भारतेंदु-नाटकावली/भूमिका/५–सत्यहरिश्चंद्र

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५---सत्यहरिश्चंद्र

क---आख्यान तथा नाटक

संस्कृत साहित्य में आर्य क्षेमीश्वर कृत 'चंडकोशिक' और रामचंद्र कृत 'सत्यहरिश्चन्द्र नाटकम्' नाम के दो रूपक मिलते हैं जो राजा हरिश्चन्द्र की आख्यायिका लेकर निर्मित हुए है। यद्यपि भारतेन्दुजी का सत्यहरिश्चन्द्र नाटक इन दोनों में से किसी का पूरा अनुवाद नहीं है पर प्रथम का कुछ भाग इसमें अनूदित करके लिया गया है। इन सभी नाटकों का आधार एक प्रसिद्ध पौराणिक आख्यान है और उसमें कुछ हेर फेर कर सभी नाटकों की रचना हुई है। इस नाटक का मुख्य उद्देश्य सत्य की परीक्षा है। परीक्षक इंद्र-प्रेरित ऋषि विश्वामित्र हैं और परीक्षा देनेवाले राजा हरिश्चन्द्र हैं। कथा पौराणिक है, इससे कुछ बातें ऐसी भी आगई हैं जो साधारणतः असंबद्ध सी ज्ञात पड़ने लगती हैं पर वास्तव में वे वैसी हैं नहीं। इसकी भाषा भी बड़ी सुन्दर है तथा कथा के अनुकूल रखी गई है। मुहाविरेदार तथा व्यावहारिक भाषा प्रयोग से इसके पठन पाठन से मनोरंजन भी होता है।

सत्यहरिश्चन्द्र नाटक चार अंक में समाप्त हो गया है। नाटकों में कम से कम पाँच अंक होने चाहिए। इस नाटक का प्रधान रस वीर है। इसके सत्यवीर, दानवीर, कर्मवीर तथा युद्धवीर चार भेद होते हैं, जिनमें दो का राजा हरिश्चन्द्र में और तीसरे का विश्वामित्र जी में परिपाक हुआ है। इसके सिवा इसमें करुण, वीभत्स, हास्य तथा अद्भुत रस का भी समावेश है, [ ४७ ]जिनमें प्रथम को मात्रा बहुत बढ़ गई है। इसके प्रधान नायक राजा हरिश्चन्द्र धीरोदात्त प्रतापी राजर्षि हैं। विश्वामित्र का राजा हरिश्चन्द्र को सत्यभ्रष्ट करने की प्रतिज्ञा करना बीज है। स्वप्न में पृथ्वी दान लेकर तथा सशरीर पहुँच कर उसपर अधिकार करना और दक्षिणा के बहाने राजा हरिश्चन्द्र को राज्यभ्रष्ट तथा शारीरिक स्वातंत्र्य-भ्रष्ट करना विंदु है। विश्वामित्र के प्रयत्नों का निष्फल होना पताका है। रोहिताश्व का दंशित होकर स्मशान में लाया जाना प्रकरी है। सत्य की परीक्षा में उत्तीर्ण होना कार्य है।

इसमें प्रासंगिक कथावस्तु प्रायः नहीं सा है और जो कुछ है वह भी आधिकारिक कथा के सौंदर्य को बढ़ाने के लिए प्रयुक्त हुआ है। कथावस्तु का आरंभ, मध्य तथा अंत सुचारु रूप से हुआ है। इन्द्र, नारद तथा विश्वामित्र के संवाद से नाटक के उद्देश्य और घटनाक्रम का पूरा ज्ञान कराते हुए नाटक का आरंभ होता है। दूसरे अंक में रवप्न में किए गए दान को सत्य मान कर विश्वामित्र के आते ही राज्य दे देना प्रयत्न है। दक्षिणा चुकाने को काशी में सस्त्रीक बिकना प्राप्त्याशा है। चौथे अंक में स्वामि-कार्य करते हुए सत्य पथ से न डिगना नियताप्ति है और भगवान का आकर उन्हें परीक्षोत्तीर्ण होना कहना फलागम है। पूर्वोक्त विचारों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्यहरिश्चन्द्र नाटक के प्रायः सभी लक्षणों से युक्त हैं।

ख---पात्रों का विवेचन

नाटक के पात्रों का चरित्र-चित्रण भी बहुत अच्छा किया [ ४८ ]गया है। इस नाटक के नायक राजा हरिश्चन्द्र और प्रतिनायक विश्वामित्र हैं। पहिले का आदर्श है---

चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।
पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार॥

