भारतवर्ष का इतिहास/९—हिन्दुओं का पुरातत्व
(ईसा से पहिले १००० बरस से २०० बरस तक।)
१—ईसा से पहिले एक हज़ार बरस से दो सौ बरस तक के समय को हिन्दुओं का प्राचीन काल कह सकते हैं। आर्य जाति के द्रविड़, कोल, तूरानी और प्राचीन भारतवासियों के साथ मिल जुल जाने से बहुत सी जातियां बन गई थीं। जातिभेद भी लोग मानने लगे थे। ब्राह्मण पुजारी और पुरोहित का काम करते थे, वेद के प्राचीन देवता और आर्य जाति के सीधे सादे धर्म को लोग भूल चुके थे। वेदों की भाषा भी अब नहीं बोली जाती थी। इसकी जगह ब्राह्मणों के लिखने की भाषा संस्कृत हो गई थी। साधारण पुरुषों की बोली तरह तरह की प्राकृत थी जिससे आजकल को प्रचलित भाषायें निकली हैं।
२—प्राचीन काल में आर्यों के घरों पर कोई बड़ा बूढ़ा या घर का मालिक अपने कुल की ओर से अग्नि और इन्द्र देवताओं की पूजा किया करता था, और उसके बेटे पोते खेत जोतते थे या कपड़ा बुनते थे। छोटे बालक गाय बैल चराते थे, औरतें दूध दुहती थीं, चरखा कातती थी या घर के और धंधे करती थीं। लड़ाई के समय मर्द तलवार और तीर कमान लेकर शत्रु से लड़ने जाते थे। इस जाति का सब से बहादुर और समझदार मनुष्य सर्दार या सेनाध्यक्ष बनता था। सर्दार देवताओं से प्रार्थना करता था कि लड़ाई के समय वह उसकी सहायता करें, और लड़ाई के अन्त में उनको धन्यवाद देता था। ३—जब आर्यों ने उत्तरीय भारत पर आक्रमण करना आरम्भ किया तो नित्य का लड़ाई झगड़ा रहने लगा। परिवारों के बड़े बूढ़ों को और जाति के सर्दारों को इतना अवकाश न मिलता था कि वह वेदों के मन्त्र या देवताओं की बन्दना को याद करते। इस कारण हर जाति में कुछ ऐसे मनुष्य नियत किये गये जिनका पूजा पाठ करना करानाही कर्तव्य कर्म था। इसको छोड़ वह और कोई काम नहीं करते थे। कुछ दिन बीतने पर जाति के लोग उनको बड़े धर्म्मात्मा और साधू समझने लगे। इन लोगों की एक नई जाति बन गई और वह ब्राह्मण कहलाने लगी।
४—इस समय सर्दारों या उनके सिपाहियों को खेतीबाड़ी या और किसी काम के करने का भी अवकाश न मिलता था। इस कारण जाति के बहुत से बहादुर पुरुष युद्ध के निमित्त नियत किये गये। जाति का सर्दार उनका अध्यक्ष होता था और राजा कहलाता था। होते होते यह भी एक अलग जाति हो गई जो क्षत्रिय कहलाने लगी। बहुत दिनों तक ब्राह्मण और क्षत्रिय बराबर दरजे पर रहे। पीछे ब्राह्मण क्षत्रियों से श्रेष्ठ समझ जाने लगे।
५—बचे बचाये मनुष्य जो खेतीबारी करते थे या कपड़ा बुनते थे अथवा और कोई कार्य करते थे वैश्य कहलाये। यह भारतीय आर्यों की तीसरी जाति थी।
६—चौथी जाति सब से बड़ी थी—यह शूद्र कहलाती थी। इसमें उन पहिले आर्यों को सन्तान मिली जुली थी जिन्हों ने प्राचीन भारतवासियों की स्त्रियों से व्याह कर लिया था और उन जातियों के वह मिले हुए लोग भी थे जो आर्यों के साथ रहते रहते उन्हीं के सदृश हो गये थे।
