बेकन-विचाररत्नावली
महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ १०७ से – ११५ तक

 

मत्सर।

अहो[] सहन्ते बत नो परोदयं
निसर्गतोऽन्तर्मलिना ह्यसाधवः।

स्फुट।

जितने मनोविकार हैं, सब में, प्रेम और मत्सर के समान मोहक और कोई मनोविकार नहीं। इनकी अभिलषित भावनाएँ बडी हीप्रबल होती हैं। ये दोनों मनोविकार, अति शीघ्र, कल्पना और भावना के घोड़े दौड़ाने लगते हैं। नेत्रों में इनका आविर्भाव होते देरही नहीं लगती। जब कोई स्पृहणीय और मनोहर बात दृग्गोचर होती है तब ये दोनों विकार विशेष त्वरा के साथ प्रकट होते हैं। धर्म ग्रन्थों में मत्सर को वक्रदृष्टि के नाम से उल्लेख किया है। अनिष्ट ग्रहों का योग आने से, ज्योतिषी लोग भी कहते हैं। कि अमुक अमुक ग्रह की वक्रदृष्टि है। अभी तक लोगों की यह समझ है कि मत्सर उत्पन्न होनेसे दृष्टि लगजाती है। किसी किसी का यह भी मत है कि अभ्युदय और विजय प्राप्त होने से मात्सर्य्यदृष्टि विशेष हानि पहुँचाती है; क्यों कि, उस दशामें मत्सर को और भी अधिक प्रखरता आती है। जिसको देखकर मत्सर उत्पन्न होता है उस मनुष्य के गुण, ऐसे समय में, चारों ओर बाहर प्रकाशमान देख पड़ते हैं; इसी से उनपर मत्सर का प्रचंड आघात होता है। ऐसी ऐसी चमत्कारिक बातों का यथास्थान वर्णन करना अनुचित नहीं होता, तथापि इस विषयको अब हम यहीं छोंड, यह देखना चाहते हैं कि दूसरे का मत्सर करने की ओर किन मनुष्यों की विशेष प्रवृत्ति होती है, और कौन मनुष्य मत्सर किए जाने के अधिक पात्र होते हैं; तथा सार्वजनिक और व्यक्ति विशेष विषयक मत्सर में क्या अन्तर है।

गुणहीन मनुष्य गुणवान् को देखकर असूया करता है। मनुष्य का यह स्वभावही है कि वह सदैव अपना भला और दूसरे का बुरा चाहता है। जिसमें अपना भला करनेकी शक्ति नहीं है, वह दूसरे का बुरा होते देख समाधान पाता है। और जो मनुष्य दूसरे के सद्गुणों को स्वयं उपार्जन करनेकी कोई आशा नहीं देखता,वह उसके गुणोंका अपलाप करके, अपनी और उसकी समता सिद्ध करने का यत्न करता है।

जो मनुष्य किसी न किसी काममें सदैव लगा रहता है और दूसरे के व्यवसायोंका अनुसन्धान किया करता है, वह बहुधा असूयारत होता है। कारण यह है, कि जो इतना घटाटोप करके औरों के कामकाजके विषय में ज्ञान सम्पादन करता है वह इस लिए नहीं सम्पादन करता कि उसका औरोंके काम काज से कुछ सम्बन्ध है अथवा उस ज्ञान से उसको कुछ विशेष लाभ है। नहीं, इस प्रकार दूसरों के विषय में पूंछ पांछ करके और उनकी भली बुरी स्थितिको देखकर मत्सरग्रस्त मनुष्यको नाटक देखने कासा आनन्द आता है। जिसे "न उद्धव से लेना और न माधव को देना" है, उसे दूसरेका मत्सर करने के लिए विशेष कारण नहीं ढूंढे मिलता। मत्सर एक ऐसा चंचल मनोविकारहै कि इतस्ततः भ्रमण किए बिना उसे कलही नहीं पड़ती; वह चुपचाप रही नहीं सकता। किसीने ठीक कहाहै कि "दूसरे की भली बुरी बातों का पता लगाने वाला अवश्यमेव दुःशील होता है"।

