भारतेंदु-नाटकावली/१–धनंजयविजय
व्यायोग
संवत् १९३०
प्यारे!
निश्चय इस ग्रंथ से तुम बड़े प्रसन्न होगे; क्योंकि अच्छे लोग अपनी कीर्ति से बढ़कर अपने जन की कीर्त्ति से संतुष्ट होते हैं। इस हेतु इस होली के आरंभ के त्योहार माघी-पूर्णिमा में हे धनंजय और निधनंजय के मित्र ! यह धनंजय-विजय तुम्हे समर्प्पित है, स्वीकार करो।
तुम्हारा
ह--
विदित हो कि यह जिस पुस्तक से अनुवाद किया गया है वह संवत् १५३७ की लिखी है और इसी से बहुत प्रामाणिक है, इससे इसके सब पाठ उसी के अनुसार रखे हैं।
धनंजय-विजय
व्यायोग
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हेमाद्रिकलशा यत्र, धात्री छत्रश्रियं दधौ॥
(सूत्रधार आता है)
सू०-(चारों ओर देखकर) वाह ! वाह ! प्रातः काल की कैसी शोभा है!
(भैरव)
बिकसे कमल, उदय भयो रवि को, चकई अति अनुरागीं॥
हंस-हंसिनी पंख हिलावत, सोइ पटह सुखदाई।
आँगन धाइ धाइ कै भँवरी, गावत केलि बधाई॥
कूजत हंस कोकिला, फूले कमल सरनि सुखदाई॥
सूखे पंक, हरे भए तरुवर, दुरे मेघ, मग भूले।
अमल इंदु तारे भए, सरिता-कूल कास-तरु फूले॥
निर्मल जल भयो, दिसा स्वच्छ भइँ, सो लखि अति अनुरागे।
(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे ! यह चिट्ठी लिए कौन आता है?
(एक मनुष्य चिट्ठी लाकर देता है, सूत्रधार खोलकर पढ़ता है।
दान देन मैं, समर मैं, जिन न लही कहुँ हारि।
केवल जग में विमुख किय, जाहि पराई नारि।
जाके जिय में तूल सो, तुच्छ दोय निरधार॥
वह प्रसन्न होकर रंगमंडन नामक नट को आज्ञा करते है।
जगजीवन जागे लखहु, दैन रमा चित चैन॥
शरद देखि जब जग भयो, चहुँ दिसि महा उछाह।
सिखवत आप सरस्वती नित बहु विधि की नीति॥
ताही कुल में प्रगट भे नारायन गुनधाम।
लह्यो जीति बहु वादिगन जिन वादीश्वर नाम॥
अभय दियो जिन जगत को धारि जोग-संन्यास।
पै भय इक रवि को रही मंडल भेदन त्रास॥
तिनके सुत सब गुन भरे कविवर कांचन नाम।
तो उस कवि का बनाया धनंजय-विजय खेलै। (नेपथ्यय की ओर देखकर) यहाँ कोई है?
(पारिपार्श्वक आता है)
पा०-कौन नियोग है कहिए?
सू०-धनंजय-विजय के खेलने में कुशल नटवर्ग को बुलायो।
पा०-जो आज्ञा।[जाता है
सू०-(पश्चिम की ओर देखकर)
तेजपुंज अरजुन सोई रवि सों कढ़त लखात॥
(विराट के अमात्य के साथ अर्जुन आता है)
अ०-(उत्साह से) दैव अनुकूल जान पड़ता है क्योकि-
बिना परिश्रम तिमि मिल्यौ कुरुपति आपुहि धाइ॥
सू०-(हर्ष से देखकर) अरे यह शामलक तो अर्जुन का भेस लेकर आ पहुँचा, तो अब मैं और पात्रो को भी चलकर बनाऊँ।
[जाता है
इति प्रस्तावना।
अ०-(हर्ष से)
समर हेत इक बहुत सब भाग मिल्यौ या खेत॥
और भी
वहै मनोरथ फल सुफल, वहै महोत्सव हेत।
अमा०-देव, यह आपके योग्य संग्राम-भूमि नहीं है।
शिव तोष्यौ रनभूमि जिन, ये कौरव कहँ ताहि॥
अ०-वाह सुयोधन वाह ! क्यों न हो।
सो तुम जूआ खेलि कै जीत्यौ सहित समाज॥
कुल-गुरु-ससि, तुव नीचपन, लखि कै रह्मौ लजाय॥
अमा०-देव!
