भारतवर्ष का इतिहास  (1919) 
द्वारा ई॰ मार्सडेन

[ १४४ ]

३३—हुमायूं।
(१५३० ई॰ से १५५६ ई॰ तक)

१—मरने से कुछ दिन पहिले बाबर ने अपने सब से बड़े बेटे हुमायूं को बुलाया और कहा कि बेटा, जो परमेश्वर तुम्हें मेरा सिंहासन दे तो अपने भाइयों पर दयालु रहना। हुमायूं ने भी अन्तिम काल तक अपने बाप की आज्ञा का पालन किया और क्योंकर न करता, जब यह स्वयं भी अपने भाइयों को प्यार करता था और उनको किसी तरह का दुःख देना नहीं चाहता था। बाप भी उसपर भरोसा करता और जान देता था। बाबर कहा करता था कि संसार में हुमायूं ऐसा सच्चा और विश्वासपात्र दूसरा न होगा। [ १४५ ]२—सिंहासन पर बैठने के समय हुमायूं की आयु तेईस बरस की थी। इसके तीन भाई थे, कामरां, हन्दाल और अस्करी। राज के प्रारम्भ ही में इसने अपने राज्य का एक एक भाग उनको दे दिया। अफ़गानिस्तान और पंजाब, कामरां के हिस्से में आया। हुमायूं ने तो इसके साथ बड़ी दयालुता की पर अपने लिये कांटे बो दिये क्योंकि यह वह बीर देश थे जहां से बाबर अपनी सेना के सिपाही और अफ़सर भरती किया करता था।

हुमायूं।

भाई हुमायूं की सहायता तो क्या करते उलटे उसके साथ लड़ाई भिड़ाई करने लगे। कारण यह कि हर एक बादशाह बनना चाहता था। उन्हों ने हुमायूं को जीते जी कभी चैन नहीं लेने दिया।

३—बाबर को इतना अवकाश न मिला था कि अपने राज को दृढ़ करे। जब अफ़गान सर्दारों ने सुना कि बाबर मरगया तो उन्हों ने हुमायूं से लड़ाई करने के सामान कर दिये। हुमायूं को पहिले गुजरात के सुलतान बहादुर शाह से लड़ना पड़ा; उसने बहादुर शाह को हरा कर खम्भात के निकट समुद्रतट तक पीछा किया; जहां से वह एक नाव में सवार होकर दक्षिण की दिशा में बन्दरदेव को चला। यहां उस समय पुर्तगी लोग बसे हुए थे। बहादुर शाह ने उनके यहां शरण ली परन्तु थोड़े ही दिनों पीछे पुर्तगियों ने उसे मारडाला।

४—इसके पीछे हुमायूं ने गुजरात में चम्पानेर के पहाड़ी कोट [ १४६ ] पर धावा मारा। चार महीने तक उसे घेरे पड़ा रहा। एक रात को पहाड़ में जो दीवार की भांति सीधा खड़ा था खूंटियां गाड़ी और तीन सौ बहादुरों के साथ आप उस खूटियों के जीने पर चढ़ कर कोट के भीतर घुसा। सुना जाता था कि उस गढ़ में किसी स्थान पर बहुत सा धन गड़ा हुआ है। क़िलेदार से बहुतेरा पूछा पर उसने कुछ पता न दिया। हुमायूं के कुछ सर्दार बोले कि इसको कष्ट दिया जाय तो कदाचित बता दे। हुमायूं को यह बात अच्छी न लगी। उसने क़िलेदार को अपने यहां बुलाया और उसकी बड़ी आव भगत की और शराब पिला दी। शराब के नशे में क़िलेदार ने बतला दिया कि अमुक तालाब के नीचे एक बड़ा तहख़ाना है और उस तहख़ाने में ख़जाना है। निदान तालाब का पानी खींच कर निकाल दिया गया और खोदा तो जो धन गुजरात के बादशाहों ने जोड़ा था सब ज्यों का त्यों मिल गया। हुमायूं ने आज्ञा दी कि प्रत्येक सर्दार अपनी ढाल ले आये और जितना सोना चांदी अपनी ढाल पर उठा सके ले जाय। इस अवसर पर हुमायूं से यह नादानी हुई कि उसने इस असंख्य धन के उठाने और लुटाने और खान पान में बहुत सा समय खो दिया और उन अफ़गान सर्दारों से लड़ने का ध्यान उसको न रहा जो बाग़ी हो रहे थे।