७—जो असभ्य जातियां आर्यों के साथ न मिली और जिनको आर्यों ने जीत लिया वह दास की दशा पर आ गईं और सब से नीची जाति समझी जाने लगीं। यह लोग चाण्डाल कहलाते थे। इनको बस्तियों के अन्दर रहने की आज्ञा नहीं थी, इस कारण गांव के बाहर झोपड़ियां डालकर रहते थे।
८—इस भांति बहुत समय बीत जाने पर वह जाति बनी जिसको हिन्दू कहते हैं। इसको इस ढंग में आये हुए कम से कम तीन हज़ार बरस हो गये। हिन्दुओं के बहुत से परिवार थे। पृथक पृथक परिवारों के पृथक पृथक राजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चाण्डाल होते थे। बड़े बड़े नगर बस गये, मन्दिर बन गये, नये नये देवताओं की पूजा होने लगी। इन पुराने नगरों में एक काशी था। जो लोग एक उद्यम करते थे उनकी एक जाति बन गई। होते होते सैकड़ों जातियां हो गई जो अब तक विद्यमान हैं। एक जाति दूसरी जाति का उद्यम नहीं कर सकती। एक जाति के लोग न दूसरी जातिवालों के साथ खाना खा सकते हैं न शादीब्याह करते हैं। जातिभेद का बिचार भारतही के रहनेवालों में पाया जाता है और कहीं नहीं है।
९—हिन्दू धर्म्म भी धीरे धीरे रूप बदलता जाता था। आर्यों के प्राचीन देवता अग्नि और इन्द्र को लोग भूल चुके थे, ऐसा कोई बिरला था जो इनको पूजता हो। आर्यों और पुराने भारतवासियों के धर्मों के मेल से जो नया धर्म्म बना वही अब हिन्दुओं का धर्म्म था। इस धर्म्म के बड़े देवता ब्रह्मा, विष्णु और शिव माने जाने लगे। इनके सिवाय और भी देवता थे। इसी प्रकार आर्यों की वैदिक भाषा और प्राचीन भारतवासियों की भाषा के मेल से पण्डितों की लिखने की संस्कृत और साधारण मनुष्यों के बोल चाल की वह भाषा बनी जिसको प्राकृत कहते हैं और जिस से आजकल की हिन्दी, बङ्गाली और प्रचलित भाषायें निकली हैं। १०—हम कह नहीं सकते कि जातियों के अलग होने में कितना समय बीता। केवल इतना जानते हैं कि मनु जी के समय से पहिले यह रीति भलीभांति प्रचलित हो चुकी थी। मनु जी ने आचार व्यवहार (धर्म्मशास्त्र) का संग्रह इस समय के अन्त में किया था। यह संग्रह ईसा के जन्म से लगभग ५०० बरस पहिले हुआ था। इस धर्म्मशास्त्र में जातियों का बिस्तारपूर्वक वर्णन है। मनु जी ने हिन्दुओं के चार वर्ण लिखे हैं—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र; पर यह भी कहते हैं कि जो शूद्र जातियां वर्णों के संकर (गड़बड़) होने से बनी थीं उनकी संख्या बहुत थी।
यह ८०० बरस का समय ईसा के जन्म से १००० बरस पहिले से २०० बरस पहिले तक ब्राह्मणों का समय कहा जा सकता है क्योंकि इसमें ब्राह्मणों का अधिकार बहुत था।
(२) प्राचीन हिन्दू राज।
(ईसा से पहिले १००० बरस से २०० बरस तक।)
१—प्राचीन आर्य सर्दार अपने अपने परिवारों को संग लिये हुए उत्तरीय भारत की बड़ी बड़ी नदियों के बराबर बराबर बढ़े और उनकी उपजाऊ तरेटियों पर अपना अधिकार जमा लिया। वेदों के समय में वह सिन्धु नदी की तरेटी में रहे। उसके पीछे गंगा और यमुना की उत्तरीय तरेटियों में पांच बड़े बड़े नगर और राज्य स्थापित किये, फिर उन नदियों के बराबर बराबर चले जो उत्तर की दिशा में हिमालय से और दक्षिण में विन्ध्याचल से निकल कर गंगा जी में मिली हैं और अन्त में महानदी, गोदावरी और दूसरी दखिन की नदियों के किनारे किनारे बस गये।
