भारतवर्ष का इतिहास/३२—बाबर
(सन् १५२६ ई॰ से सन् १५३० ई॰ तक)
१—तैमूर के मरने पर उसका राज बहुत सी छोटी छोटी रियासतों में बँट गया। एक रियासत क़ोक़न्द की थी जो तुर्किस्तान का एक भाग है। बहुत दिन पीछे यह रियासत बाबर के हाथ लगी। बाबर तैमूर के नाती का बेटा था। बाप के मरने पर बाबर इस रियासत का मालिक हुआ। इस समय वह तेरह बरस का था।
२—राजसिंहासन पर बैठाही था कि चाचा ने चढ़ाई की और जान के डर से बाबर को उस से लड़ना पड़ा। रियासत उसके हाथ से निकल गई। पर तुर्किस्तान के बहुत से बिना घरबार के सरदार और उनकी प्रजा बाबर को बराबर अपना बादशाह मानती रही और कभी उसका साथ न छोड़ा। बीस बरस तक बाबर इधर उधर फिरता रहा, आज यहां कल वहां। नित किसी न किसी के साथ झगड़ा बखेड़ा होता रहा। आज जीता तो कल हारा और भाग कर जान छिपाता फिरा। पर इसके तुरक सिपाही सदा इसके साथ रहे। कभी कभी सारे दिन काठी उतार कर बैठना न मिलता और रात को कभी धरती का बिछौना और आकाश का चँदवा छोड़ और कोई सुख से सोने की सामग्री न जुड़ी।
३—अंत को बाबर ने दक्षिण की ओर बढ़ना निश्चय किया। तुर्किस्तान में बाबर ऐसे सरदार बहुत थे; वहां राज्यस्थापन करना सुगम न देख पड़ा। लड़ते भिड़ते कई बरस बीत गये, शहर पर शहर जीते और खो दिये। जब देखो वही जंजाल दिखाई दिया। इसके सजातीय जो इसी की नाईं बेघरबार के थे इसके साथ आगे बढ़ने को राज़ी हो गये और पहाड़ के दरों में होकर अफ़ग़ानिस्तान में पैठे।
४—अफ़ग़ान बड़े बीर और लड़ाके थे पर तुर्की सिपाही जो उत्तर से आये इनसे बढ़कर बलवान और बीर थे। बाबर ने काबुल और ग़ज़नी अपने बस में कर लिये। कई बरस यहां राज किया। पठानों का बल देखने चार बार पंजाब पर चढ़ा और जब आया पठानों के राज का कुछ न कुछ भाग छीन कर अपने किसी सरदार को उसका हाकिम बनाकर छोड़ गया। इसके पीछे जब उसे इस बात का भरोसा हो गया तो उसने अपने सरदारों से पूछा, कहो क्या कहते हो। सब ने एक मत होकर कहा कि, उद्योग करना चाहिये आगे भाग्य में जो कुछ हो। ५—बाबर इस समय ४० बरस का हो चुका था। कुल १३००० सिपाही उसके साथ थे पर उन में से एक एक सौ सौ लड़ाइयां लड़ चुका था और अपने स्वामी के लिये लड़ने मरने को तैयार था। बाबर ऐसे बीर और उसके लिये प्राणसमर्पण करनेवाले सिपाहियों को लेकर पंजाब में घुसा और सीधा दिल्ली की ओर चला गया।
६—पठान बादशाह इब्राहीम लोधी एक लाख पल्टन लेकर उसका सामना करने को बढ़ा पर उसके अफ़ग़ान सिपाही भारतवर्ष के गरम देश में रहकर अपने बाप दादों का बल और साहस खो बैठे थे। आर्यों के भारतवर्ष में आने के दिन से जब कभी उत्तरवालों का सामना पड़ा है सदा दक्षिणवालों को पीछे ही हटना पड़ा है। तुर्क ताज़ा विलायत के आये थे और उनका तन तेज बढ़ा चढ़ा था। वह आग बवण्डल की नाईं भारतवर्ष के पठानों पर टूट पड़े। बाबर अपने झिलमटोपवाले सवारों को लेकर पठानों के टिड्डीदल पल्टन में घुस गया और मुड़कर पिछाड़ी से उनका बध करने लगा। इब्राहीम की पांतियां टूट गई और उसकी पल्टन में भागड़ पड़ गई। इब्राहीम और उसके २०००० सवार खेत रहे। यह पानीपत की पहिली लड़ाई कही जाती है और १५२६ ई॰ में हुई थी।
