भारतेंदु-नाटकावली/९–सतीप्रताप (दूसरा दृश्य)

भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ६७० से – ६७६ तक

 

दूसरा दृश्य

स्थान--तपोवन, लतामंडप में सत्यवान बैठा हुआ है।

(रग गीति--पीलू--धमार)

(नेपथ्य में गान)


"क्यो फकीर बन आया बे मेरे बारे जोगी।
नई बैस कोमल अंगन पर काहे भभूत रमाया बे॥
किन वे मात-पिता तेरे जोगी जिन तोहि नाहि मनाया बे।

काँचे जिय कहु काके कारन प्यारे जोग कमाया बे॥"

(चैती गौरी--तिताला)


विदेसिया बे प्रीति की रीति न जानी।

प्रीति की रीति कठिन अति प्यारे कोई बिरले पहिचानी॥


सत्यवान--यह कोमल स्वर कहाँ से कान में आया? प्रति-ध्वनि के साथ यह स्वर ऐसा गूँज रहा है कि मेरी सारी कदंबखंडी शब्द-ब्रह्ममय हो गई। बीच-बीच में मोर कुहुक-कुहुक कर और भी गूँज दूनी कर देते है। (कुछ सोचकर) हाय ! मेरा मन इस समय भी स्थिर नहीं। हाय ! प्रासादों में स्फटिक की छत पर चलने में जिनके चरण को कष्ट होता था आज वह कंटकमय पथ में नंगे पॉवों फिर रहे हैं और दुग्ध-फेन सी सेज के बदले आज मृगचर्म पर सोते हैं। हाय ! हमारे माता-पिता बुढापे से सामर्थ्यहीन तो थे ही ऊपर से दैव ने उन्हें अंधा भी बनाया। हाय ! अभागे सत्यवान से भी कभी माता-पिता की सेवा न बन पड़ी! कभी उनके वात्सल्य-पूर्ण प्रेमामृत-वचन ने मेरे कान न शीतल किए। और न ऐसा होना है। जनमते ही तो तपस्या करनी पड़ी। धन्य विधाता ! दरिद्र को धनवान् और धनवान् को दरिद्र करना तो तुम्हे एक खेल है। किंतु दरिद्र बना के फिर क्यों कर देते हो ! दरिद्र ही सही, पर मन को तो शांति दो। भला दो घड़ी भी वृद्ध माता-पिता की सेवा करने पावें। (चिंता)

(सावित्री को घेरे हुए गाते-गाते मधुकरी, सुरबाला और लवंगी का आना और फूल बीनना)

(गौरी)

सखीजन--


भौंरा रे बौरान्यो लखि बौर।
लुबध्यौ उतहि फिरत मडरान्यौ जात कहूँ नहिं और--

भौंरा रे बौरान्यो।


(चैती गौरी)


फूलन लागे राम बन नवल गुलबवा।
फूलन लागे राम--महुआ फले आम बौराने डारहि डार

भँवरवा झूलन लागे राम।

(गौरी)

पवन लगि डोलत बन की पतियाँ।

मानहुँ पथिकन निकट बुलावहिं कहन प्रेम की बतियाँ॥
अलक हिलत फहरत तन सारी होत हैं सीतल छतियाँ।

यह छबि लखि ऐसी जिय आवत इतहि बितैये रतियाँ॥

सुरबाला--सखी, कैसा सुंदर वन है।

लवंगी--और यह बारी भी कैसी मनोहर है।

मधुकरी--आहा ! तपोवन ऋषि-मुनि लोगो को कैसा सुखदायक होता है।

सावित्री--सखी, ऋषि-मुनि क्या, तपोवन सभी को सुख देता है।

सुर०--क्योकि यहाँ सदा वसंत ऋतु रहती है न।

सावित्री--वसंत ही से नहीं तपोवन ऐसा हई है।

मधु०--अहा ! यह कुंज कैसा सुंदर है। सखी, देखो माधवी लता इस कंज पर कैसी घनघोर छाई हुई है।

सावित्री--सहज वस्तुएँ सभी मनोहर होती हैं। देखो, इस पर फूल कैसे सुंदर फूले हैं जैसे किसी ने देवता की फूल-मंडली बनाई हो।

सुर०--और उधर से हवा कैसी ठंढी आती है।

लवंगी--और हवा में सुगंध कैसी है।

मधु०--सखी! एक-टक उधर ही क्यों देख रही हो! सुर०--सच तो सखी। वहाँ क्या है जो उधर ही ऐसी दृष्टि गड़ा रही हो?

