बिहारी-रत्नाकर/४
यह निर्माणाधीन पुस्तक है। इसकी वर्तनी जाँच का कार्य अभी पूर्ण नहीं हुआ है। आप इसमें हमारी मदद कर सकते हैं। |
सीस-मुकेट, कटि-काछेनी, कर-मुरली, उर-माल । इहिँ बान मो मन सदां बसी, बिहारी लाल ॥ ३०१ ॥ बानक= बनाव, साज, वेष ।। ( अवतरण )-कवि अपने उपास्य देव श्रीवृंदावनविहारी कृष्णचंद्र से नित्यप्रति अपने हृदय में, गोपाल रूप धारण किए हुए, बसने की प्रार्थना करता है | ( अर्थ )--हे विहारी लाल ( आनंद-क्रीड़ा करने वाले लाल ), मेरे हृदय में [ तुम ] सदा इस ( ऐसे ) बनक से बसो, जिसमें सिर पर मार-मुकुट, कटि में काछनी, कर में मुरली [ एवं ] उर पर वनमाला है ॥ | इस दोहे के पूर्वार्ध मैं चार समस्त पद हैं, और उन चारों ही मैं बहुव्रीहि समास है। वे चारों पद ‘बानक' शब्द के विशेषण हैं॥ 'मुकट' तथा 'माल' के अर्थ यहाँ, ‘काछनी' तथा ‘मुरली' के साहचर्य से, मोर-मुकट तथा बनमाला होते हैं। कवि श्रीकृष्णचंद्र के गोप-वेष का उपासक है, अतः वह उसी वेष से उनको अपने हृदय मैं बसाना चाहता है। उसे द्वारिकाधीश के मणि-मंडित किरीट, पाटमय पीतांबर, सुदर्शन चक्र तथा वैजयंती माला धारण किए हुए रूप से कोई प्रयोजन नहीं है ॥ भृकुट-मटकनि, पीतपट-चटक, लटकती चाल । चलचग्व-चितवनि चोरि चितु लियौ बिहारीलाल ॥ ३०२ ॥ चटक=चटकीलापन ॥ लटकती= झूमती हुई ।। ( अवतरण )-नायिका श्रीकृष्ण चंद्र को कहाँ वन मैं देख र रीझी है। अतः यह उनके स्वरूप का वर्णन करती हुई सखः से कहती है ( अर्थ )-भ्रकुटी की मटक, पीत पट की चटक, लटकती हुई चाल [ एवं ] चंचल नेत्रों की चितवन से विहारी लाल ने [ मेरा ] मन चुरा लिया ॥ संगति-दोषु लगै सबनु, कहे ति साँचे बैन । कुटिल-अंक-ध्रुव-सँग भएँ कुटिल, बंकगति नैन । ३०३ ॥ १. मुकुट (४) । ३. कामिनी ( ३ ) । ३. बानिक ( ३, ५) । ४. बसो सदा ( ५ ) । ५. लिए (४) । १६ विहारी-रत्नाकर कुटिल= टेढी आकृति वाली ॥ बंक ( वक्र ) =टेढे स्वभाव वाली, छली, निर्दय ॥ ( अवतरण ) -नायिका की तिरछी दृष्टि का घायल नायक सखी से कहता है, अथवा कवि की प्रास्ताविक उक्ति है | ( अर्थ )-संगति का दोष सब को लगता है. [ ये वचन जो सयानों ने] कहे हैं, सो सच्चे वचन हैं । [ देखो, ] कुटिल [तथा ] कपटशील भ्रकुटी के संग से नयन [ भी ] कुटिल [ तथा ] वक्र गति वाले हो गए हैं ।। जरी-कोर गोरै बदन बढ़ी खरी छवि, देखु । लसति मनौ बिजुरी किए सारद-ससि-परिबेषु ॥ ३०४ ॥ परिवेषु =मंडल, घेरा ।। ( अवतरण )—सखी नायक को नायिका की शोभा दिखलाती हुई कहती है ( अर्थ ) देखो, [ उसके ] गोरे मुख पर [ उसकी साड़ी की ] ज़री की कोर ( किनारी ) मैं शोभा [ कैसी ] अधिक बढ़ी है। मानो विजली शरद ऋतु के चंद्रमा को मंडल किए हुए विराजती है ॥ चितवन भोरे भाइ की, गोरे मुंह मुसकानि । | लागत लटकि अली-गरें, चित खटकति नित अनि ॥ ३०५॥ लागति--- चार प्राचीन पुस्तकों में तो 'लागति ही पाठ मिलता है, और दो संख्या वाली पुस्तक में 'लगति' पाठ है, एवं लागानि', पाठांतर-रूप में, लिखा हुआ है । 'लागत पाठ के अनुसार दोहे का अर्थ करने में कुछ हेरफेर करना पड़ता है । ज्ञात होता है कि अनवरचंद्रिका में इसी कारण ‘लागनि' पाठ कर लिया गया है। श्रीर उसके पश्चात् अन्य टीकाकारों ने भी उसी का अनुसरण किया है । इस संस्करण में प्राचीन पुस्तकों के अनुसार ही पाठ रखा और उसी के अनुसार अर्थ किया गया है ।। ( अवतरण )--नायक को देख कर नायिका ने जो चेष्टाएँ कीं, उनका वर्णन वह उसकी सखी अथवा अपने किसी अंतरंग सखा से करता है-- | ( अर्थ )-भोलेपन की चितवन से ( ऐसा चितवन के साथ कि मानो उसके चित्त में मेरी ओर कोई भाव ही नहीं है ), [ तथा ] गोरे मुख पर मुसकान से ( अर्थात् सहित ) सखी के गले से झुक कर लगती हुई ( सखी के भेटती हुई ) [ वह मेरे ] चित्त में नित्य आ कर खटकती ( पीड़ा देती, अर्थात् अपने से मिलने के निमित्त उत्सुक करती ) है ॥ इहिँ द्वैहाँ मोती सुगथ हूँ, नथ, गरीब निसाँक। जिहिँ पहिरै जग-दृग ग्रसति लसति हँसति सी नाँक ॥ ३०६ ॥ इहिं वैहाँ मोती सुगथ=इन दो ही सुगथ मोतियों से अर्थात् ऐसे दो मोतियों से, जो कि सुगथ हैं तो वे ही हैं, अन्य मोती उनके आगे सुगथ नहीं लगते । सुगथ ( सुग्रथ )=सुंदर प्रकार से अमे १. प्राली ( २ ) । २. ए ( ३, ५ ) । ३. हॅसति लसति सी ( २, ३, ५ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर १२९ हुए अर्थात् सुडोल, अथवा सुंदर प्रकार से जोड़ मिलाए गए ॥ गरवि = गर्व कर ॥ निसाँक= विना इस बात की शंका के कि कहीं मेरा गर्व मिथ्या न ठहरे ।। ग्रसति = पकड़ती हुई, अपने में लगा लेती हुई ॥ ( अवतरण )---नायिका नायक से कुछ अनमनी सी हो रही है । नायक उसकी नथ को संबोधित कर के तथा उसे सुना कर कहता है ( अर्थ ) हे नथ, तू इन दो ही 'सुगथ' मोतियों से निःशंक गर्व कर, जिनके पहनने से जग के दृगों को प्रसती हुई ( अर्थात् परम नेत्ररंजक ) नासिका हँसती हुई सी लसती ( सुशोभिद होती ) है ॥ | जब कोई छ रुष्ट सा रहता है, तो उसके हँसाने के निमित्त लोग प्रायः कहते हैं कि यह देखो, नाँक पर हँसी आई ।" इसी प्रकार नायक नायिका का अनमनापन छुड़ाने के निमित्त कहता है कि उसकी नाक मोतिय के व्याज से दाँत दिखलाती, अर्थात् हँसती सी, है । अपने इसी वाक्य से वह नायिका के नासिका-सौंदर्य की प्रशंसा भी, उसके प्रसन्नतार्थ, करता है । हरि-छवि-जल जब मैं परे, तब हैं छिनु बिछेरै न । भरत ढरत, बुड़त तरत रहेत घरी लौं नैन ॥ ३०७॥ घरी = समय-बोधक जल यंत्र की कटोरी ॥ ( अवतरण )-हरि की शोभा मैं अपने नेत्र की सक्रि का वर्णन नायिका अपनी किसी अंतरंगिनी सखी से करती है | ( अर्थ )—जब से [ मेरे ] नेत्र हरि के छवि-रूपी जल में पड़े हैं, तब से क्षण मात्र [ भी उससे ] बिछुड़ते नहीं ( अलग नहीं होते ), [ समय-प्रदर्शक जलयंत्र की ] घड़ी ( घटी, कटोरी ) की भाँति [ उसी छवि-जल में ] भरते दरते, [ तथा ] डूबते उतराते रहते हैं । | समय-प्रदर्शक जलयंत्र की कटोरी भी क्षण मात्र जल से अलग नहीं रहती, क्योंकि यदि वह जल से कुछ देर अलग रहे, तो समय-प्रदर्शन मैं उतनी देर का भेद पड़ जाय । अतः वह नाँद के जल ही मैं भरती दरती तथा डुवती तैरती रहती है ॥ 'भरत ठरत' तथा 'बृढ़त तरत' युग्म का प्रयोग यथासंख्य हुआ है। 'भरत' का संबंध 'बुडत' से तथा 'वरत' का संबंध ‘तरत' से है ॥ मार-सुमार-करी डरी मरी, मरीहिँ न मारि। साँच गुलाब घरी घरी, अरी, बरीहिँ न बारि ॥ ३०८ ॥ मार-सुमार-करी= कामदेव-द्वारा भली भाँति भारी गई अर्थात् अाघात पहुंचाई गई ।। उरी मरी= मरी पड़ी ।। बरीहिँ = जली हुई को ।। ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका को संतप्त देख कर सखी उस पर गुलाब-जज छिकती • १. विसरै ( २, ४) । २. हरत ( ३, ५ ) । ३. खरी ( ३, ४ ) ।। बिहारी-रत्नाकर है। पर गुलाब-जल से उद्दीपन होने के कारण उसकी विरह-ज्वाला और भी भड़क उठती है, अतः वह सखी से कहती है ( अर्थ )-कामदेव-द्वारा भली भाँति मार की गई ( मारी गई )[ मैं तो ] मरी [ ही ] पड़ी हैं; [ अब तु] मरी को मत मार । अरी [ सखा ] [ मुझ ] जली हुई को घड़ी घड़ी (फिर फिर ) गुलाब जल से साँच कर [ तू और अधिक ] मत जला ॥ क्या सहबात न लगै, थाके भेद-उपाइ । हठ-दृढ़गढ़-गढ़वै सु चलि लीजै सुरंग लगाइ ॥ ३०९ ।। सहबात = मेल की बातचीत ॥ भेद-उपाइ = फोड़ कर अपनी ओर मिला लेने के उपाय ॥ गढ़वै = गढ़वतिनी, गढ़ में बैठी हुई ।। सुरंग = ( १ ) सुंदर राग अर्थात् प्रेम । ( २ ) सुरंग, वह छिद्र जिसमें बारूद भर कर गढ़ इत्यादि उड़ा दिए जाते हैं । | ( अवतरण )–मानिनी नायिका को समझाते समझाते हारी हुई सखी नायक से, उसके हठ का रूपक दृढ़ गढ़ से कर के, कहती है| ( अर्थ )—संधि की बातचीत किसी प्रकार [उस पर] नहीं लगती ( प्रभाव डालती), मिला लेने के [ सब ] उपाय थक गए ( व्यर्थ हो गए ) । अतः [ अब आप स्वयं ] चल कर [ और ] सुरंग लगा कर ( १. अपने प्रेम में लगा कर । २. गढ़ को बारूद के द्वारा उड़ा कर ) [ उस ] हठ-रूपी दृढ़ गढ़ की गढ़वर्तिनी को लीजिए ( अपने वश में कीजिए ) ॥ तो ही को छुटि मानु गौ देखत हीं ब्रजराज । रही घरिक लौं मान सी मान करे की लाज ॥ ३१०॥ (अवतरण )-नायिका ने नायक से मान किया है । सखी यह कह कर मान छुड़ाया चाहती है कि तेरा मान तो छूट चुका है, अब तो तू व्यर्थ ही मान करने की सजा हो रही है | ( अर्थ )-तेरे हृदय का मान [ त ] ब्रजराज को देखते ही छूट गया । [अब तो ] मान करने की लजा, मान की भंति ( मान के स्थान पर ), घड़ी भर ठहरी हुई है॥ न ए विससियहि लखि नए दुरजन दुसह-सुभाइ । ऑटै परि प्राननु हरत कॉर्दै लौं लगि पाइ ॥ ३११ ॥ विससियहि= विश्वास किए जायें ॥ नए = नम्र हुए । दुसह-सुभाइ=दुःसह स्वभाव वाले ॥ ऑटै ( अर्ति )= दुःख, शामर्ष, दावें ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है( अर्थ )-ये तुःसह स्वभाव वाले दुर्जन नए ( नम्र हुए) देख कर विश्वास ने १. किये ( ३, ५) । २. बिससि इहि ( ३, ५ ), बिससिये (४) । ३. दुर्जन ( २, ३, ५) । ४. हरे ( ५ )। ________________
११ बिहारी-रत्नाकर किए जायें। [ये ] आँट ( दार्दै) में पड़ने पर पैरों में लग कर ( १. पैरों पर गिर कर । २. पैरों में चुभ कर ) काँटे की भाँति प्राणों को हर लेते हैं ( अत्यंत कष्ट देते हैं ) ॥ सखि, सोहति गोपाल कै उर गुंजनु की माल । बाहिर लसति मनौ पिए दावानल की ज्वाल ॥ ३१२ ॥ दावानल = दावाग्नि, जंगल की आग । एक समय नंद, यशोदा तथा अन्य व्रज-जनों के साथ श्रीकृष्णचंद्र जंगल थे । आधी रात को चारों ओर अाग लग गई, जिससे सब लोग बहुत घबरा उठे । तब श्रीकृष्णचंद्र ने उस आग को पा कर सबका दुःख दूर किया । यहां ‘दावानल' शब्द का वाच्यार्थ तो वही वन की अग्नि है, पर गौणीसाध्यवसाना लक्षणा शक्ति से इसका अर्थ दावानल-सदृश विरहाग्नि है ।। ( अवतरण )-नायिका अनुशयाना है। उसने गंज के कुंज मैं नायक से मिलने का संकेत बद! था, पर किसी अड़चन से वह वहाँ समय पर न पहुँच सकी । नायक संकेतस्थल से निराश तथा दुखी हो कर लौट आया, और यह सूचित करने के निमित्त कि मैं संकेतस्थल हो आया हूँ, गुंज की माला पहने हुए नायिका के घर के मार्ग से जा रहा है। उसको देख कर नायिका जो उस समय गुरुजन में बेटी है, अपनी अंतरंगिनी सखी से कहती है। गुरुजन के सुनने में तो वह सामान्यतः श्रीकृष्णचंद्र की गुंजमाला पर एक नीरस सी उत्प्रेक्षा कह देती है; पर सखी से, जो कि उसके वृत्तांत से परिचित है, वह यह कहती है कि श्रीकृष्णचंद्र के हृदय पर गुंजमाला मुझे ऐसी लगती है, मानो उस कुंज मैं मुझे न पा कर इनको जो दुःख-रूपी दावाग्नि का पान करना पड़ा, उसी की ज्वाला बाहर हो कर अपक्षपा रही है। इसे देख कर मेरी आँखों को बड़ा ताप होता है-- ( अर्थ )-हे सखी, गोपाल के उर पर गुंजों की माला [ ऐसी ] सोहती है, मानो [ उनके द्वारा ] पिए गए दावानल ( १. प्रज-लीला में पी गई दावाग्नि । २. संकेतस्थल में मेरे न मिलने से सही हुई दुःखाग्नि ) की ज्वाला बाहर [ निकल कर ] लस रही है (लपलपा रही है) ॥ ‘सोहति' तथा 'लसति' शब्द का प्रयोग यद्यपि द्वितीय अर्थ के पक्ष में समीचीन नहीं है, परंतु नायिका को इन्हें गुरुजन को सुनाने के निमित्त प्रयुक करना पड़ा । इसके अतिरिक्त सोहना, जसमा इत्यादि शब्द कविता मैं ऐस सामान्य रूप से प्रचलित हो गए हैं कि केवल ‘स्थित होने', 'दिखाई देने' इत्यादि का अर्थ देने लगे हैं। गहिली, गरबु न कीजियै समै-सुहागहिँ पाइ ।। जिय की जीवनि जेठ, सो माह ने छाँह सुहाइ ॥ ३१३ ॥ गहिली = बावली ॥ समै-सुहाग = ऐसा चुहाग जो किसी अवसर विशेष पर प्राप्त हो जाय ।। माह = माघ मास ।।। (अवतरण )-कहांतरिता नायिका के यहाँ से नायक उसकी सौत के यहाँ चला गया है, जिससे वह गर्व कर रही है। उससे कहांतरिता के पक्ष की सस्त्री कहती है १. सोमित ( १, ४) । २. बाहिरि ( ३ ), बाहरि ( ४, ५ ) । ३. मैं* ( २ ) । १३२ बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-हे यावली, समय का (संयोग-वश का ) सुहाग ( पति-प्रेम) पा कर गर्व न किया जाय ( तू गर्व मत कर )। [ देख, जो ] छाँह जेठ में जी की जिलाने वाली होती है, वही माघ में नहीं सुहाती ( सही जाती ) ॥ समय-सुहाग कह कर सखी यह व्यंजत करती है कि तुझ पर वास्तव में पति का प्रेम नहीं है, प्रत्युत वह इस अवसर पर, मरी सखी से कुछ अनबन हो जाने के कारण, तेरे यहाँ चला आया है ॥ | सखी का अभिपय इस कहने से यह है कि सौत का उत्साह भंग हो जाय, जिसमैं उसकी कांति उतर जाय, और वह नायक की आँखों मैं भडा लगने लगे । हँसि, हँसाइ, उर लाई उठि, कहि न रुखौंहें बैन । जाकत थकित है तकि रहे तर्कत तिलौंछे नैन ॥ ३१४ ॥ तिल ॐ = तेल से पछि हुए । ग्राख का सुरमा छुड़ाने के लिए स्त्रियाँ तेल से भागे हुए कपड़े से उन्हें पोंछती हैं। उस समय तेल लग जाने के कारण शाखें कुछ मिचमिची सी हो जाती हैं, और उनमें कुछ पानी भी आ जाता है । तिलाछ का अर्थ यहाँ तिलांछ से होता है । ( अवतरण )--खंडिता नायिका से सखी का वचन--- ( अर्थ )-[ नायक तेरे ] तिलांछ नयन देख कर जकित (स्तंभित ) [ तथा ] थकित ( श्रमित ) हो कर देख रहे हैं , [ अतः अब तू क्षमा कर के ] रूखे वचन मत कह, [प्रत्युत स्वयं ] हँस [ तथा उनको भी ] हँसा, [ और ] उठ कर [ उनको ] कलेजे से लगा ले । तीज-परष सौतिनु सजे भूषन बसन सरीर । सबै भरगजे-मुंह कैरी ईहीं मरगजें चीर ।। ३१५॥ मरगजे= मले दले, मलिन । ( अवतरण )-तीज का त्योहार है । नायिका ने पूर्व रात्रि मैं नायक के साथ रत्युत्सव का जागरण किया है । अतः वह आलस्य के कारण अभी तक पर्वोचित भूषण वसन धारण नहीं कर सकी है, अथवा प्रियतम के प्रस्वेद से भीनी हुई साड़ी के उसने, अति प्रिय होने के कारण, अभी तक नहीं बदला है । उधर उसकी संत ने नए नए वस्त्र तथा आभूषण धारण कर के अपने अपने शरीर सुसज्जित कर लिए हैं। पर इस नायिका की इसी मरगजा साड़ी से यह अनुमान कर के कि वही प्रियतम को परम प्रिय है, सभ के मुख फीके पड़ गए । इसी का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )-तीज के त्यौहार को [ इसकी ] सौतों ने भूषण वसन से [ अपने ] शरीर सजे, [ पर इसने] इसी मरगजे चीर से सभी को मरगजे-मुंह ( मलिन-मुख ) कर दिया । १. है कित रही ( ३ ) । २. तकति ( १ ), तकित ( २, ५ ) । ३. तिरी® ( ४ ) । ४. करे ( २ )। ५. इहे (३, ५) । ________________
१३ बिहारी-रत्नाकर गढ़-रचना, थरुनी, अलक, चितवनि, भौंह , कमान । आधु बँकाईहीं चदै, तरुनि, तुरंगम, तान ।। ३१६ ॥ ( अवतरण )–नायिका नायक पर अत्यंत आसक्त हो कर उसके अधीन हो रही है। सखी उसको आत्मगौरव की रक्षा के निमित्त शिक्षा देती है | ( अर्थ १ )-गढ़ की रचना, बरुनी, अलक, चितवन, भौंह [ तथा ] कमान ( धनुष ) का अाध ( अय, मोल, आदर ) बँकाई ही से चढ़ता है. [ और इसी प्रकार ] तरुणी (युवा स्त्री ), तुरंगम ( घोड़े ) [ और ] तान ( गाने में स्वरों के चढ़ाव उतार) का [ भी ] ॥ इस दोहे का सब टीकाकारों ने यही अर्थ किया है । पर इस अर्थ मैं तरुनि', ‘तुरंगम', 'तान', ये शब्द असंवद्ध से हो जाते हैं। अतः इसका अर्थ इस प्रकार किया जाय. तो अच्छा हो -- ( अर्थ २ )–गढ़ की रचना, बरुनी, अलक, चितवन, भौंह [ तथा ] कमान ( धनुष) पर आध ( अय, मोल, आदर ) बँकाई ही से चढ़ता है, [ तथा ] तरुणी ( युवा स्त्री ) [ एवं ] तुरंगम ( घोड़े ) पर तान ( खिंचाव ) से ॥ | इस अर्थ में 'तान' का अर्थ खिंचाव होगा । स्त्री पक्ष में खिंचाव का अर्थ आत्मगौरव के साथ अपने को लिए दिए रहना और नायक के अत्यंत प्रधान न हो जाना होगा । तुरंग-पक्ष में इसका अर्थ तन कर खड़ा होना होगा, जैसे कजई कस देने पर घोड़े तन कर ठाट से खड़े हो जाते हैं । इत अविति चलि, जाति उत चली, छसातक हाथ । चढ़ी हिंडोरै मैं रहै लगी उसासनु साथ ।। ३१७ ॥ छसातक = छ सात के अनुमान || हिंडोरे सैं = हिँडोले से किसी पदार्थ पर, मानो हिंडाले पर । ( अवतरण ) --विर; मैं नायिका की अत्यंत कृशता एवं उसके उच्छ्वास की प्रबलता का वर्णन सखी सखी से करती है-- ( अर्थ )-[ वह तन्वी नायिका विरह से ऐसी कृश हो रही है, और उसके उल्लास ऐसे प्रबल हो रहे हैं कि वह ] उच्छासों के साथ लगी हुई हिंडोले से [ किसी पदार्थ ] पर चढ़ी रहती है, छ सात हाथ के अनुमान ! कभी ] इधर चल कर आती है, [ और कभी ] उधर चली जाती है ॥ . डर न टरै, नींद न परै, हरै न काल-विपाकु । ' छिनकु छाकि उछकै न फिरि, खरौ विषम छषि-छाकु ॥ ३१८॥ * परै =शांत होता है। पड़ना क्रिया का प्रयोग शांत होने के अर्थ में अनेक वाक्यों में पाया जाता है, जैसे 'हवा पड़ गई ॥ काल-बिपाकु =नियत काल का पूरा होना । उछकै न= उछकता नहीं, उचटता १. बढे ( ३, ५ ) । २. श्रावत ( २, ३, ५) । ३. जात ( १, २, ३, ५) । ४. सी (४) ।
विहारी रखाकर नहीं, उतरता नहीं ॥ विषमु= सादृश्य-रहित, दुस्तर ।। छबि-छाकु= छवि को नशा, सौंदर्य देख कर चढ़ा हुआ प्रेम का नशा ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका को छवि का ऐसा नशा चढ़ा हुआ है कि वह क्षण मात्र अपने को सँभाल नहीं सकती । सखियाँ उसकी यह दशा देख कर आपस में कहती हैं ( अर्थ )-छवि ( सौंदर्य ) का छाक (नशा )[ और सब नशों से ] बड़ा विषम होता है । [ और नशों को स्थिर रखने के निमित्त घड़ी घड़ी पीना पड़ता है, पर यह नशा] क्षण मात्र छक लेने पर ( पी लेने पर ) फिर उछकता नहीं ( उतरता नहीं )। [ और नशे, अर्थात् भंग, मदिरादि के नशे, डर से उतर जाते हैं, पर यह ] डर से नहीं टलता। [और नशे नींद आ जाने पर शांत हो जाते हैं, पर यह ] नींद से [ भी ] नहीं पड़ता ( उतरता), [ क्योंकि इसमें नींद आती ही नहीं ]। [ और नशे नियत काल व्यतीत हो जाने पर हर जाते हैं, पर इस ] काल का विपाक [ भी ] नहीं हरता॥ रमन कह्यो हठि रमन कौं रतिबिपरीत-बिलास । चितई करि लोचन सतर, संलज, सरोसे, सहास ॥ ३१९ ॥ रमन=नायक ने ॥ हठि=हठ कर के ॥ रतिविपरीत-बिलास=विपरीत रति की क्रीड़ा में ॥ सतर= तर्जन-युक्त, तीखे ॥ ( अवतरण )-सखी को वचन सखी से ( अर्थ )--रमण ने हठ कर के [ नायिका से] विपरीत रति के विलास में रमने ( प्रवृत्त होने ) को कहा । [ तब नायिका ने अपने ] नेत्रों को सतर, सलज, सरोष [ तथा ] सहास कर के ( बना कर) नायक की ओर ] देखा ॥ 'करि' शब्द से कवि व्याजत करता है कि नायिका ने अपने लोचन को जान बूझ कर सतर, सशज, सरास तथा सहास बनाया। इससे किलकिंचित् हाथ व्यजित होता है ॥ चति सी चितवन चितै भई ओट अलसाई । फिरि उ*कनि कौं मृगनयनि दृगनि लगनिया लाइ ॥ ३२० ॥ पॅचति सी = अपनी ओर आकर्षित करती हुई सी । फिरि उझकनि क =फिर उझक,कर वह मुझे उसी ति देखे, इस बात के निमित्त । दृगनि-हमारी पाँचौं प्राचीन पुस्तकों में 'दृगनि' ही पाठ मिलता है, अतः यही पाठ यहाँ रक्खा गया है। किंतु इस संस्करण की परिपाटी के अनुसार इसे 'दृगनु' होना चाहिए । ज्ञात होता है कि 'लगनिया' के 'लगान' के अनुप्रास के लिए ही 'दृगनि' पाठ सन पुस्तकों में लिखी गया है। लगनिया=अभिलाषा, लगन ॥ ( अवतरण )-नायिका की चितवन पर आसक्त हो कर नायक उसकी खिड़की के नीचे, उसके फिर झाँक कर देखने की आशा जगाए, खड़ा है, और उसकी सखी अथवा अपने अंतरंग ससा से १. सगरब ( २ )। २. सलज ( २ ) । ३. चितवनि ( २ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[ वह ] मृगनयनी [ मुझे अपनी ओर ] खींचती हुई सी चितवन से देख कर, [ और मेरे ] दृगों में फिर उझकने के निमित्त लालसा लगा कर (इस बात की चाह लगा कर कि वह फिर उझके, तो मैं उसे देखें ), अलसा कर ओट में हो गई, [ तब से मैं उसकी खिड़की पर दृष्टि लगाए उसे फिर देखने की आशा से खड़ा हैं ] ॥ नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ ।। जतौ नाचौ है चलै, तेती ऊँचौ होइ ॥ ३२१ ।। नल-नीर= फुहारे के नल का पानी ।। गति = चाल, व्यवस्था । ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है ( अर्थ )-मनुष्य की तथा फुहारे के नल के जल की व्यवस्था एक ही कर के (एक ही सी ) देखो ( समझे)। [वह ] जितना नीचा ( १. नम्र । २. निम्नगामी ) दो कर चलता है, उतना [ ही ] ऊँचा ( १. श्रेष्ठ । २. ऊर्ध्वगामी ) होता है ॥ । भूषन-भारु सँभारिहै क्यों इहिँ तन सुकुमार । सूधे पाइ न धर परै सोभा हीं के भार ॥ ३२२ ॥
( अवतरण )-नायिका अपने यौवन तथा रूप की ऍड से लचकती हुई पाँव रखती है, जिससे सब क्रिया के करने में विलंब होता है। अतः दूती, जो उसको शीघ्र अभिसार कराया चाहती है, उसके सौकुमार्य की प्रशंसा करती हुई, बड़ी चातुरी से, उसको भूषणादि सजित करने के बछड़े में देर लगाने से वारण करती है-- | ( अर्थ )-[ तू ] इस सुकुमार तन पर भूषण का भार क्योँकर संभालेगी? [ तेरे ] पाँव [ तो ] शोभा ही के भार से धरा ( पृथ्वी ) पर सीधे नहीं पड़ते ॥
--- मुँह मिठासु, दृग चर्किने, भैहैं सरल सुभाइ ।
तऊ खरें आदर खरं खिन खिन हियौसकाइ ॥ ३२३ ॥ मिठासु–यह शब्द प्रचलित राष्ट्रभाषा में स्त्रीलिंग माना जाता है। पर बिहारी इसको पुलिंग मानते थे। इस दोहे में तो इसका पुलिंग होना केवल इसके उकारांत होने से लक्षित होता है, ओर ३६०३ दोहे में भी ऐसा ही है । पर ४७३वें अंक के दोहे में इसके साथ 'किती' तथा 'दय' शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनसे इसका पुलिंग माना जाना स्पष्ट हो जाता है। ३३७वें दोहे में इसका लिंग निर्धारित नहीं होता, और और किसी दोहे में यह शब्द आया ही नहीं है। ( अवतरण )-प्रौढ़ा सादरी धरा नायिका पति के सापराध देख कर उसका विशेष आदर कर के मान सूचित करती है। नायक उसके नए ढंग के आदर से शंकित हो कर कहता है ( अर्थ )-[ यद्यपि तेरे ] मुख में मिठास ( मीठा वचन ) है, नेत्र चिकने (स्नेह १. परत ( १ )। २. चिकनई ( ३, ५ ) । ३. हियँ ( ३, ५ )।