जिनकी प्रधानता कुलक्रमागत चली आई है वे जब किसी नूतन व्यक्तिका अभ्युदय देखते हैं तब मत्सर करने लगते हैं। ऐसे अभ्युदयमें उपरोक्त दोनों प्रकारके मनुष्योंके बीचका अन्तर नष्ट होजाता है। मत्सर उत्पन्न होनेका यही कारण है। कुलीन घराने वाले यह समझते हैं कि नए लोग अग्रेसर होते जाते हैं और वे पीछे पड़ते जाते हैं। यह केवल उनके दृष्टिदोष का फल है।

वृद्ध, विकलाङ्ग, षंढ और जारज लोग असूया तत्पर होते हैं। इसका यह कारण है, कि जो मनुष्य अपनी स्थितिमें संशोधन करके उसे अपनी दशाको नहीं पहुँचा सकता, वह दूसरे की स्थितिको हर प्रयत्नसे हानि पहुंचाने में कोई बात उठा नहीं रखता। परन्तु इस प्रकारके व्यङ्ग यदि किसी शूरवीर और पराक्रमी पुरुष में हुए तो वह उनको एक प्रकारका भूषण मानकर दूसरोंका मत्सर नहीं करता। ऐसे ऐसे व्यङ्ग जिसके शरीरमें होतेहैं, वह यह समझता है, कि अद्भुत अद्भुत और चमत्कारिक बातों के करनेसे, लोकमें, जो प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, वह इन व्यंगोंके कारण उसकी भी होगी; क्योंकि लोग कहैंगे, "देखो इस लंगड़ेने अथवा इस षंढने कैसे कैसे पराक्रमके काम किए"। नारसिस[] आगेसिलास[] और तैमूरलंग ऐसेहीथे। नारसिस षंढ था, और शेष लंगड़े थे। अनेक कष्ट और अनेक आपत्तियोंको सहन करनेपर जिनका अभ्युदय होता है वे मनुष्य भी औंरो का मत्सर करने लगते हैं। दूसरे की सहज प्राप्त सम्पत्ति को वे नहीं देख सकते! "हमको इतना परिश्रम उठाना पड़ा, परंतु ये लोग बिना श्रमही के इतनी योग्यता को पहुँच गए" इस प्रकारकी भावना मनमें करके, वे दूसरोंको दुःखित देख अपने दुःखोंके भार को मानों हलका करनेका यत्न करते हैं।

चंचलवृत्ति होंने तथा अपने को बहुत कुछ समझने के कारण, जो मनुष्य, अनेक विषयों में हस्ताक्षेप करके, अपनाने पुण्य दिखलाना चाहते हैं वे मत्सरवान् होते हैं। कारण यह है, कि सभी बातों में प्रवीणता तो आती नहीं पल्लव ग्रहिता मात्र आजाती है। अतः ऐसे मनुष्योंमें औरोंकी अपेक्षा, किसी विषय में आधिक्यता तो नहीं उलटी न्यूनता पाई जाती है। इसीसे वे दूसरों का मत्सर करते हैं। एड्रियन राजा का स्वभाव ऐसाही था। कवित्व, चित्रकला और शिल्पशास्त्रमें प्रावीण्य प्राप्त करनेको उसको बलवती स्पृहा थी; इसीसे कवि चित्रकार और शिल्पियों की वह अत्यन्त असूया करता था।

आप्तजन, सहाध्यायी और सह कर्म्मचारी लोग, अपने समान शीलवालों की पदोन्नति देखकर अधिक मत्सर करने लगते हैं। जो हमारे समकक्ष थे वे हमसे बढ़गए यह बात उनको खलती है, क्योंकि इससे उनकी अयोग्यता सिद्ध होती है। इसका उनको वारंवार स्मरण होता है, और सब लोगों को यह बात विदित भी हो जाती है। इस रहस्य के विदित होजाने और सब ओर तद्विषयक चर्चा होने से मत्सर दूना होजाता है।

