भक्तभावन
ग्वाल, संपादक प्रेमलता बाफना

वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन, पृष्ठ ५९ से – ७७ तक

 

षट्ऋतु वर्णन तथा अन्योक्ति वर्णन

दोहा

ग्रीष्म पावस शरद हिम। शिशिर बहुरि रितु राज।
ये षट रितु बरनन करत। वांचि बढे सुख साज॥१॥

ग्रीष्म ऋतु वर्णन
कवित्त

पूरन प्रचंड मारतंड की मयूखे मंड। जारे ब्रह्मांड अंड डारे पंख धरियें।
सूर्य तन छूपे बिन धूये की अगिन जेसी। चूये स्वेद बंद दुंद धारे अनिसरियें।
ग्वाल कवि जेठी जेठ मास की जला कनतें। प्यास की सलानक तें ऐसी चित्त शरियें।
कुण्ड पियें कूप पियें सरपिये नदपियें। सिंधुपिये हिमपिये पीयवोई करियें॥२॥

कवित्त

ग्रीषम की गजब की है धूप धाम धाम। गरमी झुकी है जाम जाम अति तापिनी।
भीजे खजबीजन झुलेहून सखात स्वेद। गातन सुहात वात दावा सी डरापिनी।
ग्वाल कवि कहे कोरे कुंभनते कूपनतें। लेते जलधार वारचार मुख थापिनी।
जब पियो तब पियो अब पियो फेर अब। पीवत हू पीवत बुझे न प्यास पापिनी॥३॥

कवित्त

ग्रीष्म के भान को बढ्यो है बे प्रमान तेज। दिश दिश दीरघ दबागी अरि गई है।
सोत भज्यो चंदन तें चंद्रमा कपूर हूतें। खस वीजना हू तें भभकि भरि गई है।
ग्वाल कवि कहे फेर जल ते कमल हूतें। थल के सुतल हुतें सीवा झरिगई है।
शशि को न जानौ सेत जार दियो बार बार। ह्वै गयो अंगार तापें छार परि गई है॥४॥

कवित्त

मेष वृष तरनित चाबन के त्रासन तें। शीतलाई सब तहखानन में ढली है।
तजि तहखाने गई सरसर तगिकंज। कंजतजि चंदन कपूर पूर पली है।
ग्वाल कवि व्हांतें चंद में ह्वै चांदनी में गई। चांदनी ते सोरा चले जल मांहि रली है।
सोरा जल हूते धसी ओरा फिर ओरा तजि। बोराबोर ह्वैकरि हिमाचल में गली है॥५॥

सवैया

गरमी अति धूप ने कीनी हुती। फिर लूयें चले न जुझे तो जुझे।
अनुमान में आवत एक यही अरु। और कों ओर सुझे तो सुझे।
कवि ग्वाल अगस्ति की शक्ति छई। यह ईसु रही रुझे तो रुझे।
अवनी की नदी सब पी लइयें। नभ गंगते प्यास बुझे तो बुझे॥६॥

सवैया

पिब कारिन सों वटकों छिटक्यो जलधारन सों जटा जागतो है।
तिहिं छाँह घनी में विचोवाखसो खसही की कनाते सु पागती है।
कवि ग्वाल वे सीची गुलाब घने पे जलाना तक न विरागती है।
न छुये न छुये सियराइ कहूँ न सुके न सुके लुये लागतो है॥७॥

सवैया

इकली में अभागिन हूँ घर में, न परोसिन हू अनुरागती है।
तुम्हें देखि बटोहिं दया उपजी, इहि बेर दशो दिशि दागती है।
कवि ग्वाल दुकोशलो पानि नहीं, अरु छाया न केसिहू जागती है।
बिरमो यह पौरि हमारी अजू सु अगारी बड़ी लुये लागती है॥८॥

सवैया

कल पीहर जैवो जरूर हमें पे करे, रवि को अति दागती है।
चलि भोरहि जाइ टिकोंगी तहां, जहां छोह तमाल की जागती है।
कवि ग्याल अबेरे चले ते अने, शिथलाई शरीर में पागती है।
इक जामहि घाम चढ़े ते अली, अजबी गजबी लुये लागती है॥९॥

सवैया

जिन जाऊ पिया यों कहों तुम सौं तो तुम्हें बतियाँ यह दागती है।
इहाँ चंदन में घनसार मिलेसु सबे सखियाँ तन पागती है।
कवि ग्वाल कहाँ कहाँ कंज बिछे, उन मालती मंजुल जागती है।
तजिके तहखाने चले तो सही, पे सुनी मग में लुये लागती है॥१०॥

सवैया

पिय जाइ विदेश बसे जब तें तब से विषसी पिकी रागती है।
मति चंदन मेरे लगाउ सखी ये चमेली चिराग सो दागती है।
कवि ग्वाल फुहारै फुहारन की, तन जार ही जार सुभागती है
खस बीजना ना करि ना करि नाकरि, ये अंगार भरी लुये लागती है॥११॥

कवित्त

पीयें जब पानी तब गरम ही पोजियत। प्यास न बुझात यातें होत को खफा नहीं।
आँधी को गुबार घुरघार बेसुमार बढ़े। रात लग लूये चलें को जो तड़फा नहीं।
ग्वाल कवि केह चीज छुयें ते गरम सब। दम घभरात नींद आवत सफा नहो।
पांच हू रितु की गुलामिनीजु ग्रीषम है। मसल कसूर है गुलाम ते वफा नहीं॥१२॥

कवित्त

सिंधु ते कढ़ी है किधों बाडवा अनल अत्र। दावा ओ जहर मिलि कीनी ताप भर की।
कैधों महांरुद्रजू के तीसरे विलोचन की। खुलन लगी है कहूँ कोर तेज तरकी।
ग्वाल कवि कहत सुदर्शन को म्यान किधों। उधर्यो कहूँ ते द्रष्टि तीवन है सरकी।
हाय विरही की किलाप विरहागिन की। देत है जराय जेठी धूपं दूपहरकी॥१३॥

सवैया

चन्दन की न चलांकी चले, औ कपूरहु को कहा छीवन है।
खेमे खेर खसके छिरके फिरके चले लूयें मही वन है।
यों कवि ग्वाल परे गरमी जड़ के वड़ा कंद को पीवन है।
जेठ में तो जगजीवन कों इक शीतल जीवन जीवन है॥१४॥

कवित्त

गोरिले गुविंद ने गरूर गार्यो ग्रीषम को। गुलगुले गिदुक गुलाब गरकाने से।
चन्दन कपूर चूर चहल चटक चारु। चौसर चैमेलिन चंगेर चरचाने से।
ग्वाल कवि सुदल सरोजन के सेजसाजि। शीतल सरसनीर हिम सरसानें से।
खासे खभखाने खुसखाने खिझवत खाने। खूब खुसबोइन के खुलिगे खजाने से॥१५॥

