बेकन-विचाररत्नावली
महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ ४३ से – ४५ तक

 

सौन्दर्य १६.

रुपयौवनसम्पन्ना[] विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥

हितोपदेश।

सद्गुण, उत्तमता के साथ जड़े हुए बहु मूल्य रत्न के समान है। यथार्थ में जो मनुष्य सुकुमार न होकर दर्शनीय है और जिसके शरीर में सुन्दरता की अपेक्षा तेजस्विता विशेष झलकती है उसमें सद्गुण और भी अधिक शोभा पाते हैं। जो लोग बहुत सुस्वरूप होतेहैं उनमें सौन्दर्य के अतिरिक्त और कोई गुण बहुशः देखने में आते भी नहीं हैं मानों ब्रह्मा ने विद्याविनय इत्यादि गुणों को देने के झगड़े में न पड कर सुन्दरताही के उत्पन्न करने में सारा परिश्रम किया है। इसीलिये ऐसे मनुष्य स्वरूपवान् तो होते हैं; परन्तु उनमें साहस तथा उत्साह नहीं होता और वे सद्गुण सम्पादन करने की अपेक्षा बोलचाल सुधारने की ओर विशेष ध्यान देते हैं। तथापि यह नियम सर्वव्यापी नहीं है। रोमका राजा आगस्टस सीज़र तथा टीटस वेस्पेशियानस, फ्रान्सका फिलिप लिबेल, इंग्लैंडका चतुर्थ यडवर्ड, एथेन्स का अलकि बायडिस, फारस का इस्माईल सूफी—ये सब अपने समय में अत्यन्त सुस्वरूप होकर भी अत्यन्त धैर्यवान् और उत्साही थे। सौन्दर्य में वर्ण की अपेक्षा सुधरता का माहात्म्य अधिक है और तदपेक्षा सभ्य और मोहक गति का अधिक है। अलौकिक सौन्दर्य वही है जिसका चित्र नहीं खींचा जासकता; जिसमें कुछ न कुछ वैगुण्य न हो ऐसे निर्दोष सौंदर्यका होना असम्भवहै। यह कोई नहीं कहसकता कि अपेलिज[] और आलवर्ट ड्यूरर इन दो चित्रकारोंमें से किसकी योग्यता कमऔर किसकी अधिक थी। इनमेंसे एक तो रेखागणितके नियमानुसार चित्र खींचताथा और दूसरा अनेक सुस्वरूपजनोंके उत्तमोत्तम अवयवोंको देखकर चित्र निकालताथा। हमारी समझमें एतादृश चित्रोंको देखकर उनके बनानेवाले चित्रकारों के अतिरिक्त और किसीको आनन्द न आवै। हम यह नहीं कहते कि जिसका चित्र चित्रकार उतारते हैं, उसकी सुन्दरताको साधारणत वह जितनी है उससे अधिक चित्रमें लानेका उन्हें प्रयत्न न करना चाहिये। करना चाहिये। परन्तु जैसे गायक लोग गानेमें अलौकिक मूर्च्छना निकालते हैं वैसेही चित्रमें चित्रकारको अपने विलक्षण कौशलद्वारा सौंदर्यातिशय उत्पन्न करना चाहिये; नियमोंके अनुसार खींचनेसे काम नहीं चल सकता। कभी कभी ऐसे चित्र देखनेमें आते हैं कि यदि उनके प्रत्येक अवयव की अलग अलग परीक्षा कीजाय तो उनमें से एक भी अच्छा न निकलै; परन्तु उन सबको एक साथ संयुक्त देखने से चित्रमें कोई दोष नहीं जान पड़ता।

यदि यह मान लियाजाय कि सौन्दर्य का विशेष अंश मर्यादशील गति और वर्तन ही में है तो वृद्ध मनुष्यों को भी सौन्दर्यवान् कहने में आश्चर्य करने की कोई बात नहीं; क्योंकि उनमें यह गुण विशेष करके और भी अधिक पाया जाता है। दुर्गुणों का त्याग किए बिना थोड़ी अवस्था में सुन्दरता शोभा नहीं पाती; कारण यह है, कि सुन्दरता के लिये जिन जिन बातों की आवश्यकता होती है उनकी प्राप्ति वयोवृद्धि के साथ साथ हुआ करती है। सुरूपता ग्रीष्मऋतु के फलोंके समान है—ऐसे फल जो बहुत दिन तक न रहकर शीघ्र बिगड़ जातेहैं। सौन्दर्य युवा मनुष्यों में अनेक दुर्व्यसन उत्पन्न कर देता है और बुढ़ापे में लज्जित करता है। परन्तु, हां, यदि सौन्दर्य लोकोत्तर हुआ तो उसके कारण सद्गुण विशेष शोभा पाते हैं और दुर्गुण दब जाते हैं।

  1. रूप और यौवन संपन्न होने तथा अच्छे कुल में जन्म लेने से भी बिना विद्याके, सुवासहीन पलाश पुष्प के समान, मनुष्य शोभा नहीं पाते।
  2. अपेलिज, मेसीडन के दिग्विजयी सिकन्दर का चित्रकार था। चित्रकला में यह इतना निपुण था कि इसको छोड़ अन्य चित्रकार को सिकन्दरके चित्र खींचने का अधिकारही न था। एक बार इसने एक ऐसा चित्र सिकन्दर का निकाला जिसे देख वह बहुतही प्रसन्न हुआ। अपेलिज ने पुनर्वार एक दूसरा भी फलक प्रस्तुत किया जिसमें सिकन्दर के घोड़े का चित्र था; इसकी सुघरता पर सिकन्दर ने कुछ असन्तोष प्रगट किया। दैवयोग से उसी समय एक घोड़ा पास से निकला जिसने चित्र गत घोड़े को सजीव समझ बड़े वेग से शब्द किया। इसपर चित्रकार बोल उठा "महाराज! जानपड़ताहै कि आपकी अपेक्षा इस घोड़े को चित्रकला का ज्ञान अधिक है"। सिकन्दर इस पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने अपनी एक प्रियतमा का चित्र खींचने की आज्ञा दी; परन्तु खींचते खींचते अपेलिज महात्मा उस पर आसक्त होगये। यह बात जब सिकन्दर तक पहुँची तब उसने उचित अनुचित का विचार न करके उन दोनों का विवाह होजाने की अनुमति देदी।