२—प्राचीन काल में हिन्दुओं के बहुत बड़े बड़े राज थे। प्रायः हर एक स्थान में क्षत्रियों का राज था पर कहीं कहीं शूद्र भी राज करते थे। कितने ही स्थान पर सैकड़ों बरस तक एक ही परिवार के राजा क्रम से राज करते रहे। इनमें आपुस में भी लड़ाई होती रहती थी। जो अधिक शक्तिमान होता था वह शक्तिहीन को दबा लेता था। हर एक राजा का दर्बार था। हर दर्बार के अमीर, सिपाही, कवि और पुरोहित अलग अलग थे। इनमें से बहुत सी रियासतों के नाम भी किसी को याद नहीं है। जिन जिन का हमको ज्ञान है उनका नीचे बर्णन किया जायगा।
३—इस समय सब से बड़ी शक्तिमान रियासत दक्षिण बिहार में मगध की थी। इसके उत्तर में गंगा जी के पार विदेह को रियासत थी। मगध पर कई शताब्दियों तक बहुत से राजवंश क्रम से राज करते रहे। कहा जाता है कि धीरे धीरे गंगा जी की तरेटी को रियासतें मगधराज्य के आधीन हो गईं।
४—आजकल जिसको बङ्गाला कहते हैं उस समय उसका पूर्वीय भाग बङ्ग कहलाता था और पश्चिमीय अङ्ग के नाम से प्रसिद्ध था। उड़ीसा एक तीसरी रियासत में मिला हुआ था जिसे कलिङ्ग कहते थे। मालवे का सुन्दर पहाड़ी प्रान्त जिसमें कि चम्बल नदी बहती है अवन्ति कहलाता था। अवन्ति के दक्खिन में सौराष्ट्र या सोरठ का देश था जिसे अब गुजरात बोलते हैं। दखिन में गोदावरी के तीर अंध्र का राज्य स्थापित था।
५—इस समय उत्तरीय भारत का धर्म, वहां के शास्त्र और रस्म रिवाज दक्खिन और मध्य भारत में भी फैल गये थे। ब्राह्मण देश देश में फिरते थे; जहां जाते थे वहीं उनका धर्म, उनका शास्त्र और उनकी बोली भी उनके साथ जाती थी। दखिन की द्रविड़ जातियां भी ब्राह्मणों के बहुत से देवताओं को पूजने लगीं और उनकी भाषा में भी संस्कृत के बहुत से शब्द मिल गये। उत्तरीय भारत के ब्राह्मणों और आर्यों ने अपनी विज्ञता, योग्यता और सभ्यता के प्रभाव से दक्खिन के लोगों को अपने आधीन कर लिया। इस समय में दक्खिनी द्रविड़ों ने भी बड़े बड़े नगर बसाये और मन्दिर बनाये। इनकी भी रियासतें थीं। विद्या और कला की भी बहुत सी बातें उन्हों ने जान ली थीं पर उत्तरीय भारत के ब्राह्मण उनसे अधिक विद्वान थे। ब्राह्मणों ने उनके धर्म और उनकी भाषाओं पर अपना सिक्का बिठाकर यह प्रामाणित कर दिया कि हम तुमसे बढ़कर हैं। इस से यह न समझना चाहिये कि द्रविड़ों ने अपना धर्म और अपने देवता सब बदल डाले। जिस तरह उत्तरीय भारत के हिन्दुओं का धर्म कुछ आर्य कुछ द्रविड़ कुछ कोल और तूरानियों के धर्म से मिल जुल कर बना था उसी तरह दक्खिनी हिन्दुओं का धर्म द्रविड़, कोल और आर्यों के धर्म से मिल जुल कर उत्पन्न हुआ। इसमें पेड़ पल्लव और नागों की पूजा का अंश द्रविड़ों के धर्म से लिया गया है।