५—गुजरात में अपने भाई अस्करी को छोड़ कर हुमायूं मालवे में पहुंचा और वहां के अफ़गान हाकिम को भगाकर फिर सुख चैन में पड़ गया। इस बीच में दिल्ली से समाचार मिला कि पूर्व का सब देश बागी हो गया और अफ़गान अमीर बङ्गाले, जौनपूर और बिहार के बादशाह बन गये और आगरे के आस पास के छोटे छोटे पठान रईस लड़ने पर उतारू हैं।

६—सब से शक्तिमान बाग़ी पूर्व का एक अफ़गान सूबेदार शेरखां था। बाबर के मरने के दिन से हुमायं तो दक्षिण दिशा में [ १४७ ] गुजरात और मालवे में लड़ता था और शेरखां पूर्व में ज़ोर पकड़ता जाता था। उसने एक एक करके बिहार के सब क़िले ले लिये थे और पांच बरस के लगातार परिश्रम के पीछे अपने आप को बिहार और बङ्गाले का मालिक बना लिया था।

७—अब तक हुमायूं उसकी ओर से निश्चिन्त था। गुजरात से आगरे जाने के एक बरस तक वह आराम और चैन में पड़ा रहा और उसके हराने का कोई उपाय न किया। गुजरात का हाल यह हुआ कि हुमायूं के हटते ही वहां के अफ़गानों ने फिर सिर उठाया और अस्करी को जो उनका सामना न कर सकता था देश से निकाल दिया। मालवा भी इसी भांति शीघ्रही हाथ से निकल गया। अब हुमायूं को यह चिन्ता हुई कि जो कुछ देश हाथ से निकले जा रहे हैं उनको फिर ले लेना चाहिए। बाबर के समय के बहादुर सिपाही कुछ तो लड़ाई भिड़ाई में मर खप चुके थे और कुछ अपनी आयु पूरी करके इस संसार से चल बसे थे। हुमायूं ने अपने भाई कामरां को जो काबुल और पंजाब का हाकिम था लिखा कि कुछ सेना भेजो किन्तु कामरां ने उत्तर में लिख दिया कि मैं कुछ नहीं कर सकता। इस कारण हुमायूं की सेना में बड़ी गड़बड़ी थी और उसमें बहुत से अनाड़ी जवान भरे थे।

८—अब हन्दाल और अस्करी को संग लेकर हुमायूं पूर्व की ओर चला; पहिले बनारस के निकट चुनार गढ़ पर धावा मारा परन्तु उस गढ़ के बिजय करने में छः महीने लग गये। शेरखां उस समय बङ्गाले में था। इतना अवकाश मिलने पर वह अपनी सेना और धन लेकर बङ्गाले के रोहतासगढ़ के मज़बूत पहाड़ी किले में जा बैठा जहां उसे किसी प्रकार का भय न था। शेरखां चाहता था कि किसी भांति हुमायूं मेरे पीछे पीछे दूर तक बङ्गाले में चला आये और फिर मैं उसके पीछे एक सेना डालदूं कि उसे लौट जाने [ १४८ ] का अवकाश न मिलै। इस कारण बङ्गाले की राह खुली छोड़ दी। हुमायूं का सामना करनेवाला तो कोई था ही नहीं वह बङ्गाले के मैदानों को पार करता हुआ सीधा गौड़ तक चला गया जो उस समय बङ्गाले की राजधानी था और वहां ठहर कर अपने भाई हन्दाल को लौटा दिया कि आगरे से कुछ और सेना ले आये।

९—अपने स्वभाव के अनुसार हुमायूं ने यहां भी एक बरस जलसे तमाशे में बिताया। मालिक की देखा देखी सर्दार और सेनापति भी सुख चैन में पड़ गए और इस बात को सब भूल गए कि हमारे पीछे शेरखां अपनी सेना लिये बैठा है। शेरखां नित्य चौकन्ना और तैयार बैठा रहता था। ज्यों ही जासूसों से समाचार मिला कि हुमायूं और उसके साथी सुस्ती में अपने दिन काट रहे हैं वह रोहतास गढ़ से निकला और बङ्गाल और बिहार के नाके बन्द कर दिये। उधर हन्दाल ने विश्वासघात किया। भाई की सहायता करनी तो दूर रही स्वयम् दिल्ली के सिंहासन पर बैठ कर राज का मालिक बन गया।

