भारतवर्ष का इतिहास/२––प्राचीन समय में भारतवर्ष की दशा
(१) पत्थर और धात का समय।
१—हज़ारों बरस पहिले भारतवर्ष जङ्गली देश था। सारे देश में बड़े बड़े बन खड़े थे जिनमें जङ्गली जीवजन्तु फिरा करते थे। पेड़ों की घनी छांह में अजगर लोटते थे न कहीं शहर थे, न गांव, न घर, न सड़कें।
२—कहीं कहीं थोड़े से बनमानुस रीछों की तरह खोहों में या बन्दरों की तरह पेड़ों पर रहा करते थे। इनका डील छोटा, रंग काला, चेहरा मोहरा भोंडा था; नंगे और मैले रहते और बन के फल फूल बेर और कन्दमूल खाते थे; कभी कभी बनैले सुअर और हिरन भी मारकर खा जाते थे। इनके पास चाकू छुरे न थे। काटने का काम चकमक पत्थर के पैने टुकड़ों से लिया करते थे। इससे हम इन लोगों को पत्थर के समय के आदमी कहते हैं। यह लोग लकड़ियों को रगड़ कर आग बनाना भी जानते थे।
३—इन लोगों की यह दशा बहुत दिनों तक रही। पीछे धीरे धीरे इन्हों ने कुछ उन्नति की और बनों में रहने के लिये छोटी छोटी झोपड़ियां बनाई; पत्तों या पशुओं की खाल से अपना तन ढांकने लगे; फिर तीर कमान और भाले बना लिये जिन से हिरन मार लिया करते थे। इनके खाने पीने की वस्तु भी अच्छी हो गई जिस से बनमानुसों की अपेक्षा यह लोग मोटे ताज़े और बली भी हो गये। यह लोग मिट्टी की हांडियां बनाते और उनमें साग पात पका लेते थे। कुछ दिन पीछे धातों का काम भी जान गये और उनकी कटारियां और भालों की अनी बनाने लगे। इस समयवाले धात के समय के मनुष्य कहे जाते हैं।
(२) भारतवर्ष की पुरानी जातियां—कोल।
१—इस देश में पहिले जो लोग बसे वह सब जहां तक हम जानते हैं दो ही बड़ी जाति के थे एक कोल दूसरे द्रविड़। कोल वंश उत्तर और मध्य भारत में बसा था और द्रविड़ वंशवाले जो गिनती में बहुत थे देश भर में फैले थे।
२—किसी किसी विद्वान का यह भी मत है कि कोल धात के समयवालों की सन्तान हैं। जसे धात के समयवाले पत्थर के समयवालों से बढ़कर निकले वसे ही धातवालों की सन्तान में जो बली बुद्धिमान और श्रेष्ठ हुए कोल कहलाये। बहुतों का यह मत है कि कोलों का असली घर कहीं और था। वहां से यह लोग उत्तर-पूर्व की राह से हिन्दुस्थान में आये। हम निश्चय करके कह नहीं सकते कि कौन बिचार ठीक है केवल इतना जानते हैं कि प्राचीन काल में यह लोग उत्तर और मध्य भारत में फैले हुए थे।
३—इनके पास ढोर न थे; यह शिकार करके मांस खाते और धरती खोद कर अनाज बोते थे। पहिले इनके पास धरती गोड़ने को लकड़ी के हथियार थे पीछे इन्हों ने लोहे के फाल बना लिये। इनके कुल अलग अलग रहते थे। एक कुल एक गांव में रहता था। यह लोग अपने पितरों की पूजा करते थे। जो जातियां पीछे से भारत में आईं उनमें कोई कोई कोल कुल ऐसे मिलजुल गये कि अब उनका अलग करना कठिन है। पर अब भी इनके दस बारह कुल ऐसे हैं जो हिन्दुओं से नहीं मिले और हज़ारों बरस से अलग अलग चले आते हैं। ऐसे कोल गिनती में ३०००० हैं और पूर्वीय बंगाला, चुटिया नागपुर, उड़ीसा और मध्य देश के पहाड़ी इलाकों में बसे हैं। इनकी बड़ी उपजातियां भील और सन्ताल के नाम से प्रसिद्ध हैं।
(३) भारतवर्ष की पुरानी जातियां—द्रविड़।
१—द्रविड़ों के पुरखों का ब्यौरा हम उतना ही कम जानते हैं जितना कि कोलों के पुरखों का। सम्भव है कि द्रविड़ धात के समयवालों की सन्तान हों और यह भी हो सकता है कि इनके पुरखें भी वही हों जो कोलों के थे। कुछ अचरज नहीं जो बरसों तक भारत के उपजाऊ और हरे भरे भागों में रहकर कुछ लोग अपने पहाड़ी भाइयों की अपेक्षा अधिक बली और सभ्य हो गये हों और द्रविड़ उन्हीं के वंश में हों। कोई कोई विद्वान यह मानते हैं कि द्रविड़ पश्चिम-उत्तर देशों से भारतवर्ष में आये; बहुत दिनों तक उत्तर भारत में बसे रहे और कोलों से लड़ते भिड़ते दक्षिण में पहुंच गये।