६—जो हाल कि द्रविड़ देश के विषय में लिखा गया है वही मध्य भारत के विषय में भी कहा जा सकता है। उत्तरी भारत के ब्राह्मण और व्यापारी कुल दक्खिन में फैल गये। व्यापारी तरह तरह का माल अपने साथ ले जाते थे तो ब्राह्मण अपना धर्म, अपनी भाषा, अपने आचार और व्यवहार का प्रचार करते थे। इसी तरह धीरे धीरे सारा भारतवर्ष हिन्दू हो गया। यद्यपि हर जाति की पृथक भाषा थी फिर भी उसमें संस्कृत के बहुत से शब्दों ने भर कर लिया था। हर एक धर्म के पृथक देवता थे पर बहुत से देवता उत्तरीय भारत के पूजे जाने लगे। यद्यपि देश देश के ब्राह्मण अपने अपने यहां की भाषा बोलते थे पर वह संस्कृत के लिखने का अभ्यास रखते थे और उनके सब शास्त्र संस्कृत ही भाषा में थे। ७—दक्खिन की सब से प्राचीन और शक्तिमान् चार रियासते थीं। पहिली पाण्ड्य, टामिल देश के धुर दक्षिण में थी; इसकी राजधानी मदुरा थी। दूसरी चोल, टामिल देश में पाण्ड्य की उत्तर दिशा में; इसकी राजधानी काञ्ची (कांजीवरम) थी। तीसरी चेर कर्नाटक देश में जो आज कल मैसूर के नाम से प्रसिद्ध है। चौथी केरल जो पश्चिमीय घाट और समुद्र के बीच में थी। इसको अब मलयवार और त्रावंकोड़ कहते हैं। इनमें नित्य लड़ाई झगड़े रहते थे; विशेष करके पाण्ड्य और चोल की रियासतों में। कुछ विद्वानों का विचार है कि उत्तरीय भारत के क्षत्रियों ने इन रियासतों की नेव डाली थी; कुछ का कथन है कि पहिले ही से यहां द्रविड़ राजा राज करते थे। कहते हैं कि अगस्त्य मुनि द्रविड़ देश में आये थे और पाण्ड्य की राजधानी में बहुत दिनों तक एक राजा के पाहुने रहे और उन्हों ने इस देश के निवासियों को अपना धर्म सिखाया। पश्चिमीय घाट की सब से ऊंची चोटी उनके नाम पर आज तक अगस्त्यमलय कहलाती है।
(३) प्राचीन हिन्दू समय की विद्या और कला।
(ईसा से पहिले १००० बरस से २०० बरस तक।)
१—जब आर्य भारतवर्ष की हरी भरी और उपजाऊ तरेटियों में बस गये तो ब्राह्मणों को जिनकी एक पृथक जाति बन गई थी पढ़ने लिखने के हेतु बड़ा समय मिलता था। अब वह न तो लड़ाई में जाते थे और न खेतीबारी करते थे। जिस किसी बस्तु की उन्हें आवश्यकता पड़ती थी वह और जातियों के लोग उन्हें पहुंचा देते थे। पूजा के पीछे सारा दिन अपना था। इनको वेद कंठ करना पड़ता था और इसमें निःसन्देह बड़ा समय व्यतीत होता था फिर भी इतना अवकाश मिलता था कि वह कविता करें शास्त्र बनायें अथवा विद्या और कला सीखें।
२—इस पुस्तक में इस बात का बर्णन पहिले हो चुका है कि रामायण और महाभारत काव्य इसी समय में लिखे गये और इन दोनों में बहुत से ऐसे किस्से कहानियां हैं जो वाल्मीकि और व्यास जी से बहुत पहिले राजाओं महाराजाओं के दर्बार में भाट और कवि गाया और सुनाया करते थे। इनमें बहुत सी प्राचीन आर्यराजाओं की कीर्त्तियां बर्णित हैं और उनकी बीरताओं के साथ ही साथ बहुत से देवी देवताओं की अख्यायिकायें भी हैं।