१०—अन्त में हुमायूं अपनी सेना के साथ बङ्गाले से चला। वर्षा ऋतु आरम्भ हो गई थी। जिधर देखो पानी ही पानी दिखाई देता था। सड़के कीचड़ के मारे दल दल हो रही थीं और उनपर चलना असम्भव था। हुमायूं के बहुत से साथियों को ज्वर आने लगा, बहुत से घोड़े मर गये। बहुत सा खाने पीने का सामान ख़राब हो गया। हुमायूं लौट कर धीरे धीरे उस तंग दर्रे पर पहुंचा जहां बङ्गाले से बिहार का रास्ता है। यह वह दर्रा है जो राजमहल की पहाड़ियों और गङ्गाजी के बीच में पड़ता है। शेरख़ां पहिले ही से यहां उपस्थित था। उसने दर्रे के सम्मुख गहरी गहरी खाइयां खोद रक्खी थीं, ऊंची ऊंची दीवारैं खड़ी कर रक्खी थीं और अफ़ग़ान सिपाहियों की एक अच्छी भीड़ साथ [ १४९ ]

दिल्ली के तख़्त पर हन्दाल।

लिये दर्रे को बंद किये बैठा था। शेरखां जानता था कि दिल्ली से हुमायूं की सहायता को कोई सेना नहीं आ सकती और उसकी निज की सेना दिन दिन निर्बल होती जाती है। वह मैदान में [ १५० ] आकर हुमायूं से लड़ना नहीं चाहता था। हुमायूं अपने भाई कामरां और हन्दाल को चिट्ठी पर चिट्ठी भेजता था कि सेना भेजो। दो महीने हुमायूं और उसकी थकी थकाई सेना इसी आसरे में बैठी रही पर कोई सहायता को न आया। उसके कपटी भाइयों ने अपना एक आदमी भी बङ्गाले को न आने दिया और वह चाल चले जिस से हुमायूं हारै और नष्ट हो जाय।

११—हुमायूं ने देखा कि आगे जाना असम्भव है और यहीं पड़े रहे तो एक आदमी भी जीता न बचेगा। यह बिचार कर उसने शेरखां के पास संधि का सन्देश भेजा। शेरखां ने उत्तर दिया कि मुझे बङ्गाले और बिहार के देश देदिये जायं और मुझको वहां का बादशाह बना दिया जाय तो मैं शाह दिल्ली को अपना स्वामी मानूंगा और उसे कर देता रहूंगा। हुमायूं ने यह बात मान ली और संधि कर ली। इसके सिपाहियों ने अपने कवच उतारे और चलने की तय्यारियां करने लगे। गङ्गा जी पर पुल बांधना आरम्भ किया कि उसपर से उतर कर दूसरे दिन घर की ओर चलैंगे।

१२—शेरखां ने जो देखा कि अब हुमायूं के सिपाही निश्चिन्त हो कर बैठे हैं तो यह सोच कर प्रसन्न होगया कि अब वह अवसर आगया है जिसको कि वह बहुत दिनों से ढूंढ़ता था। हुमायूं के थके मांदे सिपाही इस ध्यान में थे कि कल घर की ओर कूच करैंगे और रात होते ही लम्बी तान कर सो गये पर आधीरात को दो बजे अफ़गान इन पर टूट पड़े और बेचारों को काट डाला। हुमायूं घबरा कर नींद से उठा और घोड़े पर सवार होकर भागा और लड़ता भिड़ता नदी के किनारे जा पहुंचा। यह बहुत घायल हो रहा था और निर्बलता के कारण गिर पड़ता डूब जाता पर उस समय एक भिश्ती अपनी मशक फुलाकर नदी के पार जाना चाहता [ १५१ ] था उसने मशक बादशाह को दे दी कि उसकी सहायता से नदी के पार पहुंच जाय। हुमायूं ने इसके बदले में उस भिश्ती को जिसका नाम निज़ाम मुहम्मद था यह आज्ञा दी कि तुम तीन घण्टे शाही सिंहासन पर बैठ कर हुकूमत करो और अपने नाम से आज्ञापत्र जारी करो। भिश्ती ने इस अवसर पर अपने हित मित्रों को बहुत कुछ सम्पत्ति भेंट की और अपनी मशक के छोटे छोटे टुकड़े काट कर और उनपर अपनी शाही मुहर लगा कर चमड़े का सिक्का जारी किया।