यहां तक उन लोगों का विचार कियागया जो साधारणतः असूयारत होते हैं। अब यह देखना है कि कौन किसकी न्यूनाधिक असूया करते हैं। अत्यन्त सद्गुणी मनुष्य का अभ्युदय होते देख लोग कम मत्सर करते हैं, क्यों कि वे अपने मन में यह समझते हैं कि यह व्यक्ति इस सन्मान का पात्र है। ऋणपरिशोध करने से कोई किसी का मत्सर नहीं करता; परन्तु उदारता पूर्वक किसी को कुछ देते देख मनुष्य मत्सर करने लगते हैं। जिन दो व्यक्तियों की परस्पर तुलना नहीं हो सकती उनमें मत्सर भी कभी जागृत नहीं होता। अतः जहां कहीं मत्सर भाव दृग्गोचर होगा वहां सभ्यता अवश्य होगी। इसीसे राजा लोगों का मत्सर राजेही करते हैं, अन्य नहीं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि योग्यताहीन पुरुषों का जब सहसा अभ्युदय होजाताहै, तब, वे, पहिले पहल, उत्कट असूया भाजन बनजाते हैं, परन्तु कुछ काल के अनन्तर, लोग, उनको मत्सर दृष्टि से देखना बन्द कर देते हैं। उनके विषयमें, उस समय, सब से अधिक असूया उत्पन्न होती है, जब लोग उनको चिरकाल पर्य्यन्त अविच्छिन्न रूप से अपने वैभव को भोग करते देखते है। यद्यपि उनके गुण जैसे के तैसे बने रहते हैं, तथापि उनकी दीप्ति मे अन्तर पड़ जाताहै, क्यों कि नएनए मनुष्यों का उदय होने से पुरानों की कीर्ति मलिन होजाती है।

उच्चकुल के लोगोंका जब भाग्योदय होता है, तब, मनुष्य, उनका विशेष मत्सर नहीं करते। कुलीन पुरुषोंकी प्रतिष्ठा होनाहीं वे उचित समझते हैं। प्रतिष्ठित घराने के लोगोंके विषयमें असूया उत्पन्न न होनेका एक और भी कारण है। वह यह है कि उनके अभ्युदय होनेसे भी उनकी प्रतिष्ठा कुछ बहुत नहीं बढ़जाती। मत्सरकी उपमा सूर्यको किरणोंसे दी जा सकती है। जैसे सूर्यको किरणैं मिट्टीके एक धुस्स अथवा पृथ्वीके एक ऊंचे भागपर जितनी प्रखरतासे पड़ती हैं, उतनी प्रखरतासे समतल भूमि पर नहीं पड़तीं; वैसेही क्रम क्रमसे जिस मनुष्यकी अति वृद्धि होतीहै, उसका लोग उतना मत्सर नहीं करते जितना वे उस पुरुष का करतेहैं, जो एकही उड्डान में प्रतिष्ठाके शिखरपर पहुँच जाता है।

जो लोग लंबे लंबे प्रवास करके, अथवा नाना प्रकारके दुःख और संकष्ट सहन करके उच्च पद पाते हैं उनका भी बहुत कम मत्सर होता है। मनुष्य समझते हैं कि प्रतिष्ठा पाने के लिये उन लोगोंको अनेक कष्ट सहने पड़े हैं। इसी लिए मनुष्योंको उनपर दया आती है। मत्सर रूप रोगकी दयारूप एक महौषधि है। यही कारण है कि गंभीर और शान्तस्वभावके राजकीय पुरुषोंका जब अभ्युदय होताहै तब वे मुखसे सदैव दुःखोद्गार निकाला करते हैं, और वारंवार यही कहा करते हैं कि हमको इस स्थिति में अतिशय कष्ट है; इस जीनेसे मरजाना अच्छा है; इत्यादि। ऐसे ऐसे उद्गार, उनकी यथार्थ दशाके सूचक नहीं होते, तथापि वे लोग उनको इस लिए प्रयोग किया करते हैं जिसमें कोई उनका मत्सर न करैं। यह सिद्धान्त केवल उन्हीं लोगोंके विषयमें चरितार्थ हो सकता है जो काम काजका भार ढूंढ ढूंढ कर स्वयमेव अपने सिरपर लादते हैं। कारण यह है कि महत्वाकांक्षाके वशीभूत होकर सारा काम अपनेहीं ओर खींच लेनेसे मनुष्यका जितना मत्सर होता है उतना और कोई बात करने से नहीं होता। इसी भांति, यथोचित अधिकार देकर, अपने आधीनस्थ लोगोंकी मान मर्यादा को रक्षित रखनेसे एक वरिष्ठ अधिकारीका जितना कम मत्सर होता है उतना और किसी कारणसे नहीं होता क्योंकि कनिष्ठ अधिकारियोंको अपने अपने अधिकार पर अधिष्ठित देख लोगोंकी दृष्टि वरिष्ठ अधिकारी तक कम पहुँचतीहै।