३—ब्राह्मणों ने संस्कृत बड़े ध्यान से पढ़ी थी और उसके व्याकरण को बहुत ऊंचे पद पर पहुंचा दिया था। व्याकरण पर उन्हों ने बड़ी बड़ी पुस्तकें लिख डालीं। उस समय का सब से प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि हुआ है। संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ जो इसने लिखा है वह अपने ढंग का अद्वितीय है। ऐसी और कोई पुस्तक सारे संसार में कदाचित न निकलेगी।
४—उस समय के हिन्दुओं ने जब रात को आकाश का अवलोकन किया और चन्द्रमा की चाल पर ध्यान दिया तो ज्योतिषशास्त्र की नींव डाल दी और उन २७ नक्षत्रों के नाम रक्खे जिनमें चन्द्रमा क्रम से प्रवेश करता है। उन्हों ने उन १२ राशियों को भी पहिचाना जिनमें पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा रहता है और उनके नाम रक्खे ।
५—उन्हों ने गिनती की रीति निकाली और अङ्कगणित के सूत्र बनाये। दहाई पर गिन्ती की रीति निकालना इन्हीं आर्यों की बुद्धि का चमत्कार है। पश्चिमीय जातियों ने भी यह गुर इन्हीं से सीखा है। यज्ञ की वेदियों को नाप कर नियमों के अनुसार बनाया करते थे, इस कारण रेखागणित और क्षेत्रमिति की रीतियां भी भलीभांति जान गये। वर्गक्षेत्र, वृत्तक्षेत्र और त्रिभुजक्षेत्र के करणसूत्र अच्छी तरह मालूम हो चुके थे।
६—इस प्राचीन काल के हिन्दुओं ने जीवनरहस्य और उसका मूलतत्व, संसार की अस्थिरता, परमेश्वर, मनुष्य, आत्मा, भूत वा भविष्य हर विषय पर बरसों तक बड़ा ध्यान दिया; जिसका इनको ज्ञान हुआ और जो कुछ इनकी समझ में आया सब लिखते गये। इस छान बीन का परिणाम यह हुआ कि छ प्रधान मत बन गये जिसको दर्शन कहते हैं।
७—सांख्य दर्शन कपिल मुनि का रचा हुआ है। इनका यह बचन है कि हम उसी वस्तु का बिश्वास कर सकते हैं जिसका कि हमको इन्द्रियों से ज्ञान हो सकता है या जिसे हम अनुमान कर सकते हैं या जो कोई प्रामाणिक बचन हो। यह कहते हैं कि ईश्वर प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो सकता। इनकी शिक्षा यह थी कि पृथ्वी अपने आपही प्रकृति से बनी है। प्रकृति सदा से संसार में उपस्थित है और उपस्थित रहेगी। प्रकृति अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार अदलती बदलती रहती है और भांति भांति के रूप धारण करती है। संसार की सारी बस्तु और दशायें इसी प्रकृति के पलटते रहने, बढ़ने और घटने से उत्पन्न होती है। यह प्रकृति के साथ पुरुष (आत्मा) को भी अनादि और अविनाशी मानते हैं। इनका कथन है कि प्रकृति और पुरुष का न तो आदि है न अन्त; यह हर काल में थे और सदा रहेंगे। मनुष्य की आत्मा कुछ काल तक एक शरीर में रहती है और अपने कर्मों के अनुसार ऊंची नीची योनि में जाती है। पुरुष प्रकृति से भिन्न है पर उसे अपना समझता है। जब मनुष्य को भेद का पूरा पूरा ज्ञान हो जाता है तो आवागमन से छट जाता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ८—दूसरा दर्शन योग है। यह पातञ्जलि ऋषि का बनाया हुआ है, जो ईसा से प्रायः २०० बरस पहिले हुए थे। इनका मत वही है जो कपिल का है पर यह ईश्वर को मानते हैं। मनुष्य की आत्मा के मोक्ष होने का एक उपाय यह भी है कि मनुष्य परमात्मा का ध्यान करे और प्रकृति के बन्धन से छूट कर उसमें लीन हो जाय।