१३—हुमायूं कुछ विश्वासी साथियों को संग लेकर आगरे की ओर भागा। शेरखां ने बङ्गाले और बिहार को अपने आधीन किया; मुग़ल सेना को जो बङ्गाले में नियत थी निकाल बाहर किया और जब देखा कि यहां शान्ति हो गई तो हुमायूं का पीछा करता हुआ आगरे पहुंचा।

१४—इधर हन्दाल बादशाह बनकर दिल्ली में शासन कर रहा था। वह समझा कि मेरी करतूत ने हुमायूं और मुझे दोनों को नष्ट कर दिया पर अब क्या हो सकता था? हन्दाल थोड़ी सी सेना लेकर हुमायूं के निकट क्षमा मांगने गया। कामरां भी पञ्जाब से आ गया और उसने भी दया की प्रार्थना की। हुमायूं ने सच्चे जी से दोनों को क्षमा कर दिया और कहा कि जो कुछ होना था हो चुका अब हमको चाहिये कि बहादुरों की तरह एक दूसरे की सहायता करें और शत्रु को देश से निकाल दें। कामरां दो महीने आगरे में रहा फिर लाहौर लौट गया; जो सेना हुमायूं की सहायता को लाया था उसको भी संग लेता गया और हुमायूं के भी कुछ सर्दारों और सेनापतियों को यह जताकर कि यहां ठहरना जान जोखिम है और पञ्जाब में अच्छे अच्छे पद देने का लालच देकर साथ ले गया। [ १५२ ]१५—इस बीच में शेरखां सेना सहित आ पहुंचा और एक और लड़ाई हुई पर पहिले ही धावे में हुमायूं की सेना तितर बितर हो गई। दस ही बरस राज करने पर हुमायूं लाहौर की ओर भागा। यह आशा करता था कि कामरां कुछ मेरी सहायता करेगा पर वह आप इतना बोदा निकला कि पञ्जाब को शेरखां के हवाले करके आप काबुल जा बैठा और वहां की बादशाहत पर सन्तुष्ट हो के बैठ रहा।

हमीदा बेगम।

हन्दाल भी हुमायूं को छोड़ कर चलता बना। यह बेचारा बड़ी बड़ी कठिनाइयां झेलता सिन्ध के रेतीले मैदानों में मारा मारा फिरा किया और अन्त में फारस पहुंचा।

१६—हुमायूं जब सिन्ध मे भटकता फिरता था तो उसने एक ईरानी महिला हमीदा बेगम से निकाह किया। अमर कोट के उजाड़ किले में १५४२ ई॰ में इसके बेटे अकबर का जन्म हुआ तुर्कों का दस्तूर था कि जब किसी राजकुमार का जन्म होता था तो बादशाह इसकी खुशी में अपने अमीरों और सर्दारों को बहुत कुछ धन दौलत देता था। ग़रीब हुमायूं के पास अमरकोट में धन दौलत कहां थी, खाने तक को भी भली भांति न मिलता था। उसकी जेब में एक कस्तूरी का नाफ़ा पड़ा था। उसको निकालकर चीरा और थोड़ी थोड़ी सी कस्तुरी अपने साथियों को दी। मुशक की गंध से हवा महक उठी। हुमायूं ने सगुन अच्छा समझा और कहा कि जैसे यह कस्तूरी हवा को सुगन्धित कर रही है उसी तरह मेरा बेटा बादशाह [ १५३ ] होकर संसार में अपना यश फैलायेगा! मैं इसका नाम अकबर रखता हूं क्योंकि मुझे आशा है कि यह बड़ा ही ज़बर्दस्त बादशाह होगा।