कवित्त

जेठ की ज्वाला करे सकल जग मांहि जोर। जारन त्रिलोक जीव व्याकुल कहल में।
देखि यह कौतुक खुलाय के शरद खाने। खूब खस खाने करे चन्दन चहल में।
ग्वाल कवि छूटे जल जन्त्र में गुलाब नोर। विमल बिछौना गुलाब के पहल में।
छाये छबि बृन्द राजे आनंद के कन्द आज। राधिका गुर्विद अरविंद के महल में॥१६॥

कवित्त

फूलनि में फैल फैल राधा स्याम राजत है। फूलन की सेज वंद फूल ठरे तें।
फूलन के फेटा फूल तुर्रा फूल पेचन पे। फूलन के वसन हैसल फूल गरेतें।
ग्वाल कवि फूलन के फोंदा फंदे फंदन में। फूलन चेंगेर फूल फलित वखेरतें।
फूलन के मन्दिर में फूल सी फबनि फबि। फहर फहर फूलमालन कों फेरतें॥१७॥

कवित्त

बरफ शिलान की बिछायत बनाइ करि। सेज संदली में कंज दल पाटियत है।
गालिब गुलाब जल जाल के फुहारे छुटे। खून खसखाने में गुलाब छटियत है।
ग्वाल कवि सुन्दर सुराही फेरि सोरामांहि। ओरा को बनाय रस प्यास डारियत है।
हिमकर आन लासी हिये तें लाय। गोषम की ज्वाला के कशाला कटियत है॥१८॥

कवित्त

ग्रीषम के त्रास जाके पास ये बिसात होत। खस के मवास में गुलाब उछर्यो करे।
विही के मुरब्बे डब्बे चांदी के वरक भरे। पेठे पाग केवडे में बरफ पर्यो करे।
ग्वाल कवि चंदन चहल में कपूर पूर। चंदन अतर तर वसन खर्यो करे।
कूंजमुखी कंजनैनी कंज के बिछोनन पें। कंजनकी पंखी कर कंज सों को करे॥१९॥

कवित्त

ग्रीषम की पीर के विदार के सुनोये साज। तरु गीर तीर के सुछाया में गंभीर के।
शीतल समीर के सुगन्धी गौन धोर के जे। सोर के बरैया प्याले पूरित पटीर के।
ग्वाल कवि गोरि द्रग तीर के तुनीर केसु। मोद मिले जैसे अकसीर के खमीर के।
आबखोरे छोर के जमाये बर्फ चीर केसु। बंगले डशीर के भिजे गुलाब नीर के॥२०॥

कवित्त

भान की तपन वन उपवन जारें लगी। तेसी लूयें लोल लागे ज्वाल जाला सी।
ताल नदी तालन के नीर तें रँधन लागे। याते लाल सुनहूँ उपाय इक आला सी।
ग्वाल कवि प्यारी को छबीली छाती छाँह छियो। चांदनी सी हाँसी देह चंदन रसाला सी।
पाला सी विलोकनि हिवालासी लिपट जाकी। लीजे चलिकंठ मेलि मालती की माला सी॥२१॥

पावस ऋतु वर्णन
कवित्त

आवत अषाढ़ आगि अंबरतें औधी परे। लोग अनुमाने मेह घूम मेह धारकी।
आई है कि आई अब आवत ही है है घटा। त्यों ही कही काहू सुनो गरज धकार की।
ग्वाल कवि कोऊ केह धुखा दिखाने वह। एके कहे सौंधी गंध आइ शीरी बयार को।
बोलि उठ्यो एक का अवाई सी मचाई भाई। आई वह आई यह बरखा बहार की॥२२॥

कवित्त

रंग रंग रंग के पयोधर तुरंग तीखे। मस की सुरंग चीने सुधर समाज के।
त्रिविधि बयार सो सबार वेगवान धार। बोजु चमकार तोप प्याले खुस काज के।
ग्वाल कवि अंबर अनूप रूप खेमा खूब। धुखा तनावतने द्रढता दराज के।
हेरे में करे रे दल घेरे चहु फेरे अब। आइ परे डेरे नेरे. मेघ महाराज के॥२३॥

सवैया

यह सावन आयों सुहावन है तरसावन, मानसों भागि रहो।
जलधारन सों थल पूरि रहे सुर मीठे, मलारन रागि रहो।
कवि ग्वाल दया कर देखो इते, रिस दामन सों जिन दागि रहो।
अनुरागी रहो निशि जागि रहो, रति पागि रहो गल लागि रहो॥२४॥

कवित्त

पावस बहारैं आई रसिक नरेश हेत। लेत अब मौजें महामोद उपदान की।
फूलन की अतरों की केसर लवंगन की। मेवों को मिठाईन को अमल गटान की।
ग्वाल कवि कहे रागरंगन की बुंदन की। शोरी पौन ऊँचिये अटान पे घटान को।
बिजुली छटान को औ छपर खटान को सु। रंगद्युपरान को प्रिया के लिपटान की॥२५॥

कवित्त

वीर वरषा के ये बनाये बने बानिक है। ये बिन बने नहीं बहार पंचवान की।
चंचलासी चंचला है चंदमुखी चंचला सी। साला है सबीन की सजी है सेज सान की।
ग्वाल कवि वलित बगी चाहे सु चाँदनी है। चौसर है मोर है सकोर है हवान की।
दीरघ अटा है अटा ऊपर घटा है धन। घन घटा ऊपर छटा है चंचलान की॥२६॥

कवित्त

जाने जिन वीर पुरहूत को धनुष ब्याहि। साजे जीन पोश रंग रंग को तयारी कों।
चंचलान चोंके ये चमकात लागी चारु। गरजन जानि करे दिव कहु स्यारी कों।
ग्वाल कवि हाल पे उछाल के समुदजात। चाल भरे खूंदन करत राह सारी कों।
घेरी धन हे न पंचवान ते तुरंग भेजे। प्यारे मनभावन के मन की सवारी कों॥२७॥

'कवित्त

भादों की अँध्यारी महा सापिन सी लागे मोहि। बिजुरी विलासिनो चमकत है आय आय।
मोरन को शोर हिय फोरि कें कढत पोर। मेघन की धार लोग शेल सीजु धाय धाय।
ग्वाल कवि प्यारे ये कंदपहू कसाई भये। फूल बन बाग जरावत है भाय भाय।
पापो यह पावस प्रबल दुख देव काज। आयो परदेश में पियारी बिन हाय हाय॥२८॥

कवित्त

प्यारी बिन जानिकें अकेलो पहिचान करें। लियो दाऊ पाबस विदेश में करोर डार।
फूले बन बागन में आंगन लगाई देइ। बेदरद बादर तिन्हें हू अब फोर डार।
ग्वाल कवि शीतल समीर हू के तीर मार। पातकी ये चातको की चोचें चीर घोर डार।
तोर डार इन्द्र को धनुष बांह ऊंची करि। मोरन के कंठ को निशंक ही मरोर डार॥२९॥