तऊ रावरो विमल जस राखत ताहि उचाय॥
अ०-(कुछ सोचकर) कुमार नगर के पास घरे हुए शस्त्रों को लेने रथ पर बैठकर गया है, सो अब तक क्यो नहीं आया?
(उत्तर कुमार आता है)
कु०-देव, आपकी आज्ञानुसार सब कुछ प्रस्तुत है, अब आप रथ पर विराजिए।
अ०-(शस्त्र बाँधकर रथ पर चढना नाट्य करता है)
अमा०-(विस्मय से अर्जुन को देखकर)
सग्द सूर सम धन-रहित सूर प्रचंड लखात॥
(नायक से)
उड़ि रथ-धुज आगे बढ़हिं तुव बस व़िजय-निसान॥
अ०-अमात्य ! अब हम लोग गऊ छुड़ाने जाते हैं। आप नगर में जाकर गोहरण व्याकुल नगरवासियों को धीरज दीजिए। अमा०-महाराज जो आज्ञा।[जाता है
अ०-(कुमार से) देखो, गऊ दूर न निकल जाने पावै, घोड़ों को कसके हॉको।
कु०-(रथ हॉकना नाट्य करता है)
अ०-(रथ का वेग देखकर)
दूर रहत तरु-वृंद छनक मैं आगे आवत॥
जदपि वायु-बल पाइ धूरि आगे गति पावत।
पै हय, निज-खुर-वेग पीछहीं मारि गिरावत॥
खुर-मरदित महि चूमहिं मनहु धाइ चलहिं जब बेगि गति।
(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे अरे अहीरो! सोच मत करो, क्योंकि-
जब लौं जननी बाट देखिकै नहिं डकरैहै॥
जब लौं पय पीयन हित वे नहिं व्याकुल ह्वैहैं॥
(नेपथ्य में) बड़ी कृपा है।
कु०-महाराज ! अब ले लिया है कौरवों की सेना को, क्योकि-
मनु प्राचीन कपोत गल सांद्र सुरुचि सरसात॥
सेाई केलिमद गंध लै, करत इतैही गौन॥
अ०-वह देखो कौरवो की सेना दिखा रही है।
उड़हिं गीधगन गगन जबै भाले चमकाहीं॥
घोर संख के शब्द भरत बन मृगन डरावति।
यह देखौ कुरुसैन सामने धावति आवति॥
(बाँह की ओर देखकर उत्साह से)
बन-बन धावत सदा धूर धूसर जो सेाहीं।
पंचाली-गल-मिलन-हेतु अब लौं ललचौहीं॥
जो जुवती-जन-बाहु-बलय मिलि नाहि लजाहीं।
रिपुगन ! ठाढ़े रहौ सोई मम भुज फरकाहीं॥
(नेपथ्य में)
फेरत धनु टंकारि दरप शिव-सम दरसावत।
साहस को मनु रूप काल-सम दुसह लखावत॥
जय-लक्ष्मी सम वीर धनुष धरि रोष बढ़ावत।
को यह जो कुरुपतिहि गिनत नहिं इतही आवत॥
कु०-महाराज ! यह किसके बड़े गंभीर वचन है?
