भारतेंदु-नाटकावली/३–प्रेमजोगिनी/पहिला अंक
पहिला अंक
पहिला गर्भांक
स्थान---मंदिर का चौक
( झपटिया इधर-उधर देख रहा है )
झपटिया---आज अभी तक कोई दरसनी-परसनी नाहीं आए और कहाँ तक अभहिंन तक मिसरो नहीं आए, अभहीं तक नींद न खुली होइहै। खुलै कहाँ से? आधी रात तक बाबू किहाँ बैठ के ही-ही ठी-ठी करा चाहैं, फिर सबेरे नींद कैसे खुलै।
( दोहर माथे में लपेटे अाँखें मलते मिश्र आते हैं---देखकर )
भप०---का हो मिसिरजी, तोरी नींद नाहीं खुलती? देखो शंखनाद होय गवा, मुखियाजी खोजत रहे।
मिश्र---चले तो आईथे, अधियै रात के शंखनाद होय तो हम का करें! तोरे तरह से हमहू के घर में से निकस के मंदिर में घुस आवना होता तो हमहू जल्दी अउते। हियाँ तो दारा-नगर से आवना पड़त है। अबहीं सुरजौ नाहीं उगे।
झप०---भाई, सेवा बड़े कठिन है, लोहे का चना चबावे के पड़थै, फोकटै थोरे होथी। मिश्र---भवा चलो अपना काम देखो। ( बैठ गया )
( स्नान किए तिलक लगाए दो गुजराती आते हैं )
प० गुज०---मिसिरजी, जय श्रीकृष्ण। कहो का समय है?
मिश्र---अच्छी समय है, मंगला की आधी समय है। बैठो।
प० गुज०---अच्छा मथुरादासजी बसी जाओ। ( बैठते हैं )
( धोती पहिने एक बहा ओढ़े छक्कूजी आते हैं और उसी वेष से माखनदास भी आए )
छक्कूजी---( माखनदास की ओर देखकर ) काहो! माखनदास एहर आवो।
माखन०---( आगे बढ़कर हाथ जोड़ कर ) जै श्रीकृष्ण साहब।
छक्कूजी---जै श्रीकृष्ण, बैठो। कहो अाजकल बाबू रामचंद का क्या हाल है?
माखन---हाल जौन है तौन आप जनतै हौ, दिन दूना रात चौगुना। अभईं कल्है हम ओ रस्ते रात के आवत रहे तो तबला ठनकत रहा। बस रात-दिन हा-हा ठी-ठी, बहुत भवा दुइ-चार कवित्त बनाय लिहिन बस होय चुका।
छक्कूजी---अरे कवित्त तो इनके बापौ बनावत रहे। कवित्त बनावै से का होथै और कवित्त बनावना कुछ अपने लोगन का काम थोरै हय, ई भॉटन का काम है। माखन---ई तो हई है पर उन्है तो ऐसी सेखी है कि सारा जमाना मूरख है औ मैं पंडित। थोड़ा सा कुछ पढ़ वढ़ लिहिन हैं।
छक्कूजी---पढिन का है, पढ़ा-वढा कुछ भी नहिनी, एहर-ओहर की दुइ-चार बात सीख लिहिन किरिस्तानी मते की, अपने मारग की बात तो कुछ जनबै नाहीं कतैं, अबहीं कल के लड़का हैं।
माखन०---और का।
( बालमुकुन्द और मलजी आते हैं )
दोनों---( छक्कू की ओर देखकर ) जय श्रीकृष्ण बाबू साहब।
छक्कूजी---जय श्रीकृष्ण, आओ बैठो, कहो नहाय आयो?
बालमु०---जी, भय्याजी का तो नेम है कि बड़े सबेरे नहा कर फूलघर में जाते हैं तब मंगला के दर्शन करके तब घर में जायकर सेवा में नहाते हैं और मैं तो आजकल कार्तिक के सबब से नहाता हूँ, तिस पर भी देर हो जाती है। रोकड़ मेरे जिम्मे काकाजी ने कर रखा है इस्से बिध-विध मिलाते देर हो जाती है, फिर कीर्तन होते प्रसाद बँटते ब्यालू-वालू कर्ते बारह कभी एक बजते हैं।
छक्कूजी---अच्छी है जो निबही जाय; कहो कातिक नहाये बाबू रामचंद जाथें कि नाहीं?