अभ्युदय होने पर जो लोग औद्धत्य और गर्विष्ठता का व्यवहार करते हैं उनका सबसे अधिक मत्सर होता है। अनेक प्रकार के बाह्याडम्बरों का प्रयोग करके और अपनी स्वर्धा करनेवालों का मान भंगकरके, ऐसे ऐसे मनुष्य, अपना महत्व सदैव सबको दिखलाया करते हैं। एतादृश उद्धट व्यवहार किए बिना उनको कलही नहीं पड़ती। इसीसे लोग उनका अतिशय मत्सर करते हैं। परन्तु बुद्धिमान् लोग, कभी कभी, ऐसे ऐसे विषयों में, जो विशेष महत्वके नहीं हैं, जान बूझकर अपना पराभव दिखाते हैं और तद्द्वारा लोगों का मत्सर शान्त करते हैं। तथापि यह सत्य है कि अभ्युदय होनेपर जो मनुष्य सरल और निष्कपट वर्त्ताव करता है, हां, परंतु, ऐसे वर्त्ताव में व्यर्थ आत्मश्लाघा और गर्वका सञ्चारन होनाचाहिए, उसका लोकमें उतना मत्सर नहीं होता जितना विश्वासघातक और कपटशील बर्ताव करने वाले का होता है। निष्कपट और सरल व्यवहार करनेवाला मनुष्य जानता है कि यह महत्व जो मुझे प्राप्त हुआ है वह चिरस्थायी नहीं है वह यह भी जानता है कि इस वैभव के उपभोग करनेकी मुझमें योग्यता भी नहीं है। इसीसे वह औरों का असूयाभाजन नहीं होता।

दो एक बातैं और कहकर इस विषय को समाप्त करैंगे। पहले कह आए हैं कि मत्सर में जादूका कुछ अंश मिला रहताहै। अतः जादूका प्रभाव दूर करनेके लिए जो उपाय किया जाता है वही उपाय मत्सरको दूर करनेके लियेभी करना चाहिए। वह उपाय अपने ऊपरके मत्सर को उतारकर दूसरेके ऊपर रखदेना हैं। इसी लिए बडे २ लोगोंमें जो बुद्धिमान् होतेहैं वे किसी न किसीको, चतुराई से अग्रेसर करके, उसीपर मत्सर का प्रभाव डालते हैं। ऐसा करनेसे उनको मत्सरकी बाधा नहीं होती। कामदार, मित्र, सहकारी और नौकर चाकर इत्यादि लोगोंका इस काममें उपयोग होता है। इसके लिए उद्धट और साहसी स्वभाव वाले मनुष्य सहजही मिल जाते हैं। ऐसे मनुष्योंको अधिकार और काम भर मिलना चाहिए; फिर, न वह मत्सरसे डरते हैं न और किसीसे। राजकीय पुरुषोंका, लोकमें, जो मत्सर होता है, उस विषयमें, अब कुछ कहना है। व्यक्ति विशेष का मत्सर करनेसे कुछभी लाभ नहीं होता; परन्तु राजकीय पुरुषोंका मत्सर करनेसे लाभ होता है। अत्युच्च पद प्राप्त होनेसे, राजकीय अधिकारी जब अतिशय उन्मत्त हो उठते हैं, तब उनका उन्माद मत्सरसे आच्छादित हो जाता है। मत्सर के कारण, उन लोगोंकी दीप्ति भली भांति नहीं चमकने पाती। ऐसे उद्दंड अधिकारियोंको, मर्य्यादाके बाहर न जाने देनेके लिए, मत्सर लगाम का काम देता है। अर्वाचीन भाषाओं में मत्सर का दूसरा नाम असन्तोष है। असन्तोषके विषयमें हमको जो कुछ कहनाहै वह हम उस निबन्ध में कहैंगे जिसमें हम 'राजा और प्रजामें परस्पर विरोध' का वर्णन करना चाहते हैं। असन्तोष एक प्रकार का सांक्रामक (स्पर्शजन्य) रोग है। जैसे सांक्रामक रोग सब ओर फैलकर स्वस्थ मनुष्योंके भी ऊपर अपना प्रभाव प्रकट कर के उनके शरीरमें विकार उत्पन्न करदेते हैं, वैसेही असन्तोषभी प्रादुर्भूत होकर, सारे राज्य में फैल जाता है और उसके वशीभूत होनेसे प्रजा को राजा के अच्छे भी काम बुरे देख पड़ते हैं। राजाने बीच बीच में यदि उत्तम भी काम किए तोभी मत्सर के कारण कोई उसकी प्रशंसा नहीं करता। लोग उलटा यह कहते हैं, कि प्रजा में जो असन्तोष उत्पन्न हुआ है उसी से भयभीतहोकर इस राजाने यह काम किया है; दृढ़ निश्चय तो इसमें हई नहीं। साधारणतया देखते हैं कि सांक्रामक रोग से डरनेसे जैसे उसे कोई घरमें बुला लाता है, वैसे ही असन्तोषसे डरने से राजाओंको और भी अधिक आपत्ति भोगनी पड़ती है।

