भारतेंदु-नाटकावली/७–नीलदेवी (नवाँ दृश्य)

भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ६३० से – ६३५ तक

 

नवाँ दृश्य
स्थान––राजा सूर्य्यदेव के डेरे
(एक भीतरी डेरे में रानी नीलदेवी बैठी हैं और बाहरी
डेरे में क्षत्री लोग पहरा देते हैं)

नील॰––(गाती और रोती हुई)

तजी मोहि काके ऊपर नाथ!
मोहि अकेली छोड़ि गए तजि बालपने को साथ॥
याद करहु जो अगिनि साखि दै पकर्‌यो मेरो हाथ।
सो सब मोह आज तजि दीना कीनो हाय अनाथ॥
प्यारे क्यों सुधि हाय बिसारी?
दीन भईं बिड़री हम डोलत हा हा होय तुमारी॥
कबहुँ कियो आदर जा तन को तुम निज हाथ पियारे।
ताही की अब दीन दसा यह कैसे लखत दुलारे॥
आदर के धन सम जा तन कहँ निज अंकम तुम धार्‌यौ।
ताही कहँ अब पर्‌यौ धूर में कैसे नाथ निहार‌यौ॥
प्यारे कितै गई सो प्रीति?
निठुर होइ तजि मोहि सिधारे नेह निबाहन रीति॥
कह्यो रह्यो जो छिन नहिं तजिहैं मानहु बचन प्रतीति।
सो मोहि जीवन लौं दुख दीनो करी हाय विपरीति॥

(कुमार सोमदेव चार राजपूतों के साथ बाहरी डेरे में आते हैं)

सोम॰––भाइयो! महाराज का समाचार तो आप लोगों ने सुना। अब कहिए क्या कर्त्तव्य है? मेरी तो शोक से मति विकल हो रही है। आप लोगों की जो अनुमति हो, किया जाय।

प॰ राज॰––कुमार! आप ऐसी बात कहेंगे कि शोक से मति विकल हो रही है तो भारतवर्ष किसका मुँह देखेगा! इस शोक का उत्तर हम लोग अश्रुधारा से न देकर कृपाणधारा से देंगे।

दू॰ राज॰––बहुत अच्छा!!! उन्मत्त सिंह, तुमने बहुत अच्छा कहा। इन दुष्ट चांडाल यवनो के रुधिर से हम जब तक अपने पितरों का तर्पण न कर लेंगे, हम कुमार की शपथ करके प्रतिज्ञा करके कहते हैं कि हम पितृ-ऋण से कभी उऋण न होंगे।

ती॰ राज॰––शाबाश! विजयसिंह, ऐसा ही होगा। चाहे, हमारा सर्वस्व नाश हो जाय परंतु आकल्पांत लोहलेखनी से हमारी यह प्रतिज्ञा दुष्ट यवनों के हृदय पर लिखी रहेगी। धिक्कार है उस क्षत्रियाधम को जो इन चांडालों के मूलनाश में न प्रवृत्त हो।

चौ॰ राज॰––शत बार धिक्कार है सहस्र बार धिक्कार है उसको जो मनसा, वाचा, कर्मणा किसी तरह इन कापुरुषों से डरे। लक्ष बार कोटि बार धिक्कार है उसको जो इन चांडालों के दमन करने में तृण-मात्र भी त्रुटि करे। (बायाँ पैर आगे बढ़ाकर) म्लेच्छ-कुल के और उसके पक्षपातियो के सिर पर यह मेरा बायाँ पैर है, जो शरीर के हजार टुकड़े होने तक ध्रुव की भाँति निश्चल है, जिस पामर को कुछ भी सामर्थ्य हो हटावे।

सोम॰––धन्य आर्यवीर पुरुषगण! तुम्हारे सिवा और कौन ऐसी बात कहेगा। तुम्हारी ही भुजा के भरोसे हम लोग राज्य करते है। यह तो केवल तुम लोगों का जी देखने को मैंने कहा था। पिता की वीरगति का शोच किस क्षत्रिय को होगा? हाँ, जो हम लोग इन दुष्ट यवनों का दमन न करके दासत्व स्वीकार करें तो निस्संदेह दुःख हो। (तलवार खींचकर) भाइयो! चलो इसी क्षण हम लोग उस पामर नीच यवन के रक्त से अपने आर्य पितरों को तृप्त करें।

