भारतवर्ष का इतिहास/४४—मरहठों की बढ़ती
(सन् १७०८ ई॰ से १७४८ ई॰ तक)
१—ऊपर कहा जा चुका है कि शिवाजी मरहठों को लिये हुए सारे दखिन में फिरता था और उनको लूट खसोट का पाठ पढ़ा रहा था। मरहठों ने जो देखा कि रुपया इकट्ठा करने का यह उपाय सब से सहज है तो खेती के कटते ही और वर्षा-ऋतु के समाप्त होते ही बड़े बड़े हथियारबन्द झुण्ड बांध कर निकलने लगे और मध्य भारत को रौंद डाला।
२—कुछ समय पाकर उनका हियाव ऐसा बढ़ा कि विन्ध्याचल के उत्तर में दिल्ली तक धावा मारने लगे; जहां जाते थे वहां के हाकिम से चौथ मांगते थे, जब तक चौथ न मिलती प्रजा को सताते और मारते थे और जो कुछ पाते थे लूट कर ले जाते थे।
३—औरङ्गजेब की मृत्यु के पीछे साहु मरहठों का राजा था। वह सम्भाजी का बेटा था जिसे औरङ्गजेब ने पकड़ कर मरवा दिया था। वह औरङ्गजेब के दरबार में पढ़ाया लिखाया गया था, बादशाह उसको साहु अर्थात विश्वासपात्र कहा करता था और शिवाजी को चोर। जब औरङ्गजेब की मृत्यु हुई तो उसको आज्ञा हो गई कि अपने देश लौट जाय और वहां के बादशाह का आधीन होकर मरहठों का राजा बने। इस कारण वह मरहठों का राजा हुआ और सितारा को उसने अपनी राजधानी बनाई। परन्तु साहु कुबुद्धि और मूर्ख था और बड़ा विषयी था; मेहनत से जी चुराता था। उसने कुल काम अपने ब्राह्मण मंत्री पर जो पेशवा कहलाता था छोड़ दिया था। पेशवा की पदवी मौरूसी हो गई और जिस भांति एक घराना राजा का था उसी भांति दूसरा घराना पेशवा का बन गया था। पेशवा देखने में तो राजा का आधीन था और उसी के नाम से सब राज काज करता था परन्तु वास्तव में धीरे धीरे मरहठों का हाकिम और राजा हो गया था। सब मरहठे उसे अपना सरदार जानते थे। सन्धि और विग्रह करना सब उसी के हाथ में था और वह सारे महाराष्ट्र मंडल का अधिकारी था।
४—पहिला पेशवा बालाजी विश्वनाथ था। औरङ्गजेब की मृत्यु के एक बरस पीछे अर्थात सन् १७०८ ई॰ में साहु ने उसको पेशवा बनाया और यह सन् १७२० ई॰ तक मंत्री बना रहा। इसने महम्मद शाह को दबा कर सारे दखिन में चौथ लेने की आज्ञा ले ली।
५—दूसरा पेशवा बाजीराव था। यह सन् १७२० ई॰ से १७४० ई॰ तक राज क़ाज करता रहा। इसने बड़े बड़े मरहठा सरदारों को आज्ञा दी कि जहां तुम्हारा जी चाहै जाओ और उस देश से चौथ लो। महम्मद शाह ने दिल्ली को बचा रखने के कारण मरहठों को आज्ञा देदी कि दिल्ली के सिवाय जहां चाहो वहां चौथ लो। महम्मद शाह अभी तक नाममात्र मुग़ल राज्य का सम्राट था। इससे मरहठों को अधिकार हो गया कि भारत के हर प्रांत से चौथ लें।
६—उसके समय में मरहठों के पांच बड़े राज बन गये। मरहठों के प्रधान लोगों ने जहां किसी सूबेदार या नवाब को दुर्बल पाया उसे सूबे से निकाल दिया और आप वहां के हाकिम बन गये।