७—इस लड़ाई से दिल्ली का सिंहासन बाबर को मिलगया। राजपूताने के राजाओं को छोड़ इस समय हिन्दुस्थान में मुसलमानों की पांच बादशाहतें थी। पहिले बाबर ने उन देशों के लेने का उद्योग किया जो सय्यद और लोधी वंश के बादशाहों के हाथ से निकल गये थे। आप दिल्ली में रहा और अपने बेटे हुमायूं को एक बड़ी पल्टन देकर पूर्व की ओर भेजा; अपने और विश्वास पात्र सेनापतियों को थोड़ी थोड़ी सेना देकर इधर उधर भेज दिया। हुमायं ने थोड़े ही दिनों में जौनपूर का इलाका ले लिया और छः महीने के भीतर ही वह सारा देश दिल्ली राज्य में मिलगया जो कुछ काल तक लोधियों के अधिकार में था। दिल्ली और आगरे में लोधियों का बटोरा धन ढेर का ढेर बाबर के हाथ लगा। इस में से कुछ थोड़ा सा बाबर ने रहने दिया और सब अपने सिपाहियों और साथियों में बांट दिया। सिपाहियों को तो जो मिलना था सो मिलगया पर अफ़गानिस्तान, तुर्किस्तान और ईरान में भी स्त्री पुरुष और बच्चों को घर बैठे बाबर ने भेट पहुंचाई।
८—अब बाबर को राजपूतों से लड़ना रहगया। राजपूतों में इस समय चित्तौड़ (उदयपुर) का राजा संग्रामसिंह था जो राना सांगा के नाम से प्रसिद्ध है। इस ने मालवे के पठान बादशाह को परास्त किया था और सारे राजपूत राजा इसे अपना सरदार और सिरताज मानते थे। बाबर आप लिखता है कि राना अद्वितीय बीर था। एक लड़ाई में राना की एक आंख जाती रही थी दूसरी में एक हाथ कट गया था उसकी टांग टूटी हुई थी देह में नीचे से ऊपर तक नेज़े और तलवार के ८० घाव थे। सात राजा और दस सामंत लड़ाई के मैदान में उसके साथ आये। एक दिन वह था कि राना सांगा ने बाबर से कहला भेजा था कि आप आयें और दुष्ट पठान के पंजे से भारत को छुड़ायें। पर वह कब जानता था कि इब्राहीम को जीत कर बाबर भारतवर्ष में मुग़लराज्य स्थापित करेगा। वह यही समझा था कि तैमूर की तरह बाबर भी दिल्ली को लूट पाट कर काबुल चला जायगा और पठानों के नष्ट हो जाने पर राजपूत सारे देश में राज करने लगेंगे।
९—राना सांगा के साथ एक तो इब्राहीम का भाई महम्मद लोधी था जो अपने को भाई का उत्तराधिकारी मान कर बादशाही का दावा करता था, दूसरा हसनखां जो अफ़ग़ान सरदारों का मुखिया था। इनके सिवाय बहुत से सरदार, सेनापति और सामंत थे जो लोधियों या पठानों की बादशाही फिर से स्थापन करना चाहते थे। यह सरदार और सामंत यह समझते थे कि जो बाबर भारत में रहगया तो हमारी रियासतें छिन जायंगी और हमारा कोई पुछन्तर न रहेगा। उन्हों