कवित्त

झूम झूम चलत चहूँधा धन धूम घूम। सूम सूम भूमि ध्धे ध्धे धूम से दिखात है।
तूलके से पहल पहल पर उठे आवे। महल महल पर सहल सुहात है।
ग्वाल कवि भनत परम तम समकेते। छम छम छम डारें बूंदे दिनरात है।
गरज गये है येक गरजन लागे देखो। गरजत आवे एक गरजत जात है॥३०॥

कवित्त

प्यारी आऊ छात में निहारी[] नये कौतुक यें। धन को घटातें खाली नभ में न ठौर है।
टेड़ी सुधी गोल औ चखूटी बहु कौन वारी। खाली लदी खुली मुदी करे दौरा दौर है।
ग्वाल कवि कारी धोरी घुमरारी घहारी। घुरवारी बरसारी झुरी तौर तौर है।
यह आई वह आई यह गई वह गई। और यह आई उठी आवत वे और है॥३१॥

कवित्त

प्यार सौ पहिर विसवाज पौन पुरवाई। ओढनी सुरग सुरचांप चमकाई है।
जगाजोति जाहर जवाहर सो दामिनी है। अमित अलापन को गरज सुनाइ है।
ग्वाल कवि कहे धाम धाम लसि नाचे राचो। चित चित्तवित्त लेत मोद मांचत महाइ है।
वंचनी विराग हूँ ने अति परपंच तीसी। कंचनीसो आज मेघमाला बनिआइ है॥३२॥

कवित्त

पावस को साँझ माँझ ताकिये तमासो खासो। वासो किये भानु दबी किरने दिखात है।
एरी मेरी प्यारी ते हूँ हेरी है कि नाहि कभू। केसी नभ न्यारी न्यारी छबि छहरात है।
ग्वाल कही जूही सेत चंपकई लीली पीली। घूमरी सिंदूरी बदरी ये मँडरात है।
मानहुँ मुखौमर मनोज को मुकव्यामंजु। फेलि पर्यो तारी तसवीरें उड़ी जात है॥३३॥

कवित्त

गेह अति ऊँचे होय खुले होय ढके होय। दरै होय गोखे होय रौसे होय रँगे सी।
बन होय बाग होय बीन होय का होय। केकी होय भेकी होय पवन अभांगे सो।
ग्वाल कवि गरम गिलोरी होय गिजा होय। बूंदे होय इदे होय दामिनी के संगे सो।
प्यारी होय प्यारे होय प्यार होय प्याले होय। होय परजंक पर जंघन की जंगे सी॥३८॥

कवित्त

देख देख आवन ये सावन सुहावन की। ऐसी चित आवत कहूँ न नेको टरिये।
पलंग बिछाई आछे अतर लगाइ चाइ। गाइ के मलार दाइ बाई अनुसरिये।
ग्वाल कवि कामिनी की जंघन में जंघ मेलि। पेलि भुज गल में लपेटि अंग भरिये।
चूमिके कपोल गोल उरज अमोल मलि। खोलि खोलि नीवी मन भायो कर्यो करिये॥३५॥

कवित्त

मोरन के शोर छाये जुगनू करोर छाय। भंवर मरोर छाये बाटिका छिपाई है।
रुखन खग छाये नग छाये चक्रवाक। मग छाये नद नदी धार झगि पाई है।
ग्वाल कवि कहे डार डार दल छाये हरे। मोद छाये दंपति नवेली गीत छाई है।
घन छाये वन छाये वन छाये जन छाये। पै न आइ छाये पिय मेरे आजताई है॥३६॥

कवित्त

कूकै कोकिलान की कुहू के मंद मोरन की। झूके पौन सूके सेल सरसम मारती।
घन की चमूकैं संग दामिनी हरन कैं हूकें। गरज चहूँ कैं दूकें नाहर सी पारती।
ग्वाल कवि ऊँके औधि चूकैं वाँ वधू के लाल। वेदन अचूके लखि आली किलकारती।
हूकें करे टुकें विरहागिन भभूकें उठि। लूकैं लागि अंबर दिने से फूकें डारती॥३७॥

कवित्त

मान को न बेर सनमान की है बेर प्यारी। मान कह्यो मेरो झुकि झांकतो झमाके सो।
लह लही वैले तेक तरु तरु संग खेलें। मेले वाह वाले ताले छवि के छमाके सो।
ग्वाल कवि बूँदे बूँदे रूँदे विरहीन हीन। नेह की न मूँदे कोन मूँदे झर वाँके सो।
घूमि आये झूमि आये लूमि आये भूमि आये। चूमि चूमि आये धन चंचलै चमाके सो॥३८॥

सवैया

पोढे पलंग पें प्रेमी प्रिया, पपिहान पुकार की दुरै परे।
शीतल मंद सुगन्ध समीर, शरीर छमेन को फूँदे परें।
त्यों कबि ग्वाल घटा घहरे, लहरे बिजुरी तम रून्दें परें।
मेह की बूँदे न मूँदे परे, येन मूँदे परे है न मूँदे परें॥३९॥

कवित्त

जोही जुगनून की जमातें जुर जामिनी में। दामिनी में घूमें घन घेने धुनिघोटी कै।
लोटी रति रंग में पलोटी पाय प्रीतम के। जाऊ जिन प्रात पैन मानी काम कोटी कै।
मोटी मोटी रोटी डारी चिरिन को ग्वालकवि। द्वार दुति ओटी भौंर गुंजे गन्ध रोटी कै।
छोटी रही रेनि नींद नैनन अंगोटी हाय। खोटी करें लागे ये पखेरुलाल चोटी कै॥४०॥

कवित्त

मेरे मनभावन न आये सखी सावन में। ता वन लजी है लता लरजि लरजि कैं।
बूंदें कभू रूदें कभू धारे हिय फार दैया। बीजुरी हू वारे हारी वजि वरजि कैं।
ग्वाल कवि चातको परम पातकी सौं मिलि। मोरहू करत शोर तरजि तरजि कैं।
गरजि गये जे धन गरजि गये हैं भला। फेर ये कसाई आये गरजि गरजि कैं॥४१॥

कवित्त

कारे कारे गुम्मज से गढ से गयंदन सें। नीलम के गीर से ये गरजत आबे है।
धौरे ओ धुवारें घजदार के सें मिले भये। लपके लहरदार लरजत आवे है।
ग्वाल कवि कहे वेश बीजुरी सु वाला लिये। बाला मानिनी को में बरजत आवे है।

सिरजत आवे है सँजोगिने सनेह सुख। हुकम अदूलिन को तरजत आवे है॥४२॥

कवित्त

छिनहू थंमे न मेह बरसत भांति भांति। ताकी तीन डकती हिये में मेरे ह्वै गई।
कैधों स्वर्ग गंगाके सुबंध में भये हैं छिद्र। तिनतें अनेक धारें छूटी सोइ ह्वै गई।
ग्वाल कवि कैधों जलझारियाँ सुरीगन को। तीव्रतम पौन से ढरी सों सब ह्वै गई।
कैधों सुर राजजू के भिसतो अनंतन की। मसकैं पुरानी परी झांझरी सी ह्वै गई॥४३॥