अ०-हमारे प्रथम गुरु कृपाचार्य के। शिव-ताषन खांडव-दहन सेाई पांडवनाथ।
धनु खींचत घट्टा पडे दूजे काके हाथ॥
छूटि गए सब शस्त्र तबौं धीरज उर धारे।
बाहु-मात्र अवशेष दुगुन हिय क्रोध पसारे॥
जाहि देखि निज कपट भूलि ह्वै प्रगट पुरारी।
अरे यह निश्चय अर्जुन ही है, क्योकि--
सीता-विरह-मिटावन की अद्भुत मति जिन मैं॥
जारी जिन तृन फूस हूस सी लंका सारी।
रावन-गरब मिटाइ हने निसिचर-बल भारी॥
श्रीराम-प्रान-सम, बीर-वर, भक्तराज, सुग्रीव-प्रिय।
सोइ वायुतनय धुज बैठि कैगरजि डरावत शत्रु-हिय॥
कु०-आयुष्मान्,
पक्षपात सुत सों करत को यह तुम पै तात॥
(नेपथ्य में)
द्रोन ! अस्त्र भृगुनाथ-लहे सब रहौ चढ़ाई॥
अश्वत्थामा ! काज सबै कुरुपति को साधहु।
दुरमुख ! दुस्सासन ! विकर्ण ! निज ब्यूहन बाँधहु॥
गंगासुत शांतनु-तनय बर भीष्म क्रोध सों धनु गहत।
अ०-(आनंद से) अहा ! यह कुरुराज अपनी सैन्य को बढावा दे रहा है।
कु०-देव ! मैं कौरव योधओ का स्वरूप और बल जानना चाहता हूँ।
अ०-देखो इसके ध्वजा के सर्प के चिह्न ही से इसकी टेढाई प्रगट होती है।
जाके चित सौजन्य भाव नहिं नेकु लखानो॥
विष जल अगिन अनेक भॉति हमको दुख दीनो।
कु०-और यह उसके दाहिनी ओर कौन है?
अ०-(आश्चर्य से)
कृष्णा-पट खींच्यौ निलज यह दुस्सासन सोय॥
अ०-इधर देखो (हाथ जोड़कर प्रणाम करके)
सूरज को प्रतिबिंब जाहि मिलि जाल तनावत॥
अस्त्र उपनिषद भेद जानि भय दूर भजावत।
कु०-यह तो बड़े महानुभाव से जान पड़ते है।
अ०-इधर देखो।
अस्त्र-रूप मनु आप, दूसरो दुसह पुरारी॥
सत्रुन कों नित अजय मित्र को पूरनकामा।
कु०-हाँ और बताइए।
अ०-कनक-कलस धरि धुज धस्यौ, सो कृप कुरु-गुरु आप॥
कु०-और यह कुरुराज के सामने लड़ाई के हेतु फेट कसे कौन खड़ा है?
अ०-(क्रोध से)
भृगुपति छलि लहि अस्त्र वृथा गरजत अघखानी॥
सूत-सुअन बिनु बात दरप अपनो प्रगटावत।
अ०-(प्रणाम करके)
श्वेत केस मिस सो कीरति मनु तन लपटाई॥
परशुराम को तोष भयो जा सर के त्यागे।
सूत ! घोड़ो को बढ़ाओ।
(नेपथ्य में)
निज-बल बाहु-विचित्रता, अरजुन देहु दिखाइ॥
(इंद्र, विद्याधर और प्रतिहारी आते हैं)
इंद्र-आश्चर्य से
तो यह दारुन युद्ध लखि, क्यो न डरै जिय खोय॥
एक रथी इक ओर उत बली रथी समुदाय।
कु०-(आगे देखकर) देव, कौरव-राज यह चले आते हैं।
अ०-तो सब मनोरथ पूरे हुए।
(रथ पर बैठा दुर्योधन आता है)
मरन-हेतु आयो इतै इकलो गरब बढ़ाय॥
अ०-(हँसकर)
इकले खांडव दाहि, उमापति जुद्ध प्रचार्यौ॥
इकले ही बल कृष्ण लखत भगिनी हरि द्यौनी।
दु०-अब हँसने का समय नहीं है; क्योकि अंधाधुंध घोर संग्राम का समय है।
अ०-(हँसकर)
पापीगन मिल द्रौपदि को दासी कीनी जित॥
यह रन-जूआ जहाँ बान-पासे हम डारै।
दु०-(क्रोध से)
नर्त्तनसाला जाव किन, इत पौरुष परकास॥
कु०-(मुँह चिढ़ाकर) आर्य ! यह आप ठीक कहते है कि इनका बहुत दिन से धनुष चलाने का अभ्यास छूट गया है।
तब करि अग्रज-नेह गरजि जिन तहँ सर साध्यौ॥
तब तुम सर-अभ्यास लख्यो बिहवल ह्वै नाहीं॥
विद्या०–देव ! यह बालक बड़ा ढीठा है।
इंद्र-क्यों न हो ! राजा का लड़का है।
दु०-सूत ! गुणों की भाँति इस कोरी बकवाद से फल क्या है? यह पृथ्वी ऊँची-नीची है इससे तुम अब समान पृथ्वी पर रथ ले चलो।
अ०-जो कुरुराज की इच्छा। (दोनों रथ जाते हैं)
विद्या०—(अर्जुन का रथ देख कर) देव० !