विहारी-रत्नाकर प्रकट करते हुए ) हैं, [ और ] भैहे स्वाभाविक रूप से सीधी (कोप से वक्र नहीं ) हैं, तथापि [ तेरे ] खरे ( विशेष, बहुत ) आदर से क्षण क्षण पर हृदय बहुत शौकत होता है॥ जदपि नाहिं नाहीं नहीं बदन लगी जक जाति । तदपि भौंह-हाँसीभरिनु हाँसीयै ठहराति ॥ ३२४ ॥ जक=रट । किसी बात को तार बाँध कर कहना जक लगना कहलाता है ॥ ( अवतरण )–नायक ने मध्या नायिका का हाथ रति-क्रीड़ा के निमित्त पकड़ लिया है। नायिका यद्यपि तज्ञावश मुख से नहीं नहीं करती है, तथापि, उसकी भौंहाँ पर हँसी होने के कारण, उसकी वह नहीं नहीं हँसी ही, अथवा हाँ सी ही, प्रतीत होती है। सखी-वचन सखी से | ( अर्थ )-यद्यपि [उसके] वदन ( मुख ) में नहीं नहीं नहीं की जक लगी जाती है, तथापि [ उसकी ] हँसी-भरी भौंहों से ( भौंहों के कारण )[ वह नहीं नहीं' की रट ] हाँसी ही ( परिहास ही अथवा हाँ सी ही ) ठहरती है ( निर्धारित होती है ) ॥ छुटन न पैयर्तुं छिनकु बसि, नेह-नगर यह चाल । मायौ फिरि फिरि मारियै, खुनी फिरै खुस्याल ।। ३२५ ।। खुनी ( फ़ा० खूनी )= खून करने वाला, अर्थात् किसी को मार डालने वाला ॥ खुस्याल ( फ़ा० खुशहाल ) = सुखी अवस्था में ॥ ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका अपनी लगन की व्यवस्था, नायक को सुना कर, सखी से कहती है ( अर्थ )-स्नेह-रूपी नगर में यह [ सर्वथा निराली ] चाल है [ कि इसमें ] क्षण मात्र बस कर [ फिर जन्म भर ] छूटने नहीं पाया जाता, [ और ] मारा हुआ ( प्रेम-पात्र की चितवन-कटार से घायल किया गया ) [ तो इस नगर के शासक मदन महाराज के द्वारा] फिर फिर मारा जाता ( दंड पाता, कष्ट पाता ) है, [ किंतु ] खूनी ( घातक ) रखुशहाल ( प्रसन्न अवस्था में )[ स्वतंत्र ] फिरा करता है [ अन्यायी मदन महाराज उसे, कष्ट पहुँचाने की कौन कहे, पकड़ते तक नहीं, अर्थात् छूते तक नहीं ] ॥ - --- ---- चुनरी स्याम सतार नभ, मुंह ससि की उनहारि ।। ने दबोधतु नींद ल निरखि निसा सी नारि ॥ ३२६ ॥ सतार= तारों के सहित । उनहारि= सदृश । यह शब्द संस्कृत शब्द अनुहार से, जिसका अर्थ समान है, बन गया है । ( अवतरण )-नायक ने किसी स्त्री को श्याम चूनरी पहने देख लिया है। तब से वह, १. जाहि (३, ५) । २. भरी (२, ४)। ३. ठहराहि ( ३, ५) । ४. पैयै ( २ ) । ५. मुख ( ३, ५ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर उसके स्नेह में, सब सुधियुधि भूला हुआ है । अपनी यही व्यवस्था वह दूती अथवा नायिका की किसी सखी से कहता है (अर्थ)-श्याम चुनरी से तारों के सहित आकाश की [ तथा ] मुख से शशि की अनुहारि ( सहश) [ उस] निशा सी नारी को देख कर स्नेह नींद की भाँति दबा लेता है ( सुधिबुधि भुला देता है ) ॥ कहत सबै, बँदी दियँ आँकु दसगुनी होतु । तिय-लिलार बँदी दियँ' अगिनितु बढ़तु उदोतु ॥ ३२७ ॥ ऑकु ( अंक ) = गिनती लिखने के निमित्त सांकेतिक अक्षर ॥ उदोतु ( उद्योत ) =(१) प्रकाश, शोभा । (२) अंक का अभिप्राय अर्थात् मूल्य ॥ ( अवतरण )-बँदी देने से नायिका के मुख की शोभा अत्यंत बढ़ गई है। इसी के विषय में नायक स्वगत कहता है ( अर्थ )—सभी [ लोग ] कहते हैं, बँदी देने से अंक [ का मुख्य ] दसगुना हो जाता है।[पर यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही है कि इस] स्त्री के ललाट पर बँदी देने से उद्योत ( १. कांति । २. अभिप्राय } अगणित [गुना ] बढ़ जाता है । तर झरसी, ऊपर गरी कज्जल-जल छिरकाइ । पिय पाती बिन हीं लिखी बाँची बिरह-बलाइ ॥ ३२८॥ गरी = गली हुई ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका ने नायक के पास जो चिट्ठी भेजी है, उसमें वह अपमा एक विकलता के कारण पूर्णतया नहीं लिख सकी है । चिट्ठी लिखते समय उसके हाथ के साप से अराज़ नीचे की ओर झुलस गया है, और कज्जल-मिश्रित अश्रुओं के गिरने से ऊपर की ओर गल गया है। इन बात से नायक ने विना लिखी हुई विरह-व्यथा का अनुमान कर लिया है। सखी-वचन सखी से (अर्थ)-नीचे | विरह-ताप से ] झुलसी हुई, [ तथा ] ऊपर कज्जल के जल से छिरकी जा कर गली हुई पत्रिका में विना लिखी हुई ही विरह की विपत्ति प्रियतम ने बाँय ली ( अनुमानित कर ली )॥ । इस दोहे का पूर्वार्ध ‘पाती' का विशेषण मात्र है। ‘बिन हीं लिखी', यह वाक्यांश 'विरबखाह' का विशेषण है। 'पिय' शब्द 'बाँची' का तृतीयांत कर्ता एवं 'विरह-बलाइ’ उसका प्रथमांत | सोरठा विरह सुकाई देह, नेहु कियौ अति डेहडहौ। जैसे बरसैं मेह जरै जवास, जौ जमै ॥ ३२९ ॥ १. छगत (१) । २. लिनँ (२) । १३८ बिहारी-रत्नाकर उहड़हौ =हराभरा ॥ जवासौ = एक प्रकार की घास, जो पानी बरसने पर जल जाती है । जौ ( जव ) = जपा, गुड़हर । इस शब्द का अर्थ किसी ने जड़ कर के यह अर्थ किया है कि जवासे की डाल और पत्तियाँ तो जल जाती हैं, पर उसकी जड़ जम, अर्थात् पुष्ट हो जाती है । इस अर्थ में एक ही वृक्ष के एक अंग का जलना और दूसरे अंग का जमना सिद्ध होता है । पर देह और नेह में वह संबंध नहीं है, अतः यह अर्थ असंगत है । किसी ने, 'ज' का अर्थ यत्र मान कर, इस दोहे पर काल-विरुद्ध दूषण का आरोप किया है, क्योंकि जवासा ग्राषाढ़ में जलता है, अॅार यव कार्तिक में जमता । बिहारी को यव के जमने का काल न ज्ञात रहा होगा, यह मान लेना युक्ति-युक्त नहीं प्रतीत होता । अतः ‘ओं' का अर्थ जवा अर्थात् जवाकुसुम अथवा जपाकुसुम ही करना संगत हैं। जपाकुसुम का रंग भी लाल होता है, अतः स्नेह ( अनुराग ) के डडहे होने का दृष्टांत जपा वृक्ष के लहलहाने से देना परम समीचीन हे । यद्यपि जपाकुसुम पानी इत्यादि देते रहने से और ऋतुओं में भी कुछ कुछ झूलता रहता है, पर इसका वृक्ष स्वभावतः ग्राषाढ़ का भेह बरसने पर ही हराभरा हो कर विशेष रूप से फूलता है, अॅार उसके नए पौधे भी विशेषतः उसी समय जमते हैं ॥ ( अवतरण )-प्रोतिपतिका नायिका विरह से अत्यंत क्षीण हो रही है, पर उसका स्नेह और भी लहलहा रहा है। उसकी यह दशा सखिया आपस में अथवा कोई सखी नायक से कहती है ( अर्थ )-विरह ने [ उसकी ] देह सुखा डाली है, [ और उसके ] स्नेह को अत्यंत डहडहा कर दिया है, जैसे भेह बरसने से जवासा जल जाता है, [ और ] जौ ( जवा, जपाकुसुम ) जमता है ( उग आता है, नए कल्लों से संपन्न हो कर फूल उठता है ) ॥ ॐ दोहा छ । देख सो न, जु ही फिरत सोनजुही मैं अंग । दुति-लपटनु पट सेत हूँ कति बनौटी रंग ।। ३३० ॥ बनौट रंग = कपासी रंग । बन एक प्रकार के कपास को कहते हैं, जिसका फूल हलका पीला होता है। उसी के फूल के रंग के सदृश रंग को कपासी अथवा बनौटी रंग कहते हैं । | ( अवतरण )-किसी दूत ने नायक से नायिका की शरीर-कांति की प्रशंसा की थी, और फिर उसे किसी वाटिकादि मैं भ्रमण करते दिखला भी दिया था। अब वह नायक से कहती है कि अब तो तुमने उसे देख ही लिया, मेरी की हुई प्रशंसा ठीक थी न ? | ( अर्थ )-[ अब तो तुमने ] वह [ नायिका ] देख न ली, जो सोनजुही के सदृश अंग से कांति की लपटों ( झलकों ) के द्वारा [ अपने ] स्वेत पट को भी बनौट रंग का करती हुई फिरती थी ॥ बढ़त बढ़त संपति-सलिलु मन-सरोजु बढ़ि जाइ । घटत घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ ॥ ३३१ ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है( अर्थ )—संपत्ति-रूपी सलिल बढ़ते बढ़ते मन-रूपी कमल बढ़ जाता है । [ किंतु ] १. लपटत ( ३, ५) । २. होत केसरी ( ३, ५ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर १३॥ फिर वह [ उसके ] घटते घटते घटता नहीं, प्रत्युत समूल ( मूल-सहित ) कुम्हिला जाता है ( नष्ट हो जाता है ) ॥ ह्याँ न चलै, बलि, रावेरी चतुराई की चाल । सनख हियँ खिने-खिन नटत अनख बढ़ावत, लाल ॥ ३३२॥ ( अवतरण )-प्रौढ़ा खंडिता अधीरा नायिका का वचन नायक से ( अर्थ )-हे लाल, मैं आपकी बलि गई, यहाँ ( मेरे आगे) आपकी चतुराई की चाल ( ढंग ) न चलेगी। सनख हृदय से (नख-क्षत-युत हृदय होने पर भी ) क्षण क्षण पर नटते ( मुकरते ) हुए [ आप मेरी ] अनख ( क्रोध ) बढ़ाते हैं ॥ डीठ न परतु समान-दुति कनकु कनक मैं गात । भूषन कर करकस लगत परंसि पिछाने जात ॥ ३३३ ॥ ( अवतरण )—सखी नायक से नायिका के शरीर की दीप्ति की प्रशंसा करती है ( अर्थ )-[ उसके ] कनक से गात्र में समान दुति याला सोना दिखलाई नहीं पड़ता (उसके सुनहले रंग में वैसे ही रंग का सेना छिप जाता है)। [ पर] हाथ में कर्कश लगते हुए भूषण स्पर्श कर के पहचाने जाते हैं ॥ करतु मलिन अाछी छबिहिँ, हरतु जु सहज बिकासु। अंगरागु अंगनु लँगै, ज्य आरसी उसाँसु ॥ ३३४ ।। अंगरागु = मृग-मद: चंदन, केसर इत्यादि से बनाया हुया सुगंधित लेप विशष ॥ ( अवतरण )--सखी नायिका के शरीर का विमलता की प्रशंसा नायक से करती है ( अर्थ )-अंगराग [ उसकी ] अच्छी छवि को मालन कर देता [ तथा उसका ] जो स्वाभाविक विकास (प्रकाश ) है, [उसको ] हर लेता ( छिपा लेता ) है; [ उसके ] अंगों में [ वह ऐसा ] लगता है ( प्रतीत होता है ), जैसे अरसी में [ लगा हुआ ] उच्छास [ प्रतीत होता है ] ॥ । पहिरि न भूषन कनक के, कहि आवत इहिँ हेत । दरपन के से मोरचे, देह दिखाई देत ॥ ३३५॥ मोरचे = लोहे के किसी पदार्थ पर नमी पहुंचने से जो मैल सा जम जाता है, उसे मोरचा कहते हैं । प्राचीन काल में दर्पण लोहे पर जिला कर के बनाया जा था। अतः उसमें नमी से मोरचा लग जाता था। कभी कभी लोहे इत्यादि के संसर्ग से कांच के दर्पण पर भी मीरचा लग जाता है ।। १. राउरी ( ३, ५) । २. सन-खन ( १, २, ४) । ३. दीठि ( ;) । ४. परस ( १, ३, ४, ५ ) । ५. सु ( १ ) । ६. सगैं (१, लग्यो (४, ५ ) | ७. उजास ( १, ३, ५ ) । १४० विहारीरत्नाकर ( अवतरण)-दूत नायिका से शीघ्र अभिसार कराना चाहती है, अतः बड़ी चतुराई से उसकी भूषण सजित करने में देर लगाने से वारण करती है--- | ( अर्थ )-[ तु] कनक के भूषण मत पहन, [ यह वाक्य ] इस हेतु कहने में आता है [ कि तेरे ] शरीर में [ सोने के गहने] दर्पण के मोरचे से दिखाई देते हैं ( अर्थात् तेरे शरीर की कांति के सन्ख कनक मलिन जान पड़ता है, अतः कनक के भूषण तेरे शरीर पर ऐसे जात होते हैं, जैसे दर्पण पर लगे हुए मोरचे ) ॥ जदपि चवाइनु चकनी चलति यहँ दिसि सैन । तऊ न छाड़त दुहुनु के हँसी रसीले नैन । ३३६ ॥ चाइनु चीकनी=चवाव से चुपड़ी हुई, भरी हुई ॥ सैन= संज्ञा, इशारा ॥ ( अवतरण )- यद्यपि लोग नायक नायिका का प्रेम ताड़ गए हैं, और इस विषय में परस्पर सनकी मटकी किया करते हैं, तथापि सामना होने पर वे दोन मुसकिरा ही देते हैं। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-यद्यपि चवावों से भरी हुई सैन चारों ओर चलती है, तथापि दोनों के रसीले ( प्रेम-भरे ) नयन [ सामना होने पर ] हँसी ( हँस देने का स्वभाव ) नहीं छोड़ते ॥ अनरस हूँ रसु पाइयतु, रसिक, रसीली-पास ।। जैसैं साँठे की कठिन गाँव्यौ भरी मिठास ।। ३३७ ॥ साँठे= इसका अर्थ सभी टीकाकारों ने ईख किया है । अवध-प्रांत में साँठा अथवा सँठा सरकंडे को कहते हैं, पर यह अर्थ यहां संगत नहीं होता । ज्ञात होता है कि यह शब्द शर्कराकांड का विकृत रूप है ॥ | ( अवतरण )–नायिका न मान किया था। जब वह मनाने से न मानी, तो नायक उसके यहाँ से चला आया। अब उसकी दूती नायक को समझा कर फिर नायिका के यहाँ खाया चाहती है| ( अर्थ )-हे रसिक, रसीली के पास अनरस (१. रोष के समय । २. रसहीन स्थान) में भी रस ( १. आनंद । २. स्वाद ) पाया जाता है, जिस प्रकार साँठे (ऊख ) की कठिन ( कड़ी ) गाँठ भी मिठास से भरी होती है ॥ गोरी छिगुनी, नखु अरुनु, छला स्यानु छबि देइ ।। लहत मुकति रति पलकु यह नैन त्रिबेनी सेइ ॥ ३३८॥ छिगुनी = कनिष्ठिका अँगुली ।। मुकति रति =रति-रूपी मुक्त, अर्थात् ऐसी प्रीति, जो चित्त को संसार के सब कामों से छुड़ा देती है ।। ( अवतरण )-नायक ने नायिका की कामी अँगुली मैं नीलम-जटित बला देखा है, सो उसकी शोभा पर आसक्त हो कर स्वगत अथवा नायिका की सखी से कहता है १. गाँठे ( २, ४, ५ ) । ________________