कवित्त

बीति गई अवधि मन मोहन के आइबे की। ताइबे की वानलई पंचवान बानले।
धीर गयो घाय पीर पल पल सर साई। कछु न सुहाई गई मतिहू सयान ले।
ग्वाल कवि सुनी में दुनी में दई दीन घाल। याते करौं अरज दया के मेरी मान ले।
मेघन की धारन तें केरी किलकारन तें। पपिहा पुकारन ते पहिले ये प्रान ले॥४४॥

शरद ऋतु वर्णन
कवित्त

आज अंबरख ते लिपाय मंजु मंदिरन। तास सेत बिछत करी है चौक हृद में।
ताने सामियाने जरीदार सेतजेब भरे। मोतिन[] की झालरें झलाझल के सद में।
ग्वाल कवि चौसर चमेली के चंगेरन में। चुनवाँ चमके चीरवादला विशद में।
चंद ते सि चंदमुख अमल अमंद अति। बैठे ब्रज चंद चंद पूरन शरद में॥४५॥

कवित्त

हीरा के फरस पर होरा के फरसबंद। रजत की सेज दूध धारन सी ह्वै रही।
सेतसेत तास के चंदोवा चहुँ और ताने। सेत बादला तें सुखमासी चारु च्वै ही।
ग्वाल कवि मोतिन की झालर की झिलि मिलि। हिलि मिलि अलिन अनंत छवि ह्वै रही।
शरद की चटकीली चाँदनी की जोति मिलि। प्यारी मुखचारु चाँदनी तें एक ह्वै रही॥४६॥

कवित्त

मोरन के शोरन की नेको न मरोर रही। घोरहू रही न घन घनेया फरद की।
अंबर अमल सर सरिता विमल भल। पंक को न अंक औ न उड़नि गरद की।
ग्वाल कवि चहूँधा चकोरन के चैन भये। पंथिन की दूर भई दुखन दरद की।
जल पर थल पर महल अचल पर। चाँदी सी चमकि रहि चाँदनी शरद की॥४७॥

कवित्त

चम चम चाँदनी की चमकि चमक रही। राखी है उतारि मानो चंद्रमा चरखतें।
अंबर अवनि अंबु आलय विटव गिरे। एक ही सें पेखे परें बने ना परखतें।
ग्वाल कवि कहे दसो दिश ह्वै गई सफेद। खेद को रह्यो न भेद फूली है हरखतें।
लो पी अंबरख तें कि टोपी पुंज पारदतें। कैधों दुति दीपी चाँदी के बरखतें॥४८॥

हेमन्त ऋतु वर्णन
कवित्त

हाजिर हिमाम को किमाम देखि देखि दोक। न्हात बतरात मुसिक्यात छवि दंतमें।
धार धार भूषन बसन बनि बैठे बेस। देश देश दावे लेत शीत निज तंत में।
ग्वाल कवि दिनहूँ घटन लाग्यो पल पल। भोजन गरम भायो जग सब तंत में।
कंत कामिनी तें मिलि मिलिकैई कंत आज। लेत है अनंत री विनोद माहि मंत में॥४९॥

कवित्त

हरखि हिमंत में इकत कंत संग मिलि। मौज ले अनंत छविवंत तेरो गात है।
रवि की मयूख सों वियूख सी लगत मीठी। खेतन में ऊख को बहार दरसात है।
ग्वाल कवि तलप तुलाई की हितात त्यागी। आन लागी लगन बरफ भरी बात है।
दिन दिन घटन लग्यो है दिन तिन तिन। छिन छिन छिनदा सरस हति जात है॥५०॥

कवित्त

शीरे शीरे नीर भये नदिन के तीर तीर। शीरे भये चीर धरासीरी सब परि गई।
दशहू दिशे तें दिनरात लागी कुहरान। पोन सररान साफ तौर सी निकरि गई।
ग्वाल कवि ऐसे या हिमंत में न आये कंत। सो तुम्हें न दोष सलतंत ओरे बरि गई।
सूखि गये फूल भौंर झोर उड़ि गये मानो। काम की कमान की कमान सी उतरि गई॥५१॥

कवित्त

शीत की सवाई सी दिखाई परे दिनरात। खेतन में पात पात जमे जात सोरासें।
सरर सरर बरफान की पवन लागे। करर करर दंत बाजे झकझोरासें।
ग्वाल कवि कहे ऊन अंबरनि चोरे जहाँ। सूती बसनन तें तो वहे जात घोरा सें।
जोर जोर जंघन उदर पर घर घर। सिकुरि सिकरि नर होत है ककोरा सें॥५२॥

कवित्त

धीरे धीरे उतर हिमालय तें आइ तरें। नदीन के वारि छ्वे वे शीत सरसात है।
जोगी जती तपसी सभी की दुखदाइन है। अजब कसाइन है दयाना दिखात है।
ग्वाल कवि तूलकी न ऊनको सँवूर की न। माने ना दुशालनी की साफ सरसात है।
बर्फ की कतार है कि सार नोक दार है कि। प्यार ही अपार है सो पार भई जात है॥५३॥

कवित्त

बाहिर गये ते घर आवन लगे है लोग। घरके बसैयन पयानो कियो साफा सो।
ग्यानिन को ज्ञान अरु ध्यानिन को ध्यान मान। मानिन को मान फार्यो मृगमद नाफा सो।
ग्वाल कवि कहै प्याला बाला में दुहून ही में। सब ही ने जान्यो ठाक आनंद दूजाफा सो।
जोमदार जीवन को जोम को जगैया बड़ो। आयो अब जाड़ो जग करन जुराफा सो॥५४॥

कवित्त

झरझर झांपे बड़े दरदर ढाँपे नापें। थर थर काँपे तऊ बाजत बतीसी जाय।
फेर परमीशन के चौहरे गलीचन पें। सेज मखमली सौरि सोऊ शरदी सी जाय।
ग्वाल कवि कहे मृगमद के धुकाये घूम। औढि बओढि घरमार आगि हू छपीसी जाय।
छाके सुराशीशो हून शीशो ये मिटेंगी कभू। जोलो उकसीलो छाती सों न मीसी जाय॥५५॥

कवित्त

उदर हिमाम जामें नाभि कुण्ड कमनीय। हीयचली अंगिठी जटित मनिमाला की।
मेन की उमंग सों अमंग है अगिन आछी। उरजन शीश कसतूरी रंग आला की।
ग्वाल कवि तन की सुगंध अंबरात रहे। मिलन प्रसंग की सो लिपट दुशाला की।
अंग अंग बाला के ये गरम मसाला सब। ये हो नंदलाला चलि लीजें मौज पाला की॥५६॥

