बेकन-विचाररत्नावली
महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ २८ से – ३१ तक

 

संतान ११.

धूलिधूसरसर्वाङ्गो[] विकसद्दन्तकेसरः।
आस्ते कस्याऽपि धन्यस्य द्वारि दन्ती गृहेऽर्भकः॥

कल्पतरु.

माता पिता का सन्तान सम्बन्धी आनन्द जैसे गुप्त रहता है उसी प्रकार तत्सम्बन्धी दुःख और भय भी गुप्त रहते हैं। माता पिता अपने आनन्द का उल्लेख स्पष्ट रीति पर नहीं करसकते; और खेद तथा भय को भी सब से नहीं प्रकाशित करसकते। सन्तति के कारण संसार यात्रा के श्रम विशेष आयास—कर नहीं जान पड़ते; परन्तु उसके कारण विपत्ति अवश्य असह्य होजाती है। लड़के बाले होने से सांसारिक चिन्ता बढ़ती है; परन्तु उनको देखकर मृत्यु का भय कम होजाता है। सन्तति को उत्पन्न करके वंश वृद्धि पशु भी करते हैं; परन्तु सद्गुण और सत्कार्य इत्यादि सम्पादन करना मनुष्यही का काम है। हम देखते हैं, कि जिनके सन्तान है उनकी अपेक्षा निःसन्तान मनुष्य विशेष उदारता दिखाते हैं, और अधिकतर महत्कार्यों का आरम्भ करने में समर्थ होते हैं। इसका यह कारण बोध होता है, कि ऐसे ऐसे पुरुष सन्ततिरूपी अपने शरीर का प्रतिबिम्ब प्रतिफलित करने में असमर्थ होने से अनेक यशःप्रद और चिरस्मरणीय कृत्य रूपी अपने अन्तःकरण के प्रतिबिम्ब को प्रकाशित करके लोकान्तरित होते हैं। अतएव यह कहना चाहिये, कि जिनके आगे कोई नहीं है उनको आगे की अधिक चिन्ता रहती है। जो लोग अपने घराने में प्रथमही प्रथम नामांकित होते हैं वे अपने लड़कों का अत्यधिक प्यार करते हैं; वे समझते हैं कि हमारे पश्चात् ये लड़के हमारी वंशपरम्परा को भी चलावैंगे और साथही जो नाम हमने सम्पादन किया है उसे भी चिरायु रक्खैंगे।

कई लड़के होने से माता पिता का स्नेह सब पर समान नहीं होता। यही नहीं किन्तु कभी कभी स्नेह का स्वरूप भी अनुचित होजाता है। प्रेम प्रकाश करने में माता विशेष पक्षपात करती है। सालोमन ने कहा है कि "बुद्धिमान पुत्र पिता को प्रसन्न करता है और दुराचारी पुत्र माता को लज्जित करता है" जिसका यह तात्पर्य है कि पिता के यत्न से पुत्र विद्वान् होता है और माता के अनुचित लालन से वह दुर्वृत्त होजाता है। जहां बहुत लड़के होते हैं वहां देखते हैं कि एक दो जो बड़े हैं उनका तो आदर होता है; और सबसे जो छोटे हैं उनका लाड़ प्यार होता है; परन्तु मझले लड़कों को कोई पूँछता भी नहीं। तथापि यही मझले लड़के वयस्क होने पर बहुधा समाज में गणनीय और माननीय होते हैं।

उचित कार्य में उठाने के लिये लड़कों को पैसा देने में माता पिता को कार्पण्य न करना चाहिये। कार्पण्य करने से अनेक अनिष्ट होते हैं। पैसा न पाने के कारण लड़के दुर्वृत्त होजाते हैं; अपहरण करना सीख जाते हैं; नीच लोगों के साथ उठने बैठने लगते हैं; और रुपया पैसा पाने पर अत्यन्त उच्छृखलता धारणपूर्वक विषयासक्त होजाते हैं। अतएव माता पिता को अपनी सन्तति के ऊपर दृष्टि रखनी चाहिये यह सत्य है, तथापि बाल्यस्वभावसुलभ उनके मनोरथ पूर्ण करने के लिये पैसे की भी, उपाय भर, उन्हें कमी न पड़ने देना चाहिये। यही उत्तम मार्ग है।

बाल्यावस्था में माता, पिता, शिक्षक अथवा सेवक लोग बहुधा भाई भाई में परस्पर की स्पर्धा उत्पन्न करदेते हैं और उसे उत्तेजित भी करते रहते हैं। यह भारी भूलहै। इससे भ्रातृस्नेह में त्रुटि आती है और लड़कों के बड़े होनेपर गृह-विच्छेद होनेका बीज उत्पन्न हो जाता है। इटली के निवासी अपने लड़कों में, अपने भतीजों में अथवा अपने निकटवर्ती संबन्धी जनों के लड़कों में बहुत कम भेदभाव रखते हैं। वे सब लड़के एकही कुटुंब के मात्र होने चाहिये; एक कोख के होने अथवा न होने का विचार वह कुछ भी नहीं करते। यही नियम प्राकृतिक जान पड़ता है, क्योंकि हम देखते हैं कभी २ लड़के अपने माता पिता के अनुरूप न होकर अपने चचा अथवा अपने किसी और निकट संबन्धी के समान होते हैं।

बाल्यकालही में अपने लड़कों के लिये अभिमतवृत्ति और व्यवसाय का निश्चय करके माता पिताको तभी से तदनुसार शिक्षा प्रारंभ करनी चाहिये; कारण यह है, कि उससमय लड़कों की प्रकृति अति कोमल होतीहै; अतः इच्छानुकूल विषय कीओर विशेष क्लेशके बिनाही वह प्रवृत्त हो जाती है। लड़कपनमें लड़कोंकी रुचि जिस ओर अधिक होती है उस कामको आगे वे अनायासही उत्साहके साथ करैंगे—यह विचार कर उनके स्वभाव और उनकी आभरुचिका शोध करनेके झगड़ेमें न पड़ना चाहिए। यह सत्यहै कि, लड़कोंकी प्रवृत्ति अथवा बुद्धिवैलक्षण्य किसी कार्य विशेष में यदि अत्यधिक देख पड़ै तो उनका प्रतिरोध न करना चाहिए; परन्तु सामान्य नियम यह है, कि जिस वृत्तिका अवलंबन करनेसे आगे विशेष वैभव और मान मर्यादा बढ़ने की आशा है उसी की ओर उन्हैं प्रवृत्त करदेना चाहिए। ऐसा मार्ग प्रारंभ में यदि कष्टसाध्य भी हुआ तो अभ्यास करते करते कुछ दिनमें वह सुखसाध्य हो जाता है।

बहुशः छोटे भाई अधिक भाग्यवान् होते हैं; परन्तु जहां बड़े भाई पैतृक सम्पत्ति पानेसे वंचित करदिए जाते हैं वहां छोटे भाई क्वचितही ऊर्जित दशाको पहुँचते हैं; अथवा यही क्यों न कहैं कि, कभी भी नहीं पहुँचते।

  1. धूलि जिसके सर्वांग में लिपट रही है और दन्त रूपी केसर जिसके खिल रहे हैं-द्वार पर ऐसा गज, और घरमें ऐसा बालक, किसी किसी धन्यही के यहां होता है; सबके यहां नहीं।