विवारी-रखाकर १५१ (अर्थ)-[ उसकी ] गरी छिगुनी, अरुण नख, [ एवं नीलम का ] श्याम छल्ला [ये तीनों मिल कर कैसी ] छवि देते हैं ! यह (इनसे बनी हुई ) त्रिवेणी क्षण मात्र सेवन कर के नयन रति-रूपी मुक्ति प्राप्त करते हैं ( अर्थात् इनको क्षण मात्र देख कर नयन प्रीति में ऐसे निमग्न हो जाते हैं कि संसार से छुटकारा पा जाते हैं ) ॥ उर मानिक की उरबसी डटत घटतु दृग-दागु । छलकतु बाहिर भरि मनौ तिय-हिय-अनारा ।। ३३९ ॥ दागु ( दग्ध )= दाह । तिय-हियको-अनुरागु= स्त्री-संबंधी हार्दिक अनुराग ॥ ( अवतरण )--नायक ने भूषण वसन का विपर्यय कर के अन्य स्त्री के साथ विहार किया था। प्रातःकाल उसने सब वेष तो बदले, पर वह उरबसी उतारना भूल गया, और उसे पहने ही इस नायिका के यहाँ चला आया । सो खाडता नायिका उसे देख कर कहती है | ( अर्थ )-[ तुम्हारे ] उर पर को मानिक की उरबसी पर [ जिसको मैं पहचानती हैं ]डटते हुए (ठहरते हुए) [मरे ] नेत्रों का 'दाग' (दाह, जो अब तक तुम्हें न देखने के कारण हो रहा था ) घरता है । [ यह ऐसो शोभा देती है ] मानो [ उस] स्त्रीविषयक [ तुम्हारे] हृदय का अनुराग, भर कर ( परिपूर्ण हो कर ), बाहर छलक रहा है । ‘घटतु' का अर्थ यहाँ विपरीत लक्षणा से ‘बढ़नु' समझना चाहिए । ‘तिय-हिय-अतुरगु', इस समस्त पद मैं कुछ विजक्षणता है, और इसी से इस दोहे के अर्थ मैं कठिनता पड़ती है । वास्तव में ‘अनुरागु' शब्द का संबंध ‘तिय' शब्द के साथ है । तिय-अनुराग, अर्थात् सिय-विषयक अनुराग, तो सामान्य समास है । पर 'अनुरागु' शब्द का विशेषण ‘हियो’ "तिय' तथा 'अनुरागु' के बीच में आ गया है, जिससे कुछ विलक्षणता प्रतीत होती है । सहज सेत पँचतोरिया पहिरत अति छवि होते। जलचादर के दीप लौं जगमगाति तन-जोति ।। ३४० ॥ सहज = सामान्य अर्थात् जिसमें फूल, बूटे इत्यादि नहीं बने हैं ॥ पंचतेरिया ( पॅसतोलिया, अर्थात् पाँच ताशे का )-एक प्रकार का बहुत महीन कपड़ा ऐसा हलका बनता है कि उसकी एक पूरी साड़ी तौल में केवल पाँच तोल भर होती है । इसी को पंचतोलिया कहते हैं। उर्दू में इसका नाम अबेरवाँ है ॥ जलचार-धतिका के किसी किसी उद्यान में किसी ऊंचे स्थान से जल का झाना तथा विस्तृत प्रवाह गिराया जाता है । यह जलचादर कहलाता है। किसी किसी जलचादर के पीछे गवाक्ष बना कर उनमें दीपकों की पंक्ति जला दी जाती है । रात्रि के समय जलचादर के पीछे से वह जगमगाती हुई दीपावली बड़ी शोभा देती है। इसी दीपावली को बिहारी ने 'जलचादर के दीप' कहा है ॥ ( अवतरण ) सखी नायक से नायिका के शरीर की शोभा का वर्णन कर के न जाती है ( अर्थ )-सामान्य श्वेत पँचतोलिया [ साड़ी ] पहनने से [उसकी ] छवि अति १. झलकतु ( २, ३, ५)। २. दुति (४) । ३. तनु ( ३, ५ )।
१४२ विहारी-रत्नाकर (कुछ विशेष ) होती है। जलचादर के [ पीछे रक्खे हुए ] दीपकों की भाँति [ उसके ] तन की ज्योति जगमगाती है । कोरि जतन कोऊ करौ, परै न प्रकृतिहिँ बीचु । नल-थल जलु ऊचें चढ़े, अंत नीच कौ नीचु ॥ ३४१ ॥ वीचु = भेद, अदल बदल ।।। ( अवतरण )–वि की प्रास्ताविक उक़ि है कि जिसका जो स्वभाव होता है, वह यन्न करने से भी नहीं बदलता ( अर्थ )-कोई कोटि यत्न किया करो, [पर प्रकृति में भेद नहीं पड़ता । [ देखो, ] नल के वल से [ यद्यपि फुहारे का ] जल उँचाई पर चढ़ता है, [ तथापि ] अंत को नीच का नीच ही [ होता है, अर्थात् फिर नीचे ही गिरता है ] ॥ लगत सुभग सीतल किरन, निसि-सुख दिन अगाहि । माह ससी-भ्रम सूर-त्यौं रहति चकोरी चाहि ॥ ३४२ ॥ सुभग= कोमल, सुकुमार, सुंदर ।। अवगाहि= डूब कर, निमग्न हो कर ॥ माह =माघ मास ॥ त्य ( तनु ) = ओर, दिशि ।। ( अवतरण )-कवि माघ महीने के तीव्रताप-रहित सुखद सूर्य का वर्णन करता है ( अर्थ )--सुभग [ तथा ] शीतल किरणों के लगते हुए ( लगने से ), दिन को रात्रि के सुख में निमग्न हो कर, माघ [ मास ] में, चकोरी चंद्रमा के भ्रम से सूर्य की ओर घाह रहती (देखा करती ) है ॥ तपैन-तेज, तपु-ताप तपि, अतुल तुलाई माँह। सिसिर-सीतु क्याँहुँ न कंटै बिनु लपटें तिर्य नाँह ॥ ३४३ ॥ तपन = सूर्य । तपु ( तपुस्) = अग्नि । तपि = तप कर ।। अतुल = जो तौली न जा सके, अर्थात् बहुत भारी ।। तुलाई = रजाई, सौड़ ।।। ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी कहती है कि शिशिर ऋतु का शीत विना स्त्री पुरुष के लिपटे किसी प्रकार नहीं कटता, अतः ऐसी ऋतु मैं मान करना उचित नहीं है ( अर्थ )-शिशिर का शीत, स्त्री पुरुष के लिपटे विना, तपन के तेज [ अथवा ] तपु १. ऊँचौ ( २, ३, ५ ) । २. अंति ( १, ५ ) । ३. निसि दिन सुख अवगाह ( २, ४) । ४. ज्यो (४)। ५. तनत तेज तप ताप ते ( १ ), तपन तेज तपि तापि तपि ( २ ), तपन तेज तापन तपति ( ३, ५), तपन तेज तपता तपति ( ४ )। ६. तूल ( २ ) । ७. ससिर ( २, ३, ५ ) । ८. घटै ( २ ), मिटै ( ३, ५ )। ६. उर ( २ ), पिय-बाँहि ( ३, ५ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर १४३ (अग्नि ) के ताप से तप कर, [ अथवा ] बहुत भारी रज़ाई मैं [ दबकने से ] किसी प्रकार नहीं कटता ॥ रहि न सकी सब जगत मैं सिसिर-सीत कै त्रास ।। गरम भाजि गढ़वै भई तिय-कुच अचल मवास ॥ ३४४ ॥ गरम = गरमी ।। गढ़वै =गढ़वर्तिनी ॥ मवास = समरक्षित तथा अभेद्य वासस्थान ।। ( अवतरण )-शिशिर ऋतु के वर्णन में किसी भुंगारी पुरुष की उकिं है ( अर्थ )--शिशिर के शीत के डर से गरमी सब जगत् में [ और कहीं ] नहीं रह सकी, [ अतः वह ] भाग कर स्त्री के कुच-रूपी अचल मवास ( अभेद्य शरणालय ) में ‘गढ़वै' ( गढ़-निवासिनी ) हो गई ( अर्थात् उष्णता अब केवल स्त्रियों के कुचों में मिल सकती है)। झूठे जानि न संग्रहे मन मुह-निकसे बैन । याहीतै मानहू किये बात क विधि नैन ।। ३४५ ॥ झूठे = यह शब्द संस्कृत शब्द 'जुष्ट' से बना है, जिसके दो अर्थ होते हैं-( १ ) सुखद, मनोरंजक, सुहावन इत्यादि । ( २ ) उच्छिष्ट भोजन । भाषा में यह शब्द 'झूठ' अथवा 'झूट' रूप से मीठे, मनोरंजक किंतु मिथ्या वचन के अर्थ में प्रयुक्त होता है, और 'झूठ' अथवा 'जूठ' रूप से उच्छिष्ट भोजन के अर्थ में । विहारी ने यहाँ इन दोनों ही प्रथा में ‘झूठे' शब्द का प्रयोग किया है । मुख से निकले हुए, अर्थात् उगले हुए, होने के कारण वचनों को झूठा, अर्थात् उच्छिष्ट, कह कर श्लेष-बल से उनका झूठा, अर्थात् मिथ्या, होना भी कह दिया है। क्योंकि मुख से कहे हुए वचन बहुधा मिथ्या भी होते हैं । इस श्लेष से उनका अभिप्राय यह है कि मुख के वचन, जो कि प्रायः मिथ्या होते हैं, उच्छिष्ट भोजन के समान हैं, अतः उनका संग्रह मन ने नहीं किया ॥ न संग्रहे::: सादर ग्रहण नहीं किए, अर्थात् विश्वास-योग्य नहीं समझे ॥ बात की। ( १ ) वृत्तियों के निमित्त, जीविका के निमित्त । ( २ ) बात के निमित्त ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रौढोकि है कि संसार मैं झूठ बोलने का प्रचार अधिक हो गया है। अतः अब मन वचनों की प्रतीति नहीं करता । मन के सच्चे भाव अाँख से प्रकट होते हैं । ( अर्थ )-मुंह से निकले हुए वचन मन ने झूठे (१. उच्छिष्ट भोजन ।२. मिथ्या) समझ कर संग्रह नहीं किए [ १. उन्हें अपने काम का नहीं समझा । २. उन पर भरोसा नहीं किया )। माने। इसी कारण ब्रह्मा ने [ सच्ची ] ‘बातनु' ( १. जीविकाओं । २. बातों ) के निमित्त नयन बनाए हैं। सुघर-सौति-बस पिउँ सुनत दुलहिनि दुगुन हुलास । लखी सखी तन दीडि° करि सगरब, सलज, सहास ॥ ३४६ ॥ १. गई ( ३ ) । २. जूठे (१) । ३. मानो ( ३, ५) । ४. बिधि वातनु क ( ३, ५ ) । ५. पिय ( २, ३, ५) । ६. डीठि ( २, ४, ५)।
१४४ विहारी-रत्नाकर (अवतरण )- नई ब्याह कर आई हुई, रूप-गुण-गर्विता नायिका ने नायक को सुघर सौत के वश में सुन कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की । कारण, उसने सोचा कि यदि नायक को सुधर जी के वश में होने की बान हैं, तो मैं उसे अवश्य ही अपने वश में कर लँगी, क्र्योंकि मुझसे बढ़कर सुंदर सथा सुधर कौन हो सकती है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )--प्रियतम को सुघर सौत के वश में सुन कर दुलहिन ने दूने हुलास (उमंग) से [ अपने ] शरीर पर सगर्व (अभिमान-सहित ), सलज ( लज्जा-युक्त ) [ तथा ] सहास (मुसकिराहट के साथ ) दृष्टि डाल कर सखी को देखा ॥ ‘सगरब' से सौंदर्य, सलज' से यावन का ज्ञान तथा 'सहास' से सौस के गुण का उपहास व्यंजित होता है ॥ लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर । भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर ।। ३४७ ॥ सबी (अरबी शबीह )= यथार्थ चित्र ॥ गरब गरूर = इस युग्म प्रयोग में टीकाकारों ने प्रायः अर्थपुनरुक्ति समझ कर कई युक्तियों से उसके परिहार की चेष्टा की है । पर हमारी समझ में उन युक्तियों की कोई आवश्यकता नहीं । भाषा में एक ही, अथवा कुछ भिन्न, अर्थ वाले दो शब्दों के एक साथ प्रयोग करने की प्रथा बहुत पुरानी है । इस समय भी ऐसे युग्मों का प्रयोग बहुतायत से होता है, जैसे राजा राव, इष्ट मित्र, गाँव गिराइँ, भाई बंधु, हवा बयार, पान पत्ता, जान पहचान, काम काज इत्यादि । कभी कभी ऐसे युग्मों में एक शब्द भारती भाषा का तथा दूसरा फ़ारसी अथवा अरबी का होता है, जैसे राज रियासत, धन दौलत, बाजार हाट, गली कूचा, राम रहीम, भाई बिरादर, गए गुजरे, हरबा हथियार इत्यादि । इसी प्रकार ‘गरब' ( गर्व ) भारती तथा 'गरूर' ( गुरूर ) अरबी शब्दों का युग्म इस दोहे में प्रयुक्त किया गया है। इस प्रयोग में न तो पुनरुक्ति दूषण है, और न ‘गरूर' शब्द का अर्थ मगरूर ( गुरूर वाला ) करने की कोई आवश्यकता ।। कुर-भाषा में यह शब्द संस्कृत के दो भिन्न भिन्न शब्दों से बनता है-एक तो क्रर रो, जिसका अर्थ निदय होता है, और दूसरे कुट्ट धातु से, जिसका अर्थ कुटी हुई, अर्थात् विदलित, बुद्धि वाला होता है। इस दोहे में ‘क्रर' का अर्थ है, विदलित अथवा विकृत बुद्धि वाले ॥ ( अवतरण )-अंकुरितयौवना नायिका की सखी नायक से उसके क्षण क्षण पर बढ़ते हुए यौवन तथा शरीर-कांति की प्रशंसा यह कह कर करती है कि बड़े बड़े चतुर चितेरे भी इस समय उसका यथार्थ चित्र नहीं बना सकते, क्योंकि उसकी शोभा प्रतिक्षण ऐसी बढ़ती जाती है कि जब कोई चितेरा उसका चित्र बना कर उससे मिलता है, तो, इतने ही समय मैं उसके शरीर में परिवर्तन हो जाने के कारण, वह चित्र उससे नहीं मिलता । अतः उस चितेरे को मूढ़ बनना पड़ता है ( अर्थ )-[ भला मैं बेचारी उसकी तिक्षण बढ़ती हुई शोभा का वर्णन क्या कर सकती हैं,] जिसको यथार्थ चित्र लिखने के निमित्त घमंड [ तथा ] अभिमान से भर भर कर बैठ जगत् के कितने चतुर चितेरे कूर ( मूढ़मति ) नहीं हुए ( ठहरे ) ॥ ________________