बालमु०---क्यों, जाते क्यों नहीं? अब की दोनों भाई जाते हैं, कभी दोनों साथ, कभी आगे-पीछे, कभी इनके साथ मसाल, कभी उनके, मुझको अक्सर करके जब मैं जाता हूँ तब वह नहाकर आते रहते हैं।
छक्कूजी---मसाल काहे ले जाथै मेहरारुन का मुँह देखै के?
बलमु०---( हॅस कर ) यह मैं नहीं कह सकता।
छक्कूजी---कहो मलजी, आज फूलघर में नाहीं गयो हिंअई बैठ गयो?
मलजी---अाज देर हो गई, दर्शन करके जाऊँगा।
छक्कूजी---तोरे हियाँ ठाकुरजी जागे होहिंहै कि नाहीं?
मलजी---जागे तो न होगे पर अब तैयारी होगी। मेरे हियाँ तो स्त्रियें जगाकर मंगल भोग धर देती हैं। फिर जब मैं दर्शन करके जाता हूँ तो भोग धराकर आरती करता हूँ।
कक्कूजी---कहो तोसे रामचंद से बोलाचाली है कि नाहीं?
मलजी---बोलचाल तो है, पर अब वह बात नहीं है। आगे तो दर्शन करने का सब उत्सवों पर बुलावा आता था अब नहीं आता, तिस्में बड़े साहब तो ठीक-ठीक, छोटे चित्त के बड़े खोटे हैं।
( नेपथ्य में )
गरम जल की गागर लाओ।
झप०---( गली की ओर देखकर जोर से ) अरे कौन जलघरिया है? एतनी देर भई अभहीं तोरे गागर लिआवै की बखत नाहीं भई? (सड़सी से गरम जल की गगरी उठाए सनिया लपेटे जलघरिया आता है)
झप०---कहो जगेसर, ई नाही कि जब शंखनाद होय तब झटपट अपने काम से पहुँच जावा करो।
जलपरिया---अरे चल्ले तो आवई का भहराय पड़ीं? का सुत्तल थोड़े रहली? हमहूँ के झापट कंधे पर रखके एहर-ओहर घूमै के होत तब न। इहाँ तो गगरा ढोवत-ढोवत कंधा छिल जाला। (यह कहकर जाता है)
( मैली धोती पहिने दोहर सिर में लपेटे टेकचंद आए )
टेकचंद---( मथुरादास की ओर देखकर ) कहो मथुरादास जी, रूडा छो?
मथुरा०–--हाँ साहेब, अच्छे हैं। कहिए तो सही आप इतने बड़े उच्छव में कलकत्ते से नहीं आए! हियाँ बड़ा सुख हुआ था, बहुत से महाराज लोग पधारे थे। षट रुत छप्पन भोग में बड़े आनन्द हुए।
टेक०---भाई साहब, अपने लोगन का निकास घर से बड़ा मुसकिल है। एक तो अपने लोगन का रेल के सवारी से बड़ा बखेड़ा पड़ता है, दुसरे जब जौन काम के वास्ते जाओ जब तक अोका सब इंतजाम न बैठ जाय तब तक हुँवा जाए से कौन मतलब और सुख तो भाई साहब श्रीगिरराजजी महाराज के आगे जो-जो देखा है सो अब सपने में भी नहीं है। अह! वह श्रीगोविन्दाय जी के पधारने का सुख कहाँ तक कहें।
( धनदास और बनितादास आते हैं )
धनदास---कहो यार का तिगथो?
बनितादास---भाई साहेब, बड़ी देर से देख रहे हैं, कोई पंछी नजर नाहीं अावा।
धन०---भाई साहेब, अपने तो ऊ पंछी काम का जे भोजन सोजन दूनो दे।
बनिता---तोहरे सिद्धान्त से भाई साहेब हमरा काम तो नाहीं चलता।
धन०---तबै न सुरमा घुलाय के आँख पर चरणामृत लगाये हौ जे में पलकबाजी खूब चलै, हाँ एक पलक एहरो।
बनिता०---( हँसकर ) भाई साहेब अपने तो वैष्णव आदमी हैं, वैष्णविन से काम रक्खित है।
धन०---तो भला महाराज के कबौं समर्पन किये हौ कि नाही?