और दूसरा उसे इस सत्यवीरत्व से च्युत करने में दत्तचित्त है। उसके प्रयत्न से वह राज्यभ्रष्ट होता है और स्त्री तथा अपने को बेंचकर शारीरिक स्वतंत्रता से भी भ्रष्ट हो जाता है पर अपना सत्यब्रत नहीं त्यागता। ब्राह्मण बने हुए क्षत्रिय में क्रोध की प्रचु-रता है पर उसके विपरीत सच्चे क्षत्रिय में ब्राह्मणो के प्रति जो उदारता थी वह उसे अंत तक सौम्य बनाए रखती है। एक अकारण दूसरे से द्वेष रखता है, उसे अनेक प्रकार से कष्ट देता है पर सच्चे गुण का असर उसके हृदय पर भी दिखलाकर नाटककार उसकी कृति को अस्वाभाविक नहीं होने देता। नायक के प्रति आरंभ ही से दर्शकों की समवेदना आकर्षित करने के लिए इन्द्र की 'देखि न सकहिं पराइ विभूति' वाली नीति दिखलाकर नारद जी से उसकी शासना कराई गई है तथा विश्वामित्र का इंद्र की बात सुनते ही झट उत्तेजित होना भी दिखलाया गया है। ज्यों ज्यो प्रतिनायक की कुटिलता बढ़ती गई त्यों त्यों नायक की सौम्यता तथा दृढ़ता का बढ़ना दिखलाकर यह समवेदना बढ़ाई गई, यहाँ तक कि अंत में इस नाटक का कोई भी पाठक आखें डबडबाए बिना इसे समाप्त नहीं कर सकता। प्रतिनायक के प्रति दर्शकों को घृणा तक हो जाती है। नायक की दान-धीरता तथा सत्य-वीरता दोनों ही एक से एक बढ़कर हैं। जिस प्रकार स्वप्न के दान को भी देने से न [ ४९ ]हिचकना पहिले की वैसे ही मृत पुत्र के शव के कफन में से आधा माँग कर उसे अधखुला छोड़ने को तैयार होना दूसरे की पराकाष्ठा है। नायक अपने गौरव तथा आत्माभिमान को कहीं नहीं भूला है। उसे अपने वंश का, सहज क्षत्रियत्व का तथा सत्य प्रतिज्ञ होने का दर्प था। ब्राह्मणों का उसके हृदय में कैसा आदर था, यह उसके आचरण से स्पष्ट है। विश्वामित्र के प्रति तथा पुत्र रोहिताश्व को ऐसे कष्ट के समय ढकेलने वाले बटु के प्रति उनका जो व्यवहार था वह आदर्श है और प्रत्येक पाठक का हृदय उनके प्रति श्रद्धा से भर उठता है। हरिश्चन्द्र ही महाजन थे। इतने प्रसिद्ध इक्ष्वाकु-वंशीय सम्राट् की ऐसी कठोरतम परीक्षा हुई, पर उसमें भी उसकी नम्रता तथा ईश्वर पर उसका विश्वास अंत तक बना रहा। यही कारण है कि आजतक सत्यवीरों की सूची में पहिला नाम इन्हीं महाराज का लिया जाता है। विश्वामित्र के प्रतिनायकत्व में संदेह करना उचित नहीं। इन्द्र-द्वारा प्रेरित होने पर भी नायक की प्रतिद्वंद्विता इन्हीं से चली थी। इन्द्र-प्रेरणा के सिवा इन्हें 'इसपर स्वतः भी क्रोध' था। वशिष्ट ऋषि से इनकी शत्रुता प्रसिद्ध थी। राजा हरिश्चन्द्र उन्हीं वशिष्ट जी के यजमान थे।

सत्यवीर की धर्मपत्नी महारानी शैव्या तथा पुत्र कुमार रोहिताश्व का चरित्र उन्हीं के अनुकूल चित्रित हुआ है। नाटककार ने सहज स्त्री-सुलभ-संकोच, लज्जा, पति के प्रति दृढ़ विश्वास तथा श्रद्धा उसके एक एक बात में भर कर रख दी है। पति ही पत्नी का सर्वस्व है, ऐसा मानते हुए भी वह अपनी शंका तथा अपनी सम्मति कह देना उचित समझती थी।