विहारी-राकरे डुनहाई सब टोल मैं रही जु सौति कहाई । सु हैं ऐच प्य अपु-त्य कर अदोखिल अहि ॥ ३४८ ॥ टुनहाई-टोना अर्थात् जादू करने वाली ।। टोल= मंडली ॥ अदोखिल=निर्दोष, दोष-रहित ॥ ( अवतरण )- इधर उधर की बातें सुन कर नायिका को नायक के सौत पर अनुरक़ होने का कुछ संदेह हुआ है, अतः सखी उस संदेह के दूर करने के निमित्त कहती है कि तेरे अाने के पहले तो अवश्य नायक का तेरी सौत के वश में होना टोल भर में प्रसिद्ध था, जिससे तेरी सौत को सब टुनहाई होने का दोष लगाती थीं । पर जब से तू आई है, तब से तो नायक तेरे रूप गुण से आकर्षित हो कर सौत की बात भी नहीं पूछता, अतः अब उस बेचारी के टुनहाई होने का दोष मिट गया:| ( अर्थ )-[तेरी ] सौत जो सब टोल में [ प्रियतम को अपने वश में कर रखने के कारण | दुनहाई कहला रही थी, सो [ उसको ] तूने आ कर, [ और ] प्रियतम को अपनी ओर खींच कर ( अनुरक्त कर के ) दोष-रहित कर दिया ॥ दृगनु लगत, बेधत हियहि बिकल करत अंग आन । ए तेरे सब हैं” बिषम ईछन-तीन बान ॥ ३४९ ॥ आन= अन्य, दूसरे ॥ ईछन ( ईक्षण ) = दृष्टि । ( अवतरण )नायिका की दृष्टि से घायल हो कर नायक विकल हो रहा है। नायिका से उसकी दशा निवेदित करने के निमित्त सखी यह दोहा, भूमिका-रूप से, पढ़ती हैं, जिसमें नायिका पूछे कि मेरे नेत्र ने किसको घायल किया है, और तब सब वृत्तांत कहने का अवसर प्राप्त हो, क्याँकि किसी के पूछने पर कोई बात कहने से उसका प्रभाव अधिक पड़ता है ( अर्थ )ये तेरे कटाक्ष-रूपी तीक्ष्ण बाण सबसे ( और सब बाणों से ) विषम (विलक्षण, तीव्र ) हैं । [ ये ] लगते तो इगों में हैं, [ पर ] बेधते हृदय को हैं, [ और ] विकल करते हैं। अन्य | सब ] अंगों को ॥ पीठि दिये हीं, नैंक मुरि, कर पूँघट-पटु टारि । भरि, गुलाल की मुठि सौं, गई मुठि सी मारि ॥ ३५० ॥ भरि= पूर्ण कर के अर्थात् अधभरी मूठ से नहीं, प्रत्युत मूठ को भली भाँति भर कर । भरि को अन्वय इस दोहे में कुछ कटिन है । इसमें मुख्य वाक्य ‘गई मूठि सी मारि' है । ‘गुलाल की मूठि सौं' वाक्यांश 'मारि गई' क्रिया का क्रिया-विशेषण है, और ‘भरि' भी उसी क्रिया का एक स्वतंत्र क्रिया-विशेषण है। इस दोहे के उत्तरार्ध का अन्वय इस प्रकार करना चाहिए-- गुलाल की मूठि सौ मूठि सी मारि गई भरि [ है ] ॥ बढि-तंत्रशास्त्र के अनुसार एक प्रयोग मूठ चलाना अथवा मूठ मारना कहलाता है । इसमें तिल, यव इत्यादि, मुट्ठी में भर कर एवं अभिमंत्रित कर के, जिस व्यक्ति पर प्रयोग करना होता है उसकी ओर, अथवा उसका नाम ले कर, फेंका जाता है । इससे मारण, मोहन इत्यादि प्रयोग होते हैं। जो प्रयोग करना होता १. हनिहाई ( १, २ ) । २. पिय ( २ ) । ३. तन ( २ )।
विहारी-रत्नाकर है, उसी के अनुसार मुट्ठी में पदार्थ लिया जाता है। इस दोहे में गुलाल की मूठि सौ गई मूठि सौ मारि' कहा गया है, जिससे अनुराग उत्पन्न करने के निमित्त मूठ का चलाना व्यंजित होता है । ( अवतरण ) -- नायिका ने नायक पर जिस भाव से गुलाल की मूठ चलाई है, उसका वर्णन नायक, उसकी सखा अथवा अपने अंतरंग सखा से कर के, उससे मिलाने की युक्कि करने की प्रार्थना करता है | ( अर्थ )-[ वह मेरी ओर ] पीठ दिए ही ( विना मेरे सन्मुख हुए ही ), किंचिन्मात्र मुड़ कर, [ तथा एक ] हाथ से बूंघट के पट को टाल कर ( कुछ हटा कर ) गुलाल की मूठ से, भर कर, मूड सी मार गई । गुनी गुनी सबकैं कहैं निगुनी गुनी न होतु । सुन्यौ कहूँ तरु अरक हैं अरक-समानु उदोतु ॥ ३५१ ॥ तरु अरक ( तर अर्क )= तरु-रूप-धारी अर्क अर्थात् मदार का वृक्ष । ( अवतरण )-कधि की प्रास्ताविक उक्रि है कि निर्गुणी मनुष्य लोगों के गुणी गुणी करने से गुणी नहीं हो सकता .. ( अर्थ )—सवके गुणी गुणी कहने से निर्गुणी गुणी नहीं हो जाता । [ क्या अर्क कहलाने ही से ] कहीं तरु अर्क ( वृक्ष वाले अर्क अर्थात् मदार ) से अर्क ( सूर्य ) के समान प्रकाश सुना गया है। छुटत मुठिनु सँग हाँ छैटी लोक-लाज, कुल-चाल । लगे दुहुनु इक ओर ही चल चित, नैन गुलाल ॥ ३५२ ॥ ( अवतरण )-फाग के खेल में नायक नायिका परस्पर अनुरक्र हो गए हैं। उसी का वर्णन सखियाँ आपस मैं करती हैं | ( अर्थ )-[गुलाल-भरी ] मुट्टियों के छूटने के साथ ही लोक की लज्जा [ तथा ] कुल की रीति छूट गई, [ और ] दोनों को चल चित्त [ तथा ] नेत्रों में एक साथ ही [ दोनों के ] गुलाल लगे ॥ थिस-पक्ष में गुलाल का अर्थ अनुराग होगा ।।। ज्यौं ज्यौं पटु झटकति, हठति, हँसति, नचावति नैन । त्य त्यौं निपट उदारहूँ फगुवा देत बनै न ॥ ३५३ ॥ हठति = हठ करती है, पारितोषिक लेने के निमित्त अड़ती है ॥ फगुवा-फाग के दिनों में इष्ट मित्र एकत्रित हो कर रंग गुलाल खेलते और फिर बैठ कर नाच-रंग देखते हैं। उस समय नाचने वाली गणिका १• छुटे ( १, ४, ५ ), छुटे (३)। २. सगै ( ३ )। ________________
बिहारीरत्नाकर सबसे, उनके वन्न पकड़ कर तथा अनेक हाव भावों के साथ हठ कर के, पारितोषक माँगती है। इसी पारितोषिक को ‘फगुवा', अर्थात् फाग का उपहार, कहते हैं । | ( अवतरण )-किसी वैसिक नायक का वर्णन कवि करता है कि फगुहा की मंडली में गाणका के पारितोषिक माँगते समय, यद्यपि फगुआ देने मैं उसको कृपणता अथवा द्रव्याभाव इत्यादि बाधक नहीं हैं, तथापि उसे गणिका के हाव भाव पर वह ऐसा लुभा रहा है कि उससे फगुआ देते नहीं बनता ( अर्थ )-ज्यों ज्यों [ वह नर्तकी नायक का ] पट झटकती, [ फगुआ लेने के निमित्त] हठ करती, हँसती, [ और ] नयन नचाती है, त्यो त्यों परम उदार [ नायक ] से भी [ उसके हाव भाव पर लुब्ध होने के कारण ] फगुवा देते नहीं बनता ॥ ज्य ज्यौं पावक-लपट सी तिय हिय सौं लपटादि । त्य त्यौं छंही गुलाब मैं छतिया अति सियराति ॥ ३५४ ॥ छुही = लिपी हुई, सिँची हुई ।। मैं = सदृश शब्द से ‘सइ' और 'सह' से 'सै' बना है । सै' का सानु नासिक उच्चारण भाषा विशेष की विशेषता मात्र हो । सियराति = ठंढी होती है । ( अवतरण )-सी-आलिंगन के सुख का अनुभव कोई भंगारी पुरुष किसी भोग-विरोधी पंचाग्निसेवी से, अथवा स्वगत, कहता है ( अर्थ )-ज्यों ज्यों पोषक-लपट ( अग्नि-ज्वाला ) सी ( अग्नि-ज्वाला की सी कांति वाली ) स्त्री हृदय से लिपटती है, त्यों त्यों गुलाब-जल से सिँची हुई सी [ हो कर ] छाती अति शीतल होती है ॥ अग्निज्वाला सी स्त्री के लिपटने से छाती का ठंडा होना, यही विलक्षणता है ॥ भाल-लालथेंदी-छ? छुटे यार छवि देत । गयौराहु, अति हु करि, मनु ससि सूर-सभेत ॥ ३५५ ॥ आडु ( श्राव ) = ललकार, युद्ध के निमित्त किसी को प्रचारना ।। ( अवतरण )-नायिका ने स्नान कर के सौभाग्य की चिह्न सात बँदी तो सगा ली है। पर बाल अभी गूथे नहीं हैं, जिससे कुछ बाल भाल पर छिटके हुए हैं। उनकी शोभा सखी मायक से वर्णन करती हुई, सूर्य तथा चंद्र दोनों के ग्रहण का एक साथ होना कह कर, रति-दान के निमित्त परम उपयफ समय सूचित करती है । ( अर्थ )-[ उसके ! छुटे हुए बाल भाल [ तथा ] लाल पेंदी को छाए हुए [ ऐसी ] शोभा देते हैं, मानो राहु ने बड़ा आडु ( ललकार अथवा युद्ध ) कर के शशि को सूर्य-समेत पकड़ लिया है (अर्थात् इस समय चंद्र-ग्रहण तथा सूर्य ग्रहण, दोनों लगे हुए हैं ) ॥ -- --- . १. फुही ( २ ) । २. सै ( १ ), की ( २ ), से ( ३ ), से (४)। ५. दियॆ ( २ ), दिए (४), वे ( ३, ५)।
१४८ बिहारी-रत्नाकर तिय, कित कमनैती पढ़ी, विनु जिहि भौंह-कमान । चलचिन-बेझै चुकति नहिँ बकबिलोकनि-बान ॥ ३५६ ॥ कित = कहाँ ॥ कमनैती = धनुर्विद्या । जिहि = ज्या ।। धेझै = वेभ्य पर, लक्ष्य पर ।। ( अवतरण )-नायक नायिका की तिरछी चितवन से घायल हो गया है, अतः अवसर पा कर उससे कहता है ( अर्थ )-हे स्त्री, [ तूने यह विलक्षण ] कमनैती कहाँ पढ़ी ( सीखी ) है [ कि ] भौंह की विना ज्या की कमान [ तथा ] तिरछी चितवन के बाण से चल चित्त के लक्ष्य पर [त संधान में ] चूकती नहीं ॥ नायिका की कमनती में विलक्षणता यह है कि यद्यपि विना ज्या की कमान काम नहीं देती, पर वह अपनी भौंह की विना ज्या ही की कमान से काम लेती है : तिरछा बाण ठीक लक्ष्य पर नहीं पहुँचता, पर उसकी तिरछी चितवन ही को बाण पूरा काम कर लेता है; और चंचल लक्ष्य पर निशाना ठीक नहीं लगता, पर वह संसार भर मैं सवसे चंचल पदार्थ चित्त को भी बेध लेती है ॥ दुसह दुराज प्रजानु कौं क्यों न बढ़े दुख-दंदु । अधिक अॅधरौ जग करत मिलि मावस रबि-चंदु ॥ ३५७ ।।। दुख-दंदु ( दुःख-द्वंद्व ) = दुःख का झगड़ा अर्थात् दो दुःख का उत्कर्ष । मावस= अमावस्या ॥ (अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि 'दुराज' अर्थात् दुअमली मैं प्रजा को अधिक दुःख होता है | ( अर्थ )-दुःसह द्विराज्य में प्रजाओं के निमित्त दुःख का द्वंद्व क्यों न बढ़े। [ देखो,] अमावस को सूर्य [तथा] चंद्रमा मिल कर (एक राशि पर अधिकार कर के) जगत् में अधिक ( और सब तिथियों की अपेक्षा विशेष ) अंधेरा ( १. तिमिर । २. अंधेर, अत्याचार ) करते हैं ॥ इस दोहे का अर्थ किसी किसी ने नायिका-भेद में भी लगाया है। पर हमारी समझ में इसे कवि की प्रास्ताविक उक्रि ही मानना समीचीन है ॥ ललन-चलनु सुनि पलनु मैं अँसुवा झलके आइ । भई लखाइ न सखिनु हैं झूॐ हीं जमुहाइ ॥ ३५८ ॥ ( अवतरण )-परकीया प्रवत्स्यत्पतिका नायिका की दशा तथा चातुरी कवि कहता है ( अर्थ )–नायक का चलना ( विदेश गमन ) सुन कर [ नायिका की ] पलकों में आँसु झलक आए (डबडबा आए ) । [ पर उसने ] झूठे ही ( विना जम्हाई आए ही ) जम्हाई ले कर [ ऐसी विदग्धता की कि ] सखियों से भी लक्षित न हुई ॥ १. कत ( २, ३, ५ ) । २. बेझौ ( २ ), बेधत ( ३, ५) । ३. हैं ( १, २ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर १४१ जम्हाई आने में बहुधा आँसू निकल आते हैं। अतः नायिका वृथा ही जम्हाई, जिसमें सखियाँ उसके आँसुओं को जुभाश्रु समझें, और विदेशगमन-प्रस्तुत नायक से उसका प्रेम लक्षित न कर सकें। कंचनतन-धन-चरन कर रह्यौ रंगे मिलि रंग। जानी जाति सुबाँस हाँ केसरि लोई अंग ॥ ३५९ ॥ कंचनता= कंचन से तन वाली ॥ धन = स्त्री, नायिका ॥ सुबास ( स्ववास ) = अपनी सुगंध ।। | ( अवतरण )-सखी अथवा दूती नायक मे नायिका के शरीर की सुनहली गुराई तथा रुचिर सुगंध की प्रशंसा कर के उसके हृदय में रुचि उपजाती है ( अर्थ )-[ उस ] कंदन से तन वाली धन (नायिका) के श्रेष्ठ वर्ण में केसर का] रंग [ तो ] रंग में मिल रहा (मिल कर अलक्षित हो गया) है, [अतः उसके अंग में लगाई गई कसर [उसकी] अपनी सुगंध ही जानी जाती है [ क्योंकि उसके शरीर की सुगंध कुछ केसर से न्यून मोददायिनी तथा प्रह्लादकारिणी नहीं है। सखी के कहने का तात्पर्य यह है कि उसका शरीर ऐसा सुनहला तथा सुगंधित है कि उसमें लगाई गई केसर न तो रंग से लक्षित होती है, और न गंध से ] ॥ । खरै अदय, इठलाहटी, उर उपजावति त्रासु । दुसह संक विर्स को करे जैसै साँठि-मिठासु ॥ ३६० ॥ अदब = किसी की मानमर्यादा का सम्यक संरक्षण ॥ इठलाहटी = बनावटी गर्व के साथ चेष्टा को अथवा वचन के विकृत व्यवहार को इठलाना कहते हैं। ‘इठलाहटी' का अर्थ इठलाने वाली, अर्थात् गर्वन्चेष्टा से बर्ताव करने वाली, होता है । स ठि-मिठासु--सोंठ के खेतों में कुछ गांठे विषैली हो जाती हैं। देखने में तो वे सोंठे ही के ग्राकार की होती हैं, परंतु उनमें सोंठे की सी चरपराहट नहीं होती, प्रत्युत एक प्रकार की मिठास होती है, जिससे लोग उनको विष समझ लेते हैं । ( अवतरण )-नाशिको स्वभाव ही से इठलाहटी, अर्थात् इठलाहट से व्यवहार करने वाली प्रकृति की, है। पर आज वह, नायक को सापराध जान कर भी, उसका बड़ा सन्मान करती है । मायक उसका मान लक्षित कर के कहता है ( अर्थ )-है इठलाहट्टी (गर्व-युत व्यवहार करने की प्रकृति वाली), [आज तु अपने] खरे अदब ( बड़े आदर के बर्ताव ) से | मेरे ] उर में त्रास ( मान का डर ) उपजाती है। जैसे [ स्वभाव-सिद्ध कई ] सोंठ को मिठास विष की दुःसह ( अति कठिन ) शंका [उत्पन्न ] करती है ।। १. घन ( ४ ) । २. राग ( ४ ) । ३. सुभाव (२) । ४. हैं ( ३, ४, ५)। ५. लागी ( २ ), लाये (४) । ६. विष ( २ ) । बिहारी-राकर तौ लेगु या मन-सदन मैं हरि अवै किहिँ बाट । विकट जटे जौ लगु निपट खुटै न कपट-कपाट ॥ ३६१ ॥ ( अवतरण )-- कपटी भक़ से कवि की उक़ि है कि यदि हरि को अपने हृदय में बसाना चाहते हो, तो कपट का परित्याग कर दो | ( अर्थ )-इस मन-रूपी गृह में तब तक हरि ( भगवान् ) किस बाट से आवें, जब तक निपट विकट ( अत्यंत दृढ़ ) जड़े हुए कपट-रूपी किवाड़ न खुलें ॥ है कपूरमनिमय रही मिलि तन-दुति मुकतालि । छिन छिन खरी बिचच्छिनौ लखति क्वाइ तिनु अलि ॥ ३६२ ॥ | कपूरमनि ( कर्पूरमणि )-इसका दूसरा नाम संस्कृत में तृणमणि है । फ़ारसी में इसी को करुवा' ( तृण को आकर्षित करने वाला ) कहते हैं । यह एक प्रकार का पांडुर-वर्ण पत्थर होता है, और हाथ पर घिसे जाने पर तिनके को खींचने लगता है, जिस प्रकार चुंबक पत्थर लोहे को खींचता है ॥ बिचच्छिनौ = विचक्षण होने पर भी ।। तिनु ( तृण ) = तिनका ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की तन-युति की प्रशंसा कर के रुचि उपजाती है ( अर्थ )-[ उसकी सुनहरी ] तन-धुति से मिल कर मुक़ालि ( मोतियों की खड़ी ) कर्पूरमणिमय हो रही है, [ और ऐसा धोखा देती है कि उसकी ] बड़ी विचक्षण ( चतुर ) सखी भी क्षण क्षण पर [ उसमें ] तृण छुआ कर देखती है ( उसकी परीक्षा करती है ) ॥ | क्षण क्षण पर सखी इस कारण देखती है कि मोती ऐसे कप्रमाण के सदृश हो गए हैं कि यद्यपि एक आध बार उनके तिनका न खींचने से वह यह मान लेती है कि वे तृणमणि नहीं हैं, तथापि उसको भ्रम हो जाता है कि कदाचित् किसी कारण विशेष से इन्होंने इस बार तिनका नहीं था । अतः घर तृण को बार बार उनमें बुआ कर अपना भ्रम नियारित करती है । दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुर्रत चतुरं-चित प्रीति । परति गाँठि दुरजन हियँ";दई, नई यह रीति ॥ ३६३ ॥ उरझत = अापस में गुथते हैं, अर्थात् मिलते हैं । टूटत कुटुम = कुटुंब के संबंध टूट जाते हैं। जुरत = प्रेम से परस्पर संबद्ध हो जाते हैं । गाँठि = श्रांट, ईर्ष्या ।।। | ( अवतरण ) - परकीया नायिका अपने हृदय का तर्क वितर्क अपनी अंतरंगिनी सही से हती है ( अर्थ )—प्रीति [ के व्यवहार ] में उलझते [ तो] हग हैं, [ पर ] टूटते कुटुंब [ के १. लगि (४) । २. आवहिं ( १, ४ )। ३. किहि ( १, ४, ५ ) | ४. जरे ( १ )। ५. नौ । ( १, २, ४)। ६. कुर्दै ( २ ) । ७. विचिच्छिनो ( ३, ५), विचच्छिनी (२) । ८. उरति ( १ )। १. चित्र औ (४)। १०. नियनि ( १ )। ________________
विहारी-रत्नाकर संबंध ] हैं ;[ इटते तो कुटुंब के संबंध हैं, पर ] जुड़ते ( मिलते ) चतुरों के चित्त हैं ; [ और जुड़ते तो चतुरों के चित्त हैं, पर ] गाँठ दुर्जनों (चवाइयाँ) के हृदयों में पड़ती है। हे दई, यह नई ( विलक्षण ) रीति है ॥ सामान्यतः तो जो वस्तु उलझती है, वही टूटती तथा जोड़ी जाती है, और फिर गाँठ भी उसी मैं पड़ती है, पर प्रीति व्यवहार में विलक्षणता यह है कि उलझती और वस्तु है, टूटती और है, जुवती और है, एवं गाँठ और मैं पड़ती है। नहिँ नचाइ चितवति दृगनु, नहिँ बोलति मुसकाइ । ज्य ज्यौं रूखी रुख करत, त्यौं त्यौं चितु चिकनाई ।। ३६४ ॥ रुख-इस शब्द के अर्थ तथा लिंग के विषय में २४३-संख्यक दोहे की टीका द्रष्टव्य है ।। ( अवतरण )-प्रौढ़ा धीरा नायिका नायक को सापराध जान कर उदासीन वेष्टा से अपना मान व्यजित करती है। शठ नायक उसे प्रसन्न करने के लिये मीठी बातें बनाता है ( अर्थ )-[ हे प्यारी, तू आज ]न [ तो ] इगों को नचा कर (चंचल कर के) देखती है, [ और ] न मुसकिरा कर बोलती है । [ तेरी यह चेष्टा मुझे ऐसी सुहावनी लगती है कि] ज्यों ज्यों [१] रुख ( मुख की चेष्टा ) रूखी ( उदासीन, सरोष ) करती है, त्यों त्य [ मेरा] वित्त चिकनाता( स्निग्ध होता ) है ॥ वैसीयै जानी परति झगा ऊजरे माह । मृगनैनी लपटेत जु सँह बेनी उपटी बाँहें ॥ ३६५ ॥ ( अवतरण )-खंडिता नायिका की उङ्गि नायक से ( अर्थ )-[ हे लालन, उस ] मृगनयनी के लिपटते समय जो यह बेनी (चोटी) [ तुम्हारी ] बाँह में उपट आई है ( मुद्रित हो गई है ), [ वह ] श्वेत झगा में वैसी ही (ज्यों की त्यों ) जान पड़ती है ( प्रकट होती है)। [ अर्थात् तुम किसी स्त्री को अभी अभी आलिंगन कर के आ रहे हो, अभी इतना समय भी नहीं बीता है कि उसकी चोटी की छाप कुछ मिट जाती ] ॥ । प्यासे दुपहर जेठ के फिरे सबै जलु सोधि । मरुधर पाइ मतीरु हीं मारू कहत पयोधि ॥ ३६६ ॥ ( अवतरण )-कवि की उक्ति है कि जहाँ जो वस्तु दुर्लभ है, वहाँ यदि वह, किसी रूप में, थोडी भी मिल जाय, तो उसको लोग बहुत समझते और उस पर अभिमान करते हैं | ( अर्थ )-जल सेध ( खोज ) कर सब [ अकृतकार्य ] लौटे हुए जेठ के प्यासे मारू | १. माँहि ( ३, ५ ) । २. लपटी ( २ ) । ३. हिय ( ३, ४, ५ ) । ४. वाँहि (३) । ५. विषम बुवादित की तृषा ( १, २) । ६. रहे (१,२), थडे (४) । ७. मुर ( २, ३, ५ )। ८. है(१), (५ )।
१५२ बिहारी-रत्नाकर ( मारवाड़ी ) दुपहर में (के समय ) [ संयोग से ] मरुधर ( मारवाड़) में [ कहीं ] मतीर ( बड़ा तबूज़ ) ही पा कर [ उसे ] पयोधि ( क्षीर-सागर ) कहते ( मानते ) हैं ॥ बिषम बृषादित की तृषा जिथे मतीरनु सोधि । अमित, अपार, अगाध-जलु मारी मुंड़ पयोधि ।। ३६७ ॥ ( अवतरण )--कवि की शक्ति है कि यदि किसी छोटी वस्तु से काम निकले और बड़ी वस्तु से काम न निकले, तो वह बड़ी वस्तु, चाहे कैसी ही उत्तम हो, व्यर्थ है | ( अर्थ )-वृषराशि के विषम ( प्रचंड ) सूर्य [ के ताप ] की प्यास से [ मरते हुए मारवाड़ी तो ] मतीरों को खोज खोज कर जिए, [फिर ] अमित (परिमाण-रहित ), अपार, [ तथा ] अगाध ( थाह-राहत ) जल वाले पयोधि (क्षीर-सागर) को [ ले कर ] मूड मारो ( वृथा मत्थापिट्टन करो ) ॥ मूड मारना लोकोक्ति है। ‘अमुक वस्तु को मूड़ मारो' का अर्थ अमुक वस्तु को वृथा समझो, कैंक दो, इत्यादि होता है । निपट लजीली नवल तिय बहकि वारुनी सेइ । त्यौं त्यौं अति मीठी लगति, ज्या ज्यौं ढीट्यौ देइ ॥ ३६८ ॥ ढोठ्यौ =ढिठाई का भाव ।। ( अबतरण )-नवादा नायिका को मदिरा पिला दी गई है, जिससे वह अपनापे से बाहर हो कर विठाई की बातें तथा चेष्टा करने लगी है । सखी नायक से उसका वृत्तांत कह कर उसे उसके पास लाया चाहती है | ( अर्थ )-[ वह ] निपट (अत्यंत) लजीली नवीन स्त्री [इस समय] वारुणी का सेवन कर के, बहक ( नशे से विवश हो ) कर ज्यों ज्यों ‘ढोठ्यौ देती ( ढिठाई प्रकट करती ) है, त्यों त्यों अति ( अधिक ) मीठी ( प्यारी ) लगती है। सरैस कुसुम मँडरातु अलि, न झुकि झपट लपटॉतु ।। दरसत अति सुकुमारु तनु, परसत मेन न पत्यातु ।। ३६९ ॥ ( अवतरण ):- अवतीर्णयौवना मुग्धा से मिलने के लिये उत्सुक नायक से सखी, उसकी रुचि बढ़ाने के निमित, कहती है कि आपको उससे मिलने में शीघ्रता न करनी चाहिए । देखिए, भ्रमर भी अत्यंत सुकुमार कुसुम से एकाएक झपट कर लिपट नहीं जाता, प्रत्युत उसका रस अलग ही से, मँडरा कर, लेता है ( अर्थ )[देखिए,] रसीले ( टटके ) कुसुम पर भौरा मँडराता रहता है, [पर ] कुक । १. मारों ( १ ), मा5 ( ३, ५ )। २. मूद ( ३, ५ ) । ३. सिरस (४) । ४. लपटाइ ( ३, ५ )। १. न्यौं (२) । ३. श्याइ ( ३, ५ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर [ तथा ] झपट कर [उससे एकाएक ] लिपट नहीं जाता, [ उस पुष्प का ] अति सुकुमार तन देखता हुआ [ उसे ] स्पर्श करते ( करने में ) [ अपने ] मन में नहीं पतियाता (इस बात का विश्वास नहीं करता कि यह मेरे भार को सहन कर सकेगा )। निरदय, नेहु नयौ निराख भयौ जगतु भयभीतु । यह न कहूँ अब ल सुनी, मरि मारियै जु मीतु ॥ ३७० ।। ( अवतरण )-नायिका ने मान किया है, और यद्यपि प्रेमाधिक्य के कारण मिलने के निमित्त वह मन ही मन विकल हो रही है, तथापि मान की मर्यादा रखने के लिये नायक से हँसती बोलती नहीं। उधर नायक भी अत्यंत दुख हो रहा है ! अतः मान छुड़ाने के लिये सखी कहती है-- ( अर्थ )—हे निर्दय, [ यह ] नया ( नए प्रकार का ) स्नेह देख कर जगत् ( सखीजगत्, सखी-मंडल ) भय से भीत हो रहा है । यह [ बात ] अव तक कहीं नहीं सुनी गई है कि [ स्वयं ] मर कर ( दुखित हो कर ) मित्र को मारा जाय ( दुःख दिया जाय ) ॥ भजन कयौ, तातै भज्यौ ; भज्यौ न एकौ बार। दूरि भजन जातें कह्यौ, सो मैं भज्यौ, गॅवारे ॥ ३७१ ॥ ( अवतरण )-कोई सजन भक़ अपने मन को धिक्कारता है ( अर्थ )-अरे आँवार, [ वेद-शास्त्रों ने जिसको ] भजने को कहा (बतलाया ), उससे [ तो तु] भागा, [ और उसको तूने ] एक बार भी नहीं भजा ( स्मरण किया )। [ पर ] जिससे (जिस विषय-भोग से ) दूर भागने को कहा, उसको तुने भजा (भोग किया) [ फिर भला तेरा निस्तार क्योकर संभव है ] ॥ । नैन लगे तिहिँ लगेनि जु, न छुटै छुटै हूँ प्रान ।। काम न आवत एक हूँ तेरे सैक सयान ॥ ३७२ ॥ ( अवतरण )-परकीया पूर्वानुरागिनी नायिका शिक्षा देती हुई सखी से कहती है ( अर्थ )-[ मेरे ] नयन जो उसकी लगन ( दर्शन की लालसा ) से लगे हैं, [ सो अब ] प्राण छूटने पर भी नहीं छूट सकते । तेरे ‘सैक सयान' ( सैकड़ों चतुराई-भरी शिक्षाएँ) एक भी ( कुछ भी ) काम नहीं आते ( उपयोगी नहीं होते ) ॥ उड़ति गुड़ी लखि ललैन की अँगना अँगना भाँह। बौरी ल दौरी फिरति छुवति छबीली छाँह ॥ ३७३ ॥ गुड़ी = गुबी, पतंग ॥ अँगना ( अंगना ) = स्री ।। अँगना = आँगन । १. गमार ( १ )। २. गैल ( २ )। ३. आए (२) । ४. सोक ( ३, ४, ५) । ५. लाल (४) । १. आँगन ( १, ३,४), अंगन ( ३ ) । १५४ बिहारी-रत्नाकर | ( अवतरण ) --नायक ने गुड़ा उड़ाई है, जिसकी छाया नायिका के आँगन में पड़ी है। उसके स्पर्श मैं नायक के स्पर्श का ही सुख मान कर नायिका जहाँ जहाँ वह जाती है, वहाँ वहाँ दौड़ कर पहुँचती है। सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-[ देखो, ] लाल की गुडी उड़ती देख कर [यह ] अंगना [ उसकी ] छबीली परछाँही छूती हुई [ अपने ] आँगन में बावली सी दौड़ी फिरत है॥ 'बैरी ख’ इसद्धिए कहा कि अनजान लोग उसका दौदना विना किसी उद्देश्य ही के समझते हैं । ‘छवीली आँg' इस अभिप्राय से कहा कि नायिका को वह परछाँही, प्रेमाधिक्य के कारण, बदी मनोहर लगती है। ऊँचें चितै सराहियतु गिरह कबूतरु लेते। झलकित इग, मुलकित बदनु, तनु पुलकित किहिँ हेतु ॥ ३७४ ॥ | ( अवतरण )-नायक अपनी अटारी पर खड़ा गिरहबाज़ कबूतर उड़ा रहा है। नायिका नीचे से उसको देखता है, जिससे उसे सात्विक भाव उत्पन्न होता है। इतने ही मैं सखी को अपनी ओर देखते देख कर वह, नायक के प्रति अपना अनुराग छिपाने के निमित्त, दृष्टि को और ऊँची कर के कलाबा, खाते हुए कबूतर के प्रशंसा करने लगती है, जिसमें सखी जाने कि वह, ऊपर की ओर मुंह किए, कबूतर ही को देख रही है। पर चतुर सखा :खिक से उसका अनुराग बक्षित कर के कहती है ( अर्थ )-ऊपर की ओर देख कर सराहा । तो ] गिरह लेता हुआ ( कलाबाज़ी खाता हुआ ) कबूतर जाता है, [ पर यह तो बतला कि तेरे ] दृग झलकित ( प्रसन्नता की झलक से युक्त ), मुख मुलकित ( भावविशेष-सूचक मुसकिराहट से युक्त)[ तथा ] तन ( शरीर ) पुलकित ( रोमांचित ) किस हेतु हैं ( हो रहे हैं )[अर्थात् तेरी चेष्टाओं से तो बास्तव में तेरा अटारी पर खड़े हुए नायक को देखना और तद्विषयक अनुराग सक्षित होता है; तु वृथा क्यों छिपाती है ] ॥ लागत कुटिल कटाच्छ-सर क्यों न होहिं बेहाल । कढ़त जि हियहि दुसाल करि, तऊ रहत नटसाल ।। ३७५ ॥ जि-यह शन्द ‘जो' के बहुवचन रूप 'जे' का लघु रूप है ॥ दुसाल = दो टुकड़े, दोनों ओर छिद्र वाला, आरपार । इसी शब्द का 'दुसार’ रूप ४४३वे दोहे में प्रयुक्त हुआ हैं ॥ नटसाल ( नष्ट शल्य ) =बाण का वह भाग, जो टूट कर शरीर के भीतर रह जाता और पीड़ा दिया करता है। ( अवतरण )-सखी अथवा दूती नायिका से, उसके नत्र की प्रशंसा करती हुई, माघ । व्यवस्था विदित करती है १. चंदं ( २ ) । २. लत ( १, २, ३, ५ ) । ३. झलक दृगनि (२) । ४. हेत ( २, ३, ५)। ५. कढत जहियें ( २ ), काढत जियहिँ ( ३, ५ ), कादत हियो (४)। ________________
विहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-[ तेरे उन ] कुटिल ( वक्र ) कटाक्ष-रूपी बाणों के लगते [ ही नायक] क्यों न बेहाल (चेतना-रहित) हों, जो [ ऐसे विलक्षण है कि यद्यपि ] हृदय को ‘दुसाल। ( दो टुकड़े, आरपार) कर के कढ़ जाते हैं (पार निकल जाते है ), तो भी [ उनके पीड़ा पहुँचा कर विह्वल करने वाले ] नष्ट शल्य रह जाते हैं । | कटाक्ष मैं बार्गों की अपेक्षा यह विलक्षणता है कि टेढ़े बाण लक्ष्य के पार नहीं जाते, उसमें अटक रहते हैं, पर वक्र कटाक्ष हृदय के पार हो जाते हैं, और बाण जब शरीर में लग कर पार से जाते हैं, तो उनके शल्य नहीं रहते, परंतु कटाक्ष पार हो जाने पर भी हृदय मैं खटका करते हैं। जनमु जलधि, पानिपुत्रिमलु, भौ जग अघुि अपारु । रहै गुनी है गर-पखौ, भलै न मुकता-हारु ।। ३७६ ॥ आघु = आदर, सन्मान, मूल्य ।। गर-पयौ = गले पड़ा हुआ, अर्थात् विना चाहना था श्रादर के ॥ ( अवतरण )—किसी सवांग-श्रट मनुष्य के अनादर-पूर्वक भी किसी स्थान पर रहने के विषय मैं, मुक़ा-हार पर अन्योक़ि कर के, कोई किसी से उक्र मनुष्य को सुना कर कहता है ( अर्थ )-[ देखो, इसका ] जन्म [ तो ] जलधि ( समुद्र ) से है [ अर्थात् यह बड़े कुल का है ], पानिप (१.शेभा, चमक । २. आवरू ) विमल (१. निर्मल । २. विना धब्बा लगा हुआ ) है, [ तथा ] जग में अघ ( १. माल । २. आदर ) [ भी ] अपार हुआ, [पर] गुणी (१. डोरा वाला अर्थात् डोरे में गुथा हुआ ।२. गुण वाला ) हो कर मुक्त-हार [ जो ] गले पड़ा (१. गले में पड़ा हुआ । २. निरादर-पूर्वक) रहता है, [ सो ] ‘भले न’ ( भले प्रकार का र गहै न नेकौ गुनगरबु, हँसी सबै संसारु । कुच-उचपद-लालच रहै गर्दै परै हैं हारु ।। ३७७ ।। ( अवतरण )-यह दोहा अपने पूर्व के दोहे का उत्तर-स्वरूप है । जिस व्यक्ति से पहिला दोहा कहा गया है, वह उस निरादर सह कर रहने वाले मनुष्य को लालची ठहराता हुआ तथा उसको सुना कर, उसी मुक्रा-हार पर अन्य कर के, उत्तर देता है-- ( अर्थ )-[ यह ] हार [ जा ] गले पड़ने पर भी रहता है, [ सो ] कुत्ररूपी उस पद के लालच से । इसी लालच के कारण यह ] नक भी [ अपने ] गुण का गर्व नहीं गहता ( करता ), [ इस पर हम तुम क्या ] सारा संसार [ हँसे, ता ] हँसा ॥ तच्यौ अाँच अब बिरह की, रह्यौ प्रेम-रस भीजि । नैननु ” मग जलु है हियौ पसीजि पसीजि ॥ ३७८ ॥ तच्यौ=संतप्त हुआ हुआ, अर्थात् संतप्त हो कर ॥ रणौ प्रेम-रस भीजि = प्रेम-रूपी रस में भीग १. हँसै ( १, ४) ।
बिहारी-रत्नाकर रहा हुआ अर्थात् पहिले से भीगा हुआ । यह वाक्यांश ‘हियो' शब्द का विशेषण है ॥ पसीज पसीजि = उष्णता के कारण प्रस्वदित हो हो कर ।। ( अवतरण )--सखी अथवा दूती नायक से नायिका के अश्रु-पात की व्यवस्था निवेदित करती है ( अर्थ )-प्रेम-रूपी रस में भीग रहा हुआ, [ और ] अव विरहाग्नि से संतप्त हुआ हुआ [ उसका ] हृदय पसीज पसीज कर आँखों के मार्ग से पानी ( अर्क ) बहता है ॥ जब किसी पदार्थ का अक़ खींचना होता है, तो पहले उसे जल मैं भली भाँति भिगा देते हैं, और फिर नलिकायंत्र में भर कर अग्नि पर चढ़ा देते हैं। तब उस पदार्थ का पसेत, पानी के रूप मैं, नलिका के मार्ग से टपकने लगता है। यही व्यापार इस दोहे मैं स्फुरित है ।। छला परोसिनि हाथ हैं, छलु करि, लियौ, पिछानि ।। पियहिँ दिखायौ लखि बिलरिख, रिस-सूचक मुसकानि ॥ ३७९ ॥ ( अवतरण )-नायिका ने अपने पति का छल्ला, पड़ोसिन को पहिने देख कर, किसी छत्व से उससे ले लिया, और पति को रिसं-सूचक मुसकिराहट के साथ दिखलाया । यही वृत्तांत सखी सी से कहती है | ( अर्थ )-[ अपने प्रियतम का ] छल्ला पहचान कर [ नायिका ने उसे कोई ] छल कर के पड़ोसिन के हाथ से ले लिया, [ और ] बिलख ( दुखी हो ) कर रोष प्रकट करने वाली मुसकिराहट से ( के साथ ) [ उसे ] देख कर प्रियतम को दिखाया ( प्रियतम का ध्यान उस ओर आकर्षित किया ) ॥ इस दोहे मैं बड़ी अच्छी स्वभावाक़ि है। मनुष्य की यह प्रकृति है कि जब वह किसी को कोई वस्तु देखते देखता है, तो स्वयं भी उसको देखने लगता है। अतः नायिका ने, विना कुछ कहे सने, यस छल्ले को 'रिस-सूचक मुसकानि' के साथ देख कर, घड़ी चातुरी से, नायक का ध्यान उसकी ओर आकर्षित किया। हठि, हितुकरि प्रीतम-लियौ, कियौ जु सौति सिँगारु। अपनँ कर मोतिनु गुयौ, भयौ हरा हर-हारु ।। ३८० ॥ प्रीतम लियौ = प्रियतम से लिया हुआ । इस पद में पंचमी तत्पुरुष समास है, और यह 'हार' शब्द का विशेषण है ।। हर-हरु= महादेवजी का हार अर्थात् सर्प ।। ( अवतरण )-नायिका ने अपने हाथ से गुथ कर मोतिय का एक बड़ा सुंदर हार नायक को पहनाया था । नायक उसे पहने हुए अन्य स्त्री के यहाँ गया । उसने उसे अति मनोहर देख कर नायक से माँगा । पहिले तो नायक, यह विचार कर कि इस हार को कहीं वह मायिका इसके गले में देख लेगी तो कलह होगा, देने में हिचकिचाया । पर फिर उसके हठ करने पर उसने उसे दे दिया । उस जी ने जब उससे अपना श्रृंगार किया, तो नायिका की दृष्टि हीं उस पर पर ही तो ________________
बिहारी-रत्नाकर गई । बस, फिर उसको सौत के गले में पड़ा हुअा अपने ही हाथ का गूथा हुआ वह हर हर-हार हो गया, अर्थात् सर्प सा भयानक लगने लगा । सखी-वचन सखी से | ( अर्थ )-हठ कर के [ तथा ] हित ( प्रेम ) कर के प्रियतम से लिया हुआ हार, जिसको ( जिससे ) सौत ने [ अपना ] श्रृंगार किया, [ वही ] अपने हाथ से मोतियों से गुथा हुआ [ हार नायिका को ] हर-हार ( सर्प) हो गया ( अत्यंत भयानक लगने लगा )॥
बसै बुराई जसु तन, ताही की सनमानु। भलौ भलौ कहि छोड़ियै, खोटैँ ग्रह जपु, दानु॥३८॥
(अवतरण)-कवि की प्रास्ताविक उक्ति है कि जिससे बुराई, अर्थात् हानि, पहुँचने की आशंका होती है, उसी का संसार में आदर होता है, पर सीधे, साधु-स्वभाव सज्जनों को कोई नहीं पूछता-
(अर्थ)—जिसके तन में बुराई बसती है, उसी का [इस बुरे संसार में] सन्मान होता है। [देखो,] भला [ग्रह] तो भला कह कर (समझ कर) छोड़ दिया जाता है, [पर] खोटे ग्रह [के आने] मेँ जप, दान [इत्यादि होते हैं]॥
वै ठाड़े, उमदाहु उत; जल न बुझे बड़वागि । जाही सौं लाग्यौ हियौ, ताही * हिय लागि ॥ ३८२ ॥ उमदाहु-उमदाना उमंग से किसी ओर झुकने को कहते हैं। १७९-संख्यक दोहे में भी यह शब्द ऐसे ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ॥ बड़वागि ( बाड़वाग्नि )= समुद्र के भीतर की अग्नि । ( अवतरण )-नायक सामने खड़ा है । नायिका उमे देख कर इठलाती तथा सखी से लिपटती झपटती है, जिससे सभी उसका नायक पर अनुराग लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )—वे ( नायक ) [ ते। वह ] खड़े हैं [ और तू मुझसे इठलाती तथा मेरी ओर उमगती है, सो यह व्यर्थ है ]। उसी ओर उमंग से झुक । जिससे [ तेरा ] हृदय लगा है, उसी के हृदय से लग। [ देख, ] जल से बाड़वाग्नि नहीं बुझती [ क्योंकि जल में तो वह रहती ही है । तात्पर्य यह कि मुझसे लिपटने से तेरी कामाग्नि नहीं बुझ सकती। वह ते मुझसे अलग हो कर उसी से शांत हो सकती है, जिस पर तेरा हृदय लगा है] ॥ ढीठि परोसिनि ईठि है कहे जु गहे सयानु ।। सवै सँदेसे कहि कह्यौ मुसकाहट मैं मानु ॥ ३८३ ॥ दीठि ( धृष्ट )—पड़ोसिन को ढीठ इसलिए कहा है कि वह ऐसी निडर है कि स्वयं नायिका ही १. सबै ( १, ४) । २. जास ( ३, ५ ) । ३. तन (४)। ४. उमदाउ ( १ ), उमदात ( २, ४) । ५. ही ( ३, ५) । विहारीकर से अपने इष्ट का साधन कराना चाहती है ॥ ईडि-इस शब्द के विषय में २८-संख्यक दोहे की टीम द्रष्टव्य है ॥ सयानु = सयानपन, चातुर्य ।। ( अवतरण )-नायिका अन्यसंभाग-दुःखिता है। नायक की गुप्त प्रीति पडसिन से थी । एक दिन जब नायक घर पर नहीं था, तब उस पड़ोसिन ने आ कर, और नायिका की बड़ी इष्ट बन कर, उससे नायक से कहने को कुछ सँदेसे कहे । वे सँदेसे कुछ इस प्रकार के थे कि 'आज मेरे घर में कोई है नहीं, अतः तुम अपने पति से कह देना कि कृपा कर के मेरा अमुक कार्य कर दें', इत्यादि । इन सँदेस से नायिका ताड़ गई कि इससे और मेरे पति से प्रीति है, अतः यह अवसर पा कर उनको सूने घर में बुखाया चाहती है । जब नायक आया, तो नायिका ने वे सब सँ दसे, जो दीठ पड़ोसिन ने इष्ट बन कर बड़ी चातुरी से कहे थे, कह कर और मुसकिराहट-द्वारा यह व्यंजित कर के कि मैं सच भीतरी बात समझ गई हैं, अपना मान सूचित किया। सखी-वचन सखी से | ( अर्थ )–ढीठ पोसिन ने इष्ट हो ( बन ) कर जो [सँदेसे] सयानपन गहे ( धारण किए ) हुए [ नायक स कहने को नायिका से ] कहे थे, [ से ] सभी सँदेसे [ नायिका ने नायक से ] कह कर मुसकिराहट में ( मुसकिराहट-द्वारा ) [ अपना ] मान कहा ( प्रकट किया ) ॥ इस दोहे के अर्थ में टीकाकारों ने बड़ा धोखा खाया है ॥ छिनकु चलति, ठठुकति छिनकु, भुज प्रीतम-गल हारि। चढ़ी अटा देखति घटा विज्जु-छटा सी नारि ॥ ३८४ ॥ ठठुकति = ठमकती है । छटा = पुति की लपक ।। ( अवतरण )--नायिका, नायक के साथ अटारी पर घूम घूम कर, नए उठे हुए बाद का तमाशा देख रही है। सखी-वचन सम्वी से : ( अर्थ )--[ देखो, वह ] बिजली की छटा सी स्त्री अटारी पर चढ़ी हुई [ कैसे आनंद से ] घटा देख रहा है। प्रियतम के गले में बाँह डाल कर क्षण भर (कभी तो ) चलती (टहलती ) है, [ और ] क्षण भर ( कभी ) ठिठक जाती है ( ठहर जाती है ) ॥ धनि यह वैज; जहाँ लख्यौ, तज्यौ दृगनु दुख-दंदु । । तुम भागनु पूरब उयौ अहो ! अपूरबु चंदु ॥ ३८५ ॥ दुस-यंदु = दुःख का ताप ।। ( अवतरण )-कोई परकीया पूर्वानुरागिनी मायक को देस्ट विना संतप्त हो रही है। दिन गुड़ पक्ष की द्वितीया का है। उसकी अंतरंगिनी सन्नी चंद्रमा देखने के निमित्त अटारी पर चढ़ी, तो उसने गायक को अपनी अटा पर स्वया देखा । नायक का घर नायिका के घर से पूर्व दिशा में है। सनी नीचे आ कर नायिका से कहती है ( अर्थ )—यह ( आज की ) वैज धन्य है (अन्य वैजों की अपेक्षा श्लाघनीय है)। [ कारण, आज ] तुम्हारे भाग्य से अहो ! पूर्व में अपूर्व चंद्रमा उदय हुआ है[ तुरत इस ________________
