भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र
राधाकृष्ण दास

लखनऊ: हिंदी समिति, उत्तर प्रदेश सरकार, पृष्ठ ७० से – ८५ तक

 

________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (५१) बाबू साहब की बुगाहकता पण्डित मडली के इन वाक्यो से प्रत्यक्ष विदित होती है। वास्तव में इन्हें अपनी प्रतिष्ठा का उतना ध्यान न था जितना दूसरे उपयुक्त सज्जनो के सम्मानित करने का। इस समय ये गवन्मेण्ट के भी कृपापान थे। 'कविवचनसुधा', 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' और 'बालाबोधिनी' की सौ सौ प्रतियाँ शिक्षाविभाग मे ली जाती थीं। 'विद्या सुन्दर' आदि की सौ सौ प्रतियां ली गईं। उसी समय ये पञ्जाब युनिवर्सिटी के परीक्षक नियुक्त हुये। ____ 'कविवचनसुधा' का प्रावर न केवल इस देश मे वरञ्च योरप में भी होने लग गया था। सन् १८७० ई० मे फ्रास के प्रसिद्ध विद्वान गार्सन दी तासी ने अपने प्रसिद्ध पत्र “ली लैगुना डेस हिन्दुस्तानिस' मे मुक्तकण्ठ से बाबू साहब और कविबचनसुधा' की प्रशसा की थी।


AKSANA CSCR3 चन्द्रिका और बालाबोधित A परन्तु देशहितैषी हरिश्चन्द्र इन थोथे सम्मानो मे भूलकर अपने लक्ष्य से चुकने वाले न थे। इन्हो ने देखा कि बिना मासिकपत्रों के निकाले और अच्छे अच्छे सुलेखको के प्रस्तुत किए भाषा की यथार्थ उन्नति न होगी। यह सोच उन्हें केवल 'कविवचनचसुधा से सतोष न हुआ, और सन् १८७३ई० मे हरिश्चन्द्र मंगजीन" का जन्म हुआ। ८ सख्या तक इस की निकली, फिर यही 'हरिश्चन्द्रचन्द्रिका' के रूप में निकलने लगा। मैगजीन के ऐसा सुन्दर पत्र प्राज तक हिन्दी में नहीं निकला। जैसाही सुदर प्राकार वैसाही कागज, वैसी ही छपाई और उस से कहीं बढ कर लेख । उस समय तक कितने ही सुलेखको को उत्साह देकर बाबू साहब ने प्रस्तुत कर लिया था। मगजीन के लेख और लेखक आज भी प्रादर की दृष्टि से देखे जाते हैं। हरिश्चन्द्र का पांचवां पैगम्बर मुन्शी ज्वाला प्रसाद का 'कलिराज की सभा', बाबू तोताराम का अद्भुत अपूर्व स्वप्न', मुन्शी कमला प्रसाद का रेल का विकट खेल', प्रादि लेख अाज तक लोग चाह के साथ पढ़ते हैं। लाला श्रीनिवास दास, बाबू काशीनाथ, बाबू गदाधरसिंह, बादू ऐश्वर्य (५२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र नारायण सिह, पण्डित हुँढि राजशास्त्री, श्रीराधाचरणगोस्वामी, पण्डित बद्रीनारा- यण चौधरी, राव कृष्णदेवशरण सिंह, पण्डित बापूदेव शास्त्री, प्रभूति विद्वज्जन इसके लेखक थे। इसी समय सन् १८७४ ई० मे इन्होने स्त्रीशिक्षा के निमित्त 'बालाबोधिनी' नाम की मासिकपत्रिका भी निकाली, जिसके लेख स्त्रीजनोचित होते थे। यही समय मानो नवीन हिन्दी की सृष्टि का है। यद्यपि भारतेन्दु जी ने सन् १८६४ ई० से हिन्दी गद्य पद्य का लिखना प्रारम्भ किया था और सन १९६८ में 'कविवचनसुधा' का उदय हुआ, परन्तु इसे स्वय भारतेन्द्र जी हिन्दी के उदय का समय नहीं मानते । वह मैगजीन के उदय (सन् १८७३ ई०) से ही हिन्दी का पुनर्जन्म मानते हैं। उन्हो ने अपने 'कालचक्र' नामक ग्रन्थ मे लिखा है "हिन्दी नये चाल मे ढली (हरिश्चन्द्री हिन्दी ) सन १८७३ ई०।" वास्तव मे जैसी लालित्यमय हिन्दी इस समय से लिखी जाने लगी वसी पहिले न थी। पेनी रीडिड्न इसी समय इन्होने 'पेनीरोडिङ्ग' ( Penny Reading ) नामक समाज स्थापित किया था जिस मे स्वय भद्र लोग तरह तरह के अच्छे अच्छे लेख लिख कर लाते और पढते थे। मैगजीन के प्राय सभी अच्छे अच्छे लेख इस समाज मे पढे गए थे। स्वय भारतेन्दु जी को दो मूर्तियाँ आज तक आखो के सामने घूमती हैं--एक तो श्रान्त पथिक बनकर आना और गठरी पटक पैर फला कर बैठ जाना आदि, और दूसरी पांचवें पैगम्बर की मूर्ति । इस समाज के प्रोत्साहन से भी बहुत से अच्छे अच्छे खेल लिखे गए। इसी समय के पीछे 'क'रमजरी' 'सत्य हरिश्चन्द्र' और 'चन्द्रावली' की रचना हुई, जो कि सच पूछिए तो हिन्दी की टकसाल हैं। जैसा ही अपने ग्रन्थो पर इन्हे स्नेह था उस से कहीं बढ कर इनका प्रेम दूसरे उपयुक्त प्रन्थकारी पर था। कितने ही नवीन और प्राचीन ग्रंथ इनके व्यय से मुद्रित और विना मूल्य वितरित हुए। वास्तव मे यदि हरिश्चन्द्र सरीखा उदार हृदय, रुपये को मट्टी समझने वाला, गुणग्राही नायक हिन्दी की पतवार को १ खेद का