भा० ना० भू०---४
[ ५० ]उपाध्याय से कहलाकर महारानी के सौंदर्य, सौकुमार्य तथा शील प्रगट करते हुए 'तुम्हारे पति हैं न' प्रश्न ने सती स्त्री के सतीत्व को दमका दिया है। जिस पति के कारण एक महाराज की पुत्री और एक सम्राट् की पुत्रवधू होकर ता अपने छोटे से पुत्र को लेकर वह क्रीता दासी होने जा रही थी उसके प्रति उस समय उसका भाव क्या था, यह उसकी सौम्य मूक दृष्टि ही बतला रही है। पति की ओर देखकर नीचे दृष्टि कर लेने में कितना व्यथापूर्ण भाव है कि आज वह अपने ऐसे सर्वश्रेष्ठ रत्न को चिथड़े में रखा हुआ सबको दिखला रही है। पर रत्न रत्न ही है। इसके सिवा पुत्र-शोक-पीड़िता शैव्या के सारे रोने कलपने को पढ़िए पर एक भी शब्द ऐसा न मिलेगा जिससे उसका पति के प्रति अविश्वास या रोष का संदेह मात्र भी हो। स्मशान में चांडाल-दास पति के साथ उसका वही व्यवहार रहा जो राजसिंहासन पर सुशोभित सम्राट् पति के साथ था। महारानी शैव्या आदर्श स्त्री-रत्न थीं। रोहिताश्व बालक था। उसका निज का चाहे कुछ भी आदर्श चरित्र न दिखलाया गया हो पर उसीपर सत्यपरीक्षा की अंतिम कसौटी कसी गई थी, जिसका कस विद्युत से भी बढ़ कर प्रज्ज्वलित हो उठा था। यही बालक नाटक के करुण रस का स्रोत है और उसी पर की गई परीक्षा सदा सोने वाले आरामपसंद भगवान को मृत्युलोक तक खींच लाई थी।

सहायक पात्रों में इन्द्र और नारद ही मुख्य हैं। इंद्र का स्वभाव वही दिखलाया गया है जो उनके लिए प्रायः प्रसिद्ध है पर नारद जी का इसके विपरीत चित्रित किया गया है। वास्तव [ ५१ ]में वे पुराणों से कहाँ तक कलहप्रिय ज्ञात होते हैं इसपर विशेष रूप से तो नहीं कह सकता पर तब भी वे कहीं इस स्वभाव के मुझे नहीं मिले। वे विरक्त थे, इससे दक्ष की संतानों को उलटा उपदेश देकर वन में विदा कर दिया और स्वयं शापित होकर घूमने लगे। दुष्टो के संहार कराने में यह सदा दत्तचित्त रहते थे। संस्कृत साहित्य में, माघ आदि काव्यों में, ये ऋषिवत् ही चित्रित हैं, यद्यपि उनमें भी वे दुष्टो के नाश कराने ही के कार्य में लगे हुए वर्णित हैं। इस विचार से नारद जी का चित्रण ऋषिवत् करना ही उत्तम हुआ है और उनसे इंद्र को जो उपदेश दिलाया गया है वह बालको के लिए उपयोगी है।

सभी पात्रो का चरित्र चित्रण उनके स्वभावानानुकूल किया गया है और वह उनके कार्य तथा कथन आदि से स्पष्ट है।

ग---चंडकौशिक का आधार

भारतेंदु जी ने उपक्रम में चंडकौशिक का उल्लेख किया है और एक स्थान पर पाद टिप्पणी में लिखा भी है कि इसमें चंडकौशिक के श्लोक उद्धृत किए हैं। सत्य हरिश्चंद्र चंडकौशिक का अनुवाद कहा ही नहीं जा सकता क्योकि कथावस्तु में घटना-परिवर्तन कर दिया गया है। चंडकौशिक का जो आधार है वही सत्यहरिश्चंद्र का भी हो सकता है क्योंकि यह कथा बहुत प्रसिद्ध है। इसलिए उपक्रम में चंडकौशिक को सत्य-हरिश्चंद्र का आधार न कह कर भी उसका केवल उल्लेख करना यही सूचित करता है कि भारतेंदुजी ने इसे पढ़कर ही अपना ग्रंथ लिखा है और उनकी अद्भुत स्मरण शक्ति ने जो [ ५२ ]जो अंश अच्छे पाए उन्हें अपने नाटक में यथास्थान बैठा दिए।

सत्यहरिश्चंद्र बालकों के लिए लिखा गया है और इसी से इसमें श्रृंगार रस आने नहीं पाया है। प्रस्तावना दोनों ही की भिन्न हैं। चंडकौशिक का प्रथम अंक श्रृंगार रस पूर्ण है पर सत्यहरिश्चंद्र में उसके बदले इंद्र तथा नारद के सम्भाषण में अच्छा उपदेश दिलाया गया है। चंडकौशिक के दूसरे अंक का आरंभ राजा हरिश्चंद्र के शिकार खेलने की सूचना से होता है। इसके अनंतर विघ्नराट् आकर विश्वामित्र के द्वारा तप के बल से तीनो महाविद्याओ के वशीभूत करने के प्रयत्न की सूचना देता है। इसके बाद राजा भी रथस्थ आते है। इसी समय महाविद्याएँ भी चिल्लाती सुनाई पड़ती हैं। बालकगण प्रायः आरंभ में पाठशाला जाते चिल्लाते हैं पर महाविद्याएँ भी किसी के अभ्यास करने पर उसके पास आने से चिल्लाएँ यह कुछ असंगत सा जान पड़ता है। राजा सहायता को तैयार होते हैं तब नेपथ्य से विश्वामित्र तथा तीनो महाविद्याएँ आती हैं। विश्वामित्र के क्रोध प्रकट करते ही तीनों महाविद्याएँ चली जाती हैं और इन दोनों का संघर्षण होता है। राजोचित कार्य करने के लिए हरिश्चंद्र क्षमा माँगते हैं इसपर वाग्जाल फैलाकर सारा राज्य तथा एक लक्ष सुवर्णमुद्रा मॉग ली जाती है। अंत में काशी जाने की प्राज्ञा लेकर राजा लौटते हैं।

