भारतेंदु-नाटकावली/६–भारत दुर्दशा (तीसरा अंक)
तीसरा अंक
स्थान--मैदान
(फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं। भारतदुर्दैव*[१] आता है)
भारतदु०--कहाँ गया भारत मूर्ख ! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है? देखो तो अभी इसकी क्या-क्या दुर्दशा होती है।
(नाचता और गाता हुआ)
अरे!
उपजा ईश्वर कोप से, औ आया भारत बीच।
छार-खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच॥
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी॥
कौड़ी-कौड़ी को करूँ, मैं सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालूँ इनका,तो मैं सच्चा राज॥ मुझे
काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।
पानी उलटा कर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग॥ मुझे०
फूट बैर औ कलह बुलाऊँ ल्याऊँ सुस्ती जोर।
घर-घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर॥ मुझे०
काफिर काला नीच पुकारूँ, तोडूँ पैर औ हाथ।
दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ॥ मुझे°
मरी बुलाऊँ देस उजाडूँ, महँगा करके अन्न।
सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धन्न॥
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
(नाचता है)
अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अब की हाथ में वह भी साफ है ! भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें ! लिया भी तो अँगरेजों से औगुन ! हहाहा ! कुछ पढ़े-लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं ! हहा हाहा ! एक चने से भाड़ फोड़ेंगे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमो को न हुक्म दूंँगा कि
इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं ! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं, मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेजके न सब चौपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यनाश फौजदार को तो भेजो।
(नेपथ्य में से "जो आज्ञा" का शब्द सुन पड़ता है)
(सत्यानाश फौजदार आते हैं)
सत्या० फौ०--हमारा नाम है सत्यानास। आए हैं राजा के हम पास॥
धरके हम लाखों ही भेस। किया चौपट यह सारा देस॥
बहुत हमने फैलाए धर्म। बढाया छुआछूत का कर्म॥
होके जयचंद हमने इक बार। खोल ही दिया हिंद का द्वार॥
हलाकू चंगेजो तैमूर। हमारे अदना अदना सूर॥
दुरानी अहमद नादिरसाह। फौज के मेरे तुच्छ सिपाह॥
हैं हममें तीनो कल बल छल। इसी से कुछ नहिं सकती चल॥
पिलावैगे हम खूब शराब। करैगे सबको आज खराब॥
भारतदु०--अहा सत्यानाशजी आए। आओ, देखो अभी फौज को हुक्म दो कि सब लोग मिलके चारों ओर से हिंदुस्तान को घेर लें। जो पहिले से घेरे हैं उनके सिवा औरों को भी आज्ञा दो कि बढ चलें।
सत्या० फौ०--महाराज ! "इंद्रजीत सन जो कछु भाखा, सो सब जनु पहिलहिं करि राखा।" जिनको आज्ञा हो चुकी है वे तो अपना काम कर ही चुके और जिसको जो हुक्म हो, कह दिया जाय।
सत्या० फौ०--महाराज ! धर्म ने सबके पहिले सेवा की।
रचि बहु बिधि के वाक्य पुरानन मॉहि घुसाए।
शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए॥
जाति अनेकन करी नीच अरु ऊँच बनायो।
खान पान संबंध सबन सों बरजि छुड़ायो॥
जन्मपत्र बिधि मिले ब्याह नहिं होन देत अब ।
बालकपन में ब्याहि प्रीति-बल नास कियो सब॥
करि कुलीन के बहुत ब्याह बल बीरज मास्यो।
बिधवा-ब्याह निषेध कियो बिभिचार प्रचास्यो॥
रोकि विलायत-गमन कूपमंडूक बनायो।
औरन को संसर्ग छुड़ाइ प्रचार घटायो॥
बहु देवी देवता भूत प्रेतादि पुजाई।
ईश्वर सोॅ सब बिमुख किए हिंदू घबराई॥
भारतदु० -आहा ! हाहा ! शाबाश ! शाबाश ! हाँ, और भी कुछ धर्म्म ने किया?
सत्या० फौ०--हाँ महाराज।
अपरस सोल्हा छूत रचि, भोजन-प्रीति छुड़ाय।
किए तीन तेरह सबै, चौका चौका लाय॥
भारतदु०--और भी कुछ?