विषय है कि ( हरिश्चन्द्री हिन्दी ) इतना लेख जो स्वय भारतेन्दु जी ने लिखा था उसे कालचक्र छपने के समय खड्गविलास प्रेस वालो ने छोड दिया है। ________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (५३) उस समय न पकडता और सब प्रकार से स्वार्थ छोडकर तन मन धन से इसकी उन्नति मे न लग जाता, तो आज दिन हिन्दी का इस अवस्था पर पहुंचना कठिन था। हरिश्चन्द्र ने हिन्दी तथा देश के लिये सारे ससार की दृष्टि में अपने को मिट्टी कर दिया। उदारता, ऋण उस समय के 'साहित्यससार' की कुछ अवस्था आप लोगो ने सुनी । अब कुछ 'व्यावहारिक ससार' मे भी हरिश्चन्द्र को देख लीजिए। जगदीश यात्रा के पीछे उदारहृदय हरिश्चन्द्र का हाथ खुला। हम ऊपर कह ही चुके हैं कि बडे मादमियो के लडको पर धूर्तों की दृष्टि रहती ही है, अत इन्हें भी लोगों ने घेरा। एक तो यह स्वाभाविक उदार, दूसरे इनका नवीन वयस, तीसरे यह रसिकता के प्रागार, फिर क्या था, धन पानी की भॉति बहने लगा। एक ओर साहित्य सेवा मे रुपए लग रहे हैं, दूसरी ओर दीन दुखियो की सहायता मे तीसरे देशोपकारक कामो के चन्दो मे चौथे प्राचीन रीति के धम कार्यों मे और पाँचवें यौवनावस्था के मानन्द विहारो मे । इन सभो से बढ कर द्रव्य की ओर इनकी दृष्टि न रहने के कारण, अप्रबन्ध तथा अथलोलुप विश्वासघातको के चक्र ने इनके धन को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया। एक धार से बहने पर तो बडे बडे नदी नद सूख जाते हैं, तो फिर जिसके शतधार हो उसका कौन ठिकाना! घर के शुभचिन्तको ने इन्हें बहुत कुछ समझाया, परतु कोन सुनता था ? स्वय काशीराज महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह बहादुर ने कहा "बबुना | घर को देख कर काम करो"। इन्होने निर्भीत चित्त हो उत्तर दिया “हुजूर | इस धन ने मेरे पूर्वजो को खाया है, अब मै इसे खाऊँगा"। महाराज अवाक्य रह गए। शौक इन्हें ससार के सौन्दय मात्र ही से था । गाने बजाने, चित्रकारी, पुस्तक सग्रह, अद्भुत पदार्थों का संग्रह (Museum), सुगन्धि की वस्तु, उत्तम कपडे, उत्तम खिलौने, पुरातत्व की बस्तु, लैम्प, बालबम, फोटोग्राफ इत्यादि सभी प्रकार को बस्तुप्रो का ये आदर करते और उन्हें संग्रहीत करते थे। इन के पास कोई गुणी पाजाय तो वह विमुख कभी न फिरता। कोई मनोहर बस्तु देखी और द्रव्य व्यय के विचार बिना चट भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न था, जब कि मैंने अपनी गरज से समझ बूझ कर उसका मूल्य तथा नजराना आदि स्वीकार कर लिया, तो क्या अब देने के भय से मै उस सत्य को भग कर दूं ?" धन्य हरिश्चन्द्र धन्य । 'सत्य हरिश्चन्द्र' लिखने के उपयुक्त पात्र तुम्हीं थे। ये वाक्य तुम्हारी ही लेखनी से निकलने योग्य थे- "चन्द टरै, सूरज टर, टरै जगत व्यवहार । पै दृढ श्रीहरिचन्द को, टरै न सत्य विचार॥" यह दृढ़ता और यह सत्यता उनको अन्त समय तक रही। वह पास द्रव्य न होने से दे न सकै परन्तु अस्वीकार कभी नहीं कर सकते थे। थोडे ही दिनो मे उनकी सारी पैतृक सम्पत्ति जाती रही और वह धन खोने के कारण 'नालायक' समझे जाने लगे। इनके मातामह की लाखो की सम्पत्ति थी, जिसके उत्तरा- धिकारी यही दोनो भाई थे। इनकी मातामही ने ५ मे सन् १८६२ ई० को इन दोनो भाइयो के नाम अपनी समग्र सम्पत्ति का वसीयतनामा लिख दिया था। परन्तु अब तो ये नालायक ठहरे, इनके हाथ जाने से कोई सम्पत्ति बच न सकेंगी, बडो का नाम निशान मिट जायगा, इसलिये १४ एप्रिल सन् १८७५ ई० को माता- मही ने दूसरा वसीयतनामा लिखा, जिसके अनुसार इन्हें कुछ भी अधिकार न देकर सर्वस्व छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र को दिया। निस्पृह हरिश्चन्द्र को न पहिले वसीयतनामे से सम्पत्ति पाने का हष था, न इसके अनुसार उसके खोने का खेद हुमा। वकीलो को सम्मति से हिन्दू अबीरा स्त्री का इन्हें भागरहित करना सक्था कानून के विरुद्ध था, इसमे स्वय इनके स्वीकार की प्रावश्यकता थी, अतएव २८ अक्तूबर सन् १८७८ ई० को मातामही ने एक बखशीशनामा छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र के नाम लिख दिया और उदार हृदय हरिश्चन्द्र ने उस पर अपनी स्वीकृति करके हस्ताक्षर कर दिया। जिस स्वर्गीय हरिश्चन्द्र को सुमेरु भी उठाकर किसी दीन दुखी को देने मे सकोच न होता, उसे इस तुच्छ सम्पत्ति को अपने सहोदर छोटे भाई को देना क्या बडी बात थी। कहने के साथ हस्ताक्षर कर दिया। इस बखशिशनामे के अनुसार इन्हें केवल चार हजार रुपया मिला था। इस प्रकार थोडे काल मे नगरसेठ हरिश्चन्द्र राजा हरिश्चन्द्र की भाँति धनहीन हरिश्चन्द्र हो गए । 'सत्य हरिश्चन्द्र' की रचना के समय पण्डित शीतला प्रसाद त्रिपाठी जी ने