ने हिन्दुओं से भी यही कहा कि तैमूर की तरह बाबर भी तुम्हें बेदरदी से मारेगा और जो कुछ तुम्हारे पास है सब नोच खसोट लेगा। परिणाम यह हुआ कि सब के सब मिल कर एक बड़ी सेना लेकर बाबर का सामना करने आये। आगरे से २० मील पर सीकरी के मैदान में बड़ी भारी लड़ाई हुई। बाबर को मदिरा बहुत प्यारी थी पर इस लड़ाई से पहिले उसने यह मन्नत की कि हे अल्लाह इस अवसर पर मुझे जितादे तो मैं कभी शराब न पिऊंगा। सोने चांदी के जितने बरतन डेरे में थे सब तोड़ कर गरीबों को बांट दिये गये। जितनी मदिरा थो सब लुंढा दी गई। जो ताज़ी शराब ग़जनी से बादशाह के पीने के लिये आई थी उसमें नमक पीसकर मिला दिया जिसमें वह पीने के काम की न रहै। बाबर ने जो देखा कि उसके कुछ साथी ढीले देख पड़ते हैं तो उसने सब को इकट्ठा करके यह व्याख्यान दिया, "जो पैदा हुआ है वह एक दिन ज़रूर मरेगा। केवल ईश्वर मौत से बचा है। फिर जब दो दिन आगे या दो दिन पीछे मरना सिद्ध है और हमारे मरने का दिन आगया है तो ऐसे अवसर पर अपने दीन (धर्म) और अपनी जाति के लिये मर्दो की तरह प्राण समर्पण करके क्यों न मरे। नेकनामी से मरना मुंहकाला करके जीने से अच्छा है। तुम मेरे साथ कुरान उठाओ और क़सम खाओ कि बैरी को पीठ न दिखायेंगे। जो हम बीरता से लड़ैंगे तो ईश्वर हमारा सहायक होगा और हम ज़रूर जीतैंगे"। बाबर के साथियों ने कुरान की क़सम खाई कि बैरी को जीतैंगे या लड़ मरंगे। परिणाम यह हुआ कि राना सांगा की हार हुई और वह खेत से भाग खड़ा हुआ और थोड़े ही दिन पीछे मर गया> हसनख़ां भी मारा गया। बाबर की जीत की यादगारी में सिकरी को फतेहपुर सिकरी का नाम मिलगया। इसके पीछे राजपूतों ने दिल्ली लेने और भारत पर राज करने का उद्योग न किया। अब यह लोग राजपूताने में रहे और इसी को बाबर की चढ़ाइयों से बचाने में लगे रहे।
१०—दूसरे बरस बाबर ने चंदेरी पर चढ़ाई की। यह मालवे की सरहद पर राजपूतों का एक गढ़ था। राजपूत बीरता से लड़े पर गढ़ टूट गया। राजपूतों का यह नियम है कि न खुशी से आधीनता स्वीकार करते हैं न बैरी से दया और क्षमा मांगते हैं। पहिले उन्हों ने अपनी स्त्रियों का बध किया फिर नंगी तलवारें हाथ में लेकर गढ़ से बाहर निकले और मर्दों की तरह लड़ लड़ कर बैरी के हाथों से कट कट कर मर गये।
११—बाबर का असली नाम ज़हीरुद्दीन था। तुर्किस्तान के सर्दारों ने इसकी प्रशंसा में इसको बाबर की पदवी दी थी और अब वह इसी नाम से प्रसिद्ध है। बाबर उस भाषा में सिंह को कहते हैं और यह नाम इस बहादुर बादशाह को फबता है। यह इतना बलवान था कि दोनों कांख में पूरे डील के एक एक जवान को दबा कर कोट पर दौड़ सकता था; तैरने वाला ऐसा था कि जो नदी उसके सामने पड़ती थी उसको तर ही के पार करता था; सवार ऐसा था कि दिन दिन भर में सौ सौ मील के धावे मारता था।