चलहु बीर उठि तुरत सबै जय-ध्वजहि उड़ाओ।
लेहु म्यान सों खड्ग खींचि रनरंग जमाओ॥
परिकर कसि कटि उठो धनुष पै धरि सर साधौ।
केसरिया बानो सजि सजि रनकंकन बाँधौ॥
जौ आरजगन एक होइ निज रूप सम्हारै।
तजि गृहकलहहिं अपनी कुल-मरजाद विचारैं॥

तौ ये कितने नीच कहा इनको बल भारी।
सिंह जगे कहुँ स्वान ठहरिहै समर मँझारी॥
पदतल इन कहँ दलहु कीट त्रिन सरिस जवनचय।
तनिकहु संक न करहु धर्म जित जय तित निश्चय॥
आर्य वंश को बधन पुन्य जा अधम धर्म मैं।
गोभक्षन द्विज-श्रुति-हिंसन नित जासु कर्म मैं॥
तिनको तुरितहिं हतौ मिलै रन कै घर माहीं।
इन दुष्टन सों पाप कियेहूँ पुन्य सदाहीं॥
चिउँटिहु पदतल दबे डसत ह्वै तुच्छ जंतु इक।
ये प्रतच्छ अरि इनहिं उपेछै जौन ताहि धिक॥
धिक तिन कहँ जे आर्य होइ जवनन को चाहैं।
धिक तिन कहँ जे इनसो कछु संबंध निबाहै॥
उठहु बीर तरवार खींचि मारहु घन संगर।
लोह-लेखनी लिखहु आर्य-बल जवन-हृदय पर॥
मारू बाजे बजै कहौ धौंसा घहराहीं।
उड़हिं पताका सत्रुहृदय लखि-लखि थहराहीं॥
चारन बोलहिं आर्य-सुजस बंदी गुन गावैं।
छुटहिं तोप घनघोर सबै बंदूक चलावै॥
चमकहिं असि भाले दमकहिं ठनकहिं तन बखतर।
हींसहिं हय झनकहिं रथ गज चिक्करहिं समर थर॥
छन महँ नासहिं आर्य नीच जवनन कहँ करि छय।
कहहु सबै भारत जय भारत जय भारत जय॥

सब वीर––भारतवर्ष की जय––आर्यकुल की जय––महाराज सूर्य्यदेव की जय––महारानी नीलदेवी की जय––कुमार सोमदेव की जय––क्षत्रियवंश की जय।

(आगे-आगे कुमार उसके पीछे तलवार खींचकर क्षत्रिय लोग चलते हैं। रानी नीलदेवी बाहर के घर में आती हैं)

नील॰––पुत्र की जय हो। क्षत्रिय-कुल की जय हो। बेटा, एक बात हमारी सुन लो तब युद्ध-यात्रा करो।

सोम॰––(रानी को प्रणाम करके) माता! जो आज्ञा हो।

नील॰––कुमार, तुम अच्छी तरह जानते हो कि यवन-सेना कितनी असंख्य है और यह भी भली भाँति जानते हो कि जिस दिन महाराज पकड़े गए उसी दिन बहुत राजपूत निराश होकर अपने-अपने घर चले गए। इससे मेरी बुद्धि में यह बात आती है कि इनसे एक ही बेर सम्मुख युद्ध न करके कौशल से लड़ाई करना अच्छी बात है।

सोम॰––(कुछ क्रोध करके) तो क्या हम लोगों में इतनी सामर्थ्य नहीं कि यवनों को युद्ध में लड़कर जीतें?

सब क्षत्री––क्यों नहीं?

नील॰––(शांत भाव से) कुमार, तुम्हारी सर्वदा जय है। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारा कहीं पराजय नहीं है। किंतु माँ की आज्ञा मानना भी तो तुमको योग्य है।

सब क्षत्री––अवश्य, अवश्य।

सोम॰––(हाथ जोड़कर) माँ, जो आज्ञा होगी वही करूँगा!

नील॰––अच्छा सुनो। (पास बुलाकर कान में सब विचार कहती है)

(एक ओर से कुमार और दूसरी ओर से रानी जाती हैं)
(पटाक्षेप)