सत्य कहा था कि
(५६)
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र

"जो गुन नप हरिचन्द मे, जगहित सुनियत कान । सो सब कवि हरिचन्द मे, लखहु प्रतच्छ सुजान ॥ परन्तु इतना होने पर भी इन की उदारता या इन के अपरिमित व्यय मे कमी कभी न हुई। मरने के समय तक ये हजारो ही रुपए महीने मे व्यय करते थे और वह परमेश्वर की कृपा से कही न कहीं से श्राही जाते थे। सम्पत्तिनाश के पीछे ये बीस बाईस वर्ष और जीए, इतने समय मे इन्होने कम से कम तीन चार लाख रुपये व्यय किए, और लाखो ही रुपये ऋण किए, परतु जिस जगतपिता जगदीश्वर की सन्तान के उपकार के लिये इन का धन व्यय होता था उस की कृपा से न तो कभी इन का हाथ रुका और न मरने के समय ये ऋणी ही मरे ।

हिंदी के राजभाषा बनाने का उद्योग

अब फिर साधारण हितकर कार्यों तथा साहित्य चर्चा की ओर झुकिए। जब विद्यारसिक सर विलियम म्योर की लाटगीरी का समय पाया, उस समय हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिये बहुत कुछ उद्योग किया गया, परन्तु सफलता न हुई। ये इस उद्योग मे प्रधान थे। सभाएं की थीं, प्राथनापत्र भेजे थे, समाचार पत्रो मे आन्दोलन किया था। हिन्दी के उत्तम ग्रन्थो के लिये पारितोषिक देने की व्यवस्था की गई, परन्तु उस मे भी सिफारिश की बाजार गर्म हुई। "रत्नावली", "उत्तर- रामचरित्र' प्रादि के अनुवाद ऐसे भ्रष्ट निकले कि हिन्दी साहित्य को लाभ के बदले बड़ी हानि पहुंची। उन अनुवादको को बहुत कुछ पारितोषिक दिया गया, किन्तु उत्तम ग्रन्थो की कुछ भी पूछ न की गई। केम्पसन साहब उस समय शिक्षाविभाग के डाइरेक्टर थे, राजा शिवप्रसाद उन के कृपापान थे। इधर राजा साहब का हृदय अपने सामने के एक 'छोकरें' की उन्नति से जला हुआ था, उधर बाबू साहब का हृदय 'हाकिमी प्रत्याय से कुढ गया था, दूसरा एक कारण राजा साहब से इन के विरोध का यह हुआ कि राजा साहब ने फारसी आदि मिश्रित खिचडी हिन्दी की सृष्टि कर के उसे चलाना चाहा, और बाबू साहब ने शुद्ध हिन्दी लिखने का मार्ग चलाया और सर्व साधारण ने इसी को रुचि के साथ ग्रहण किया। अब इसे रोकने और उसे चलाने का उपाय गवर्मेण्ट की शरण बिना असम्भव जान राजा साहब ने हाकिमो को उधर ही झुकाया। यही एक प्रधान कारण उस समय हिन्दी राजभाषा न होने का भी हुआ था । यदि भाषा का झगडा न हो कर अक्षरोहीका होता तो सम्भव था कि सफलता हो जाती।

इसके पीछे एजूकेशन कमीशन के समय भी बडा उद्योग किया था, तथा प्रयाग हिन्दू समाज के पूरे सहायक थे जिसने इस विषय मे बडा उद्योग किया था।

गवर्मेण्ट का कोप

बाबू साहब का स्वभाव कौतुकप्रिय और रहस्यमय तो था ही। इन्हो ने तरह तरह के पच लिखने प्रारम्भ किए। इधर हाकिमो के कान भरे जाने लगे। एक लेख 'लेवी प्राणलेवी' तो निकला ही था, जिस मे लेवी दर्वार मे हिन्दुस्तानी रईसो की दुर्दशा का वर्णन था, दूसरा एक 'मसिया' निकला जिस का कटाक्ष सर विलियम म्योर पर घटाया गया। बस, फिर क्या था, बरसो की भरी भराई बात निकल पडी, गवन्मेण्ट की कोपदृष्टि इन पर पडी। इस लेख के कारण 'कवि- वचनसुधा', जो गवन्मेण्ट लेती थी, वह बन्द किया गया। 'हरिश्चन्द्रचद्रिका' यह कहकर बन्द की गई कि इस मे कवि-हृदय-सुधाकर ऐसा घृणित ग्रन्थ छपता है। उक्त ग्रन्थ मे एक यती और वेश्या का सम्वाद है। एक योग ज्ञान आदि की बडाई करता और दूसरा भोग विलास की। अन्त जय यती की हुई। यह उपदेशमय अन्थ कुरुचि उत्पादक समझा गया। 