बिहारी-रत्नाकर/२
यह निर्माणाधीन पुस्तक है। इसकी वर्तनी जाँच का कार्य अभी पूर्ण नहीं हुआ है। आप इसमें हमारी मदद कर सकते हैं। |
प्रगट भए ब्रिजराजकुल, मुबस बसे ब्रज आाहू । मेरे हरी कस सव, केसेब केसंवरार ॥१०१ ॥ १. दीठि (१ )। २. केसौ ( १, २ )। बिहार-चार विज्ञाज=(१ ) चंद्रमा ।(२ )त्राह्मण द्विराजकुल ८ (१ ) चंद्रवंश, यदुवंश । श्रीकृष्णचंद्र का अवतार. यदुवंश में, जो कि चंद्रवंश की एक शाखा है, हुआ था । (२ ) ब्राह्मणवंश । कवि का जन्म बात-में हुआ था ॥ सुबल ( स्ववश ) अपने वश से, अपनी इच्छा से ॥ केसव ( केशव ) भगवान् श्रीकृष्णचंद्र ॥ केसवाह ( केशवराय )= बिहारी कवि के पिता ॥ ( अवतरण —कवि, श्रीकेशव भगवान का रूपक अपने पिता केशवराय से कर के, उनसे अपने क्षेत्रों को दूर करने की प्रार्थना करता है । पिता से रूपक इसलिए किया है कि पिता संत म का दु:ख स्व भाव ही से हरता है ( अर्थ –के विजराज ( १० चंद्रमा 1 २. ब्राह्माण ) के कुल में प्रगडे , [ और ] आमनी इच्छा से राज में आकर बसे हुए केशवरायरूपी केशव ( मेरे लिए पिता के तुल्य केशव भगवान ), मेरे सब क्लेश इसे ॥ g-. केसरि के सरि क्याँ स) चंपई कितंश अन्यु । गातरूणु लाखि जातु दुरि जातरूप कौ रू ॥ १०२ ॥ केसरि= कुंकुम ॥ सरि= सादृश्य, बराबरी ॥ कित कु = कितना ॥ अन्= जलप्राय, जल वाला श्री पानी वालाआबदार संस्कृत में इस शब्द का अर्थ जलप्राय है । बिहारी ने "सी से इसको यहाँ पानी। वाला, अर्थात् सुंदरके अर्थ में प्रयुक्त किया है। भाषा में इसका प्रयोग सामान्यतः अनुपम के स्थान पर होता है ॥ जातरूप =सुवर्ण । जातरूप का धावधे जन्म से सुंदर होता है । यह शब्द यहाँ साभिप्राय प्रयुक्त हुआ है। इसका भाव यह है कि सुवर्ण भी, जो कि सहज ही सुंदर है, उसके रूप के आगे फीका पड़ जाता है तो फिर और की क्या बात है । ( अवतरण ) नायिका की गुरई की प्रशंसा सखीनायक से करती है, अथवा नायक स्वगत कहता है ( अर्थ )ई उसके रूप की ] बराबरी केसर कयाकर कर सकती है, [ और ] चंपक. कितना आबदार है,[ जो उसकी बराबरी कर सके ]। [ उसके ] शरीर का सौंदर्य देख और [ तो ] जातरूप ( स्वर्णजो कि स्वभाव ही से युवर है) का रूप [ भी ] छिप जाता ( फीका पड़ जाता ) है ॥ मकरकृति गोपाल के सोहत कुंडल कान। धौभनौहिय-घर समरुजैकलीं लसत निसान 7 १०३ ॥ मकराकृति = मकर की आकृति के एक प्रकार का कुंडल मकर श्रथवा मछली के आकार का होता है। कुंडल व कानों ’ में पहनने का -भूषण विशेष । उसके मकराकृतिहोने के कारण कवि ने उसकी उपेक्षा कामदेव के निशान से की है ॥ धौ= पकड़ा, अपने अधिकार में किया ॥ दियधर= हृदयरूपी धरा अर्थात् देश ॥ समर स्मर ) = कामदे ॥ ड्यौढ़ी राज तथा अन्य धानिकों के द्वारों’ पर, मीतर की ओर दो मी इस प्रकार ड्योढ़ कर के बनाई जाती हैं कि बाहर से भीतर का सामना नहीं पड़ता । इन्ह ड्योढ़ी मीत के कारण १० किति (१)। २. मनौ धरथ (२ ), धस्यौ (५ )। ३. द्वारे (४ )। राEk वे द्वार भी ड्योढ़ी कहलाते हैं। कान की बनावट भी वैसी ही घुमाव फिराव की होती है, अतः कवि ने कान को ड्योढ़ी माना है । ॥ लसत = विलास करता है, लहराता है, फहराता है ॥ निसान ( फ़ा० निशान )= निशान उस ध्वजा को कहते हैं, जिस पर उसके धारण करने वाले का कोई चिह्न बना रहता है । कामदेव की ध्वजा पर मछली अथवा मकर बना हुआ माना जाता है, और इसी से उसका नाम मीनकेतु, मकरध्वज इत्यादि है । ( श्रवतरण ) सखी नायक के पास हो कर आई है, और नायिका का वर्णन सुन कर नायक पर कामदेव का जो प्रभाव पड़ा है, उसका वर्णन करती है कि उसके हृदय को कामदेव ने वशीभूत कर लिया है, जिसका प्रमाण यह है कि कंप साविक के कारण उसके कुंडल थहरा रहे हैं। ( अर्थ )--[ हे सखी1 गोपाल के कानों में मकराकृति कुंडल [ ऐसे ] शोभित हैं, मानो हृदयरूपी देश को कामदेव ने विजय कर लिया है, [ सो उसके ] निशान ड्योढ़ी पर फहरा रहे है । कान की उपेक्षा ड्योढ़ी से करने से यह व्यंजित होता है कि कामदेव के हृदय-देश में प्रवेश करने के मार्ग कान ही हैं, अर्थात् नाय पर कामदेव का प्रभाव गुणश्रवण ही द्वारा हुआ है । जिन पाँच पुस्तकों के आधार पर दोहाँ के पाठ शुद्ध किए गए हैं, उनके अनुसार तो इस दोहे का यही पाठ शुद्ध ठहरता है । अतः यही पाठ इस संस्करण में रखा गया है । पर अनवरचंद्रिका, कृष्ण कवि की टीका, अमर-दि का, लाःल-चंद्रिका तथा श्रृंगारसप्तशती के अनुसार इसका पाठ एकाध शब्द के हेरफेर से यह ठहरता है मकराकृति गोपाल के सोइत कुंडल कान । धस्य मनौ हियघर समरु, ड्योढ़ी जसप्त निसान ॥ हरिप्रकाश-टीका तथा रसचंद्रिका में ‘घर’ के स्थान पर ‘गढ़' पाठ है । इन पुस्तकों के पार्टी पर ध्यान देने से जान पड़ता है कि बिहारी ने यही पाठ लिखा होगा, और प्राचीन पुस्तकों में ‘वस्य’ तथा 'घर' के स्थान पर धबौ’ तथा धर, लेखों के प्रमाद से, लिख गया होगा , क्योंकि धस्यौ’ तथा चपी’ एवं ‘घर’ तथा ‘धर' के लिखने तथा पढ़ ने, दोनों ही मैं धोखा हो सकता है। इस पाठ के अनुसार यह अर्थ होता है गोपाल के कार्यो में मकराकृति कुंडल [ऐसे ] शोभित हैं, मानो कामदेव [ उनके ] हदय मंदिर मैं पैठ गया है, [और उसका] निशान पोदी पर फहराता है । इस पाठ में भी भावार्थ वही रहता है । खौरि-पनिच भृकुटी-धनुषु बाधि0 समरूताकि कानि । हन तरुन-चुंग तिलक-सर सुरक-भाल, भरि तानि ॥ १०४ ॥ बौरि-—दौरि श्रथवा खौर उस भाड़े तिलक को कहते हैं, जो बीच में से खुरचा हुआ होता है। पनिच ( पतंचिका ) = धनुष की ज्या । खौरि-पनिच-इस समस्त पद में बहुत्रीह समास है । इसका अर्थ 'खौरि है पनिच जिसमें ऐसा होता है । यह पद कुटीधनुषु का विशेषण है ॥ बाधिक = व्याघ, शिकारी ॥ कानि= रुकावट, रोक-टोक ॥ सुरक-सरक नाक पर के उस तिलक को कहते हैं, जो माल की आकृति १. मृगु ( १ )। २. भाल ( , ५ )। बिहारीरसाकर का होता है ॥ भाल ( मन )= बान अथवा भाले का फल ॥ सुरक-भाल—यह भी खौरि-पनिच का भाँति समस्त पद है । इसका अर्थ ‘सुरक है भाल जिसमें ऐसा होता है । यह पद तिलक-सर' का विशेषण है ॥ भरि तानि=भरपूर तान कर ॥ ( अवतरण ) नायिका के तेवर चढ़ाने पर नायक रीझ कर स्वगत कहता है ( अर्थ )-खौर-रूपी पनिच वाले भृकुटीधनुष को भरपूर तान कर कामदेवरूपी बधिक, विना किसी रोक टोक के माने, सुरक-रूपी भाल वाले तिलक-रूपी बाण से तरुण- जनरूपी का शिकार करता है । नीकौ ल सतु लिलार पर टीक जरिछं जराइ। जुबिहेिं बढ़ावतु रबि मनौ ससिमंडल मैं आइ ॥ १०५ ॥ लिलार= ललाट ॥ टीकौ = एक प्रकार का जड़ाऊ, गोल ग्राभूषण, जिसे नि. ललाट पर धारण करती हैं ॥ जरितु जराइ = जड़ाऊ काम से जड़ा हुआ ॥ ( अवतरण )-नायिका के जड़ाऊटीका-युक्त ललाट की शोभा पर रीझ कर नायक स्वगत कहता है ( अर्थ )[ उसके ] ललाट पर जड़ाऊ काम से जड़ा हुआ टीका [ कैसा ] अच्छा शोभित है, मानो चंद्र-मंडल में आ कर सूर्य [ उसकी ] छवि बढ़ा रहा है । सूर्य के आगे चंद्रमा की छवि क्षीण पड़ जाती है । अतएव यहाँ यह आश्चर्य की बात है कि उसके मुख-रूपी चंद्र के मंडल में आ कर जड़ाऊटीका-रूपी सूर्य उसकी कांति को और भी बढ़ा देता है । लस सेतसारीअप्यौ, तरल तयौना कान । पचौ मनौ मुरिसलिल रबि-प्रतिबिंदु बिहार ॥ १०६ ॥ तरल = चंचलहिलता हुआ ॥ बिहान प्रातःकाल ॥ ( अवतरण ) -नायिका के ताठक की शोभा लक्षित कराने के ब्याज से सखी नायक से, उसका प सावि के प्रकट कर के, उसका अनुराग ब्यंजित करती है- ( अर्थ ) -[ उसके ] कान में तबौना [ कंप होने के कारण ] हिलता हुआ [ और ] श्वेत सारी से ढपा हुआ [ ऐसा ]लसता ( शोभित होता ) है, मानो प्रातःकाल सूर्य का प्रतिबिंब गंगाजी के [ किंचित् हिलते हुए ] जल में पड़ा है । --- हम हार्टी के के हहा, पाइ पाबौ प्यौर। लेडू क हा अजहूं किए ते-नरेय त्यौरु ॥ १०७ ॥ ड हा—ब्रज में जब कोई अत्यंत दीनता से विनती करता है, तो जिससे बिनती करता है, उसको ‘कहा' १• लिलाट (२, ४, ५ ) । २. जटित ( २, ५ ) । ३ सारी ( १) ! ४. मुरसलिलविच (५)। ५. तरेरो (.१, ४ )। ५० बिहारी-नाकर अथवा हाहा कह कर संबोधित करता है, जैसे ‘हाहा सखी, मैं तेरे’ पायनि पाँ हैं, हैं मानि जा।’ अIn 'हाह करना' अथवा 'हाहा खाना' बड़ी नम्रतापूर्वक विनती करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है |फ्यौफ प्रियतम ॥ तेहतरेखौ= रोष के कारण तरेरते हुए अर्थात् तर्जन करते हुए ॥ त्यौ=तेवर ॥ ( अवतरण ) सखी मान छुड़ाने के निमित्त नायिका से कहती है ( अर्थ ) -हम [ सस्त्रियाँ तो ] हाहा करते करते हार गईं ( थक गईं ),[ और ]प्यारे को [ तुम्हारे ] पैरों पर पारा ( गिराया )[ भी ]। [ पर तुम नहीं मानती हो, तो ] अब भी ( इस पर भी ) रोष से कड़े तेवर करने से क्या ले रही ( लाभ उठा रही ) हो [ अर्थात् विनती करने और पाँव पड़ने से अधिक तो कोई बात है ही नहीं , जिससे तुम्हारे मान जाने की आशा की जाय । अब तुम क्या यही चाहती हो कि प्रियतम निराश हो कर यहाँ से चला जाय] ॥ सतर भौंहरूस्खे बचन, करति कठिनु मनु नीठि। कहा करें, है जांति हरि हरि हँसहीं डीठि ॥ १०८ ॥ सतर = तर्जनयुत । कड़ी ॥ नीठि= बड़ी कठिनता से ॥ ( अवतरण ) सखी ने नायिका को मान करना सिखलाया है। पर नायक को देख कर नायिका को कुछ हंसी आ जाती है, और वह मान ठान नहीं सकती । अपनी इसी विवशता का वृत्तांत वह सखी से कहती है ( श्रर्थ )[हे सखी, मैं ] नीति ( किसी न किसी प्रकार से ) भृकुटियों को सतर ( धमकाने के भाव से भरी ), चचन को रूखा, [ तथा ] मन को कठिन ( कठोर ) करती हूँ ( बनाती . ) [ पर ] क्या करू, हरि ( श्रीकृष्णचंद्र ) को देख कर [ मेरी ] दृष्टि [ प्रमाधिक्य से ] हसोंहीं हो जाती हैं [ जिससे सब खेल खंडित हो जाता है 1 ॥ -988 वाहि ल लोइन लगे कौन जुबति की जोति। जा तन की छाँहढिग जोन्हें छह सी होति ॥ १०९ ॥ ( अवतरण ) —सखी नायिका की तन-वृति की प्रशंसा नायक से करती है । ( अर्थ ) जिसके तन की परछाई के ढिग ( निकट ) चाँदनी परछाहीं सी लगती है [ अर्थात् जिसके शरीर में ऐसी कांति है कि उसकी छाया में भी प्रकाश है, और उस प्रकाश के आगे उसके समीप की चाँदनी छाया ऐसी प्रतीत होने लगती है , उसे देखने पर किस युवती की ज्योति ( कांति ) लाचन में लग सकती है ( जा सकती है, अच्छी लग सकती है ) ॥ कहा कहाँ वाकी दसा, हैरि प्रान के हैं । बिरहजूवाल जरियो मरिब भेई असीस ॥ ११० ॥ १. जाय (२ )। २० औद्द जोन्ह (४ )। ३० पिय ( १ )। ४. करे (४ )। ५. भयो (४ )। बिहारी-रनाकर ५है। ( अवतरण ) सखी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है (अर्थ )-हे प्राणों के ईश हरि ! [ मैं ]उसकी दशा क्या कहूँ [ वह कहने के योग्य नहीं है ]। विरह ज्वाला में [ उसका ] जलना देख कर [ उसका ] मरना [ मनाना,जो कि समस्त प्राणियों के निमित्त परम शाप है ] आशीर्वाद हो गया है [ क्योंकि मर जाने से वह इस महान् कष्ट से तो छूट जायगी]। जब किसी रोगी की अंतिम दशा आ जाती है, और उसके प्राणाँ को घोर यंत्रणा होने लगती है, तो उसके पर न प्रेभी भी कहने लगते हैं कि अब तो ईश्वर इसे उठा ले, तो ही अच्छा है। उसी यंत्रणा की दशा का वर्णन सखी करती है । प्रान के ईस, यह साभिनाय विशेषण है। इससे सखी व्यजित करती है कि आाप उसके प्राएँ के स्वामी हैं, अतः मैं आपको जताए देती हूं कि अब वे प्राण जाया ही चाहते हैं। यदि आपको अपनी थाती की रक्षा करनी हो, तो शीघ्र यथोचित उपाय कीजिए ॥ _ 5 - जेती संपति कृपन हैं , तेती स्यूमति जोर । बढ़त जात ज्यों ज्य उरज, त्याँ त्याँ होत कठोर ॥ १११ ॥ सूमति = कृपणता ॥ जोर =जोर पर होती है ॥ कठोर ( १ ) कड़े ।(२ ) निर्दय, किसी याचक पर न पसीजने वाले ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्ति है ( अर्थ )कृपण के [ पास ] जितनी संपत्ति [ होती है ], उतनी [ ही उसकी ] स्मता ज़ोर पर [ होती है ]। [ देखो, ] ज्यों ज्यों उरोज बढ़ते जाते हैं, त्यों स्या कठोर होते जाते हैं । A " A ज्य ज्य जोघनजेठ दिन बुच मिति आति अधिकाति। त्य त्य छिन छिन कटिछपा छीन परति नित जाँति ॥ ११२॥ मिति प्रमाण ॥ छपा ( क्षपा )= रात्र ॥ ( अवतरण ) नायिका के शरीर के यौवनागमन की शोभा सखी नायक से कहती है, अथवा नायक उस पर री कर स्वगत कहता है। ( अर्थ )—ज्यों ज्यों गौवनरूपी ज्येष्ठ [ मास ] के कुचरूपी दिन की मिति ( सीमा ) बहुत बढ़ती जाती है, त्यों त्यों कटिरूपी रात्रि क्षण क्षण ( १. क्षण क्षण में ।२. क्षण क्षण कर के ) नित्यप्रति क्षीण पड़ती जाता। है । यौवनागमन में कटि का घटना कवि लोग इसलिये कहते हैं कि वह कुओं के उभार से पतली प्रतीत होने लगती है । । ५ की (४, ५ )। २, श्राधिकार (२ )। ३. छिपा (५ )। ४, जाहू (२)। ५२ बिहारी-रलाकर तेहतरे त्यौ करि कत करियत दृग लोल । लीक नहीं यह पीक की श्रुतिमनि-झलक कपोल ॥ ११३ ॥ ते-रोष ॥ त=तर्जनयुत हुए ॥ त्यौरु ( त्रिकूट )= तेवर ॥ श्रुतिमनि= कान में पहनने की मणि ॥ ( अवतरण )—प्रातःकाल नायक नायिका के यहाँ आया है । उसके कपोलाँ पर पीक की लीक खगी हुई है, जिसे देख कर नायिका रोप करती है । सखी बही चातुरी से, उसका रोप मिटाने के निमित्त, यह दोहा पढ़ती है। इसी एक दोहे से उधर तो वह नापक को चैतन्य करती है कि उसके कपोल पर पीक की लीक लगी हुई है, जिसमें वह उसे किसी ब्याज से पाँछ डाले, और इधर नायिका से कहती है कि यह पान की पीक की लाली नहीं है, प्रत्युत कान की लाल मणि की आभा है ( अर्थ )[हे सखी, ] रोष से तरजता हुआ तेवर दर के आँखें क्यों लोल ( चंचल ) की जाती हैं । [नायक के] कपोल पर यह [जो लाली दिखाई देती है, वह ] पीक की लीक नहीं है, [ प्रत्युत ] कान की [ लाल ] मणि की झलक ( आभा ) है [अतः रोष करने का कोई कारण नहीं है ]। नै के न जानी परति, या पौ बिरह त छात्रु । उठति दिशें ल नाँदि , हरि, लिथू तिहा नामु ॥ ११४ ॥ छातु ( धाम ) = क्ष।ण ॥ नाँदि जब दिए में तेल इत्यादि कम हो जाता है, और वह बुझने को होता है, तो पहिले दो-एक बार भभक कर बल उठता है । इसको दिए का नाँदना कहते हैं । ( अवतरण ) सखी अथवा दूत नायक से नायिका का विरह निवेदित करती है ( अर्थ ) विरह से [ उसका ] तन ऐसा क्षीण पड़ गया है [ कि वह ]नैक ( किंचि मात्र )[ भी ] जान नहीं पड़ती (देखने में नहीं आती ) [ किंतु ]हे हरि ! तुम्हारा नाम लेने से [ वह ] दिए की भाँति नाँद उठती है । कभी कभी, तेल इस्यादि रहने पर भी, दिए की लौ मंद पड़ने लगती है । उस समय लोग कहते हैं कि दीपक किसी पाहुने का आागमन सूचित करता है, और यदि वे दो-चार ऐसे मनुष्य के नाम लेते हैं, जिनके आने की संभावना होती है, तो उस क्याक्ति का नाम लेने परजो कि आने वाला होता है, दीपक भभक कर यल उठता है । इसको भी नदभा कहते हैं । जब मनुष्य मरने लगता है, तो बहुधा मरने के पूर्व एका एक कुछ चैतन्य हो जाता है। इसको मरते समय का सँभाला कहते हैं। सखी दीपक का नाँदना कह कर सँभाले का ध्यान दिलाती है । -8 ----- नभलाली चाली निसाचटकाली मुनि कीन । रति पाली, आलीअनत, आए बनमाली न ॥ ११५ ॥ चाली= चाल डाली अर्थात् रात्रि के अंधकार को छिद्रमय कर दिया ॥ चटकाली ( चटकआलि ) गौरैयों की पंक्ति ॥ १ तरेपो (५ )। २. नैन (२ )। ३. घति (४ )।४. दिया (४ )। बिहारी-रक्षाकर ( अवतरण )—उत्कंठिता नायिका सखी से कहती है ( अर्थ )-नभ की लाली ने रात्रि चाल डाली ( रात्रि की कालिमा में अरुणोदय का प्रकाश मिश्रित हो गया, अर्थात् झलफलाह होने लगा ), [ और ] चटकाली ( चटक की पंक्ति ) ने ध्वनि की ( चिड़ियाँ बोलने लग ), [ पर ] वनमाली ( श्रीकृष्णचंद्र ) [ अभी तक ] नहीं आए। हे अली ( सखी ), [ है उन्होंने कहाँ] अनत ( अन्यत्र ) ज्ञात होता के रति पाली ( प्रेम का पालन किया ) ॥ - १७-. सोवत सपे* स्यामघनु मिलिहिलि हरंत बियोए । तब ही टरि कित हूँ गईनदेौ नींद जोए ॥ ११६ ॥ मिलिहिलि = आलिंगनादि कर के ॥ नींद = निंदा करना ॥ ( अवतरण ). -नायिका ने नायक को स्वप्न में देखा, पर उसी समय उसकी नींद खुल गई । श्चातः वह नींद को निंदा करने क योग्य कहती है ( अर्थ )-[ हे सखी, ] सोते हुए ( सोते समय ) स्वप्न में घनश्याम हिलामिल कर f मेरा ] वियोग ( वियोगदुःख ) हर रहे थे । [ पर ] उसी समय [ नींद ]टल कर कहीं चली गई ।