सत्या० फौ--हाँ,
भा० ना०--३०
रचिकै मत वेदांत को, सबको ब्रह्म बनाय।
हिंदुन पुरुषोत्तम कियो, तोरि हाथ अरु पाय॥
महाराज, वेदांत ने बड़ा ही उपकार किया। सब हिंदू
ब्रह्म हो गए। किसी को इतिकर्त्तव्यता बाकी हो न
रही। ज्ञानी बनकर ईश्वर से विमुख हुए, रुक्ष हुए,
अभिमानी हुए और इसी से स्नेहशून्य हो गए। जब
स्नेह ही नहीं तब देशोद्धार का प्रयत्न कहाँ? बस, जय
शंकर की।
भारतदु०--अच्छा, और किसने-किसने क्या किया?
सत्या० फौ०--महाराज, फिर संतोष ने भी बड़ा काम किया। राजा-प्रजा सबको अपना चेला बना लिया। अब हिंदुओं को खाने मात्र से काम, देश से कुछ काम नहीं। राज न रहा, पेनशन ही सही। रोजगार न रहा, सूद ही सही।
वह भी नहीं, तो घर ही का सही, 'संतोषं परमं सुखं', रोटी ही को सराह-सराह के खाते हैं। उद्यम की ओर देखते
ही नहीं। निरुद्यमता ने भी संतोष को बड़ी सहायता दी। इन दोनो को बहादुरी का मेडल जरूर मिले। व्यापार को इन्हीं ने मार गिराया।
भारतदु०--और किसने क्या किया?
सत्या० फौ०--फिर महाराज जी धन की सेना बवी थी उसको जीतने को भी मैंने बड़े बाँके वीर भेजे। अपव्यय,
अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों ने सारी दुशमन की फौज तितिर बितिर कर दी। अपव्यय ने खूब लूट मचाई। अदालत ने भी अच्छे हाथ साफ किए। फैशन ने तो बिल और टोटल के इतने गोले मारे कि अंटाधार कर दिया और सिफारिश ने भी खूब ही छकाया। पूरब से पच्छिम और पच्छिम से पूरब तक पीछा करके खूब भगाया। तुहफे, घूस और चंदे के ऐसे बम के गोले चलाए कि "बम बोल गई बाबा की चारों दिसा" धूम निकल पड़ी। मोटा भाई बना-बनाकर मूँड़ लिया। एक तो खुद ही यह सब पँड़िया के ताऊ, उस पर चुटकी बजी, खुशामद हुई, डर दिखाया गया, बराबरी का झगड़ा उठा, धाँय धाँय गिनी गई*[२], वर्णमाला कंठ कराई†[३], बस हाथी के खाए कैथ हो गए। धन की सेना ऐसी भागी कि कब्रो में भी न बची, समुद्र के पार ही शरण मिली।
भारतदु०--और भला कुछ लोग छिपाकर भी दुश्मनो की ओर भेजे थे?
सत्या० फौ०--हाँ, सुनिए। फूट, डाह, लोभ, भय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ, शोक, अश्रुमार्जन और निर्बलता इन एक दरजन दूती और दूतों को शत्रुओं की फौज में
हिला-मिलाकर ऐसा पंचामृत बनाया कि सारे शत्रु बिना मारे घंटा पर के गरुड़ हो गए। फिर अंत में भिन्नता गई। इसने ऐसा सबको काई की तरह फाड़ा कि भाषा, धर्म, चाल, व्यवहार, खाना, पीना सब एक-एक योजन पर अलग-अलग कर दिया। अब आवें बचा ऐक्य ! देखें आ ही के क्या करते हैं !
भारतदु०--भला भारत का शस्य नामक फौजदार अभी जीता है कि मर गया? उसकी पलटन कैसी है?
सत्या० फौ०--महाराज ! उसका बल तो आपकी अतिवृष्टि और अनावृष्टि नामक फौज़ों ने बिलकुल तोड़ दिया। लाही, कीड़े, टिड्डी और पाला इत्यादि सिपाहियों ने खूब ही सहायता की। बीच में नील ने भी नील बन कर अच्छा लंकादहन किया।
भारतदु०--वाह ! वाह ! बड़े आनंद की बात सुनाई। तो अच्छा तुम जाओ। कुछ परवाह नहीं, अब ले लिया है। बाकी साकी अभी सपराए डालता हूँ। अब भारत कहाँ जाता है। तुम होशियार रहना और रोग, महर्घ, कर, मद्य, आलस और अंधकार को जरा क्रम से मेरे पास भेज दो।
सत्या० फौ०--जो आज्ञा।
[जाता है
भारतदु०--अब उसको कहीं शरण न मिलेगी। धन, बल और विद्या तीनों गई। अब किसके बल कूदेगा?
(जवनिका गिरती है)
पटोत्तोलन
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