बेकन-विचाररत्नावली/४ व्यय
यदर्ज्यते[१] परिक्केशैरर्जितं यत्र भुज्यते।
विभज्यते यदन्तेन्यैः कस्य चिन्माऽस्तु तद्धनम्॥
सुभाषितरत्नाकर।
धन, व्यय करनेहीके लिये है; परन्तु हां, सत्कार्य और यशः पद कृत्योंमें व्यय करना चाहिये; अन्यत्र नहीं। विशेष व्यय करनेका प्रसंग आनेसे कार्यके महत्त्वका विचार करके तदनुसार व्यय करना चाहिये क्योंकि योग्य प्रसंग पड़नेपर अपनी समस्त सम्पत्ति भी यदि व्ययकर दी जाय तो वह व्यय दोनों लोकोंमें बराबर श्रेयस्कर होताहै। परन्तु सामान्य व्यय मनुष्यको अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये और उसकी ओर सदैव ध्यान रखना चाहिये कि, प्राप्तिसे अधिक तो नहींहोता। नौकर चाकरों पर भी दृष्टि रखनी चाहिये जिसमें वे अनुचित व्यय न करैं और छलसे स्वार्थ साधन भी न करसकैं। प्रबन्ध ऐसा करना चाहिये जिसमें अपने घरका यथार्थ व्यय लोगोंके अनुमानकी अपेक्षा कमहीरहै; बढ़ने न पावे। यदि किसीकी यह इच्छा हो कि उसे धन सम्बन्धी कोई असुविधा न हो तो उसको अपनी प्राप्तिका आधा भाग व्यय करना चाहिये और यदि धनी होनेकी इच्छा हो तो केवल एक तृतीयांश व्यय करनाचाहिये। बड़े बड़े श्रीमान् लोगोंको भी अपने आय व्ययका विचार करना और अपनी सम्पत्तिपर दृष्टि रखना उचितहै ऐसा करनेमें कोई मानहानि नहीं। कोई कोई लोग अपने आय व्ययकी व्यवस्था नहीं देखते; इसका कारण केवल उनकी आलसताही नहीं, किन्तु हिसाब करके धनकी क्षीणताको जानकर वे दुःखित होनेसे डरतेहैं, यह भी है। परन्तु ऐसा करना कदापि समुचित नहीं। घाव कहां है, यह जब तक नहीं जाना जायगा तबतक उसका प्रतीकार कैसे हो सकेगा? जो मनुष्य अपनी सम्पत्तिकी व्यवस्थाको भलीभाँति नहीं देख सकता उसको प्रामाणिकनौकर रखने चाहिये और वे समय२ पर बदलने भी चाहिये, क्योंकि नवीन नौकर विशेष डरते हैं, अतएव वे कपट व्यवहार भी नहीं करते। जिसे अपनी सम्पतिके निरीक्षण करनेका अवकाश कम मिलताहै, उसे अपने आय और व्ययका निश्चय कर डालना चाहिये। अर्थात् क्या मिलताहै और क्या देना पड़ता है, इसका ठीक ठीक हिसाब समझलेना चाहिये। जिसको एक विषयमें विशेष व्यय करनापड़ता हो उसे चाहिये कि, वह किसी अन्य विषयमें कम व्ययकरै; जैसे यदि खाने पीनेमें अधिक पैसा उठता हो तो कपड़े लत्ते बनाने में कमी करनी चाहिये। इष्ट मित्रोंके सन्मानमें यदि विशेष व्यय करनेकी आवश्यकता पड़ती हो तो गाड़ी घोड़े रखनेमें कम व्यय करना चाहिये; इत्यादि। कारण यह है कि जो पुरुष सभी कामोंमें बेहिसाब व्यय करताहै वह अवश्यमेव कुछ दिनमें निर्धन होनेसे नहीं बचता।
जिसे अपनी सम्पत्ति ऋणसे मुक्त करानीहो उसे न तो बहुत शीघ्रता करनी चाहिये और न बहुतविलम्बही करना चाहिये; क्योंकि शीघ्रतासे उतनीही हानि होनेकी सम्भावना रहतीहै जितनी विलम्ब करने से रहती है अर्थात् बेचने में त्वरा करनेसे जो आधा तिहाई मूल्य मिलेगा उसे लेलेना और देरकरके ब्याज बढ़ने देना दोनों बातें समान हानिकारकहैं। इसके अतिरिक्त जो मनुष्य झटपट ऋणमुक्त होजाता है उसे फिरभी ऋणग्रस्त होनेका डर रहताहै; क्योंकि ऋण होजानेसे उसे पूर्ववत् अनिष्ट व्यवहारकरनेका साहस आजाताहै। परन्तु जो मनुष्य क्रम क्रमसे अपना ऋण चुकाता है, समझबूझकर व्यय करना उसका स्वाभाविक धर्म होजाताहै, जिससे उसके मन और सम्पत्ति दोनों को लाभ पहुँचता है।
गईहुई सम्पत्तिको पुनरपि प्राप्तकरनेकी जिसे इच्छाहै उसे छोटी छोटी बातोंकी ओरभी दृष्टि देनी चाहिये। सत्य तो यह है कि, थोड़े लाभके लिये हाथ उठानेकी अपेक्षा छोटे मोटे व्ययके कम करदेनेमें विशेष भूषण है। एकबार आरम्भ होजानेसे जो सदैव व्यय करना पड़ता है उसके विषयमें मनुष्यको अधिक सचेत रहना चाहिये। परन्तु एक बार करके जिस व्ययको पुनः करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती उसमें उदारता भी दिखाई तो चिन्ता नहीं।
- ↑ जिसके उपार्जन करनेमें अत्यन्त कष्ट सहन करना पड़ताहै; परन्तु कष्ट सहन करके भी जिसका उपभोग नहीं कियाजाता; अतएव अन्तमें जिसे दूसरेही लेजाते हैं, ऐसे धनके होनेसे न होनाही अच्छा है।