बालको के आगे उचित कार्य करने पर इस प्रकार के पुरस्कार पाने का आदर्श रखना उचित न समझकर ही उन्होंने परिवर्तन कर डाला। उन्होंने पति तथा पुत्र के लिए अशुभ स्वप्न [ ५३ ]देखकर घबड़ाई हुई एक साध्वी महारानी का गुरु तथा शास्त्र पर विश्वास रखते हुए उसकी शांति कराना दिखलाना अधिक उपयुक्त समझा। इसके अनंतर पति आकर अपनी धर्मपत्नी के मुख को मलीन देख उसके प्रति अपना प्रेम दिखलाता है और उसे साहस दिलाता है। एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न पर आकर चंडकौशिक के दूसरे अक की सारी कथा दो तीन पंक्ति में कहला दी गई है और उससे साफ़ ध्वनि निकलती है और जैसा कि पॉच छ पंक्ति ऊपर कहलाया गया है कि 'सहज मंगल-साधन करते भी जो आपत्ति आ पड़े तो उसे निरी ईश्वर की इच्छा ही समझ कर संतोष करना चाहिए।' इसके अनंतर स्वप्नमात्र के संत्यविचार'को स्वप्न न रहने देने के लिए विश्वामित्र आप आते हैं और पृथ्वीदान तथा दक्षिणा मॉग लेते हैं। पर हरिश्चंद्र का वह महत्व, जो स्वप्न के दान को सत्य मानने से मिल सकता है, अक्षुण्ण बन रहा। यही सत्यहरिश्चंद्र के द्वितीय अंक की निज कल्पना है।

इसके अनंतर दोनों ही में तृतीय अंक के पहिले एक एक अर्थोपक्षेपक पाया है। चंडकौशिक का प्रवेशक केवल पाप पुरुष का रोना तथा भृंगी द्वारा महादेव जी का पुलकित होना बतलाता है। यदि यह न भी होता तो कथा कहीं से विश्रृंखल न होती। अंकावतार में यह दोनों होते हुए राजा हरिश्चंद्र के अयोध्या से काशी तक पाने का कारण तथा समाचार देकर वह सार्थ कर दिया गया है। और सब बातें एक सी हैं। दोनों के तीसरे अंक की कथा सस्त्रीक बिक कर दक्षिणा चुकाना है, इसलिए कुछ घटा बढ़ाकर सभी बातें एक सी हैं। [ ५४ ]चंडकौशिक का चौथा और पाँचवॉ अंक मिलाकर सत्य-हरिश्चंद्र का चौथा अंक निर्मित हुआ है। चंडकौशिक में राजा हरिश्चंद्र एक डोम के साथ आते हैं। अपनी पूर्व बीती कहते और स्मशान का वर्णन करते हैं। कापालिक आता है और विघ्नों को हटाने की प्रार्थना करता है। विघ्न हटते ही विद्याएँ आती हैं और कौशिक के पास भेजी जाती हैं। तब कापालिक अपनी साधना पूर्ण करके आता है और महानिधान देने का प्रयत्न कर चला जाता है। राजा 'भागीरथी-तीरमुपगम्य' स्वामी कार्य में लगते हैं। यहाँ चौथा अंक समाप्त होता है। पाँचवें अंक में उसी प्रकार उसी स्थान पर राजा पुनः आता है। वह सोच विचार कर रहा है कि शैव्या आती है। एक दूसरे डोम के कहने से उससे कफन मॉगने जाते हैं। जानकर दोनों ही मरने को तैयार होते है, फिर रुकते हैं। अंत में धर्म आकर शांति फैलाते हैं। सत्यहरिश्चंद्र में करुण रस की मात्रा अधिक है, पिशाचादि की कथा बढ़ाई गई है और दोनों अंक मिला दिए गए हैं। कारुण्य के आधिक्य से इसमें भगवान स्वयं पधारे हैं। इंद्र, विश्वामित्र आदि को लाकर आपस में मिला देना और दोनो पक्ष के हृदयों के मालिन्य को मिटा देना बालकों के लिए बहुत उपदेशमय हो गया है। दोनो वर्णन में बहुत कुछ परिवर्तन होते हुए भी प्रथम का बहुत अंश इसमें आ गया है।

