रमेय रत्नार्णव भारतेन्दु की पदवी इनके गुणो से मोहित होकर इनका कैसा कुछ मान देशीय और विदेशीय सज्जन इनके सामने तथा इनके पीछे करते थे यह लिखने की आवश्यकता नहीं। हम केवल दो चार बात इस विषय मे लिख देना चाहते हैं । सन् १८८० ई० के 'सारसुधानिधि' मे एक लेख छपा कि इन्हें 'भारतेन्दु' की पदवी देना चाहिए, इसको एक स्वर से सारे देश ने स्वीकार कर लिया और सब लोग इन्हें भारतेन्दु लिखने लगे, यहाँ तक कि भारतेन्दु जी इनका उपनाम ही हो गया। इस पदवी को न केवल १ यदि रश्मि मे परीक्षा दे तो ५००) २० पारितोषिक मिले।
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