'बालाबोधनी' यह कहकर बन्द की गई कि मावश्यकता नहीं है। अगरेजो मे चारो ओर इन्हें डिसलायल (राज बिरोधी) कहकर धारणा होने लगी। इन का स्वाधीन और उन्नत हृदय इस लाछना को सहन न कर सका । पहिले तो इन्हो ने उद्योग किया कि इस अनुचित विचार को दूर करावें, परन्तु इस मे कृतकार्य न होने पर इन्हो ने राजपुरुषो से सारा सम्बन्ध छोडनाही उचित समझा, क्योकि जिस व्रत को इन्होने धारण किया था उसमे हाकिम-समागम से बहुत कुछ बाधा पडती थी। आनरेरी मैजिस्ट्रेटी आदि सरकारी कामो को छोड अपने उदार उद्देश्यो की ओर लगे। वास्तव मे जिन लोगो ने इन को अपदस्थ करना चाहा था, उन्हो ने इस देश तथा स्वय के साथ बडा उपकार किया, क्योकि यदि यह घटना न होती तो ये न तो 'भारतनक्षत्र' (स्टार प्राफ (५८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र इण्डिया) के बदले में 'भारतेन्दु' (मून श्राफ इण्डिया) होते, और न सच्चे सहृदय हरिश्चन्द्र को पाकर यह देश ही इतना लाभ उठा सकता। राजभक्ति यहाँ कुछ विचार इस का भी करना आवश्यक है कि ये राजद्रोही थे या राजभक्त । यदि इन के लिखे 'भारतदुर्दशा नाटक को विचारपूर्वक देखा जाय तो इस प्रश्न का उत्तर सहज मे मिल सकता है। उस मे स्पष्ट दिखला दिया है कि हाकिम लोग राजद्रोह उसे समझे है जो वास्तविक राजभक्ति है। केवल 'करदुख बहै' इतना कहना ही राजद्रोह का चिन्ह समझा जाता है। इस बात को राजा शिवप्रसाद ने मुक्त कण्ठ से अपनी जुविली की वक्तृता मे कह दिया है, परन्तु राज- भक्त भारतहितषी हरिश्चन्द्र ऐसा कहना पूरी राजभक्ति का चिन्ह समझते थे। वह प्रजा के दुखो को राजा के कानो तक पहुंचाना राजहित समझते थे। जो व्यक्ति 'भारतजननी', 'भारतदुर्दशा' ग्रन्थो मे, जिनमे उस के राजनैतिक विचार स्पष्ट रूप से बणित हैं मुक्तकठ से यो कहता है- "पृथीराज जयचन्द कलह करि यवन बुलायो । तिमिरलग चगेज आदि बहु नरन कटायो॥ अलादीन औरगजेब मिलि धरम नसायो । विषय वासना दुसह मुहम्मदसह फैलायो॥ तब लो बहु सोए बत्स तुम जागे नहिं कोऊ जतन । अब तौ रानी विक्टोरिया, जागहु सुत भय छाडि मन ॥" क्या वह कभी भी राजद्रोही हो सकता है जो यह कह कर- "अँगरेज राज सुख साज सजे सब भारी । पै धन विदेस चलि जात यहै अति ख्वारी॥" अपने देशवासियो को व्यापार की उन्नति करने को उत्तेजित करता है ? इनके बलिया आदि के व्याख्यान, कविता, नाटक, लेखादि जिसे देखिएगा, उस मे ब्रिटिश सासन से भारत के कल्याण का प्रमाण मिलेगा। हाँ, इन की बुद्धि मे जो बातें भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (५६) प्रबन्ध की त्रुटि के विषय की पाती, उन्हें ये मुक्तकठ से कह डालते और इस सुखमय शासन का वास्तविक लाभ जो अभागे भारतवासी नहीं उठाते, उसपर अवश्य परिताप करते थे। राजभक्त हरिश्चन्द्र अपनी सर्कार के दुख और सुख को अपना दुख और सुख मानते थे। कौन ऐसा अवसर था जब राजा के दु ख मे दुःख और सुख मे सुख इन्होने नहीं प्रकाश किया। ड्यूक पाए तब इन्होने महा महोत्सव किया और 'सुमनोञ्जलि' भेट की। प्रिन्स आफ वेल्स पाए तब भारत की यावत भाषामो मे कविता बनवाकर 'मानसोपायन' भेंट किया। इङ्गलैण्ड की रानी ने जब भारत को साम्राज्ञी का पद ग्रहण किया, तब भी इन्होने महा महोत्सव किया और 'मनोमुकुलमाला अर्पण की। काबुल विजय पर "विजयबल्लरी" बनी, मिथ विजय पर 'विजयिनी विजय बैजयन्ती' उड्डीयमाना हुई, प्रिन्स या महारानी कोई राज परिवार मे रुग्न हुए तब उनकी प्रारोग्य कामना के लिये ईश्वर से प्रार्थना की गई, कविता बनी। जब महारानी किसी दुष्ट की गोली से बची तब इन्होने महा महोत्सव मनाया, जिस की सराहना स्वय भारतेश्वरी ने की । जातीय सगीत (National Anthem) के लिये जो प्रतिष्ठित कमेटी बनी, उसके ये सभ्य हुए और उसका इन्होने अनुवाद किया। ड्यूक आफ अलबेनी की मृत्यु पर इन्होंने शोक प्रकाशक महासभा की। प्रति वर्ष महारानी की वर्षगांठ पर ये अपने स्कूल का वार्षिकोत्सव करते थे। निदान भारतेश्वरी के कोई सुख या दुख का ऐसा अवसर न था जब इन्होने अपनी सहानुभति न प्रकाश को हो-हाँ साथ ही ये 'भारतभिक्षा' ऐसे ग्रन्थो के द्वारा अपनी उदार सरकार से 'भिक्षा' अवश्य मॉगते थे, वह चाहे भले ही राजद्रोह समझा जाय । यो तो विरोधियों को डयूक आफ् अलबेनी के अकाल प्रसित होने पर इनका शोक प्रकाशक सभा करना भी राजद्रोह सुझाई पडा उन महापुरुषो ने सभा को अपरिणामदर्शी हाकिम की सहायता से रोक दिया, जिस के लिये भारतेन्दु से राजा शिवप्रसाद के द्वारा काशीराज से भी झगडा हो गया और बडे बखेडे के पीछे तब फिर से सभा हुई। हम इन की राज- भक्ति के विषय मे और कुछ नहीं कहा चाहते, वरन् इस का विचार पाठको के ही उदार और न्यायपूर्ण निर्णय पर छोडते