अरि-अरनी मंथन अगिनि-धूम-लेख सी तौन॥
इंद्र-क्यों न हो तुम महाकवि हो।
विद्या०-देव! देखिए अर्जुन के पास पहुँचते ही कौरवों में कैसा कोलाहल पड़ गया, देखिए-
बहु बजहिं बाजे मारु धरु धुनि दपटि बीर उचारहीं॥
टंकार धनु की होत घंटा बजहिं सर संचारहीं।
प्रति०-देव! केवल कोलाहल ही नहीं हुआ वरन् आपके पुत्र के उधर जाते ही सब लोग लड़ने को भी एक संग उठ दौड़े। देव ! देखिए, अर्जुन ने कान तक खींच-खींचकर जो बान चलाए हैं, उनसे कौरव-सेना में किसी
भा० ना०-२ के अंग-भंग हो गए हैं, किसी के धनुष दो टुकड़े हो गए हैं, किसी के सिर कट गए हैं, किसी की आँखें फूट गई हैं, किसी की भुजा टूट गई है, किसी की छाती घायल हो रही है।
इंद्र-(हर्ष से) वाह बेटा ! अब ले लिया है।
विद्या०-देव ! देखिए देखिए।
तरवार-चमकनि बीजु की दमकनि, गरज बाजन बजे॥
गोली चलें जुगनू सोई, बकवृन्द ध्वज बहु सोहई।
कातर बियोगिन दुखद रन की भूमि पावस नभ भई॥
तुव सुत-सर सहि, मद-गलित, दंत केतकी खोय।
इंद्र-(संतोष से)
जो जदुनाथ सनाथ कह कौरव जीतन ताहि॥
प्रति०-महाराज देखें।
झुंड मुंड पान करै लोहू भूत चेटी हैं।
घोड़न चबाइ, चरबीन सों अघाय, मेटी
भूख सब मरे मुरदान मैं समेटी हैं॥
लाल अंग कीने सीस हाथन में लीने अस्थि,
सोनित-पियासी सी पिसाचन की बेटी हैं॥
विद्या०-देव ! देखिए-
तुव सुत-सर लगि घूमि जब गज-गन मंडल खात॥
इंद्र-(आनंद से देखता है)
प्रति०-देव, देखिए ! देखिए ! आपके पुत्र के धनुष से छूटे हुए बानो से मनुष्य और हाथियों के अंग कटने से जो लहू की धारा निकलती है उसे पी-पीकर यह जोगिनिएँ आपके पुत्र ही की जीत मनाती हैं।
इंद्र-तो जय ही है, क्योंकि इनकी असीस सच्ची है।
विद्या०-(देखकर) देव ! अब तो बड़ा ही घोर युद्ध हो रहा है। देखिए-
रुधिर पान करि जोगिनी विजयहि देहि असीस॥
टूटि गई दोउ भौंह स्वेद सों तिलक मिटाए।
नयन पसारे लाल क्रोध सों ओठ चबाए॥
कटे कुंडलन मुकुट बिना श्रीहत दरसाए।
वायु वेग बस केस मूछ दाढ़ी फहराए॥
तुव तनय-बान लगि बैरि-सिर एहि बिधि सों नभ में फिरत।
बरहिं तिनहिं नाचहिं हँसहिं गावहिं नभ सुरबाल॥
इंद्र-(हर्ष से) मैं क्या-क्या देखूँ? मेरा जी तो बावला हो रहा है।
उत बीरन कों बरन को लरहि अप्सरावृंद॥
विद्या०-ठीक है (दूसरी ओर देखकर) देव ! इधर देखिए-