१७—सिन्ध से ईरान जाते हुए हुमायूं को क़न्दहार होकर जाना पड़ा। यहां उसका भाई अस्करी हुकूमत करता था। अपने भाई की आवभगत और सहायता करनी तो दूर रही उसने उसे क़ैद करना चाहा। बड़ी कठिनाई से घोड़े को पोया चला के हुमायूं हमीदा बेगम के साथ भागा पर अकबर जो अभी दो ही बरस का था चचा के हाथ लगा और कुछ दिन क़ैद रहा। हुमायूं फ़ारस पहुंचा तो वहां के बादशाह तहमास्प ने उसका बड़ा सत्कार किया और उसको शिया मत का कर लिया क्योंकि ईरानी सब शिया हैं। तहमास्प ने कुछ दिनों हुमायूं को अपने दर्बार में रक्खा फिर बारह हज़ार ईरानी उसके साथ भेजे। हुमायूं यह सेना लेकर अफ़गानिस्तान गया और वहां से अपने बेटे अकबर को छुड़ा लाया; दस बरस तक अपने भाइयों से लड़ता रहा। कई बार वह इसके पंजे में आये और हुमायूं के सर्दारों ने सलाह दी कि इनको मारडालना चाहिये। पर हुमायूं ने उनकी न सुनी। इसने नित उनके साथ भला बर्ताव किया और उनके अपराध क्षमा किये। उसको बाप की सलाह और अपना बचन सदा स्मरण रहा। कई बार हुमायूं ने कामरां से कहा कि भाइयों की तरह मेरा सहायक बन, पर उसने एक न मानी।

१८—अकबर कामरां के हाथ लगा। हुमायूं उस समय काबुल घेरे पड़ा था। निर्दयी चचा ने अपने नन्हें से भतीजे को तीरों की बौछार में काबुलकी कोट पर बिठा दिया पर परमेश्वर की दया से कोई तीर उसके न लगा। हुमायूं ने देखा कि जो कामरां बिलकुल निर्बल न कर दिया जायगा वह अकबर को मारडालेगा। [ १५४ ] इस कारण काबुल के सर होने पर हुमायूं ने आज्ञा दी कि कामरा की आंखैं निकाल ली जायं। अन्धा कामरां हुमायूं के सामने दर्बार में लाया गया तो उसने सारे दर्बारियों के आगे यह कहा कि मेरे भाई ने कुछ अत्याचार नहीं किया और मैं सचमुच इसी दण्ड के योग्य था। हन्दाल लड़ाई में मारा गया। हुमायूं ने उसको भी अपने हाथ से नहीं मारा। अस्करी मिर्ज़ा मक्के की हज को चला पर रास्ते ही में मौत ने उसे आ घेरा।

१९—अब शेर खां भी मर चुका था। उसके पीछे उसके वंश के तीन बादशाह सिंहासन पर बैठे उनमें से अन्तिम बादशाह राज करने के योग्य न था। हुमायूं एक सेना लेकर दिल्ली पहुंचा। इस बार इसके साथ बहादुर सिपाही थे। पन्द्रह बरसके बिछुड़ने के पीछे अब फिर इसने दिल्ली और आगरा ले लिया। पर बहुत समय तक राज करना उसके भाग्य में न था। एक दिन तीसरे पहर ज़ीने से चढ़ कर महल की छत पर जा रहा था कि पास की एक मसजिद से मुअज्जिन की बांग सुन पड़ी। हुमायं जीने की ही एक सीढ़ी पर नमाज़ पढ़ने ठहर गया। पर संगमरमर की सीढ़ी पर से उसको लाठी फिसली और यह लुढ़कता ज़ीने के नीचे जा पड़ा और इतनी चोट आई कि मर गया। इस समय उसकी आयु पचास बरस की थी।

२०—हुमायूं बहादुर आदमी था। उसने बीरता के बहुत से काम किये पर बाप के समान न फुर्तीला था, न चालाक, और न उसकी भांति अपनी प्रतिज्ञा का दृढ़ था; जवानी आराम और चैन में काटी और बड़ी उम्र में अफ़ीम खाने लगा था जिसके कारण आलसी और बेसमझ हो गया था; भाइयों को प्यार करता था और उनके साथ अच्छा बर्ताव करता था। उनपर इतना दयालु न होता तो कदाचित हिन्दुस्थान की बादशाहत भी [ १५५ ] न खोता। उसके एक नौकर ने जिसका नाम जौहर था बादशाह का जीवन चरित लिखा है और अभीतक वह इतिहास पढ़नेवाले के लिये मौजूद है।