हैं। समाज सुधार हमारे पाठको ने इन्हें उस समय के साहित्य ससार, व्यावहारिक वा पारि- वारिक ससार और राजकीय ससार मे देखा, अब कुछ सामाजिक ससार मे (६०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र भी देखे। इन्होने हिन्दू समाज वैश्य-अग्रवाल जाति में जन्म ग्रहण किया था और धर्म श्री बल्लभीय वैष्णव था। जो समय इन के उदय का था वह इस प्रान्त मे एक विलक्षण सन्धि का समय था। एक ओर पुरानी लकीर के फकीरो का जोर, दूसरी ओर नव्य समाज की नई रौशनी का विकाश । पुराने लोग पुरानी बातो से तिल- मान भी हटने से चिढते और नास्तिक, किरिस्तान, भ्रष्ट प्रादि की पदवी देते, नए लोग एक वारगी पुराने लोगो और पुरानी रीति नीति को रसातल भेज, ईश्वर के अस्तित्व में भी सन्देह करनेवाले थे। हरिश्चन्द्र इन दोनो के बीच विषम समस्या मे पडे। प्राचीन मर्यादावाले बडे घराने मे जन्म लेने के कारण प्राचीन लोग इन्हें जामा पगडी पहिना तिलक लगाकर परम्परागत चाल की भोर ले जाना चाहते थे। और नवीन सम्प्रदाय इन के बुद्धि का विकाश तथा रुचि का प्रवाह देखकर इन से प्राचीन धर्म और प्राचीन सम्प्रदाय को तिरस्कृत करने की प्राशा करते थे। परन्तु दोनो ही अशत निराश हुए। इन का मार्ग ही कुछ निराला था, इन्हें गुण से प्रयोजन था, ये सत्य के अनुगामी थे। किसी का भी क्यो न हो दोष देखा और मुक्तकठ हो कह दिया, असत्य का लेश पाया और पूर्ण विरोधी हुए। हिन्दू जाति, हिन्दू धम, हिन्दू साहित्य इन को परम प्रिय था। श्रीवल्लभीय वैष्णव सम्प्रदाय के पूरे अनुगामी थे। जाति भेद को मानकर अपनी वैश्य जाति के ऊपर पूर्ण प्रेम रखते थे, परन्तु साथ ही बुरी बातो को निन्दा डके की चोट पर कर देते थे, नि.शडू हो कर ऐसे ऐसे वाक्य लिख देते थे-- "रचि बहु बिधि के वाक्य पुरानन माहिं घुसाए । शैव शाक्त वैष्णब अनेक मत प्रगट चलाए। बिधवा ब्याह निषेध कियो व्यभिचार प्रचारयो । । रोकि बिलायत गयन कूप मडूक बनायो।। औरन को ससग छुडाइ प्रचार घटायो । बहु देबी देवता भूत प्रेतादि पुजाई॥ ईश्वर सो सब विमुख किए हिन्दुन घबराई । अपरस सोल्हा छूत रचि भोजन' प्रीति छुडाय ।। किए तीन तेरह सवै चौका चौका लाय" । "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" मे लिख दिया - "पियत भट्ट के ठट्ट अरु गुजरातिन के बृन्द । गौतम पियत अनन्द सो पियत अन के नन्द"॥ भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६१) "प्रेमयोगिनी" मे मन्दिरो तथा तीर्थबासी ब्राह्मणो आदि का रहस्योद्घाटन पूरी रीति पर कर दिया। "प्रङ्गरेज-स्तोत्र" लिखा, जिस का अपढ़ समाज में उलटा फल फला कि यह तो 'किरिस्तान' हो गए। जैनमन्दिर में जाने के कारण लोग नास्तिक, धमबहिर्मुख कहकर निन्दा करने लगे, (इसी पर "जैन-कुतूहल" बना)। नवीन वयस, रसिकतामय स्वभाव, विलासप्रियता, परम स्वतन्त्र प्रकृति --निदान चारो ओर से लोग इन की चाल व्यवहार पर आलोचना करते और कटाक्षो मौर निन्दा की बौछारो का ढेर लगा देते थे। कोई कहता "दुइ चार कवित्त बनाय लिहिन, बस हो गया", कोई कहता "पढिन का है दुइ चार बात सीख लिहिन, किरिस्तानीमते को"। ऐसी बातो से हरिश्चन्द्र का हृदय व्यथित होता था। उन्होने निज चरित्र तथा उस समय की अवस्था दिखाने के लिये "प्रेम योगिनी" नाटक लिखना प्रारम्भ किया था जो अधूरा ही रह गया, परतु उस उतनेही से उस समय का बहुत कुछ पता लगता है। उसमे इन्होंने अपने मन का क्षोभ दिखलाया है। इस इतने विरोध और निन्दावाद पर भी आश्चय की बात यह है कि लोग इन्हें अजातशत्रु कहते है और यह उपाधि इनकी सववादिसम्मत है। आदि कविता अब हम सक्षेपत इनके उन कामो का वर्णन करते हैं जिन्होने इन्हें लोकप्रिय बनाया। यह हम ऊपर कह ही पाए हैं कि इन्होने अत्यन्त वाल्यावस्था से कविता करनी प्रारम्भ की थी। अब इन की कुछ प्रादि कविताएँ उद्धृत करते हैं। सबसे पहिला पद यह बनाया -- ___ "हम तो मोल लिए या घर के । दास दास श्री बल्लभकुल के चाकर राधाबर के। माता श्री राधिका पिता हरि बन्धु दास गुनकर के । हरीचन्द तुमरे ही कहावत, नहिं बिधि के नहिं हर के"॥ सब से पहिली सवैया यह है-- "यह सावन सोक नसावन है, मन भावन यामैं न लाजै भरो। जमुना पै चलौ सु सबै मिलि के, अरु गाइ बजाइ के सोक हरो॥ (६२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न इमि भाषत हैं हरिचन्द पिया, अहो लाडिली देर न यामे करो। बलि झूलो झुलाओ झुको उझको, एहि पापै पतिव्रत ता धरो॥" सब से पहिली ठुमरी यह बनाई- “पछितात गुजरिया घर मे खरी॥ अब लग श्यामसुन्दर नहिं आए दुख दाइन भई रात अंधरिया। बैठत उठत सेज पर भामिनि पिया बिना मोरी सूनी सेजरिया ।" सब से पहिले अपने पिता का बनाया ग्रन्थ "भारतीभूषण" शिला-यन्त्र (लीथोग्राफ) मे छपवाया। सब से पहिला नाटक "विद्यासुन्दर" बनाया। नवीन रसो की कल्पना। इनकी बुद्धि का विकाश अत्यन्त अल्पवय मे ही पूरा पूरा हो गया था। सस्कृत मे कविता रचने की सामथ्य थी, समस्यापूर्ति बात की बात मे करते थे। उस समय की इनकी समस्याएँ "कवि बचन सुधा" तथा मेगजीन मे प्रकाशित हुई हैं जिन्हें देखकर आश्चय होता है। सब से बढकर आश्चय की घटना सुनिए । पण्डित ताराचरण तर्करत्न काशिराज महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिह बहादुर के समापण्डित थे, कविताशक्ति इनकी परम आदरणीय थी, ऐसे कवि इस समय कम होते हैं। विद्वान् ऐसे थे कि स्वामी दयानन्द सरस्वती सरीखे विद्वान् से इनका शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। उन पण्डित जी ने "शृङ्गार रत्नाकर" नामक संस्कृत मे शृङ्गाररस विषयक एक काव्य-ग्रन्थ काशिराज की आज्ञा से सम्वत १९१९ (सन् १८६२) मे बनाकर छपवाया है। उस समय बालक हरिश्चन्द्र की अवस्था केवल १२ वर्ष की थी, परन्तु इस बालकवि की प्रखर बुद्धि ने प्रौढ कवि तर्करत्न को मोहित कर लिया था, उन्हें भी इन की युक्ति युक्त उक्तियो को प्रादर के साथ मान्य करके अपने ग्रन्थ मे लिखना पडा था। साहित्यकारो ने सदा से नव ही रसो का वर्णन किया है, परन्तु हरिश्चन्द्र की सम्मति मे ४ रस और अधिक होने चाहिए। वात्सल्य, सख्य, भक्ति और प्रानन्द रस अधिक मानते थे। इनका कथन था कि इन चारो का भाव, शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शात, इन, नवो रसो मे से किसी मे समाविष्ट नहीं होता, अतएव इन चारो भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (६३) को पृथक रस मानना चाहिए। इनके अकाटय प्रमाणो से मुग्ध होकर तर्करत्न महाशय ने अपने उक्त ग्रन्थ मे लिखा है "हरिश्चन्द्रास्तु वात्सल्य सख्या भक्तया- नन्दाखयमधिक रस चतुष्टय मन्वते" आगे चलकर इन्होने उदाहरण भी दिए हैं। यो ही शृगार रस में भी ये अनेक सूक्ष्म भेद मानते थे, जैसे ईर्षामान के दो भेद, विरह के तीन, शृङ्गार के पञ्चधा, नायिका के पाँच, और गविता के पाठ, यो ही कितने ही सूक्ष्म विचार हैं जिनको तकरत्त महाशय ने सोदाहरण इनके नाम से अपने उक्त ग्रन्थ मे मानकर उद्धृत किए हैं। इनके इन नए मतो पर उस समय पण्डित मडली मे बहुत कुछ लिखा पढी हुई थी, इसका आन्दोलन कुछ दिनो तक, सुप्रसिद्ध “पण्डित" पत्र में, (जो "काशी-विद्या-सुधानिधि" के नाम से सस्कृत कालेज से निकलता है) चला था। खेद का विषय है कि इस विषय का पूरा निराकरण वह किसी अपने ग्रन्थ मे न कर सके। उनकी इच्छा थी कि अपने पिता के अधूरे ग्रन्थ "रस रत्नाकर" को पूरा कर और उसी में इस विषय को लिखे। इसे उन्होने प्रारम्भ भी किया था और नाम मात्र को थोडा सा "हरि- श्चन्द्र मैगजीन" के ७-८ अङ्क मे प्रकाशित भी किया था कि जिसको देखने ही से बटुए के एक चावल की भाँति पूरे प्रथ का पता लगता है। परन्तु उनकी यह इच्छा मन की मन ही मे रह गई और इसमे उन्हो ने अपने उस बडे दोष को प्रत्यक्ष कर दिखाया जिसे स्वय ही "चन्द्रावली नाटिका" के प्रस्तावना में पारिपार्श्वक के मुख से कहलाया था कि "वह तो केवल प्रारम्भ शूर है" । बाबू साहेब ने इन रसो का कुछ सक्षिप्त वर्णन अपने "नाटक" नामक ग्रन्थ मे किया है । अस्तु, जो कुछ हो, परन्तु ऐसे गम्भीर विषय पर एक १२ वर्ष के बालक का मत प्रकाश करना और एक बडे पण्डित को मना देना क्या प्राश्चय की बात नहीं है ? काशी मे होमियोपैथिक का प्रचार होमियोपैथिक चिकित्सा का नाम तक काशी में कोई नहीं जानता था, पहिले पहिल इन्होने ही अपने घर में इसे प्रारम्भ किया और इसके चमत्कार गुणो से मोहित हो "होमियोपैथिक दातव्य चिकित्सालय" (सन् १८६८) स्थापित कराया, जिसमे बराबर तन मन धन से ये सहायता देते रहे इस चिकित्सालय मे १२०) वार्षिक चन्दा सन् १८६८ से ७३ तक देते रहे। बाबू लोकनाथ मैत्र बङ्गाल (६४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र के प्रसिद्ध होमियोपथिक चिकित्सक थे, वही पहिले डाक्तर काशी में पाए और उनसे भारतेन्दु जी से बडा बन्धुत्व था। इनके पीछे डाक्तर ईश्वरचन्द्र रायचौधरी इनके चिकित्सक थे। अन्त में भी इन्हीं की दवा होती थी। इन्हें भारतेन्दु जी सवा नागरी अक्षर और बङ्ग-भाषा मे पत्र लिखा करते थे। "कविता-वद्धिनी-सभा" "कविता-वद्धिनी-समा" वा कविसमा का जन्म सम्वत् १९२७ मे हुआ था जिससे कितने ही गुणियो का मान बढाया जाता था और कितने ही कवियो को प्रशसापत्र दिए जाते थे, कितने ही नवीन कवि प्रोत्साहित करके बनाए जाते थे। पण्डित अम्बिकादत्त व्यास साहित्याचाय को “पूरी अमी की कटोरिया सी चिर- जीवी रहौ विकटोरिया रानी" पूर्ति पर प्रशसापत्र तथा सुकवि की पदवी दी गई थी, जिसका प्रभाव उक्त पण्डित जी पर कैसा कुछ हुआ यह उनके चरित्रालोचन ही से प्रकट है। उस समय कवियो का प्रभाव नहीं था, सेवक, सरदार, नारायण, हनुमान, दीनदयाल गिरि, दत्त (पण्डित दुर्गादत्त गौड), द्विज मन्नालाल, प्रादि अच्छे प्रच्छे कवि जीवित थे, प्राय सभी पाते और विलक्षण समागम होता था। इससे जो प्रशसापत्र दिया जाता था वह यह था -- प्रशंसापत्र। यह प्रशसापत्र को कवि सभा की ओर से इस हेतु दिया जाता है कि आज की समस्या को (जो पूण करने के हेतु दी गई थी) इन्हो ने उत्तमता से पूर्ण किया और दत्त विषय की कविता इन ने प्रशसा के योग्य की है इस हेतु मिती काव्य वद्धिनी सभा के सभापति, सभाभूषण, सभासद और लेखाध्यक्षो ने अत्यन्त प्रसन्नता पूथ्वक प्रादर से इन को यह पत्र दिया है। मि० सवत् १९२७ क है. सभापति लेखाध्यक्ष - - - . - भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६५) मुशायरा यद्यपि ये हिन्दी के जन्मदाता और उर्दू के शत्रु कहे जाते है, परन्तु गुण ग्रहण करने मे शत्रु मित्र का विचार नहीं करते थे। उर्दू कविमो के प्रोत्साहन के लिये सन् १२८४ हिज्री (सन् १८६६ ई०) मे इन्होने "मुशाइरा" स्थापित किया था, जिसमे उस समय के शाइर इकटठे होते और समस्या पूर्ति करते । स्वय बाबू साहब भी कविता (उर्दू) करते थे। अपना नाम उर्दू कविता में "रसा" (पहुँचा हुआ) रखते थे। धर्म सभा तथा तदीय समाज कांशीराज महाराज की ओर से काशी मे "धम सभा" सस्थापित हुई थी । इसके द्वारा परीक्षाएँ होती थीं, अनेक धर्म काय होते थे, इस के ये सम्पादक और कोषाध्यक्ष नियुक्त हुए थे। सम्बत् १९३० मे इन्होने "तदीय समाज" स्थापित किया था। यद्यपि यह समाज प्रेम और धर्म सम्बन्धी था, परन्तु इस से कई एक बडे बडे काम हुए थे। इसी समाज के उद्योग से दिल्ली दर्बार के समय गवर्मेण्ट की सेवा मे सारे भारत- वर्ष की ओर से कई लाख हस्ताक्षर कराके गोबध बन्द करने के लिये अर्जी गई थी। गोरक्षा के लिये 'गोमहिमा' प्रभूति ग्रन्थ लिख कर बराबर ही आन्दोलन मचाते रहे। लोग स्थान स्थान में 'गोरक्षिणी सभाओं' तथा गोशालानो के स्थापित होने के सूत्रधार मुक्तकठ से इनको और स्वामी दयानद सरस्वती को मानते है। इस समाज ने हजारो ही मनुष्यो से प्रतिज्ञा लेकर मद्य और मास का व्यवहार बन्द कराया था। उस समय तक यहाँ कहीं Total Abstinence Society का जन्म भी नहीं हुआ था। इस समाज की ओर से हजारो पुस्तके दो प्रकार की चेक बही के भाँति छपवाकर बाँटी गई थीं, जिनमें से एक पर दो साक्षियो के सामने शपथपूवक प्रतिज्ञा लिखाई जाती थी कि मै इतने काल तक शराब न पीऊँगा और दूसरे पर मास न खाने की प्रतिज्ञा थी। कुछ दिन तक इसका बडा जोर था। इस समाज ने बहुत से लोगो से प्रतिज्ञा कराई थी कि जहां तक (६६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न सम्भव होगा वे देशी पदार्थों ही का व्यवहार करेंगे। स्वय भी इस प्रतिज्ञा का पालन यथासाध्य करते रहे। इस समाज से "भवगक्तितोषिणी" मासिक पत्रिका भी निकली थी जो थोडे ही दिन चलकर बन्द हो गई। इस समाज के नियमादि विशेष रोचक है इसलिये प्रकाशित किए जाते है। स समाज को मि० श्रावण शुक्ल १३ बुधवार स० १९३० को प्रारम्भ किया था।। सके नियम ये थे-- १ श्री तदीय समाज इसका नाम होगा। २ यह प्रति बुधवार को होगा। ३ कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भी