कवित्त

ऐसी तौन गरमी गलोचन के फारसो में। है न बेस कीमती बनात के दुमाला में।
में वन की लोज में न होय में हिमाम हूके। मृगमद मौज में न जाफरान जाला में।
ग्वाल कवि अंबर अतर में अगर में न। उमदा सेंवर हूयें है न दीपमाला में।
द्वै द्वै दुशाला में न अमलों के प्याला में न। जैसी पाला हरन सकत प्यारी बाला में॥५७॥

कवित्त

बारियाँ महल की न हलको मुदी है जहाँ। राशि परिमल को अंगीठियाँ अनल की।
जोतें मोम भलकी चैगेरे है नुकल को सु। प्यालियाँ अमल की पलंगे मखमल की।
ग्वाल कवि थल की सची सी लंक वल कीबो। फूल सम हलको प्रभा में झलाहल की।
विपरीत ललको कहे को बात कलकीसु। बाले छवि छलकी दुशाले में उछल की॥५८॥

कवित्त

गाले अति अमल भराले तोसकोमें फेर। ऊपर गलीचे बिछवाले जालवाले अब।
सेजन में सेज बंद खूब कसवाले वाले। खाले रसवाले जे गजक बनवाले सब।
ग्वाल कवि प्यारी कों लगाले लिपटाले अंक। सोइ के दुशाले में मजाले अति आले जब।
मंजुल मसाले मिले सुरा के रसाले पिये। प्याले पर प्याले मिटे पाले के कशाले तब॥५९॥

कवित्त

सोने की अंगीठिन में अंगोन अधूम होय। होय धूम धार हूतो मृगमद आला की।
पौन को न गौन होय भर क्यो सु भौन होय। मेवन के खोन होय डबियो मसाला की।
ग्वाल कवि कहे हूर परी सें सुरंग वारी। नाचती उमंग सों तरंग तान ताला की।
बाला की बहार औ दुशाला की बहार आई। पाला की बहार में बहार बड़ी प्याला की॥६०॥

कवित्त

कन्या के भयो अभूत पूत मजबूत महा। बल है अकृत द्यूत पनमें अलो रहे।
बाध बाध देत है समाध ऊध्धं रेतन की। रंकन अगाध आध व्याधन ढर्यो रहे।
ग्वाल कवि कहे पर घर का अपर घर। थर थर काँपै तऊ नेक न डर्यो रहै।
एसो सोत जबर निरखि रवि डरकर। हरबर धाम घन मकर पर्यो रहै॥६१॥

कवित्त

कासमीर कारीगर काम के कमाये भये। कुंजदार क्यारिन में पसमीनी फरसें।
सेज मखमली पर मैनका सी मदभरी। मद को मुरादभरी मानिक सी सरसें।
ग्वाल कवि चादर संकरी हो सरीर पर। आतस अनंग हो को अंगन में परसें।
समेके खिले पे खेल के खेले में दिले। इतने मिले पें सीत दूरहू न दरसें॥६२॥

कवित्त

कातिकादि चारों मास तखत बिछाई बैठ्यो। बदल सजल जग छत्र छबि छाई है।
तब तब मेह धार चौंर चारु ठोरियत। सुरहर पौन को वजोरी सरसाई है।
ग्वाल कवि बरफ बिछायत कोहर दल। ठिरनी प्रबल नीकी नौबत बजाई है।
शीत बादशाह सोन दूजो कोक दरसाय। पाय बादशाही बाँटे सबको रजाई है॥६३॥

शिशिर ऋतु वर्णन
कवित्त

रेनि घटि घटि के बढ़न लाग्यो दिनमान। लागी है बढ़नि गरमान भान संग की।
शोरी शीरी पवन हितान लागो कबहूँक। धोरी धीरी आयत सुगंध हर रङ्ग की।
ग्वाल कवि कहे ठंड सांझ तें सवारे लग। उठत तरङ्ग तामें मदन उमंग की।
शिशिर में शीत की लगी है होन डगमग। मग मग होन लागी जगमग रङ्ग की॥६४॥

बसन्त ऋतु वर्णन
सवैया

फूलि रही सरसों चहुँ ओरजो सोने की बेस बिछायत सांचे।
चीर सजे नर नारिन पीत, बढ़ी रसरीत बरङ्गना नाचें।
त्यों कवि ग्वाल रसाल के बौरन, भौरन औरन ऊधर मांचे।
काम गुरू भयो पराग शरू भयो, खेलियें आज बसन्त की पाँचे॥ ६५॥

कवित्त

खेले बाग बाग में पगिहै प्रेम पाग में सु। लाल लाल पाग में टके है गुलताग में।
छके है रङ्ग राग में जके है जंग जाग में। भीजे रङ्ग राग में परे है अंग थाग में।
ग्वाल कवि दाग में रहे न होय लाग में। रस में समाज में मलिंद ज्यों पराग में।
कोई फबि फाग में अनेक अनुराग में सु। में तो विरहाग में लिखन निष भाग में॥६६॥

कवित्त

केती विरहाग में झरें तें मुख झाग में सु। दागी में न दाग में बसी है ते विराग में।
प्रीतम समाज में जु में तो अनुराग में सु। (में तो) गूलताग में लगाऊँ लाल पाग में।
ग्वाल कवि राग में पगी हों प्रेम पाग में सु। डारों अंग राग में भले जे बिच बाग में।
मेरे भाल भाग में विरंच या सुहाग में सु। लेख्यो मोदलाग में सु खेलों फवि फाग में॥६७॥

कवित्त

प्रान पति आगम सुनायो सखियाँ न आन। करे है सुजान वातें कुलकुल की।
धायके वहाँ ते हाल होरन जटिल हौज। केसर लबालब कराई खुल खुल की।
ग्वाल कवि प्यारी पिचकारी करधारी जोर। जेसी छबि छाई झुमकान झुलझुल की।
लाल लाल गिंदुक गुलाल लाल लाल गुल। गालिब गुलाब गोल गादी गुलगुल की॥६८॥

कवित्त

एरी नन्दलाल ने मचायो ख्याल फागुन को। होत धुनि नीकी मुरली को करताल की।
येते मैं अचानक ही राधिका रसीली आय। रंगन भिजोये भरी दोरी कोर भाल की।
ग्वाल कवि कुमक करी है कुंकमो की जब। रही न सुधि कंचुकी कच को न चाल की।
कूलनि उताल की सों किलकी खुसाल की सों। भरि भरि मूंठी लाय डारत गुलाल की॥६९॥

कवित्त

जाउगे कहाँ कों नंदगाम को बबा के पास। खेल खेल होरी रंग बोरी इहि ठौर अब।
खेले तो जरूर पैन मानहु बुरो जो तुम। खेलो अजू जौक ते जितेके जिय दौर अब।
ग्वाल कवि प्यारे वह आई पिचकारी बचौ। प्यारी मूठि मेरो हू बचाओ कछु तौर अब।
आँख में गुलाब गयो हाहा लाल पैयों परों। नेक रहो रहो रहो डारो जिन ओर अब॥७०॥