घ---शंका-समाधान

सत्यहरिश्चन्द्र नाटक की तीन समालोचनाएँ हमारे देखने में आई हैं। प्रथम हिन्दी वैयाकरणी पं० कामताप्रसाद गुरु की [ ५५ ]है, जिसमें व्याकरण-विषयक अशुद्धियाँ विशेषतः दिखलाई गई है। गुणावलोकन करते हुए कुछ दोष भी दिखलाए गए है। इसके अनन्तर भारतेन्दु-नाटकावली की भूमिका में रायबहादुर बा० श्यामसुन्दर दास जी बी० ए० और लाला भगवानदीनजी ने सत्यहरिश्चंद्र में अपनी अपनी स्वतंत्र आलोचनाएँ की हैं। प्रथम में दोष मात्र दिखलाए गए हैं और दूसरे में गुण-दोष दोनो ही की चर्चा की गई है।

पहिली समालोचना का सारांश तो यही है कि भारतेन्दु जी न तो भारतीय और न यूरोपीय नाट्यशास्त्र से पूर्णतया परिचित थे और न इस कारण वे दोनो का सामंजस्य कर एक नई शैली संस्थापित कर सके। उन्होने बंगला तथा पारसी कंपनी के नाटकों का अनुकरण किया। 'सत्यहरिश्चन्द्र का नायक कौन है?' इसका पता नहीं। समालोचक महोदय विश्वामित्र ही को क्रियाशील मानते हुए नायक सा समझते हैं। सत्य है, घातक ही क्रियाशील है, अपने को अन्त तक बिना प्रतिहिंसक हुए उससे बचाने वाला निर्जीव आलसी है। अर्थ-प्रकृति, अवस्थादि का आपके कथनानुसार खोजने पर भी इस नाटक में पता नहीं मिलता और यदि कोई उन्हें ढूँढ़ निकाले तो वह उसी समालोचक की उपज मात्र होगी।' 'यहाँ सत्य विचार ही कौन था? एक स्वप्न की बात थी'। वस्तुतः जो संसार ही को नित्य और सब कुछ समझते हैं उनके लिये ऐसा विचार रखना उचित था पर आपसे संसारिक प्रशंसा मान प्रतिष्ठा को तुच्छातितुच्छ समझने वाले का ऐसा लिखना कुछ खटकता है। गंगावर्णन को दोष मान लिया है और अंकावतार तथा जवनिका के गिरने [ ५६ ]में भी दोष दिखलाया गया है। अभिनय के विचार से आपका कहना है कि 'अंकों को क्रमशः छोटा होता जाना चाहिए पर इसमें ऐसा नहीं है। यदि यह मान लिया जाय कि इस नाटक का अभिनय तीन घंटे में किया जा सकता है तो इसके चारों अंकों का अभिनय करने में क्रमशः २५,३०,४० और ८५ मिनट लगेंगे।' उक्त अालोचना का सारांश यह हुआ कि नाटक नाटककार की शास्त्र तथा व्यवहार आदि की अनभिज्ञता प्रकट करता हुआ आप भी अपने को दोषपूर्ण घोषित कर रहा है।

नाटक के उपक्रम में भारतेन्दुजी ने लिखा है कि यह बालकों के पढ़ने के लिये लिखा गया है। पात्रों के वस्त्रादि के वर्णन देने से यह ध्वनि निकलती है कि इसे वे अभिनय के उपयुक्त भी समझते थे। भारतेन्दुजी ने चारों अंक तथा अंकावतार के अंत में जवनिका गिरती है, यही लिखा है और कहीं भी परदा उठता है ऐसा नहीं लिखा है। स्यात् उन्होंने भारतीय ढंग के अनुसार ही प्रत्येक दृश्य के अंत में यवनिका-पतन ही उचित समझा है। तात्पर्य यह कि परदो का गिरना अभिनय में रुकावट न डालते हुए कोई नियमभंग नहीं करता। मिनट वाला किस्सा भी उलटा है। भारतेन्दुजी अंको को बराबर बढ़ाते गए हैं पर साथ ही दर्शकों का 'आलस्य और थकावट' मिटाते हुए उत्सुकता तथा कारुण्य भी बढ़ाते गए हैं। नाटक की घटनावली देखते हुय अंको का समय बहुत ठीक है।

सत्यहरिश्चन्द्र में 'चंडकौशिक' से कहाँ तक सहायता ली गई है, इसमें भी दोनों समालोचकों में मतभेद है। प्रथम का कथन है कि 'इस प्रकार सत्यहरिश्चन्द्र और चण्डकौशिक के [ ५७ ]मूल आधार में ही बड़ा अन्तर है, अतएव एक को दूसरे का अनुवाद कहना अनुचित है'। दूसरे समालोचक इसके विपरीत चण्डकौशिक को सत्यहरिश्चन्द्र का अाधार मानते हैं। प्रथम ने चण्डकौशिक बिना देखे ही स्यात् अपनी सम्मति दे दी है, ऐसा ज्ञात होता है, पर दूसरे ने दोनों ग्रंथों को मिलान करके दिया है। इस पर अन्यत्र विचार हो चुका है।

