भारतेंदु-नाटकावली/८–अंधेर नगरी (छठा अंक)

भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ६६४ ]

छठा अंक

स्थान––श्मशान

(गोबरधनदास को पकड़े हुए चार सिपाहियों का प्रवेश)

गोबरधन०––हाय बाप रे! मुझे बेकसूर ही फॉसी देते हैं। अरे भाइयो, कुछ तो धरम बिचारो! अरे मुझ गरीब को फॉसी देकर तुम लोगों को क्या लाभ होगा? अरे मुझे छोड़ दो। हाय! हाय! (रोता है और छुड़ाने का यत्न करता है)

प० सिपाही––अबे, चुप रह––राजा का हुकुम भला कहीं टल सकता है? यह तेरा आखरी दम है, राम का नाम ले–– बेफाइदा क्यो शोर करता है? चुप रह––

गोबरधन०––हाय! मैंने गुरुजी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरुजी ने कहा था कि ऐसे नगर में न रहना चाहिए, यह मैंने न सुना! अरे! इस नगर का नाम ही अंधेरनगरी और राजा का नाम चौपट्ट है, तब बचने की कौन आशा है। अरे! इस नगरी में ऐसा कोई धर्मात्मा नहीं है जो इस फकीर को बचावे। गुरुजी कहाँ हो? बचाओ-बचाओ––गुरुजी––गुरुजी–– [ ६६५ ]गोबरधन०––नहीं गुरुजी, हम फाँसी पड़ेंगे।

गुरु––नहीं बच्चा हम। इतना समझाया नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हमको जाने दे।

गोबरधन०––स्वर्ग जाने में बूढा जवान क्या? आप तो सिद्ध हो, आपको गति-अगति से क्या? मैं फॉसी चढूँगा।

(इसी प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं––सिपाही लोग परस्पर चकित होते हैं)

प० सिपाही––भाई! यह क्या माजरा है, कुछ समझ नहीं पड़ता।

दू० सिपाही––हम भी नहीं समझ सकते कि यह कैसा गबड़ा है।

(राजा, मंत्री, कोतवाल आते हैं)

राजा––यह क्या गोलमाल है?

प० सिपाही––महाराज! चेला कहता है मैं फाँसी पडूॅगा, गुरु कहता है मैं पडूँगा, कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है।

राजा––(गुरु से) बाबाजी! बोलो। काहे को आप फाँसी चढ़ते हैं?

गुरु––राजा! इस समय ऐसी साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जायगा।

मंत्री––तब तो हमीं फाँसी चढेंगे। [ ६६६ ] गोबरधन॰––हम हम। हमको तो हुकुम है।

कोतवाल––हम लटकेंगे। हमारे सबब तो दीवार गिरी।

राजा––चुप रहो, सब लोग। राजा के आछत और कौन बैकुंठ जा सकता है! हमको फाँसी चढ़ाओ, जल्दी, जल्दी।

गुरु––जहाँ न धर्म्म न बुद्धि नहिं नीति न सुजन-समाज। ते ऐसहि आपुहि नसै, जैसे चौपटराज॥

(राजा को लोग टिकठी पर खड़ा करते हैं)
(पटाक्षेप)