विहारी-रत्नाकर पर चढ़ कर देख ] । जहाँ [ तूने उसे ] देखा ( जैसे ही तू उसे देखेगी ), [ वहाँ तेरे ] दृगों ने [ सब] दुःख का ताप तजा (वैसे ही तेरी आँखें सब विरह का ताप छोड़ देगी ) ॥ जो नायक का मुखचंद सखी नायिका को दिखाया चाहती है, उसमें अपर्वताएँ ये हैं-प्रथम तो द्वितीया को चंद्रमा केवल दो कक्षा का होता है, पर वह पूर्ण है; दूसरे, द्वितीया के चंद्र का दर्शन पाश्चिम दिशा में होता है, पर वह पूर्व दिशा में है; और तीसरे, चंद्र-दर्शन से विरहिणी का संताप बढ़ता है, पर उसके दर्शन से ताप का शमन होगा ॥ लरिका लैबे * मिसनु लंगरु मो ढिग आइ । गयौ अनाचक अगुरी छाती छैलु छुवाइ ॥ ३८६ ॥ लंगरु=ढीठ ॥ छैलु = चतुर ।।। ( अवतरण )-क्रियाचतुर नायक की चातुरी का वर्णन परकीया नायिका अपनी अंतरंगिनी सी से करती है ( अर्थ )-[ मेरी गोद से ] लड़का लेने के व्याज से [ वह ] लंगर मेरे पास आ कर अचानक [ मेरी ] छाती में छैल अँगुली छुआ गया । दीयौ दै बोलति, हँसति पोढ़-बिलास अपोढ़ । त्या त्यों चलत न पिय-नयन छकए छकी नवोढ़ ।। ३८७ ॥ (अवतरण )-नई ब्याही आई हुई नायिका को मद्य-पान करा कर सखियाँ ने, अथवा नायक हरी ने, ऐसी मतवाले कर दिया है कि, थड़े वय की होने पर भी, वह प्रौदा की भाँति हँसने बोलने सगी है। उसकी वह शोभा नायक को ऐसी भली लगती है कि उसके नेत्र उस पर से टलते नह। सखी-वचन सखा से-- | ( अर्थ )-[ देखो, ज्यों ज्यों ] प्रौढ़ के से विलास करने वाली [ यह ] 'अपो।' (विना पकी हुई अवस्था की ) [ नायेक ] दिठाई कर के हँसती बोलती है, त्यो त्यों [ इस ] मद-छकी नवाढ़ा के द्वारा छकाए गए (नशे में किए गए अर्थात् छवि देखने की चाह से पूरित किए गए) प्रियतम के नयन [ इस पर से ] चलते ( टलते ) नहीं ॥ रेनितशृंग-घंटावली, झरितै दान मधु-नीरु । मंद मंद आवतु चल्यौ कुंजरु कुंज-समीरु ।। ३८८ ॥ रनित= पूँजते हुए ॥ दान=हाथी का मद ॥ मधु-मकरंद, पुष्प-स ॥ (अवतरण )-कवि वसंत की सुखद वायु का वर्णन करता है ( अर्थ )-शूजते हुए अमरों की घंटापली वाला [ एवं ]मकरंद-रुपी झरते हुए मर वाला कुंज-समीर-रूपी कुंजर मंद मंद चला आ रहा है। १. बतियाँ ( ३, ५) । २. नित (४) । ३. भरत (१, ५)।
१६० विहारी-रत्नाकर ‘रनितशृंग-घंटावली' एवं 'झरित दान मधु-नीरु', इन दोन समस्त पर्यों मैं बहुव्रीहि समास है, और ये दोन ‘कुंज-समीर' के विशेषण हैं॥ रही रुकी क्यों हैं सु चेलि, आधिक राति पधारि । हरति ताप सब यस कौ उर लगि यारि बयारि ॥ ३८९ ॥ ( अवतरण )-कवि ग्रीष्म ऋतु की उस शीतल वायु का वर्णन करता है, जो कि राजपूताने मैं बाधा अर्ध रात्रि के समय चलती है, जैसे कि हरिद्वार में संध्या के पश्चात् ठंढी वायु का झाँका चलता है ( अर्थ १ )--[ दिन भर तथा अर्धरात्रि तक जो] रुकी रही, सो प्रेमपात्री-रूपी वायु किसी प्रकार चल कर, आधी रात को पधार कर [ और ] हृदय से लग कर, सब दिवस का ताप हरती है ॥ अथवा इस दोहे को मुकरी मान कर इसको इस प्रकार अर्थ करना चाहिए| ( अर्थ २ )-[ नायक स्वगत कहता है कि दिन भर तथा आधी रात तक जो ] रुकी रही, सो किसी प्रकार चल कर, आधी रात को पधार कर [ और ] हृदय से लग कर सब दिवस का ताप हरती है । [यह सुन कर उससे कोई प्रश्न करता है कि क्या] 'यार' ( प्रेमपात्री ) १ [ नायक सच्ची बात को छिपाने के लिये उत्तर देता है कि नहीं,] 'बयारि' (वायु ) ॥ चुवतु स्वेद मकरंद-कन, तरु-तरु-तर बिरमाइ। आवतु इच्छिन देस हैं थयौ बटोही बाइ ॥ ३९० ॥ शुवतु–यह अकर्मक क्रिया यहाँ सकर्मक रूप से प्रयुक्त हुई है ।। बिरमाइ = विराम कर के, विश्राम ( अवतरण )-कवि शीतल, मंद, सुगंध दाक्षिणानिल का वर्णन, बटोही से रूपक कर के, करता है | ( अर्थ )-मकरंद कण-रूपी स्वेद ( पसीने की बूंदें ) चुअता हुआ, वृक्ष वृक्ष के नीचे विराम कर के, थका हुआ वायु-रुपी बटोही दक्षिण देश से आ रहा है। मकरंद-कण चुआने से पवन को सुगंधि-गुण, वृक्ष के नीचे ठहरने से शीतलत्व एवं थके हुए होने से मंद गमन व्यंजित होता है ।। पतवारी माला पकरि, और न कछु उपाउ । तरि संसार-पयोधि कौं, हरि-नावें करि नाउ ॥ ३९१ ॥ ( अवतरण )-भक्त की उक्ति मन से, अथवा गुरु की उक्ति शिष्य से-- १. नहीं (२) । २. चली ( १ )। ३.१ चल्यौ (१,२) । ४. चल्यो (४)। ________________
बिहारी:रत्नाकर ( अर्थ )-माला-रुपी पतवारी को पकड़ कर, [ और ] हरिनाम को नाव कर के (बना कर ) संसार-रूपी सागर को तर ( पार कर ) । [ इस भवसागर के तरने का ] और कुछ उपाय नहीं है ॥ लपटी पुडुप-पराग-पट, सनी स्वेद मकरंद ।। अवति, नारि नचोड़ ल, सुवद वायु गति मंद ।। ३९२ ॥ ( अवतरण )-इस दोहे मैं कवि नवोढ़ा नायिका की उपमा दे कर शीतल, मंद, सुगंध वायु का वर्णन करती है ( अर्थ )-पुष्प-पराग-रूपी पट में लिपटी हुई [ एवं | पसीने अर्थात् मकरंद में सनी हुई सुखद वायु मंद मंद गति से, नवोढ़ा ( भई ध्याही हुई ) स्त्री की भाँति, आ रही है ॥ | पुष्प-पराग से सुगंध एवं मकरं। मैं सनने से शीतलता व्यंजित होती है, और 'गति मंद' तो दोहे में स्पष्ट उक़ ही है । इस दोहे में बिहारी ने 'वायु' शब्द का स्त्रीलिंग-प्रयोग किया है, पर इसके पहले के दोहे में ‘बार' शब्द को पुलिंग माना है । मापा मैं वायु शब्द स्त्रीलिंग तथा पुलिंग, दोन ही रीति से प्रयुक्तं होता है । ललन, सलोनै अरु रहे अति सनेह स पांगि। तनके कंघाई देत दुख सूरने ल हे लागि ।। ३९३ ।। सूरन--अवध में इसको कॉद कहते हैं । यह मुँह में कनकनाहट उत्पन्न करता है । इसी को सूरन का मुँह में लगना कहते हैं। लवण तथा नृत में मली भाँति पकाने से इसकी कनकनाहट जाती रहती हैं। पर यदि यह कुछ भी कच्चा रह जाता है, तो फिर मुँह में लगता है । यहाँ नायक की कचाई से उसका परस्त्री के फेर में पड़ जाना अभिप्रेत है, और उसके मुँह लगने से उसका अपने अपराध का धुष्टता-पूर्वफ मुकरना कहा गया है । 'तनक कचाई देत दुख सूरन ल मुँह लागि' का भावार्थ यह है कि यदि यह कचाई तुममें न होती, तो तुमको क्यों मुँह लगना पद्दता ।। ( अवतरण )---खंडिता नायिका की उक्ति नायक से-- ( अर्थ ) -हे लालन, [ यद्यपि श्राप ] सलेने ( १. सुंदर।२. लषणयुक्त ) हैं, और स्नेह ( १. प्रीति । २. चिकनाई अर्थात् तेल अथवा घी ) से भली भाँति पग ( परिपक हो ) रहे हैं, । तथापि ] तनिक कचाई से ( कचाई के कारण ) मुंह लग कर ( १. धृष्टतापूर्वक झूठी बातें कह कर ।२. मुंह में कनकनाहट उपजा कर ) सूरन की भाँति दुःख देते हैं।
-- न करु, म अरु सबु जगु करत; त विनु काज तजति ।
हैं कीजै नैन, जौ साँची हैं खात ।। ३९४ ॥ १. न्यौं (२) । २. मुख ( १, ४)। विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-खंडिता नायिका की उक्ति नायक से-- ( अर्थ )-सब जगत् कहता है (सय जगत् में यह कहावत प्रसिद्ध है) [ कि ] 'न कर, न डर' ( न अपराध कर, न दंड देने वाले से डर)। [ अतः यदि आप अपराधी नहीं हैं, तो ] विना कारण क्यों लजित होते हैं { आँखें नीची किए हुए हैं ) । यदि [ आप अपने निरपराध होने की ] सच्ची शपथ खाते हैं, [ तो अपने ] नयन सामने कीजिए ॥ रहिहैं चंचल प्रान ए, कहि, कौन की अगोट ।। ललन चलन की चित धरी, कल त पलनु की ओट ।। ३६५ ॥ अगोट= प्रतिबंध, रुकावट ॥ ( अवतरण )--प्रवत्स्यत्पतिका नायिका का वचन सखी से-- ( अर्थ )-[ हे सखी, तू ही ] कह ( बतला ), थे [ मेरे ] चंचल प्राण किसकी अगोट ( रुकावट ) से [ शरीर में ] रहेंगे । ललन ( प्रियतम ) ने [ तो ] चलने (विदेशगमन ) की [ बात ] चित्त में धरी ( ठानी ) है, [ और यहाँ उनके ] पलकों की ओट [ होने ही ] पर कल ( चैन ) नहीं [ पड़ती ] ॥ | - - जौ चाहत, चटकन घटे, मैलौ होइ न, मित्त । रज राजसु न छुवाइ तौ नेह-चीन चितं ॥ ३९६ ॥ चटकन चटकीलापन, चमकदमक, स्फूर्ति ॥ रज = धूलि ।। राजसु = रजोगुण अर्थात् गर्व, क्रोध इत्यादि ।। ( अवतरण )-कोई अनुभविक सज्जन किसी को चित्त की चोप तथा उज्ज्वलता स्थिर रखने के उपाय की शिक्षा देता है-- | ( अर्थ )--हे मित्र, यदि [ 1 ] चाहता है [ कि चित्त की ] चटक न घटे [ और वह ] मैला न हो, तो रजोगुण-रूपी रज स्नेह से चिकनाए हुए चित्त मैं मत छु । [ भावार्थ यह है कि जिस प्रकार धूलि तेल लगी हुई वस्तु पर सहज ही में जम कर उसको मैला कर देती है, उसी प्रकार स्निग्ध चित्त पर गर्व इत्यादि रजोगुण का प्रभाव पड़ कर उसको मलिन कर देता है ] ॥ कोरि जतन कीजै, तऊ नागर-नेहु दुरै न । कहैं देत चितु चीकनौ नई रुखाई नैन ॥ ३९७ ॥ ( अवतरण )---लक्षिता नायिका से सखी का वचन है । नायिका के मन में श्रीकृष्णचंद्र के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया है, जिससे उसके भाव रसीले हो गए हैं। इसे छिपाने के लिये उसने अपनी । १. पॅगोट ( ३, ५) । २. चाहे ( २ ) । ३. मित्त ( ४ ) । ४. छुवाइयै (२)। ५. चौकनौ ( १, ३, ५) । ६. चित्त (४)। ________________
बिहारी-रत्नाकर अाँखाँ मैं रुखाई धारण की है। पर उस बनावटी रुखाई ही से उसका प्रेम लक्षित कर के सखी कहती है-- ( अभं) -[ हे सखी, ] करोडों यल [ क्यों न ] किए जायें, पर [ उस ] नागर को स्नेह [ ऐसा विलक्षण है कि ] छिप नहीं सकता। [ तेरे ] नयन [ आज ! नई रुखाई से (नई रुखाई धारण करने के कारण )[ तेरा ] चिकना (स्निग्ध, अनुरक्त) चित्त कहे देते हैं ( बताए देते हैं ) ॥ लाल, तुम्हारे रूप की, कहौ, रीति यह कौन ।। जासौं लागत पलकु दृग लागत पलक पलौ न ॥ ३९८ ॥ ( अवतरण )--1नुरागिनी की सखी अथवा दूत नायक से उसका विरह निवेदन करती हुई उसकी अनिद्रा दशा कहती है-- ( अर्थ )--हे लाल !! भला ] कहो [ तो सही !, तुम्हारे रूप की यह कौन [विलक्षण ] रीति है [ कि ] जिससे पल मात्र लगते ही [ फिर ] दृग पलक से पल भर भी नहीं लगते ( छू जाते, अर्थात् पलकें खुली ही रहती हैं, नेत्रों पर हँपतीं नहीं )॥ कालबूत दूती विना जुरै न और उपाइ । फिरि तक टेरें यनै पाकै प्रेम-लदाइ ।। ३९९ ॥ कालबूत---यह फ़ारसी शब्द 'कालबुद' का अपभ्रंश है । इसका अर्थ वह ढाँचा है, जिस पर कोई वस्तु, आकार शुद्ध करने के निमित्त, चढ़ाई जाती हैं, जैसे टोपी का कालबूते, जूते का कालबूत इत्यादि । यहाँ कालबूत का अर्थ मट्टी अथवा ईट इत्यादि का वह ढाँचा है, जो छत अथवा द्वार का कड़ा जोड़ने के समय, सहारे के निमित्त, उसके नीचे दिया जाता है । दाइ ( लदाव ) = छत अथवा द्वार के कड़े की जुड़ाई, जो कालबूत के सहारे की जाती है । | ( अवतरण )-पहिले तो नायिका ने दूत के द्वारा नायक से प्रेम दृढ़ कर लिया, और फिर उसको छाँटा बतखा कर अलग ही अलग मिलने जुलने लगी । उसके इसी व्यवहार पर दूसी उसको उक्षाहना तेती है ( अर्थ )-दूत-रूपी कालबूत के विना और [ किसी ] उपाय से [ प्रेम-रूप लाव] नहीं जुड़ता। [ पर ] फिर [ उस ] प्रेम-रुपी सदाच के के ( भली भाँति पुष्ट ) हो जाने पर उसके ( उस दूती के ) टारे [ ही ] बन आता है। ०. रह्यौ ऍाँच, अंतु न ले है अवधि-दुसासनु पीरु । आली, वाढतु बिरहु ज्यौं पंचाली की थीह ॥ ४०० ।। अवधि = सीमा । यहाँ अवधि का अर्थ प्रियतम के आने का निश्चित दिन है ॥ तुसासनु ( दुःशा१. लागे (४) । २. बरं ( ५ ) । ३. लसे ( २ ) । ४. प्रेम (१) । ५. लौ (२) ।
विखे-रत्नाकर सन ) = दुर्योधन का छोटा भाई । जब पांडव लोम जुए में द्रोपदी को हार गए, तो कारखाँ ने उनके अपमान के निमित्त उसे भरी सभा में नंगी करना चाहा । पर जब दुःशासन उसका चीर खींचने लगा, तो श्रीकृष्णचंद्र के अनुग्रह से वह बढ़ने लगा; यहाँ तक कि चीर के ढेर के ढेर लग गए, पर उसका अंत न आया ॥ पंचाली ( पांचाली ) = द्रौपदी ॥ ( अवतरण )-नायक परदेश गया है, और जाते समय अपने लौटने का कोई दिन नियत्र कर गया है। प्रोषितपतिका नायिका के दिन, उसके वियोग मैं, बड़ी कठिनता से करते हैं। यद्यपि प्रियतम की बदी हुई अवधि उसके विरह के समय को अपनी ओर खाँच खाँच कर कम करती जाती है, तथापि उसका दुःख प्रतिक्षण ऐसा बढ़ता जाता है कि उसको शेष समय उतना ही अधिक प्रतीत होता है, जितना समस्त अवधि का समय था । यही व्यवस्था नायिका सखी से कहती है | ( अर्थ )-हे सखी, [ मेरा ] विरह (विरह-दुःख का समय ) द्रौपदी के चीर के समान बढ़ता [ही ] जाता है । अवधि-रूपी धीर दुःशासन [ उसे] खींच रहा है, [ पर उसका] अंत नहीं पाता ॥