९—तीसरा दर्शन गौतम ऋषि का चलाया हुआ न्याय है। न्याय में प्रमाणों से किसी वाक्य का झूठ सच जांचना सिखाया जाता है। गौतम की शिक्षा यह है कि आत्मा को छोड़ सारी वस्तुओं को परमेश्वर ने बनाया है। आत्मा अनन्त और अविनाशी है। आत्मा जब पूरा पूरा ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो शरीर के बन्धन से छूट जाता है।
१०—चौथा दर्शन वैशेषिक कहलाता है इसके रचयिता कणाद ऋषि हैं। कणाद का कथन है कि पृथ्वी उन छोटे छोटे कणों से बनी है जिनमें किसी प्रकार का रूपान्तर नहीं हो सकता और जो नित्य हैं पृथ्वी और उसपर की सारी बस्तु कितनी ही क्यों न बदलती रहें। आत्मा के बिषय में उनकी शिक्षा वही है जो गौतम की है।
११—शेष दोनों दर्शन मीमांसा कहलाते हैं। इनमें से पहिले का नाम पूर्व मीमांसा है। इसको जैमिनि ऋषि ने रचा था। इसका अभिप्राय यह है कि लोग जो अपना धर्म्म कर्म्म भूल गये हैं उनको सावधान करे और सच्चा धर्म्म सिखाये। मनुष्य का धर्म्म यह है कि वेद की शिक्षा के अनुसार चले और उसी की दी हुई रीतियों के अनुसार पूजा करे। मन्त्र पढ़े और यज्ञ और हवन करे। जैमिनि परमेश्वर के विषय में कुछ नहीं कहते।
दूसरे को उत्तर मीमांसा अथवा बादरायण व्यास का वेदान्त कहते हैं। यह वह व्यास जी नहीं हैं जिन्हों ने महाभारत की रचना की थी। यह अपनी शिक्षा को उपनिषदों के अनुसार बताते हैं और इनका कथन है कि मनुष्य को चाहिये कि परमेश्वर की आराधना करे। आत्मा, सत और समस्त सृष्टि का जन्म उसी से हुआ है, और अन्त में सब उसी से मिल जायगा। फिर वही वह रह जायगा और कुछ न रहेगा। बादरायण का कथन है कि मनुष्य की आत्मा परमेश्वर ही का एक अंश है जिस तरह चिनगारी अग्नि का अंश है। अर्थात् एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। इसको अद्वैत वेदान्त कहते हैं। कारण यह कि वह जगत को ईश्वर से भिन्न नहीं समझता और ऐक्यता की शिक्षा देता है। दोनों परमेश्वर के स्वरूप हैं। यथार्थ में एक ही हैं भेद कुछ भी नहीं है। जो कुछ है सो एक वही परमात्मा है।
१२—ब्राह्मण सारी जातियों के गुरु और राह बतानेवाले थे। इस कारण उन्हों ने सब जातियों के कर्तव्य निश्चित किये और उनके लिये नियम बना दिये। पहिले यज्ञ और हवन की रीतियां बनाई और और उनके हर भाग के विषय में पृथक पृथक नियम बतलाये। फिर ब्रह्मभोज और जेवनार के कायदे स्थिर किये। गृहस्थ के धर्म्म और उसके निबाहने की रीतियां बड़ी सुगमता के साथ बर्णन की। यह सब बातें श्लोकों में लिखी हैं जो कंठ किये जाते हैं। मनु जी के धर्म्मशास्त्र में आचार व्यवहार के नियम हैं। मनु यह बताते हैं कि शासन कैसे होता है और अपराधियों को किस प्रकार दंड देना चाहिये। जान पड़ता है कि मनु स्मृति पहिले सूत्रों में रची गई थी; श्लोक बहुत पीछे बने हैं।