१२—बाबर योद्धा तो था पर निर्दयी नहीं था। उसने कभी किसी ऐसे मनुष्य को नहीं मारा जो लड़ने के योग्य न हो अथवा लड़ाई से भागता हो। भारतवर्ष में आने से उसकी कभी यह इच्छा नहीं थी कि वह हिन्दुओं को मारे या उनके मन्दिर तोड़े और देश को लूटे। वह यह चाहता था कि भले बादशाहों की तरह देश का शासन करे। बाबर अपने बचन पर दृढ़ रहता था। नीच कर्मों से उसको घृणा थी; वह सदा प्रसन्न बदन और हँसमुख रहा करता। अपने जीवन-चरित में जो उसने अपने हाथ से लिखा है वह कहता है कि जब कभी मैं लड़ाई से हार गया या मुझे किसी कार्य्य में सफलता न हुई तब भी मैं निराश न हुआ और न हाथ पर हाथ धरके बैठा ही रहा। एक और जगह लिखता है कि मनुष्य कैसे वह कर्म कर सकता है जिसमें मरने के पीछे उसके नाम पर धब्बा लगे।
१३—हिन्दुस्थान में आने पर बाबर बहुत काल तक न जिया। वह दिल्ली के सिंहासन पर चार ही बरस बैठा था कि निर्बल हो गया और बीमारी उसे सताने लगी। उसका प्यारा बेटा हुमायूं भी ऐसा बीमार पड़ गया कि बिस्तर से उठने के योग्य न रहा और ऐसा जान पड़ने लगा कि अब यह न बचेगा। बाबर के सामने
एक धार्मिक सर्दार के मुंह से निकला कि, बादशाह सलामत आप के पास जो सब से महँगे दाम की चीज़ हो वह आप ईश्वर को भेंट करें और उसे प्रार्थना करें तो क्या आश्चर्य्य है जो आप के पुत्र को जिला दे। आगरे में जो सब से बड़ा हीरा हुजूर को मिला था वह दे डालिये। बाबर ने कहा कि उस बड़े हीरे से तो मुझे अपनी जान ही बहुत प्यारी है, मैं अपनी जानही क्यों न दे दूं? यह कह कर उसने अपने बेटे के पलङ्ग की तीन परिक्रमा की और बोला, हे ईश्वर मेरी जान ले और मेरे बेटे को जिला दे और यह कह कर चिल्ला उठा, बस अब रोग मेरे ऊपर आगया। यह जान पड़ता था कि मानों ईश्वरने उसकी बात सुन ली, क्योंकि उसी समय से हुमायूं अच्छा होने लगा और बाबर गिरता चला गया और उसी रोग में मर गया। १४—इस समय बाबर की उमर अड़तालीस बरस की थी। इसने पैंतीस बरस राज किया। चार बरस अपने देश में। छब्बीस बरस काबुल में और पांच बरस हिन्दुस्थान में। इसकी लाश काबुल पहुंचाई गई और एक सुन्दर बाग़ में एक टीले के कोने पर, जिसे बहुत दिन पहिले बाबरने इस काम के लिये आपही चुना था, गाड़ी गई। काबुल के लोग अब तक उसकी क़ब्र पर दर्शन को जाते हैं। इसने अपना जीवनचरित्र आप लिखा था जो अब तक मिलता है। तुर्की और फ़ारसी में कबिता करता था। गानेका इसको बड़ा शौक़ था। अक्षर बड़े सुन्दर लिखता था। हुमायूं को पत्र लिखते हुए देख कर कहने लगा कि तुम्हारा लिखना अच्छा नहीं है और अच्छी तरह पढ़ा नहीं जाता। बाबर को फल फूल बहुत भाते थे। इसी कारण उसने दिल्ली और आगरे में कई सुन्दर बाग़ लगाये। अपने देशके बाग़ इसे कुछ ऐसे सुहावने लगते थे कि सोते में भी उनका सपना देखा करता था।