नाटक में पहिले पूर्वरंग, तब सभा पूजा और उसके बाद कवि नाम आदि कथन रूपी आमुख होता है। नाट्य वस्तु के पहिले रंगशाला के विघ्नों के शांत्यर्थ नटों द्वारा जो कुछ किया जाता है उसे ही पूर्वरंग कहते हैं। यही कारण है कि पूर्वरंग का सब कार्य नटों द्वारा उनकी इच्छानुसार होता है, इसलिये महर्षियों ने उस पर विशेष नहीं लिखा है। पूर्वरंग के अनेक अंगों में नान्दी भी एक है जो 'अवश्यं कर्तव्या नान्दी विघ्नोपशांतये'। इसमें जो मंगलाचरण होता है, वही नान्दी कहलाता है। यह कार्य सभी नाटको में समान-रूपेण होता है, इसीलिए नाटककार अपनी रचना पूर्वरंग के आयोजन के बाद उसे 'नान्द्यन्ते सूत्रधार:' से आरम्भ करता है। प्रायः नाटककार-गण अपनी रचना के निर्विघ्न समाप्त होने के लिए मंगलाचरण बनाते हैं और शास्त्रानुसार नान्दी के हो जाने पर भी उसके बाद 'नान्दी के अनन्तर सूत्रधार आता है' लिख देते हैं।

भारतेदुजी नान्दी को नान्दी-पाठक नहीं समझते थे वरन् मंगलपाठ ही समझते थे पर कहीं-कहीं उसे विशेषण रूप में प्रयुक्त किया है।

इस नाटक की प्रस्तावना कथोद्घात है। [ ५८ ]जहाँ पात्र सूत्रधार के वाक्य या वाक्यार्थ को लेकर प्रवेश करे वह कथोद्घात है। इसमें श्लेष की आवश्यकता नहीं है। जिस अर्थ में सूत्रधार कहता है वैसा ही भाव लेकर पात्र प्रवेश करता है। वेणीसंहार में सूत्रधार के यह कहने पर कि 'वैर के शान्त हो जाने से पाण्डवगण श्रीकृष्ण के साथ आनन्द करें और पाण्डवों को उनको स्वत्वानुसार सब भूमि देकर शत्रुता का अन्त कर कौरव लोग भी भृत्यों के साथ प्रसन्न हों' भीमसेन ने उसका अर्थ ग्रहण कर यह कहते प्रवेश किया कि 'अरे दुष्ट, मंगल पाठक, नटाधम आदि' पर इसके बाद ही पाण्डव-कौरवों के आनन्द करने की बात 'काफूर' हो जाती है। सूत्रधार का यह कथन भी कि 'आनन्द करे' लालाजी के अनुसार अनुचित ही होगा क्योकि सूत्रधार के समय कौरव पाण्डव एक भी न थे। अस्तु, इसी प्रकार सत्यहरिश्चन्द्र में सूत्रधार सहज भाव से अपने समय के हरिश्चन्द्र की पहिले हुए राजा हरिश्चन्द्र से तुलना करता है पर उसी वाक्यार्थ को लेकर इन्द्र-पात्र प्रवेश करता है। 'कॉपता' बहुत ठीक है, क्योंकि इन्द्र-पात्र अपने अर्थात् सूर्यवंशीय हरिश्चंद्र के समय के सुरलोक के कॉपने का उल्लेख करता है, सूत्रधार के समय का नहीं। 'दूजे हरिश्चन्द्र' का भाव केवल सूत्रधार द्वारा पहिले हरिश्चन्द्र का उल्लेख कराने मात्र को था और यही कारण है कि नारद जी के आते ही वह 'काफूर' हो गया। पर पहिले हरिश्चन्द्र के प्रति इन्द्र को जो ईर्ष्या हो रही थी उसको इस भाव से जो उत्तेजना मिली थी वह अवश्य बनी रही। [ ५९ ]अंकावतार अंक का अवतार नहीं होता प्रत्युत् अगले अंक के अवतीर्ण होने की सूचना मात्र देता है। अंकावतार के लक्षण से यह स्पष्ट है कि उसका पिछले अंक का अंगीभूत होना या न होना दोनों ही नाट्यशास्त्र द्वारा अनुमोदित हैं।

राजा हरिश्चंद्र के मुख से गंगाजी का वर्णन कराया गया है इससे एक महाशय इसे देश-काल-दोष विभूषित कहते हैं और दूसरे इसे भद्दी गलती कहते हुए लिखते है कि चंडकौशिक और रत्नाकरजी कृत हरिश्चन्द्र में गंगा-वर्णन नहीं है। चंडकौशिक पृ० १२६ पर राजा हरिश्चन्द्र कहते है---भवतुभागीरथी-तटो-पान्तेषु सुत-शोक्राग्नि-दह्यमानमात्मानं निर्यापयामि। देखिए केवल गंगा ही नहीं 'भागीरथी' शब्द तक मौजूद है। रत्नाकरजी के 'हरिश्चन्द्र' में सरयू का वर्णन रहते यह कहना कि गंगा का वर्णन नहीं आया अनर्गल है। गोस्वामीजी लिखते हैं---

