भारतेंदु-नाटकावली/२–सत्य हरिश्चंद्र/मंगलाचरण
सत्यहरिश्चंद्र
मंगलाचरण
दोहा
सत्यासक्त दयाल द्विज प्रिय अघहर सुखकद।
जनहित कमलातजन जय शिव नृप कवि हरिचन्द*[१]॥
( नांदी के पीछे सूत्रधार+[२] आता है )
सूत्र०---अहा! आज की संध्या भी धन्य है कि इतने गुणज्ञ और रसिक लोग एकत्र हैं और सबकी इच्छा है कि हिंदी भाषा का कोई नवीन नाटक देखें। धन्य है विद्या का प्रकाश कि जहाँ के लोग नाटक किस चिड़िया का नाम है इतना भी नहीं जानते थे, भला वहाँ अब लोगो की इच्छा इधर प्रवृत्त तो हुई। परंतु हा! शोच की बात है कि जो बड़े-बड़े लोग हैं और जिनके किए कुछ हो सकता है वे ऐसी अंध-परंपरा में फँसे हैं और ऐसे बेपरवाह और अभिमानी हैं कि सच्चे गुणियों की कहीं पूछ ही नहीं है। केवल उन्हीं की चाह और उन्हीं की बात है जिन्हें झूठी खैरखाही दिखाना वा लंबा-चौड़ा गाल बजाना आता है। ( कुछ सोचकर ) क्या हुआ, ढँग पर चला जायगा तो यो भी बहुत कुछ हो रहेगा। काल बड़ा बली है, धीरे-धीरे सब आप ही कर देगा। पर भला आज इन लोगो को लीला कौनसी दिखाऊँ। ( सोचकर ) अच्छा, उनसे भी तो पूछ लें? ऐसे कौतुकों में पुरुषो की अपेक्षा स्त्रियों की बुद्धि विशेष लड़ती है। ( नेपथ्य की ओर देखकर ) मोहना! अपनी भाभी को जरा इधर तो भेजना।
( नेपथ्य में से, 'मैं तो आप ही आती थी' कहती हुई नटी * आती है )
नटी---मैं तो आप हो आती थी। वह एक मनिहारिन आ गई थी, उसी के बखेड़े में लग गई, नहीं तो अब तक कभी की आ चुकी होती। कहिए, आज जो लीला करनी हो
- महाराष्ट्री वेष, कमर पर पेटी कसे वा मर्दाना कंपड़ा पहिने पर
जेवर सब जनाने। वह पहिले ही से जानी रहे तो मैं और सभी से कह के सावधान कर दूँ।
सूत्र०---आज का नाटक तो हमने तुम्हारी ही प्रसन्नता पर छोड़ दिया है।
नटी---हम लोगों को तो सत्यहरिश्चंद्र आजकल अच्छी तरह याद है और उसका खेल भी सब छोटे-बड़े को मँज रहा है।
सूत्र०---ठीक है, यही हो। भला इससे अच्छा और कौन नाटक होगा। एक तो इन लोगो ने उसे अभी देखा नहीं है, दूसरे आख्यान भी करुणा-पूर्ण राजा हरिश्चंद्र का है, तीसरे उसका कवि भी हम लोगों का एकमात्र जीवन है।
नटी---( लंबी साँस लेकर ) हा! प्यारे हरिश्चंद्र का संसार ने कुछ भी गुण-रूप न समझा। क्या हुआ "कहैंगे सबै ही नैन नीर भरि भरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी"।
सूत्र०---इसमें क्या संदेह है। काशी के पंडितो ही ने कहा है--
सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचंद।
जिमि सुभाव दिन रैन को, कारन नित हरि-चंद॥
विद्वज्जनप्रतिष्ठाकारणमेको हरिश्चन्द्रः।
स्वभावगत्या दिनरात्र्योर्वा हरिश्चन्द्रः॥
नटी---कैसी समता, मैं भी सुनूँ।
सूत्र०---जो गुन नृप हरिचंद मैं, जग हित सुनियत कान।
सो सब कवि हरिचंद मैं, लखहु प्रतच्छ सुजान* ॥३॥
( नेपथ्य में )
यहाँ सत्य-भय एक के, कॉपत सब सुरलोक।
यह दूजो हरिचंद को, करन इंद्र उर सोक॥
सूत्र०---( सुनकर और नेपथ्य की ओर देखकर ) यह देखो! हम लोगों को बात करते देर न हुई कि मोहना इंद्र बन कर आ पहुँचा, तो अब चलो हम लोग भी तैयार हों।
( दोनों जाते हैं )
इति प्रस्तावना
- "श्रूयंते ये हरिश्चन्द्रे जगदाह्वादिनो गुणाः।"
दृश्यंते ते हरिश्चन्द्रे चन्द्रवतप्रियदर्शने॥"
- ↑ * यह श्लेष शिवजी, राजा हरिश्चन्द्र, श्रीकृष्ण, चन्द्रमा और कवि पाँच का वर्णन करता है।
- ↑ +सूत्रधार हरे वा नीले रंग की साटन का कामदार जाँघिया पहिने, उसके आगे पटुके की तरह कमरबंद के दोनों किनारे नीचे-ऊपर लटकते हुए, गले में चुस्त सामने बुताम की मिरजई, ऊपर माला वगैरह और सब गहने, सिर पर टिपारा, पैर में घुँघरू, हाथ में छड़ी, सिर पर मुकुट।