कवित्त

गावत धमार धूम धाम धाम धाम माँहि। धीर न घरात मौज फौज के नगीच में।
बाल पिचकारी[] की चलावनी बिहारी पर। गारी दे बिहारी नचे अबीर अलीच में।
ग्वाल कवि कहै ऐसें हुहुकी मिल मिल में। मूली सुधि देह गेह नेह नद बीच में।
प्यारी लाल छाप फूल मालन में पाई उत। लाल ने बुलाक पाई केसर की कोच में॥७१॥

सवैया

बालम मेरो न माने कह्यो करे, जंग और मंत्र धने बसुठी में।
पूछत व्याहित सों तुमसों, चितसों हटा दीजे बताइसुठी में।
त्यों कवि ग्वाल गुलाल की वादिन, देखी चलानि री अनुठी में।
लालमुठी में कहा करतूज भयो, जिहि, ते वह लाल मुठी में॥७२॥

सवैया


फाग की फेल करी मिली ग्वालन, छैल विशाल रसालन ऊपर।
लाल की लाल मुठी को गुलाल पर्यो डहि बाल के बालन ऊपर।
यों कवि ग्वाल करे उपमा सुखमा, रही छाय सु ख्यालन ऊपर।
पंख पसारि सुरंग सुवा उड्यो, डोले तमाल को डालन ऊपर॥७३॥

सवैया


फाग में राग की लाग दिली खिली आँख मिलामिली प्रानन बारें।
बालके ऊँचे उरोजन ऊपर लालदई पिचकारि कीधों सारे।
तें उचटो कवि ग्वाल तब तिहि की सुखम उपमाजु उचारे।
मानो उतंग उमंग भरे सु छुटे हक रंग फुहारे हजारे॥७४॥

सवैया


सुन्दरी आवे अंगारी चली भली भांति अदाय बतावत है।
श्री नन्दलाल चलावत कुंकुमे सूधे सफा सरसावत है।
ते लगें ऊंचे उरोजन में कवि ग्वाल प्रभा दरसावत है।
हास के हेतहि कुम्भन पे मनो मेन गुलेल चलावत है॥७५॥

सवैया


जाहि लगे सो भजे न अंगे वहाँत्री देई गिरे पै सके नहि ऊठे।
जो कहुं कोऊक कूदि चलेतो तहाँ बिच ले जहाँ रंग अनूठे।
त्यों कवि ग्वाल खिलाखिल खेल में खीझे खिले बिन खोरि में रठे।
मूळे गुलाल की बाल की यों पलें ज्यों चले मंत्र विशाल की मूठें ॥७६॥

सवैया


कैसे कलंक बचे दूपयाग में, झेलि है ग्वारिया भूरि बने।
भारि है फेंकि गुलाल की डारन, रेखें शरीर में पूरि बने।
यों कवि ग्वाल भिजोइहे रंग, भजा भज जातन दूर बने।
न्हाये बने जल जा बने, जमुना पर जाये जरूर बने॥७७॥

सवैया


आवत ही ब्रजनारी जहाँ पिचकारी बिहारी चलाई उताल में।
दौर के अंगना एक अचानक ले गह पोत पिछोरिया हाल में।
ढूंढ़ि थके कबि ग्वाल गुलाबन पाइ कहूँ वह राज के ख्याल में।
दे गुलचा वहो बाल मसाल सी जाय मिले है मसाल की माल में ॥७८॥

कवित्त

आली ललितादि लैकैं चाली वृषभान सुता। फाग की बहाली लाली जोबन न साकी सब।
तास बादलेन के झलाके झला झलकत। चंद को कला की चंचला की छवि थाकी तब।
ग्वाल कवि आई नंदगाम की डगर पर। जगर मगर जोति जागि है मजा की जब।
फैल को वकैया आगें मिलिगौ छबीलो छैल। गैल रोकि रोकि कहे सैल करो यहाँ की अब॥७९॥

कवित्त

कौन से गरीब कौ तूं बालक है बिगरेल। गैल रोकि लोनी पर पाछें पछताइहै।
गैयां नवलाख बाबा नंद की सुनी कि नाहिं। ताको में कन्हैया कहा हमकों बताइहै।
ग्वाल कवि जो तूं लडाइतो है नंदजू को। तोपें का लडेती वृमभान की भिजाइहै।
या तो इत बावती न बाई तो बबा की सोंह। खेले बिनहोरी अब केसें जान पाइहै॥८०॥

कवित्त

जानी हमजानी तोहि बांधिकै नचायो हुतो। पाइपरि आयो बचि सूधोहोत सीव को।
गैया नव लाखकी सुनायत जो ताले बरी। ऐसे किते इनके जिवाक्त है जीव को।
ग्वाल कवि जोपें फाग खेल्यो ही चहत अब। तोपे खेलि हमसों ये साथ की परीन को।
खेल में बराबरी को दावो होत आयो सदा। बेटी यह भूपकी तू बालक गरीब को॥८१॥

कवित्त

तालेवरी रावरी न छीन हम लैहे कछू। लागि[] है न उडिकें गरीबी तुम्हें खोरी सों।
राजन सों खेले रंक रंकन सों खेले राजा। ह्वै करि निशंक भरे अंक सदा बोरी सों।
ग्वाल कवि केती कला खेलो पेन मानो एक। जानो घर कठिन परेगो या मरोरी सों।
चोरी सों कि जोरी सों कि तोरी मोह होरी माज। खेलेंगे जरूर हम गोरी सों किशोरी सों॥८२॥

कवित्त

नंद जसुदा के सुने सूधे ही सुभाय सब। स्याम तुम मीले कहा बॉकपन जारियां।
खेलवो हू सबतें बबूल करि लोनो लला। तोमें तो पिछौरा पुसाखी दूत भारियाँ।
ग्वाल कवि जब घर जैहे का बने है बात। कैसेकें छिपे है जो लगेगी पिचकारियाँ।
रेलिये रंग औ न खेलिये दगा को खेल। मेलिये गुलाल सूधे दीजिये[] न गालियाँ॥८३॥

कवित्त

चाहो करि आओ जरि तामके लिबास तुम। चाहों सादे धारो रंग डारिहै पें डारिहै।
चाहो जाइ कंस पें पुकारो या पुकारो मत। फागुन की गाग्नि तें गारिहै पें गारिहै।
ग्वाल कवि जी में भल मानो या न मानो कछू। है न बरसानो आँगी फारिहै पें फारिहै।
घूँघट झरोखे झुकि झाकि हों अनोखे चोखे। तोपें हम धोखें मूठी मारिहैं पैं मारिहै॥८४॥