२—बहुतों का यह विचार है कि द्रविड़ दक्षिण से आये। दक्षिण कहां से? इस विषय में भी दो मत हो सकते हैं। एक यह कि यह लोग उस महादेश से आये हों जो भारतवर्ष के दक्षिण हिन्दसागर में बहुत दूर तक फैला हुआ था और अब बैठते बैठते समुद्र में डूब गया है; दूसरा यह कि उन टापुओं से आये हों जो एशिया के दक्षिण आस्ट्रेलिया तक फले हैं। पुराने समय में यह टापू भारतवर्ष से मिले हुए थे; अब वह सूखा रास्ता समुद्र में डूब गया है।
३—द्रविड़ ढोरों के बड़े बड़े गल्ले रखते थे। उन्हों ने घने बन काटे, धरती साफ़ की और उसमें खेती कियारी का काम शुरू किया। द्रविड़ गांव में रहते थे। गांव में एक मुखिया रहता था जिसकी आज्ञा सब मानते थे; पृथिवी को धरतीमाता कहते और उसे पूजते थे। सांपों और पेड़ों की भी पूजा होती थी।
द्रविड़ अपने देवताओं से भक्ति और प्रीति नहीं करते थे बरन उनसे डरते थे और उनसे यह बिनती करते थे कि तुम हमें दुख न दो। द्रविड़ यह समझते थे कि उनके देवता रक्त पीने से प्रसन्न होते हैं; इसी से वह मुर्गे, बकरे, भैंसे उनको चढ़ाया करते थे।
४—हम यह जानते हैं कि प्राचीन समय में भारतवर्ष के उत्तर और दक्षिण में द्रविड़ों के बड़े बड़े नगर थे। उनमें उनकी बहुत सी जाति और कुल बसते थे। बड़े बड़े प्रान्तों में राजा राज करते थे। मुखिया उनको खेतों की पैदावार का एक भाग देता था। इन्हीं लोगों ने पहिले पहिल गांवों के प्रबन्ध और बन्दोबस्त के नियम बनाये। उनमें बहुत से अब तक जारी हैं। यह लोग बड़े व्यापारी थे। भारतवर्ष में आर्यों के आने से पहिले ही यह लोग जलमार्ग से दूसरे देशों में सागवान की लकड़ी, मलमल, मोर, चन्दन की लकड़ी और चावल भेजते थे; बढ़ई, लोहार और जुलाहे का काम अच्छी तरह जानते थे। उस समय के विचार से इनको सभ्य कहना अनुचित नहीं है।
५—द्रविड़ कोलों के पास पड़ोस में रहते पर उनसे बहुत बली, गिनती में अधिक, और सभ्यता में बहुत बढ़े थे। जो धरती अधिक उपजाऊ थी वह द्रविड़ों ने आप ले ली जो बची वह कोलों के लिये छोड़ दी। कहीं कहीं द्रविड़ और कोल दोनों मिलजुलकर एक भी हो गये। जब बाहर से और जातियां एक के पीछे दूसरी लगातार भारतवर्ष में आने लगीं तब पहिले तो द्रविड़ और कोल उनसे लड़े पीछे उन में मिल गये। भारत के उत्तर के देशों से आनेवालों का ऐसा तांता लगा कि कुछ दिन पीछे हिन्दुस्थान के पश्चिम के भागों में जिन्हें अब पंजाब, कशमीर और राजपुताना कहते हैं कोल और द्रविड़ों का नाम तक न रह गया। परन्तु उत्तर भारत के मध्य भाग, गङ्गा की तरेटी, और सारे मध्य देश में इनकी संख्या अधिक थी यह बातें उन प्रान्तों के रहनेवालों के रंग, सिर की बनावट, आंख, नाक ओर डीलडौल से सिद्ध होती हैं। इन के देखने से यह सिद्ध होता है कि इन प्रान्तों के रहनेवालों की किसी किसी जाति में थोड़ा बहुत द्रविड़ और कोल अंश मिला हुआ है।
६—दक्षिण भारत के रहनेवालों की बनावट में जो द्रविड़ हैं बहुत कम भेद पड़ा है। वह अब तक द्रविड़ कहलाते हैं। हज़ारों बरस तक गरम देश में रहने से उनका रंग बहुत काला हो गया है। भारतवर्ष के और देशों में इतने काले लोग नहीं रहते। दक्षिण हिन्दुस्थान में आज ५ करोड़ ७० लाख द्रविड़ बसते हैं और १४ भिन्न भिन्न बोलियां बोलते हैं जिनमें टामिल, तिलगू, मलयालम और कनाड़ी प्रधान हैं।
७—हिन्दुस्थान के किसी किसी भाग में कुछ पुरानी द्रविड़ जातियां अभी तक ऐसी हैं जिन्हें हिन्दू कहना कठिन है। यह जान पड़ता है कि और द्रविड़ों की नाईं इन्हें सभ्यता प्राप्त न हुई। ऐसे लोग दक्षिण के पहाड़ी देशों में बसते हैं और गोंड और खांद इनकी प्रसिद्ध जातियां हैं।