लवंगी--तू क्या जाने। तपोवन में सैकड़ों वस्तुएँ ऐसी होती हैं।

(राग सोरठ)

सावित्री--


लखो सखि भूतल चंद खस्यो।
राहु-केतु-भय छोड़ि रोहिनिहि या बन आइ बस्यो॥
कैसिव-जय-हित करत तपस्या मनसिज इत निबस्यो।

कै कोऊ बनदेव कुंज में बनबिहार बिलस्यो॥

मधु०--सच तो, तपसियों में ऐसा रूप !

सुर०--जाने दे। वनवासी तपस्वी में ऐसा रूप कहाँ?

सावित्री--यह मत कहो। बिधना की कारीगरी जैसी नगर में वैसी ही वन में।

(सत्यवान की ओर सतृष्ण दृष्टिपात)

सुर०--देखती हो? एक-मन एक-प्रान होकर कैसा सोच रही है?

लवंगी--(परिहास से) आज जो यह तापस-कुमार के बदले राजकुमार होते तो घर बैठे गंगा बही थी।

मधु०--सखी, इसका कुछ नेम नहीं है कि राजकुमारी का ब्याह राजकुमार ही से हो।

सावित्री--विधाता ने जिस भाव में राजपुत्र को सिरजा है उसी भाव में मुनि-पुत्र को। और फिर राजघन से तपेाघन कुछ कम नहीं होता।

सत्य०--(आप ही आप) यह क्या घनदेवी आई हैं !

मधु०--हम उनके पास जाकर प्रणाम तो कर आवें।

(मधुकरी का कुञ्ज की ओर बढ़ना और सत्यवान का लतामंडप से निकलकर बाहर बैठना)

मधु०--(सत्यवान के पास जाकर) प्रणाम (हाथ जोड़ कर सिर झुकाना)

सत्य०--आयुष्मती भव। आप लोग कौन हैं ?

मधु०--हम लोग अपनी सखी मद्र देश के जयंतीनगर के राजा अश्वपति की कुमारी सावित्री के साथ फूल बीनने आई हैं।

सत्य०--(स्वगत) राजकुमारी ! वामन को चंद्रस्पर्श।

मधु०--कृपानिधान ! आप सदा यहीं निवास करते हैं ?

सत्य०--जब तक दैव अनुकूल न हो, यहीं निवास है।

मधु०-इससे तो बोध होता है कि किसी राजभवन को सूना करके आप यहाँ आए हैं।

सत्य०--सखी ! उन बातों को जाने दो।

मधु०--हमारे अनुरोध से कहना ही होगा। दयालु सजनगण अतिथि की यांचा व्यर्थ नहीं करते, विशेष करके पहले ही पहल। सत्य०--हम शाल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र हैं। हमारा नाम चित्राश्व वा सत्यवान् है। इस मेध्यारण्य नामक वन में पिता की सेवा करते हैं।

मधु०--(आप ही आप) तभी ! गंगा समुद्र छोड़कर और जलाशय की ओर नहीं झुकती। (प्रगट) तो आज्ञा हो तो अब प्रणाम करूँ।

सत्य०--(कुछ उदास होकर) यह क्यो ? बिना आतिथ्य स्वीकार किए हुए?

मधु०--इसका तो मैं सखी से पूछ लूँ तो उत्तर दूँ। (सावित्री के पास आकर) सखी ! कुमार तापस कहते हैं कि आतिथ्य स्वीकार करना होगा।

(सावित्री सखियों का मुख देखती है)

लवंगी--(परिहास से) अवश्य अवश्य। इसमें क्या हानि है।

सावित्री--(कुछ लज्जा करके) सखी, उनसे निवेदन कर दे कि हम लोग माता-पिता की आज्ञा लेकर तब किसी दिन आतिथ्य स्वीकार करेंगे, आज विलंब भी हुआ है।

मधु०--(सत्यवान के पास जाकर) कुमारी कहती हैं कि किसी दिन माता-पिता की आज्ञा लेकर हम आवेगे तब आतिथ्य, स्वीकार करेंगे। आप तो जानते ही हैं कि आर्यकुल की ललनागण किसी अवस्था में भी स्वतंत्र नहीं हैं। इससे आज क्षमा कीजिए। सत्य०--(कुछ उदास होकर) अच्छा। (सखियों के साथ सावित्री का प्रस्थान। उधर ही देखता है) यह क्या ? चित्त में ऐसा विकार क्यों ? क्या स्वर्ण और रत्न में भी मलिनता ? क्या अग्नि में भी कीट की उत्पत्ति ? उह ! फिर वही ध्यान ! यह क्या ! अब तो जी नहीं मानता। चलें आगे बढ़ कर बदली में छिपते हुए चंद्रमा की शोभा देखकर जो को शांति दें।

[जाता है

(जवनिका गिरती है)


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