बनिता०---कौन चीज?
धन०---अरे कोई चौकाली ठल्ली मावड़ी पामरी ठोमली अपने घरवाली।
बनिता०---अरे भाई गोसँइयन पर तो ससुरी सब आपै भहराई। पड़थीं पवित्र होवै के वास्ते, हम का पहुँचैबे । बनिता०---भाग होय तो ऐसियौ मिल जायँ। देखो लाड़ली-प्रसाद के और बच्चू के ऊ नागरनी और बम्हनिया मिली हैं कि नाहीं!
धन०---गुरु, हियाँ तो चाहे मूड़ मुड़ाये हो चाहे मुँह में एक्को दाँत न होय पताली खोल होय, पर जो हथफेर दे सो काम की।
बनिता---तोहरी हमरी राय ई बात में न मिलिए।
( रामचन्द ठीक उन दोनों के पीछे का किवाड़ खोलकर आता है )
छक्कू जी---( धीरे से मुँह बना के ) ई आएँ। ( सब लोगों से जय श्रीकृष्ण होती है )
बालमु०---( रामचंद को अपने पास बैठा कर ) कहिए बाबू साहब, आजकल तो आप मिलते ही नहीं क्या खबगी रहती है?
रामचंद---भला आप ऐसे मित्र से कोई खफा हो सकता है? यह आप कैसी बात कहते हैं?
बालमु०---कार्तिक नहान होता न है?
रामचंद---( हँसकर ) इसमें भी कोई सन्देह है!
बालमु०---हँहँहँ फिर आप तो जो काम करेंगे एक तजवीज के
साथ ऐं। ( रामचन्द का हाथ पकड़ के हँसता है )
रामचंद---भाई ये दोनो ( धनदास और बनितादास को दिखा कर ) बड़े दुष्ट हैं। मैं किवाड़ी के पीछे खड़ा सुनता था। घंटों से ये स्त्रियो ही की बात करते थे।
बालमु०---यह भवसागर है। इसमें कोई कुछ बात करता है, कोई कुछ बात करता है। आप इन बातों का कहाँ तक खयाल कीजिएगा ऐं! कहिए कचहरी जाते हैं कि नहीं?
रामचंद---जाते हैं कभी-कभी---जी नहीं लगता, मुफत की बेगार और फिर हमारा हरिदास बाबू का साथ कुकुर-झौंझौं, हुज्जते-बंगाल, माथा खाली कर डालते हैं। खॉव-खॉव करके, थूँक-थूँक के, वीभत्स रस के आलंबन, सूर्यनंदन---
बालमु०---( हँसकर ) उपमा आप ने बहुत अच्छी दी और कहिए। और अंधरी मजिस्टरों* का क्या हाल है?
रामचंद---हाल क्या है सब अपने-अपने रंग में मस्त हैं। काशी परसाद अपना कोठीवाली ही में लिखते हैं, सहजादे
- 'आनरेरी मैजिस्ट्रेट का पद और अधिकार दिया है, उनका नाम
यों है---कुँअर शंभूनारायण सिंह, बा० ऐश्वर्यनारायण सिंह, बा० गुरुदास मित्र, बा० हरिश्चद्र, राय नारायणदास, बा० विश्वेश्वर दास, डा० लाज़रस, मुं० बेणीलाल और दीवान कृष्ण कुँअर।' ( कवि-वचन-सुधा भाद्रपद शु० १५ सं० १९२३ )
भेज दूँगा कहते हैं।
बालमु०---मैं कनमचाप नहीं समझा।
रामचंद---कनिङचैप माने कुटीचर।
( नेपथ्य में )
श्री गोविन्दराय जी की श्री मंगला खुली। ( सब दौड़ते हैं )
( जवनिका गिरती है )
इति मन्दिरादर्श-नामक प्रथम गर्भांक