भारतेंदु-नाटकावली/९–सतीप्रताप (पाँचवाँ दृश्य)
पाँचवाँ दृश्य*[१]
बनदेवी और बनदेवता आते हैं
दोनों--(गाते हुए, पूरबी)
जाहिं न पास नगर के कबहीं सब से रहत उदासी हो रामा॥
फल भोजन फूलन के गहना गिरिकंदरा निवासी हो रामा।
बनदेवी--(गाती हुई, पूरबी)
बनदेवता--तुमहुँ थकीं ग्रीषम दुपहरिया चलौ दिये गलबाही हो॥
(दोनों एक कुंज के पास जाते हैं)
बनदेवी--यह रसाल की सीतल छाया तापर मालति छाई हो।
बनदेवता--वैसे तुमहू प्यारी मेरे कंठ रहो लपटाई हो॥
(दोनों कुंज में एक शिला पर बैठते हैं)
बनदेवी--देखहु प्यारे उपबन-सोभा कैसी छई लुनाई हो॥
बनगेवता--वासों बढ़ि तुव अंग अंग में प्यारी देत लखाई हो॥
बनदेवी--प्राणनाथ! देखो जब से सती-कुलतिलक श्रीसावित्री देवी के पवित्र चरण इस बन में पड़े हैं तब से इसकी
शोभा दूनी हो गई है।
बनदेवता--इस बन में जिस शोभा के अंकुर को महात्मा सत्यवान ने लगा रक्खे थे उसे पतिप्राणा सावित्री ने अभिसिंचन कर के पूरी उन्नति पर पहुँचाया। जैसे प्यारी! तुमने हमारे प्रेमांकुर को सींचकर पुष्पान्वित किया।
बनदेवी--प्राणवल्लभ! पति भी स्त्री के लिये कैसा देवता है।
हम अबलन कहँ पति ही को बल प्रानपतिहि कहँ सेव॥
पतिप्राना नारी सों सुख धन कोउ जग में नहिं लेव।
बनदेवता--भगवान तुमारी सी पतिप्राणा भार्या सब को दे।
पतिबरता नारी मिलबे सम सुख नहिं पायो भूल॥
पति हि उधारे तीन पुरुष संग एक सुलच्छन नारि।
बनदेवी--आहा! नाथ! प्रेम सा अमूल्य रत्न संसार में नहीं है, देखो उसके उदय होते ही तुम्हारे कमल नेत्रों में मुक्ता फूल उठे। (मुँह फेर कर आँसू पोछती है, दोनों गले लगकर प्रेमाश्रु से अभिसिंचित होते हैं)
दोनों-गाओ सब मिल प्रेम बधाई।
प्रेमहि सुखसागर अरु प्रेमहि तीन लोक को राई॥
प्रेम-रज्जु में बँध्यो सकल जग याकी फिरत दुहाई।
प्रेमनाथ ही की स्वर्गहु मैं एकछत्र ठकुराई॥
प्रेमहि जग को जीवन-प्रान।
प्रेमहि सगरो काम करावत प्रेम बढ़ावत मान॥
बिना प्रेम के जो नर जग में सो नर पसू समान।
प्रेमहि सुख संपति रत्नन को अति अनुपमतर खान॥
प्रेम मैं निसि दिन बसत मुरारी।
बिना प्रेम पैये नहिं पीतम लाख संपदा बारी॥
बिना प्रेम रीझत नहिं प्यारो बृंदाबिपिन बिहारी।
प्रेमहि जग को तारन कारन प्रेमहि भवभय-हारी॥
बनदेवी--(नेपथ्य की ओर देखकर) प्यारे ! देखो वह सती-सिरोमनि सावित्री देवी शोभा को बढ़ावती बन को हँसाती अपने प्राणपति के साथ इसी कुंज में पधारती हैं।
बनदेवता--और देखो सत्यवान भी प्रेम में मग्न अपनी प्यारी का मुख एक टक देखता और कोमल पुष्पकली की वर्षा करता मदोन्मत्त झूमता कैसा शोभायमान है। आहा! इन दोनों नव किशोरों को तापसी वेष कैसा सजा है जैसे साक्षात् शिव पार्वती का जोड़ा हो।
बनदेवी--प्यारे ! चलो हम लोग इस कुंज की आड़ में से इन दोनों के पवित्र प्रेम-पुरान को सुनकर अपना जीवन चरितार्थ करै।
(दोनों कुंज की ओट में छिपते हैं)
(पटाक्षेप)
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- ↑ * भारतेंदु जी ने इस नाटक के केवल चार दृश्य लिखे थे, जिसे बा. राधाकृष्णदास ने बाद को पूरा किया था।