७—महाराष्ट्र अर्थात् मरहठों का प्राचीन देश वहां था जहां अब बम्बई होता है। उसका राजा मरहठों का नाम मात्र राजा था जो सितारे में रहता था पर वास्तव में देश का राजा पेशवा था जो बम्बई से अस्सी मील के लगभग अग्निकोण की ओर पूने में रहा करता था। गुजरात एक मरहठा सरदार के आधीन था जो गायकवाड़ कहलाता था। मालवे में दो राजा थे,—होलकर जिसकी राजधानी इन्दौर थी और सिन्धिया जिसकी ग्वालियर रही बरार और गोंडवाने में जो अबतक मध्यदेश का सूबा कहलाता है भोंसला राजा था। उसकी राजधानी नागपुर थी।
८—यह रियासतैं मौरूसी थीं; अर्थात बाप के पीछे बेटा गद्दी पर बैठता था। इस से यह जाना गया कि महाराष्ट्र के सिवाय मरहठों के चार बड़े बड़े राज और थे। पहिले उन राजों के अधिकारी जो चौथ लेते थे उसे पेशवा के पास भेज देते थे पीछे से उन्हों ने चौथ का भेजना बंद कर दिया। उनमें से तीन राज अब तक हैं। इनके नाम यह हैं गुजरात या बड़ौदा, ग्वालियार, और इन्दौर।
८—मरहठों ने हैदराबाद लेने की बड़ी चेष्टा की परन्तु उनका सब उपाय व्यर्थ रहा। निज़ाम हैदराबाद और मरहठों में बराबर युद्ध होते रहे; मरहठे बराबर चौथ मांगते रहें, निज़ाम ने जहां तक हो सका चौथ नहीं दी।
१०—तीसरा पेशवा बालाजी बाजीराव था। यह अपने बाप और दादा के पीछे सन् १७४० ई॰ से सन् १७६१ ई॰ तक राज करता रहा।
११—औरङ्गजेब की मृत्यु के पचास बरस पीछे तक भारत का हाल वही हो गया था जो किसी समय में पठान बादशाहों के राज में हुआ था अर्थात इसके बीच में कोई ऐसा बली राजा न था जैसा अब है जो प्रजा को डाकुओं से बचाता है और उसके जान और माल की रक्षा करता है। मरहठे डाकुओं के दल के दल देश में फिरते थे; अपने घोड़ों के लिये किसानों की खड़ी खेतियां काट डालते थे और प्रजा को लूटते मारते थे। इस समय में लोग हर गांव के पास पास दृढ़ कोट बनाते थे और चारों ओर कांटों की बाड़ लगाई जाती थी जिसमें कि लुटेरे न घुस आयें। किसान हल जोतने जाते थे तो अपनी तलवार साथ ले जाते थे। ऊंचे मचानों पर रखवारे बैठाये जाते थे जिसमें कि चारों ओर देखते रहैं और जब डाकुओं के आने की धूल उड़ती हुई देखें तो जता दें। हर गांव में एक बड़ा भारी धौंसा रहता था जिसकी धमक एक मील की दूरी पर सुनाई देती थी। जहां डाकू आते दिखाई दिये और धौंसे पर चोट पड़ी लोग उसे सुनते ही खेतों से भागकर गावों के कोट के भीतर चले जाते थे।
१२—रास्ते लुटते थे। इस कारण लोग अपनी रक्षा के निमित्त सिपाही को साथ लिये बिना राह नहीं चलते थे। इलाक़े के इलाक़े उजाड़ पड़े थे। जो कुछ सड़कें पहिले की बनी मौजूद थीं बिलकुल चौपट हो गई थीं। कोई उनकी देख भाल नहीं करता था, गाड़ियों का चलना बन्द हो गया था, लोग घोड़ों या बैलों पर चढ़ कर यात्रा करते थे।
हर इलाक़े का सरदार अलग था। यात्री जब तक उनको कुछ भेट न देते थे वह लोग उनको अपने इलाके में होकर जाने न देते थे। यह उतरवाई कहलाती थी। कभी कभी बीस मील की यात्रा में दस बारह जगह उतरवाई देनी पड़ती थी।