भारतवर्ष का इतिहास/३–आर्य
१—सब से प्राचीन ग्रन्थ जिसमें हिन्दुस्थान के पुराने रहनेवालों का ब्यौरा मिलता है वेद है। इसके पढ़ने से जाना जाता है कि अब से अनुमान ४००० बरस पहिले भारतवर्ष के उत्तर और पश्चिम के भाग में जिसे अब पंजाब कहते हैं कुछ ऐसी जातियां बसी थीं जिनका रंग गोरा और डील लम्बा था। यह लोग अपने को आर्य कहते थे। २—इनके विषय में हम इतना ही जानते हैं कि इनकी जन्मभूमि तुर्किस्तान थी और यहां से चलते चलते अफ़ग़ानिस्तान होते हुए हिमालय पहाड़ के पश्चिमोत्तर के दर्रों की राह इस देश में आ गये। आर्य्य लोगों का रंग गोरा, डील बड़ा, माथा ऊंचा और रूप सुन्दर था। यह उन पीले नाकचिपटों से भिन्न थे जो पूर्व की ओर मङ्गोलिया में रहते थे।
३—इन लोगों ने गांव और छोटे छोटे नगर बसा रक्खे थे; भेड़, बकरी, गाय, बैल पालते थे; धरती जोतते बोते थे; जौ, गेहूं की खेती करते थे और कपड़ा बिनना जानते थे। पर लोहे के हथियार बनाना इन्हें नहीं आता था। ताम्बा और रांग आग पर गलाते थे और उनको मिलाकर कांसा बना लेते थे। इसी के चाकू, छुरी और बरछियां बनती थीं।
४—आस पास के बहुत से कुल मिलकर एक जाति के नाम से प्रसिद्ध थे जिसका एक सरदार रहता था और वही काम पड़ने पर सेनापति बन जाता था। यह जातियां बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ गईं कि जन्मभूमि में समा न सकीं। इस लिये कुछ जातियां दक्षिण-पश्चिम चली गईं और पारस में जा बसीं और उन्हीं के कारण इस देश का नाम ईरान पड़ गया जो आर्यान का दूसरा रूप है। कुछ आर्य भारतवर्ष में चले आये और बहुत दिनों तक पंजाब में बसे रहे।
५—जो आर्य हिन्दुस्थान में आकर बसे उनको अङ्गरेज लोग इन्डो आर्यन् कहते हैं जिसका अर्थ हिन्दुस्थानी आर्य है। यह लोग लिखना नहीं जानते थे और हमारे लिये ऐसा कोई लेख नहीं छोड़ गये जिससे उनका पूरा हाल जाना जाय। पर यह लोग देवताओं की स्तुति मन्त्र पढ़कर करते थे और अपनी सन्तान को शुद्धता और स्वच्छता के साथ उन मन्त्रों का पढ़ना सिखाते थे। मन्त्र ऐसे कण्ठ हो जाते थे कि उनका भूलना कठिन था। यही कारण है जो सैकड़ों बरस तक मन्त्र सुन ही सुनकर कण्ठ किये गये। कुछ दिन पीछे लिखने की भी रीति निकली और मन्त्र लिख डाले गये। इस मन्त्रों के संग्रह को वेद कहते हैं। वेद और विद्या की ही बात है। वेदों का समय प्राचीन काल की विद्याकलाओं का समय है। इन से हम को हिन्दुस्थानी आर्यों के बहुत कुछ पुराने इतिहास की छाया मिलती है।
६—यह लोग बहुत दिनों तक पंजाब की नदियों के किनारे सीधी सादी चाल से रहते थे। इन्हों ने बन काटकर धरती साफ़ की; खेती कियारी का डोल डाला; अनाज विशेष करके जौ, गेहूं की सुन्दर फ़सलें पैदा कीं; दिव्य देवताओं को पूजते और उनसे सब प्रकार की सहायता की आशा रखते थे। हिन्दुस्थान में आने से पहिले जब वह ठंडे देशों में रहते थे इनको भोजन बनाने और शरीर गरम रखने के लिये आग परम आवश्यक थी। यह लोग अग्निदेव की बड़ी पूजा करते थे पर जब यह पंजाब में आये और देखा कि खेती के लिये मेंह भी चाहिये तो आकाश के इन्द्रदेव की उपासना करने लगे और उनकी स्तुति करने को मन्त्र पढ़ने लगे। यह लोग यह जानते थे कि गरज इन्द्र को बोली और बिजुली उसकी बरछी है। यह बरछी जब काले मेघों की पीठ में चुभती है तो उनसे पानी निकलकर धरती पर बरसता है।
७—यह लोग यह भी मानते थे कि मरने के पीछे जीव वायु और आकाश के ऊपर एक ज्योतिर्मय लोक में पहुंचता है जहां कोई दुख नहीं है, सदा प्रकाश रहता है परम आनन्द और शान्ति छाई रहती है, मित्रों और सगों से भेंट होती रहती है। इस लोक के शासक को यह लोग यम कहते थे जिसके सामने मरने पर सब को जाना पड़ता है और वही उनके कर्मों पर विचार करता
है। इनके सिवाय और भी देवता थे जैसे वरुण (नीला आकाश), सवितृ या सूर्य, वायु (हवा), रुद्र (गरज), और उषस् (सवेरे का लाल और सुनहरा आकाश)।
८—पुराने हिन्दू आर्य आजकल के हिन्दुओं से कई बातों में भिन्न थे। इनमें जातिभेद न था, न इनके शिवालय और ठाकुरद्वारे थे, न ठाकुर और मूर्त्तियां। लड़कियां स्वयंवर करती थीं; विधवाओं का विवाह होता था। आर्य अन्न और मांस खाते थे और सोमरस पीते थे जिससे आंखें चढ़ जाती थीं।