मुनि अनुसासन गनपतिहिं, पूजेउ संभु-भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि, सुर अनादि जिय जानि॥

गंगाजी को भी 'सुर अनादि' माने तो शंका निर्मूल हो जाती है और गणेशजी की माता की अग्रजा को देवी मानना ही पड़ेगा। भगीरथ-नंदनी, जाह्नवी, ब्रह्मस्वरूपिणी आदि पौराणिक आख्यान लेने से वे देवी बनकर अनादि हो जायँगी। गंगाजी को नदी ही माना जाय तो यह कहना कि राजा भगीरथ के पहिले गंगाजी भारत में नहीं थी बिलकुल तथ्यहीन होगा। विचारिए कि हिमालय से लेकर विंध्य तक तथा पंजाब से लेकर ब्रह्मा तक के बीच की जितनी नदियाँ हैं सभी गंगा की [ ६० ]सहायक हैं। यदि गंगा न होती तो सारी नदियों का जल समुद्र में कैसे पहुँचता। वास्तव में भागीरथी के आख्यान में कितना ऐतिहासिक तथ्य है, यह विचारणीय है। इक्ष्वाकु-वंशीय राजों ने इस खोज में विशेष भाग लिया था और अनेक पीढ़ियों के बीतने पर अंत में भगीरथ का गंगासागर का दर्शन हुआ होगा। हिमालय के उच्चतम शिखर गौरीशंकर का एक नाम माउंट एवरेस्ट है। क्या एवरेस्ट साहब के पहिले उस श्रृंग का नाम देना भी देश-काल-दोष माना जायगा? यह ऐसे ही समालोचक बतला सकेंगे।

स्वप्न में दान देने की कथा भारतेन्दुजी की निज की उपज है। चंडकौशिक तथा सत्यहरिश्चन्द्रम् में प्रत्यक्ष ही दान देने की कथा है। सत्यहरिश्चन्द्रम् में रामचंद्र ने एक हरिणी को मार डालने के कारण सारा राज्य कुलपति को दिला दिया और उनकी कन्या वंचना को न रोने के लिए लक्ष सुवर्ण दिलाया। भारतभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्यों में प्रायः यही धारणा रहती थी कि यह संसार स्वप्न हे। जिस प्रकार रात्रि व्यतीत होते ही स्वप्न स्वप्न मात्र रह जाता है, उसी प्रकार मृत्यु होते ही संसार भी स्वप्नमात्र रह जायगा। भारतेन्दुजी ने ऐसी शंका उठने की शंका करके ही यह बात महारानी शैव्या द्वारा कहला डाली और उसका भारतीय विचारों के अनुकूल समाधान करा दिया। साथ ही कुछ ही आगे उसी स्वप्न को सशरीर विश्वामित्र के रूप में लाकर खड़ा कर दिया कि उसे पाठकगण 'स्वप्नमात्र' न समझें। ऐसी अवस्था में यह सत्य विचार एक स्वप्न मात्र नहीं रह जाता और राजा हरिश्चंद्र का स्वप्न के दान को सत्य मानना उनके [ ६१ ]सत्य तथा दानवीरता की चरम सीमा प्रगट करता है। मनोविज्ञान-वेत्ताओं को यह भी जानना चाहिए कि यह आख्यान असाधारण पुरुषो का है। साधारण मानव प्रकृति यदि किसी प्रकार दब कर अपना सर्वस्व क्या उसका कुछ अंश भी दान करने पर वाध्य हो तौ भी वह बाद को उस दान को न मानने ही की कोशिश करेगी। महारानी शैव्या के अपने स्वप्न के वृत्तांत कहने पर राजा हरिश्चन्द्र को अपने स्वप्न का याद अाना क्यों दूषित बतलाया जाता है, यह नहीं कहा जा सकता। नाटक उपाख्यान आदि में एक बात का दूसरे से संबंध रहना ही चाहिए। कुस्वप्न देखने के कारण शैव्या के मलीन मुख को देखकर उसका हाल पूछने के पहिले अपना ही रोना रोना क्या उचित होता? महारानी के स्वप्न तथा शांति का वृत्त सुनकर राजा हरिश्चन्द्र ने अपने स्वप्न का हाल कहा है।