सार्वजनिक मत्सर, प्रमुख अधिकारी और कामदार लोगोंको विशेष पीड़ा पहुँचाता है; स्वयं राजा अथवा राज्य के लिए वह इतना अपाय कारक नहीं होता। परंतु एक बात निर्विवाद है कि जब एक छोटीसी बातके लिये किसी प्रधान अधिकारीका लोग अतिशय मत्सर करते हैं और असन्तुष्ट होकर उसको अतिशय दूषणीय समझते हैं, अथवा जब सामान्यतः ऊंचे ऊंचे सभी उपाधिकारियों के विषय में प्रजाजन असन्तोष प्रदर्शित करते हैं तब असन्तोष, मत्सर और दूषण का कारण (यद्यपि यह बात गुप्त रहती है) राजाही को समझना चाहिए।

यहांतक सार्वजनिक मत्सर अथवा असन्तोषका विचार हुआ। व्यक्तिविशेष विषयक मत्सरका उल्लेख ऊपर हो चुका है। उसमें और सार्वजनिक मत्सरमें क्या अन्तरहै उसका भी वर्णन होचुका है। साधारणतः मत्सरके विषयमें एक बात और यह कहनी है, कि वह सब मानसिक विकारोंसे अधिक त्रासदायक और जागरूक है। एकबार उसे उत्पन्न भर होना चाहिये; उत्पन्न होकर वह कभी नाशही नहीं होता। और मनोविकार कभी कभी जागृत होतेहैं; परन्तु, मत्सर को प्रसंग नहीं ढूंढना पड़ता। किसी न किसी के ऊपर वह अपनी सत्ता चलायाही करता है। इसी लिए किसीने बहुत ठीक कहा है कि, "मत्सर कभी छुट्टी नहीं लेता"। जितने विकार हैं, सबमें प्रेम और मत्सरही ऐसे हैं जो मनुष्य के शरीर को अस्थिशेष कर देते हैं और विकारों से, मनुष्य की, इस लिए ऐसी दशा नहीं होती क्यों कि वे चिरस्थायी नहीं रहते। मत्सर एक नितान्त निंद्य और दुष्ट विकार है इसे शैतान कहना चाहिए, क्योंकि जैसे शैतान रात के समय अंधेरे में, चुपचाप आकर, मनुष्यों के अन्तःकरण में दुर्वासनाओं का बीज बोता है वैसेही मत्सर करनेवाला पुरुष भी, छिपे छिपे, दूसरे के सद्गुण को दुर्गुण सिद्ध करने के लिये सदैव तत्पर रहता है।

  1. स्वभावही से जिनका अन्तःकरण मलिन होरहा है ऐसे असच्चरित्र लोग दूसरे का अभ्युदय नहीं सहन कर सकते।
  2. कांस्टैंटि नोपलमें जस्टिनियन नामक राजेश्वर के पास छठवें शतकमें नारसिस नामधारी एक षंढ था। यह बहुतही राज कार्य पटु था और व्यली सारियस नामक सेनापति के अनन्तर उसके पदके योग्य समझा गया था।
  3. आगे सिलास, ग्रीसके अन्तर्गत स्पार्टा प्रदेश का राजाथा। यह चतुर्थ शतक मे विद्यमान था। यह लंगड़ा था, परन्तु बड़ा पराक्रमी और शूरथा, युद्धमें इसने अनेक बार विजय पाई। यह ८४ वर्षका होकर मरा।