ज्वाला-माला लोल लहर धुज सी फहरावत॥
परम भयानक प्रगट प्रलय सम समय लखावत।
प्रति०-देव ! मुझे तो इस कड़ी आँँच से डर लगती है।
विद्या०-भद्र ! व्यर्थ क्यों डरता है, भला अर्जुन के आगे यह क्या है? देख-
तासों नभ में घोर घटा को मंडल छायो॥
उमड़ि उमड़ि करि गरज बीजुरी चमकि डरायो।
इंद्रर-बालक बड़ा ही प्रतापी है।
प्रति०-देव ! राधेय ने यह भुजंगास्त्र छोड़ा है, देखिए अपने मुखों से आग सा विष उगलते हुए, अपने सिर के मणियों से चमकते हुए इंद्रधनुष से पृथ्वी को व्याकुल करते हुए, देखने ही से वृक्षों को जलाते हुए, ये कैसे-कैसे डरावने साँप निकले चले आते हैं।
टेढ़े जिंमि खल-चित्त भयानक रहत सदाई॥
बमत बदन विष निंदक सो मुख कारिख लाए।
इंद्र-क्या खांडव वन का बैर लेने आते हैं?
विद्या -आप शोच क्यों करते हैं; देखिए, अर्जुन ने गारुड़ास्त्रर छोड़ा है।
झपटि दपटि गहि अहिन टूक करि नास मिलावत॥
बादर से उड़ि खींचि खींचि दोउ पंख हिलावत।
इंद्र-(हर्ष से) हाँ तब।
प्रति०-देखिए, यह दुर्योधन के वाक्य से पीड़ित होकर द्रोणाचार्य ने आपके पुत्र पर वारणास्त्र छोड़ा है।
विद्या०-(देखकर) वैनायक-अस्त्र चल चुका, देखिए--
निज मद सो सींचत धरनि, गरजि चिकारहिं जोर॥
सँड़ फिरावत सीकरन धावत भरे उमंग।
इंद्र-तब, तब। विद्या-तब अर्जुन ने नरसिंहास्त्र छोड़ा है, देखिए-
काल सरिस मुख खोलि दॉत बाहर प्रगटायो॥
मारि थपेड़न गंड सुंड को मॉस चबायो।
उदर फारि चिक्कारि रुधिर पौसरा चलायो॥
करि नैन अगिनि सम मोछ फहराइ पोंछ टेढ़ी करत।
इंद्र-तो अब जय होने में थोड़ी ही देर है।
विद्या०-देव ! कहिए कि कुछ भी देर नहीं है।
करन-रथहि करि खंड बहु, कृप कहँ कियो अचेत॥
और भजाई सैन सब, द्रोनसुवन-धनु काट।
प्रति०-दुर्योधन का तो बुरा हुआ।
विद्या-नहीं।
मुकुट गिरन सों क्रोध करि फिर्यो फेर कुरुराज॥
(नेपथ्य में)
सुन-सुन कर्ण के मित्र!
अग्रज परतिज्ञा करी तुव उरु तोड़न हेत॥
जा सर सों तोर्यो मुकुट तासों हरतो सीस॥
प्रति०-देव अपने पुत्र का वचन सुना?
इंद्र-(विस्मय से)
भीम-प्रतिज्ञा सों बच्यो अनायास कुरुराय॥
विद्या०—देव ! दुर्योधन के मुकुट गिरने से सब कौरवों ने क्रोधित होकर अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया है।
इंद्र-तो अब क्या होगा?