कवित्

बोली तब बाल भलें आओ नंदलाल अब। देखे ख्याल तेरो भाँजि आयो फासि फासि कें।
सुनत गुपाल रंग अंगन में डाल डाल। कुकुम उताल खूब मारे कसि कसिकें।
ग्वाल कवि स्यामे गहि कोइक नचावे भले। कोइक छुडावें फेर आवें धसि पसि कें।
तानें ललिता में मूठि डाले राधिका पें आये। चढ़ि चौंतरा देत तारा हँसि हँसि कें॥८५॥

सवैया

जा दिन ते जनमें तु स्यामजू तादिन तें तुमको यही भावे।
दूध दही मही चाखन चोरी औरु चुराय के बात बनावे।
त्यों कवि ग्वाल गुलाल चुराइ के आँख चुराय के आँख में नावे।
साहस तेरो तके जब लाल जो सामने बोलिके मूठि चलावे॥८६॥

कवित्त

हूजे सावधान अब सामने ही ऐहे हम। कहिके इतेक अब बेलिन में पिल गयो।
गहर गुलाल औ अबीरन की मूठई दे। धुंधकरि दीनि मनो भान आज गिल गयो।
ग्वाल कवि वाही धूम धाम में छबोलो छैल। ढूंढिलोनी छिन में छबीली जामें दिल गयो।
हिल गयो हेत मंत्र किल गयो मोहन को। खिल गयो खेल खेल ही में मिल गयो॥८७॥

कवित्त

आइ केरी राधिका जमाइ के जुवति जूथ। फगुवा मचाइ केख दी हो छबि छाइ के।
जाइके तहाँई पेहूँ फास्यो वे उपाइ केरी। घाघरो पिन्हाइ के लयोरि में नचाइके।
गाईकैं कवि ग्वाल लाई के गुलाल लाल। हँसत हँसाइ के में कुच गहे धाइके।
नेनन लजाइ कॅसु नैनन रिसाइ कैजु। सैनन चलाइ के गइ हमें बुलाइ के॥८८॥

कवित्त

कह्यो नंदगाम ते नवल नंद नंद आज। फागुन समाजन के साज सब सजिकें।
गैल गैल ग्वालिन को ऐलसी मची ही तहाँ। छैल बके ऐल फेल वेऊ हँसे लजिकै।
ग्वाल कवि केतिन के कुच पिचकारि मारि। मुख मुरकाय कर्यो ख्याल एक वजिकें।
एक को सु आँखिन में भरिके गुलाल लाल। बाल दूजी के कपोल चूमि चले भजिकें॥८९॥

कवित्त

फागुन को फैलके गवेल ओ उफैल लै लै। वंसीको वजेल छैलकीनी धन घोरी है।
लेकें पिचकारी एक नारी को चलाह चार। वाने पिचकारी गहि ऐची निज ओरी है।
ग्वाल कवि लाल तब ख्याल को हिलाये हाथ। परीसी परी में जीरि आपहू परोरी है।
हँसि उठो गोरी डारे रोरी भरि झोरि जोरी। जोर जुरी आज कहे सांची यह होरी है॥९०॥

कवित्त

जो पे बेगुनाही तो गुनाही सदा रावरो मैं। आपे जो गुनाही जो न खेलो खेल धूमके।
होत हुरिया इन लुगाइन की कूकें भलें। पिचकी अचूकें चले बूके लूम लूम के।
ग्वाल कवि कैसो लाल लायो हों गुलाल हाल। पाऊँ तो हुकम तो लगाऊँ भाल भूम के।
झूमके जड़ाऊ झूम झूम के झपाक हाथ। लेत ये कपोल गोल गोरे चूम चूम के॥९१॥

कवित्त

मोहन औ मोहिनी[] ने फागकी मचाइ लाग। बाग में बजत बाजे कौतुक विशाल है।
केसर के रंग बहे छज्जन पें छातन पें। नारे पे नदी में ओ निकास पें उछाछ है।
ग्वाल कवि कुंकुम को पालन रसालन में। तालन तमालन पे फूटत उताल है।
गंज गुल लालन में लालन पें ग्वालन पे। बाल बाल बालन पे घुमड्यो गुलाल है॥९२॥

कवित्त

आइ एक ओर तें अलीन लें किशोरी जोरी। आयो एक ओर ते किशोर वाम हाल पें।
भाजि चल्यो छल छड़ी छोर पें छबीलिन में। छड़ीकों उठाय धाय मारी उर माल पें।
ग्वाल कवि हो हो कहिचोर कहि चेरो कहि। बीचमें नचायो में इतत थइ ताल पें।
ताल में तमाल पें गुलाल उड़ि छायो एसो। भयो एक और नंदलाल नंदलाल पें॥९३॥

कवित्त

फाग में कि बाग में कि भाग में रही है भरि। राग में कि लाग में कि सोहे खान झूठी में।
चोरी में कि जोरी में कि रोरी में कमोरी में। कि झूम झकझोरी में कि झोरिन की की ऊठी में।
ग्वाल कवि नैनमें कि सैनमें कि बेनमें कि। रंगलै न देनमें कि ऊजरी अंगूठी में।
मूठी में गुलाल में ख्याल में तिहारे प्यारी। कामे भरी मोहनी सो भयो लाल मूठी में॥९४॥

कवित्त

आज नंदलाल संग ले ले गोप ग्वाल बाल। खोले ख्याल दे देताल गावनि प्रसिद्धि की।
कोरति की कुंवरि किशोरी गोरी लाखन लें। जोरी करी होरी होरी राति रूपरिद्धि की।
ग्वाल कवि जुरि जुरि दे दे मूठि धूरि पूरि। झेलें रंग मुरि सोमान नेह निधि की।
केसर वही सो करे रोष के फानन पीरे। उडिके गुलाल करी लाल लटे विधि की॥९५॥

वसन्त वर्णन

कवित्त

अलिन के झुण्ड ते वितुण्ड झूमे ठौर ठौर। धवन तुरंग रंग रंग के गवन साज।
ललित कुसुम्भ रथ कोकिल लियादे जादे। मैन फौजदार बन्यो औज मौज शिरताज।
ग्वाल कवि कहै बेस बागन के धारन में। गइके गुलाब धरे रतनप्रभा समाज।
आयो रितुराज तेरे उरनि नजर लेकें। लीजें आज यदुराज ब्रजराज महाराज॥९६॥

कवित्त

फूलि रही सरसों सरस खेत खेतमाँहि। अखिल अँगारन को पुंज सो सुहायो है।
किंशुक कुसंभ मंजु मुगदर मौजदार। पवन मरोर बाल जाल सरसायो है।
ग्वाल कवि कहै डारे दल बिन लेजिम लें। कोकिल मलिंद वृंद पहन को छायो है।
वीर बलवंत अनकंतजू वसंत आज। कुस्ती के दिखाइबे को जेठो बनि आयो है॥९७॥