होगा। ४ प्रत्येक वैष्णव इस समाज मे पा सकते हैं परन्तु जिनका शुद्ध प्रेम होगा वे इसमे रहेंगे। ५ कोई प्रास्तिक इस समाज में आ सकता है पर जब एक सभासद उसके विषय मे भली भाँति कहेगा। ६ जो कुछ द्रव्य समाज मे एकत्रित होगा धन्यवाद पूर्वक स्वीकार किया जायगा। समाज क्या करेगा-- (क) समाज का प्रारम्भ किसी प्रेमी के द्वारा ईश्वर के गुणानुवाद से होगा। (ख) गुरुप्रो के नामो का सङ्कीर्तन होगा। (ग) एक वक्ता कोई सभासद गत समाज के चुने हुए विषय पर कहेगा। घ) एक अध्याय श्री गीताजी का और श्रीमद्भागवत दशम का एक अध्याय, पढे जायेंगे। (ड) समाज के समाप्ति मे नाम सङ्कीर्तन होगा और दूसरे समाज के हेतु विषय नियत किया जायगा और प्रत में प्रसाद बॅटेगा। ८ इसके और भी क्रम सामाजिको की प्राज्ञा से बढ़ सकते हैं। & यद्यपि इस समाज से जगत और मनुष्यो से कुछ सम्बन्ध नहीं तथापि जहाँ तक हो सकेगा शुद्ध प्रेम की वृद्धि करेगा और हिंसा के नाश करने मे प्रवृत्त होगा। इसके ये महाशय सभासद थे, १ श्री हरिश्चन्द्र २ राजा भरत पूर (राव श्री कृष्णदेव शरण सिंह-अच्छे कवि और विद्वान थे) ३ श्री गोकुलचन्द्र ४ दामो- पर शास्त्री (संस्कृत हिन्दी के प्रसिद्ध कवि) ५ तिलवण कर ( १ ) ६ तारकाभारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६७) श्रम (अच्छे विरक्त थे) ७ प्रयागदत्त (सच्चरित्र ब्राह्मण थे) ८ शुकदेव मिश्र (श्री गोपाललाल जी के मन्दिर के कीर्तनिया) ६ हरीराम (प्रसिद्ध वीणकार बाजपेई जी) १० व्यास गणेशराम जी (श्री मद्भागवत के अच्छे वक्ता थे, बडे उत्साही थे, भागवत सभा, कान्यकुब्ज पाठशाला के संस्थापक थे) ११ कन्हैया- लाल जो (बाबू गोपालचन्द्र जी के सभासद) १२ शाह कुन्दनलाल जी (श्री वृन्दाबन के प्रसिद्ध कवि और महानुभाव) १३ मिश्र रामदास (?) १४ बाबा जी ( १ ) १५ बिट्ठल भट्टजी (बडे विद्वान और भावुक वक्ता थे) १६ मोरजी (प्रसिद्ध तीर्थोद्धारक गोरजी दीक्षित) १७ रामचन्द्र पत (?) १८ रघुनाथ जी (जम्बू राजगुरु बडे विद्वान और गुणी थे) १६ शीतल जी (काशी गवर्मेण्ट कालिज के सुप्रसिद्ध अध्यापक, पण्डित मण्डली में मुख्य और संस्कृत हिन्दी के कवि) २० बेचनजी (गवर्मेण्ट कालिज के प्रधानाध्यापक, पण्डित मात्र इन्हें गुरुवत् मानते थे और अग्रपूजा इनकी होती थी, महान् विद्वान और कवि थे) २१ वीसूजी (काशी के प्रसिद्ध रईस, परम वैष्णव और सत्सङ्गी) २२ चिन्ता- मणि (कवि-वचन-सुधा के सम्पादक) २३ राघवाचार्य (बडे गुणी थे) २४ ब्रह्मदत्त (परम विरक्त ब्राह्मण थे) २५ माणिक्यलाल (अब डिप्टी कलकटर हैं) २६ रामायण शरण जी (बडे महानुभाव थे, समन तुलसीकृत रामायण कठ थी, पचासो चेले लिए रामायण गाते फिरते थे, बडे सुकठ थे, काशिराज बडा आदर करते थे, काशी के प्रसिद्ध महात्मानो मे थे) २७ गोपालदास २८ वृन्दाबन जी २६ बिहारी लाल जी ३० शाह फुन्दन लाल जी (शाह कुन्दन लाल जी के भाई, बडे महानुभाव थे) ३१ पण्डित राधाकृष्ण लाहौर (पञ्जाब केशरी महा- राज रजीत सिंह के गुरु पण्डित मधुसूदन के पौत्र, लाहौर कालिज के चीफ पण्डित) ३२ ठाकुर गिरिप्रसाद सिंह (बेसवां के राजा, बडे विद्वान और वैष्णव थे) ३३ श्री शालिग्रामदास जी लाहौर (पञ्जाब मे प्रसिद्ध महात्मा हुए हैं, सुकवि थे) ३४ श्री श्रीनिवासदास लाहौर ३५ परमेश्वरी दत्त जी (श्रीमद्भागवत के प्रसिद्ध वक्ता थे) ३६ बाबू हरिकृष्णदास (श्री गिरिधर चरितामृत आदि ग्रन्थों के कर्ता) ३७ श्री मोहन जी नागर ३८ श्री बलवन्त राव जोशी ३६ व्रजचन्द्र (सुकवि हैं) ४० छोटू लाल (हेड मास्टर हरिश्चन्द्र स्कूल) ४१ रामूजी। इसमे बिना आज्ञा कोई नहीं आने पाता था। काशी के प्रसिद्ध जज पण्डित हीरानन्द चौबे जी के वशधर पण्डित लोकनाथ जी ने जो स्वय बडे कवि थे नाथ नाम रखते थे टिकट मिलने के लिये यह दोहा लिखा था-

This work is in the public domain in the United States because it was first published outside the United States (and not published in the U.S. within 30 days), and it was first published before 1989 without complying with U.S. copyright formalities (renewal and/or copyright notice) and it was in the public domain in its home country on the URAA date (January 1, 1996 for most countries).