(४) जातियां जो बाहर से आकर हिन्दुस्थान में बस गईं।
१—मध्य एशिया हिमालय पहाड़ के उत्तर में है। वहां बड़ी ठंडक पड़ती है क्योंकि बड़े बड़े पहाड़ सदा बरफ़ से ढके रहते हैं। धरती कड़ी और पथरीली है। पानी कम बरसता है। नदियां भी थोड़ी हैं। जो जातियां इन पहाड़ी देशों में बसी हैं वह अपने ढोरों के लिये घास चारे की खोज में इधर उधर फिरा करती हैं। अनाज भी वहां पैदा नहीं होता, इससे उनका निर्वाह कठिनाई से होता है।
२—हिमालय के दक्षिण एक हज़ार मील तक ऐसे मैदान हैं जो गरम हैं, जिन में सूर्य का प्रकाश बहुत रहता है, बड़ी बड़ी नदियां बहती हैं, धरती उपजाऊ है, खाने पीने का सुभीता है और सब तरह का अनाज पैदा होता है। बहुत ही प्राचीन समय से उत्तर के ठंढे देशों के रहनेवाले पहाड़ों के दर्रों की राह दक्षिण के हरे भरे देशों में आते रहे और जब उन्हों ने देखा कि उनके उत्तर के देश की अपेक्षा यहां सब तरह से सुख चैन है तो यहीं के मदानों में बस गये। ३—कुछ दिन पीछे जब उत्तर से और लोग आये तो उन्हों ने पहिले आये हुओं को दक्षिण हटा दिया या उनसे मिलजुल कर एक हो गये। ऐसा कई बार हो चुका है।
४—आज दिन उनमें से बहुतेरी जातियों का नाम भी कोई जानता। यहां तक निश्चय हुआ है कि नीचे लिखी जातियां क्रम से समय समय पर बाहर से आकर भारत में बस गईं:—तूरानी या मंगोल, आर्य, ईरानी, यूनानी, शक या सीथियावाले, हूण, अरब के रहनेवाले, अफ़गान या पठान, तुर्क, मुग़ल।
५—इस किताब में इन सब जातियों का कुछ कुछ हाल बताया जायगा। जैसे यह कि कौन जाति के लोग कैसे कब और कहां भारत में बसे? तूरानी पूर्व और उत्तर भाग में रह गये ईरानी, यूनानी और अरबी पश्चिमोत्तर भाग से आगे न बढ़े। मुग़ल, तुक और पठान बहुधा उत्तर भारत के सिन्धु और गङ्गा की तरेटियों में बसे। कुछ जातियां जैसे शक और हूण उत्तर-पूर्व और मध्य भारत के पश्चिमीय भाग में रहने लगीं। आर्य लोग इन सब से पहिले आये थे सब से आगे पहुंचे और दक्षिण देश को छोड़ जहां उनमें से बहुत थोड़े लोग गये थे सारे देश में फैल गये।
(५) तूरानी या मङ्गोल।
१—मङ्गोलिया मध्य एशिया का वह देश है जिसे चीनी-तातार कहते हैं। मङ्गोल यहीं के रहनेवाले थे और यहीं से यह लोग चीन और आस पास के देशों में फैले। मुसलमान इतिहास रचने वाले इस देश को तूरान कहते हैं, और इसके निवासियों को तूरानी या तातारी
२—इनका डील छोटा, सिर चौड़ा, नाक चिपटी, आंखें छोटी और तिरछी, रंग पीला लिये भूरा था। आर्यों के भारत में आने से बहुत पहिले यह लोग उतरे थे और पूर्व-उत्तर के उन प्रान्तों में भर गये जो अब आसाम और बङ्गाले के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह लोग उन पहाड़ी रास्तों से आये थे जिनमें से होकर ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां भारत में प्रवेश करती हैं। यह लोग कोलों और द्रविड़ों से अधिक बली और लड़ाके थे। मङ्गोल पहिले कोलों और द्रविड़ों से लड़े पर कुछ दिन पीछे धीरे धीरे उन्हीं में मिलजुल गये। बहुत दिनों से भारतवर्ष में रहने और दूसरी जातियों से मिल जाने से इनके रूप रंग में बड़ा भेद पड़ गया है फिर भी इन प्रान्तों के रहनेवालों के रूप रंग डील डौल के देखने से स्पष्ट जान पड़ता है कि इनके पुरखा कौन थे।
३—कोल और द्रविड़ तो इस देश में पहिले से बसे थे और तूरानी उस समय में आये जब प्रामाणिक इतिहास की नेंव भी न पड़ी थी, और न जिसका कोई पता लगता है। इससे उचित यह जान पड़ता है कि आर्यों के आने से पहिले के समय को ऐतिहासिक समय से पहिले का काल कहैं। इस समय का ठीक अनुमान नहीं हो सकता। गोल गोल इतना कह सकते हैं कि ईसा के जन्म से २००० बरस पहिले तक इसकी सीमा है।