विश्वामित्र के आने पर चंडकौशिक के दो श्लोक उद्धृत किए गए हैं, जिनके कुछ अंशों पर आपत्ति की जाती है पर किसी दूसरे की कविता में कुछ रद्दो बदल करना अनुचित होता इसलिये ये ज्यों के त्यों रख दिए गए ज्ञात होते हैं। इन्हें न रखकर उसके स्थान पर हिन्दी ही में परिचयादि दिए जाते तो उत्तम होता। पृथ्वीदान ग्रहण करके विश्वामित्र के दक्षिणा माँगने पर राजा हरिश्चन्द्र का यह कहना---'मंत्री दस हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ' भी मनोविज्ञानवेत्ताओं को खटकता है और वे उसे भोंड़ी बात समझते हैं। सत्य ही क्या जब मनुष्य लोग अपने मकान बेंचते हैं, किराए पर देते या दान देते हैं तो उस मकान की सब वस्तु को तुरंत क्रेता, किराएदार या दानपात्रकी समझ [ ६२ ]लेते हैं? यदि कहिए कि दान देनेवाला गृह खाली कर और उसमें दान ही की वस्तुमात्र रखकर दान देता है तब दाता महाशय भी उस मकान में नहीं रहते और बाहर ही रहकर दान देकर रास्ता लेते हैं। राजा हरिश्चन्द्र अपनी राजधानी में खड़े होकर दान दे रहे थे तथा पृथ्वी से अपने इस कार्य के लिए क्षमा याचना कर रहे थे कि दक्षिणा माँगने पर स्वभावानुसार मंत्री को मुद्रा लाने के लिये कह देते है। सत्य हरिश्चन्द्र में कई स्थानों पर एक सहस्र ही लिखा है पर वह छापे की अशुद्धि है क्योकि उन्हीं संस्करणों में बिक्री के समय अपना मूल्य राजा हरिश्चन्द्र ने पाँच सहस्र कहा था तथा चांडाल ने पचास सौ दिए भी थे। इस कारण ठीक पाठ दस सहस्र ही है।

काशी पहुँचने पर राजा हरिश्चन्द्र के काशी तथा गंगाजी का वर्णन करते और विश्वामित्र से बात चीत करते समय तक शैव्या तथा रोहिताश्व कहाँ थे। 'इसका संकेत करना आवश्यक है कि वह वहाँ नहीं थी।' शैव्या आदि न जाने कहाँ थी, अब तक इसी बात का पता नहीं था और अब आप लिखते है कि उनके वहाँ न रहने का संकेत करना आवश्यक है। चंडकौशिक का अनुवाद कहते हुए भी आप ही लिखते हैं कि उसमें इन बातों का लक्ष्य कराया गया है। दोनों ही कैसे हो सकता है।

दूसरे अंक के अंत में जो दोहा है उससे यह स्पष्ट ही ध्वनित हो रहा है कि स्त्री-पुत्र सहित अपने को बेचकर दक्षिणा चुका देगे। इससे काशी में उनका बिकने के लिए साथ आना सभी दर्शकों को मालूम हो गया। अंकावतार में भी इतना स्पष्ट रूप [ ६३ ]से कहला दिया गया है। जब तक हरिश्चन्द्र रंगमंच पर आकर काशी तथा गंगा का वर्णन और विश्वामित्र से बात चीत कर रहे थे उस समय तक शैव्या तथा रोहिताश्व का वहाँ खड़ा रहना बेकार था। सभी समझ सकते हैं कि वे दोनों राजा हरिश्चन्द्र के पीछे होगे और समय पर आ जायँगे। जब हरिश्चन्द्र ने अपने को बेंचने के लिए आवाज लगाया तब उसे सुनकर शैव्या का झट आकर अपने को पहिले बेंचने के लिए कहना बिलकुल स्वाभाविक है। क्या जितने पात्र अंक के बीच में रंगमंच पर आते हैं, वे पहिले कहाँ थे यह सूचित करना किसी नाट्यशास्त्र का नियम है? यात्रा करते-करते शैव्या का थक जाना तथा राजा हरिश्चन्द्र को दृश्य देखते हुए उसके वर्णन करने में लीन देखकर नेपथ्य ही में ठहर जाना और ठीक समय पर उनकी आवाज सुनकर आ जाना क्या सहज स्वाभाविक नहीं है।

कुछ ऐसी ही बात दूसरे अंक के लिए भी कहो गई है। शैव्या के रंगमंच पर रहते हुए भी आपको उसका पता नहीं। यदि थी तो उसने प्रणाम क्यों नहीं किया? क्यो करे? कहाँ पति-पुत्र का अशुभ-सूचन, उस पर पति के सर्वस्व दान करने की चिंता और कहाँ अज्ञात नाम गोत्र ब्राह्मण का आगमन, जिसके विषय में यह आशंका है कि कहीं उनके दुःख का वही मूल कारण तो नहीं हैं। राजा हरिश्चन्द्र तो स्वागत और प्रणाम करके लाने गये और कहाँ उस दुर्वासा के अवतार ने इतना क्रोध दिखलाया कि राजा साहब ही घबड़ा गए तब बतलाइये कि रानी साहबा भी कुछ सुनने जातीं। यहाँ तक शंकाओ के कुछ समाधान करने की चेष्टा की गई है।