विद्या०—देव अब आपके पुत्र ने प्रस्थापनास्त्र चलाया है।
सब अचेत सोए, भई मुरदा सी कुरु-सैन॥
इंद्र-युद्ध से थके वीरों को सोना योग्य ही है। हाँ फिर-
विद्या-बॉधि अँधेरी आँख मैं, मूँड़ि तिलक सिर दीन॥
अब जागे भागे लखौ रह्यो न कोऊ खेत।
गोधन लै तुव सुत अबै ग्वालन देखौ देत॥
शत्रु जीति निज मित्र को काज साधि सानंद।
इंद्र-जो देखना था वह देखा।
(रथ पर बैठे अर्जुन और कुमार आते हैं)
तुव तन को बिनु घाव लखि तासों माद बिसेस॥
कु०-जब आप सा रक्षक हो तो यह कौन बड़ी बात है।
इंद्र-(आनंद से) जो देखना था वह देख चुके।
(विद्याधर और प्रतिहारी समेत जाता है)
अ०-(संतोष से) कुमार !
सो हम इनको वस्त्र हरि बदलो लीन्ह चुकाय॥
कु०-आपने सब बहुत ठीक ही किया क्योंकि-
निज अरि सो अपमान हिय खटकत जब लौं जीव॥
अ०-(आगे देखकर) अरे अपने भाइयों और राजा विराट समेत आर्य धर्मराज इधर ही आते हैं।
(तीनों भाई समेत धर्मराज और विराट आते हैं)
धर्म-मत्स्यराज! देखिए -
असम समर करि थकित पै, जय सोभा प्रगटात॥
विरा०-सत्य है।
लक्ष्मी सोहत दान सों, तिमि कुलबधू लजाय॥
सब-(आनंद से एक ही साथ) कल्याण हो-जीते रहो।
धर्म-
तुम इकले जीत्यो कुरुन, नहि अब चौथे नाम॥
अ०-(सिर झुकाकर हाथ जोड़कर) यह केवल आपकी कृपा है।
विरा०—(नेपथ्य की ओर हाथ से दिखाकर) राजपुत्र! देखो।
तुव उज्जल कीरति मनहुँ फैलत नगर मँझार॥
और,
खींच्यो कृष्णाकेस जो सभा मॉहि कुरुराज।
भीम०-(सुनकर क्रोध से) राजन् ! अभी बदला नहीं चुका, क्योकि-
तासों ताजो सद्य रुधिर करि पान घनेरो॥
ताही कर सो कृष्णा को बेनी बँधवाई।
तौ अब का नहिं हम लह्यो जाकी राखैं आस॥
तौ भी यह भरतवाक्य सत्य हो-
आलस मूरखतादि तजैं भारत*[१] सब कोई॥
पंडितगन पर कृति लखि कै मति दोष लगावैैं।
छुटै राज-कर, मेघ समै पै जल बरसावें॥
कजरी ठुमरिन सों मोरि मुख सत कविता सब कोउ कहै।
हिय भोगवती सम गुप्त हरि प्रेम धार नितही बहै+[२]
और भी
"सौजन्यामृतसिन्धवः परहितप्रारब्ध वीरव्रताः
वाचालाः परवर्णने निजगुणालापे च मौनव्रताः।
आपत्स्वप्यविल्लुप्तधैर्य्ययनिचया सम्पत्स्वनुत्सेकिनो
विरा०-तथास्तु।
(सब जाते हैं)
- ↑ * पाठा० श्री हरिपद मैं भक्ति करें छल बिनु।
- ↑ + पाठा० यह कविबानी बुध बदन मैं रवि ससि लौं प्रगटित रहै।
- ↑ +सौजन्य रूपी अमृत के समुद्र, दूसरे की भलाई में दृढ़व्रती, दूसरे की प्रशंसा में बकवादी पर अपनी प्रशंसा करने में मौनी बाबा, कष्ट में धैर्य के
समूह को न छोड़ने वाले और सम्पत्ति कान में नम्र जो सज्जन हैं, वे दुष्टों के मुख से निकले बिष भरी बातों से उदास मुख न हों।