कवित्त

बाजी बाजी बिरियाँन शीतल उसन बात। मंद मंद तुतरात बालक सरूपिया।
जेठ की जलाका सी सलाका होय आवे कभू। सौरभ सुहावे तरुनायन अनूपिया।
ग्वाल कवि कहें अंग थर थर कांपे कभू। कछू न बस्याई जून चाहे भयो धूपिया।
आनंद के कंद रामचंद के अनंद देत। आयो छविवंत ह्वै वसंत बहुरूपिय॥९८॥

कवित्त

बाजत मुरज मंजु भारत मरोरदार। बीनको बनाव तुंब वृंद बिलसंत है।
ताल की आवाजें साज चटक गुलाबन की। सुन्दर सुरंगी भौर गुन्ज सरत है।
ग्वाल कवि कहे तार तानत अमरबेल। साजे सुरकोकिल कुहुँक हुलसंत है।
राजे महाराजे रघुवीर वीरजू के जागें। आयो बने बानिक कलावंत वसंत है॥९९॥

कवित्त

बाग बन उब्बे पुब्बे फवनि अनेकनसों। सरसों प्रसून पुखराजन को छायो है।
मोतिये सु मोतिये सेवती सरस होरे। ठौर ठौर बौर झौर पन्नन को लायो है।
ग्वाल कवि कहत कुसुम मंजु मानिक है। सौरभ पसार पुंज पानिप सुहायो।
शोभ शिरताज ब्रजराज महाराज आज। रितुराज जौहरी जवाहर ले आयो है॥१००॥

कवित्त

दीसे जात जातके बिटप पाँत पात बिन। भाँत भाँत अरे पें डरावे छल छंद सों।
फूले है कुसुम कुल किंशुकहू बन बन। मानहु हुतासन की लागनि अमंद सों।
ग्वाल कवि त्यों ही नित गरल रसंत ताहि। कहत सुधाधर मयंक मतिमंद सों।
आयो है बसंत बिरहीन के नसंत काज। कहियो इकंत वा विलासी ब्रजचन्द सों॥१०१॥

कवित्त

ऊधो यह सुधो सो संदेसो कहि दीजो जाय। स्याम सों सितावी तुम बिन तरसत है।
कोप पुरहूत बचाई वारिधारन तें। तिनपे कलंकी चंद विष बरसत है।
ग्वाल कवि शीतल समीर जे सुखद होते। वेधत निशंक तीर पीर सरसत है।
जेई विषनागिन में बरत बचाइ हुती। तिन्हें विरहागिन में बारत बसन्त है॥१०२॥

कवित्त

ध्यानी जे इकंत के महंत मति ग्यानी तिन्हें। कीने रसवंत तंत में न फौजवारे में।
कूजत है कोकिला कसाइन कलंक भरी। कतल करी है री मलिंद मतवारे में।
ग्वाल कवि बाँधी सलतंत क्यों न एती तहाँ। कंत विरमाये जिहि देश दुखहारे ने।
हाय हाय वीर विरहागिन में बारि दई। बैरी बलवंत या बसन्त बज मारेने॥१०३॥

सवैया

नेह निवाह चलो ब्रजचन्दजू चन्दमुखी हिहूलत हूके।
बौरन बौरन भौरन झौरम कीनी गुन्जार सों वेधैं अचूके।
त्यों कवि ग्वाल कुसंभ पलासन डार पे एसें अंगार भभूके।
कारि कसाइनि कूर कलंकित कंकिनि केलियाँ काढतो कूकें॥१०४॥

कवित्त

जानि जिय आगम निदाघ रितु ग्रीषम को। विषम वियोग बान आनहियो पैठ्यो है।
कोने पात पात बिन बसन विशेष भेष। डारे रही सूख रूख रूख मैंन ऐठ्यो है।
ग्वाल कवि पुहुम पलास के सुरंग रंग। दीसत अभंग ये कछु इक अमेठ्यो है।
मानो रितुराज महबूब के मजेमें मजि। बन बनि आशक जुखाइ गुल बैठ्यो है॥१०५॥

कवित्त

पीरे बन बाज अनुराग भरे भाग भरे। अंग अंग रंग की उमंगन में पैठे है।
पीरे ही फरस पर पीरे ही वसन सन। पीरे ही रतन तन अतन अमेठे है।
ग्वालकवि पीरे गोल गेंहुवा पलंग पोरे। पोरे पान छाये पोरे हारहार ऐठे है।
है न ये बसन्त ह्वै बसन्त रहे राधिका के। दोक या बसन्त में बसन्त बनि बैठे है॥१०६॥

कवित्त

कूकें सुनि कोकिलान धीर को किला न रहे। आने कोकलान को फलान नजरें नहीं।
फूल से कुल कुसुमन कुसमन कुल आली। कुसमन हिये दुसमन ही डरे नहीं।
ग्वाल कवि किये परये वियोगनतें। परचे अंगारन सें परचे टरे नहीं।
ऐसे विसरे न मोहि नेको विसरेन हाइ। प्रान निसरेन ये पी प्रान निसरे नहीं॥१०७॥

कवित्त

त्रिविधि पवन परवानो पहुँचायो लाभ। तामे लिख्यो हाल सो सुनाऊँ बिन ढील है।
याते मृगनेनी प्रानगढ़ तजि आओ पास। नांहि सो ढवाऊँ भेजि भौर पुझ फील है।
ग्वाल कवि किंशुक कुसुम फौज ऐहे फेर। गहके गुलाब जोले करि डोर खील है।
कंत और नर को पढ़ायो यह आयो छायो। रतिकंत साहब वसन्त सो वकील है॥१०८॥

कवित्त


वाह वाहे आमकों बिहारी लाल ख्याल भरे। बाला बिरहागी तची अब न तचेंगी वह।
बानी कोकिला को विषधार सी पचायो करी। अब लों पची सो पची अब न पचेंगी वह।
ग्वाल कवि केत उपचारन सच्चाई करि। अब लों सची सो सची अब न सचेंगी वह।
आयो पंचबान ले बसंत बजमारो वीर। अब लों बची सो बची अब न बचेंगी वह॥१०९॥

कवित्त


सरसों के खेत की बिछायत बसन्ती बनी। तामें खड़ी चाँदनी बसन्ती रतिकंत की।
सोने के पलंग पर वसन बसन्ती बेस। सोनजुही भाले हाले हिये हुलसंत की।
ग्वाल कवि प्यारो पुखराजन को प्याली पूरि। प्यावत प्रियाकों करे बात बिलसंत की।
राग में बसन्त बाग-बाग में बसन्त फूल्यो। लाग में बसन्त क्या बहार है बसन्त की॥११०॥

इति श्री ग्वालकृत षटऋतु सम्पूरणं।

  1. मूलपाठ : नीहारी।
  2. मूलपाठ :––मोतीन
  3. मूलपाठ––पीचकारी।
  4. मूलपाठ––लागी
  5. दिजीये
  6. मूलपाठ––मोहीनि।