[ अतः अब ]नींद को भी बुरा कहना (आहितकर समझना उचित है ।[ निद्रा की चाह तो केवल इसी निमित थी कि स्वप्न में प्रियतम का संयोग प्राप्त हो। पर जब ऐसा अवसर प्राप्त हुआ, तो निद्रा भी टल गई । अतः अब वह भी खान-पानादि की भाँति दुःखद ही है ]। संपति केसदेस नर नवैत, दुदुनि इक यानि । विभ सतर कुचनीच नर ;नरम विभव की हानि ॥ ११७ ॥ संपति ( संपात्त ) = भरापुरा होना । केश के पक्ष में इसका अर्थ बाढ़तथा नर के पक्ष में धन, होता है ॥ सुदेस ( सुदेश )= श्रेष्ठ स्थान वाले, उच्च १द वाले ॥ नवत = केश के पक्ष में इसका अर्थ नीचे की ओर चलते हैं, और नर के पक्ष में नम्र होते हैं, है ॥ बानि = प्रकृति ॥ बिभव =वैभव । देश के पक्ष में इसका अर्थ बाढ़, तथा नर के पक्ष में ऐश्वर्यहै । ( अवतरण ) यह कवि की प्रास्ताविक उ िहै ( अर्थ )-केश, [ तथा ] श्रेष्ठ पद वाले नर संपत्ति में नवते हैं मैं दोनों की [ यह ] पक [ ही ] प्रकृति है । [ पर कुिच[ तथा ]नीच नरविभव में तनेने [ और ] विभव की इानि में नरम ( १. सुजलुले। २. दीन ) [ हो जाते हैं ]। 988 कहत सी कवि कमल से, मो मत नैन पग्ख़ाड । नतरुक कत इन विय लगत उपज विर कृसाड ॥ ११८ ॥ १. अपनै (२, ४ )। २ . हिलिमिति ( ५ )। ३ रहत (२ )। ४, नींदड (४ )। ५ , नमत (५ ) ५४ बिहारी-रक्षाकर नतहक = नहीं तो, अन्यथा ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुराग में नायिका अथवा नायक का वचन सखी से- ( अर्थ )-सभी कवि [ इनको] कमल के समान कहते हैं, [ पर ] मेरे मत से नयन पाषाण हैं , नहीं तो इनमें दूसरे [ नयनों ] के लगने से (१. मिलने से।२. टक्कर खाने से) विरह की अग्नि क्यों उत्पन्न होती है । हरि हरि : बरि बरि उति है, करि करि थकी उपाइ । बकौ , बलि के३ जौ तो रस जाइ) जाइ ॥ ११९ ॥ हरि हरि! -हरि हरि, शिव शिव इत्यादि पद किसी बात के खेदपूर्वक कहने में प्रयुक्त होते हैं। गुरु = ज्वर ॥ बैद—वैय का मुख्यार्थ पंडित, सुजान है । सामान्यतः इसका प्रयोग चिकित्सक के अर्थ में होता है । इस दोहे में इसके दोनों ही श्रथा” का प्रहण है । रस —यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । नायकपक्ष में इसका अर्थ प्यार अथवा मिलनसुख है, श्रौर वैद्य-पक्ष में मृत्युंजयादि रस ॥ ( अवतरण ) -सखी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती । है ( अर्थ ) हर हरि ( हाय हाय ) : [ वह क्षण क्षण पर] बल बल उठती है, [ में तो] उपाय कर कर के थक गई [ पर कुछ लाभ नहीं होता ] ! है वैद्यजी, में आपकी बलि गई [ अब तो कोई और उपाय चलता दिखाई नहीं देता, हाँ ] यदि तुम्हारे रस से उसका ज्वर ( विरहताप ) जाय तो जाय ॥ यह विनसतु नए रात्रि के जगत बड़ौ जर्स्ट लेड । जरी बिषम जुर जइटें आई ठंदरसनु देह ॥ १२० ॥ न =रलस्त्री-रत्न ॥ दरसन ( सुदर्शन ) (१ ) सुंदर दर्शन I(२ ) एक प्रकार का चूर्ण विशेषजो विषम ज्वर में दिया जाता है । ( अवतरण )—विरहिणी नायिका की दशा सखी नायक से पत्रद्वारा निवेदित करती है ( अर्थ ) इस नाश होते हुए स्त्री-रल को रख कर ( नष्ट होने से बच कर ) जगत् में बड़ा यश प्राप्त करो । इस विषम ज्षर से जली जाती हुई को आ कर सुदर्शन दो ॥ e या अनुरागी चित्त की गति समु नदि कोइ। ज्य ज्य बूड़े स्याम रंग, त्य त्यौं उज्ज़लु होइ ॥ १२१ ॥ अनुरागी=प्रेमो, अनुराग-युक्त । अनुराग का रंग कविसमय के अनुसार लाल माना जाता है, अतः 'अनुरागी' का अर्थ लाल रंग वाला भी होता है ॥ गति = चाल । यहाँ इसका अर्थ रीति, व्यवस्था है। । १. कहि ( २ ), आति ( ५ )। २. ज्वर ( ४ ) । ३. लौं (२ ), लों (४ 3, ज्य ( ५ ) । ४. तो ( २, ४, ५ )। ५. इह ( ५ ) । ६. सुख ( ५ ) । ७. ज्या:ों ( १ ), जाइयों (२ ), ज्याइए (४.), जाइये (५ )। ८. सुदर्शन ( ५ )। ह• बूडतु ( १ ), भीलै (४) । बिहारीरनाकर ५५ स्याम रंग ( श्याम रेंग )—यह पद यहाँ श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ 'श्रीकृष्णचंद्र के अनुराग में होता है, और दूसरा अर्थ काले रंग में' ॥ उजलु ( उज्ज्वल ) इस शब्द के भी यहाँ दो अर्थ हैं—(१) निर्मल पवित्र I(२ ) श्वेत ॥ ( अवतरण ) किसी भक्ति की उक्ति है ( अर्थ ) इस अनुरागी ( १. प्रेमी ।२. लाल रंग वाले ) चित्त की [ विलक्षण ] व्यवस्था कोई समझ नहीं सकता। ज्यों ज्यों यह श्याम रंग में डूबता है, त्यों त्यों उज्ज्वल होता है । विलक्षणता यह है कि काले रंग में डूबने से वस्तु काली होती है, पर चित्त श्याम रंग में ज्य जयाँ डूबता है, स्य स्य उज्ज्वल होता है । ४ बिप सौति देखत दहें अपने हिय हैं’, लाल । फिरति सबैंड में डहडही हैं मरगजी माल ॥ १२२ ॥ बिय = अन्य, और ॥ डहडही=प्रफुल-वदन ॥ मरगजी = मसली हुईमुरझाई हुई ॥ ( अवतरण ) प्रेमगर्विता नायिका की दशा सखी नायक से निवेदित करती है ( अर्थ )–हे लाल ! अन्य सौतों के देखते हुए [ आपने जो ] अपने हृदय से [ उतार कर] दी, उसी मसली हुई माला [के पाने के गर्भ से वह ] सबों में प्रफुलबदन घूमती है ! y छला छबीले लाल कौ नवल नेह लहेि नारि । बति, चाहति, लाइ उर पहिरति, धरति उतारि ॥ १२३ ॥ ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका की प्रेमदशा का वर्णन सखियाँ आपस में करती हैं ( अर्थ )-नए नए स्नेह [ की लगन ] में छबीले ( सुंदर ) लाल का छल्ला पा कर T यह ]ली [ उसको ]चूमती है, [ बड़े प्रेम से देती है, हृदय में लगा कर पहन लेती है, [ और अंत को इस भय से कि कोई देख न ले ] उतार धर लेती है । कर [ यल से ] नित संसौ सौ पचढ) मनौ घु इहैिं अर्जुमातु । बिरहअगिनि-लपटलु सकतु झपटि न मीसचाऐं॥ १२४ ॥ संस =श्वासाप्राण ॥ हंसहंस पक्षी ॥ अनुमानु= अनुमान किया हुआ कारण ॥ मीड-मृत्यु ॥ सचानु ( संचान ) =एक प्रकार का बा की जाति का पक्षी ॥ ( अवतरण ) सखी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है ( अर्थ ) [ विरह दुःख से उसकी ऐसी दशा हो रही है कि अब मरी और तय मरी १. पिय, तिय (२ ), पिय (४, ५ )। ३. की (४ )। ३. डहडही संबद्ध मैं ( २ )। ४. वहै (२ ), वह ( ४ )। ५. लै ( ४ )। ६ . चूमति ( २ ) । ७. रहतु (२ )। ८, उनमान ( २ )। ई• सके (२ ) । १०. सिचान ( १, २, ५ ) । पर ] नित्यप्रति [ जो उसका ] श्वासा-रूपी हंस बच जाता है, तो इसमें ( इस बच जाने में )[ यह ] अनुमान मानो ( ठीक समझो )[ कि ] विरहाग्नि की लपटों ( ज्वालाओं ) के कारण मृत्यु-रूपी संचान [ उस पर ] झपट नहीं सकता ( अर्थात् उसकी विरह ज्वाला ऐसी कराल है कि उससे डर कर मृत्यु भी पास नहीं आती ) ॥ थाकी जतन अनेक करि, नैक न छाति गैल । करी खरी दुयरी ठ लगि तेरी चाहचुरैल ॥ १२५ ॥ ( अवतरण ) सखी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है ( अर्थ )तेरी चाह-रूपी चुडैल ने लग कर उसको भली भाँति दुबली कर दिया है । [ मैं ] अनेक यक्ष कर के थक गई [ पर वह ] किंचिन्मात्र [ भी ]रौल ( , पीछा ) नहीं लाज गहौ, बेकाज कत घरि रहे, घर जाँहि । गोरख चाहत किंत हैौ, गोर सु चात नाँहि ॥ १२६ ॥ गोर—पहिला 'गोरस' शब्द श्लिष्ट है । इसके दो अर्थ हैं—( १ ) वाक्यविनोदबतरस ।(२ ) इंद्वियरसकामक्रीड़ा । दूसरे 'गोरस' शब्द का अर्थ दूधदही इत्यादि है । ( अवतरण )—यह दोहा स्वयंदूतिका नायिका का वचन नायक से है । इससँ वह श्लेषद्वारा नायक को अपना अभिप्राय समझा । देती है, और संग वाकियों की समझ में नायक को रोकने से वार्जित करती है। यही नहींनायक से भी वह ऊपर से वर्जन ही करती है। सामान्यतः तो वह यह कहती है ( अर्थ १ )ई , दही इत्यादि का दान तो हम दे चुक , अब तुम हमें ] थिा क्यों घेरे हुए हो, लज्जा धारण करो ( पैंथा रोकने से विरत हो )। [ अब ] हम लोग घर जाएँ ( इम लोगों को घर जाने दो )।[तुम तो] गोरस (वाकय विनोदव्यर्थ के झगड़े का स्वाद ) चाहते फिरते हो, [ वास्तव में ] गोरस ( दूधदही इत्यादि ) नहीं चाहते [ जिसके दे देने से पीछा छूटे। दूधदही इत्यादि का माँगना तो छेड़ के निमित्त पक व्याज मात्र है ]॥ पर वह अपना आंतरिक अभिप्राय नायक को यह समझाती है ( अर्थ २ )" हम समझ गईं, तुम ] गोरस ( दूधदही इत्यादि ) नहीं चाहते, [ प्रत्युत ] गोरस ( इंद्रियरस ) चाहते फिरते हो । [ तो फिर इस रास्ते में ]था क्यों घेर रहे हो । लजा धारण करो ( अर्थात् इस बात को प्रकट न होने दो )। [ अब हम ] घर जाएँ ( अब हमको घर जाने दो ) [ यदि तुम्हारा यही अभिप्राय है, तो तुम गुप्त रीति से वहाँ आना ]। नायिका बसी चातुरी से, तर्जन करते हुए वचनद्वारा, नायक को यह समझा देती है कि मैं तुम्हारा अभिप्राय सम और स्वयं तुम पर अनुर हो गई हैं, पर मुझसे तुम्हें गुप्त रीति से मिलना चाहिए। इस प्रकार मार्ग में छेडछाल करना अनुचित है । इधर तो वह और सुनने वाल की जान में नायक १ परि ( ५ )।२. फिरति ( ५ )। ३. चाहति (५ ) । ________________
बिहारी-रत्नाकर को फटकार बतलाती है, और उधर नायक से भी कोई ऐसी बात नहीं कहती कि, यदि वह उस पर अनुरक़ न हो तो, उसे यह कह बैठने का अवसर मिले कि मैं तो यह नहीं चाहता । इन दोन ही बात पर ध्यान रखती हुई वह अपना अभीष्ट श्लेष-द्वारा व्यंजित करती है ॥ घाम घरीक निवारियै, कलित ललित अलि-पुंज।। जमुना-तीर तमाल-तरु-मिलित मालती-कुंज ॥ १२७ ॥ ( अवतरण )-स्वयंदूतिका नायिका वचन-चातुरी से अपना अभिप्राय नायक पर व्यंजित करती हुई उसको रमणोपयुक्त स्थान बतलाती है, और यह व्यंजित करती है कि आप वहाँ चख कर ठहरिए, मैं आती हैं | ( अर्थ )-यमुना के तौर पर तमाल-तरु से मिले हुए, [ और ] ललित ( सुंदर ) अलि-पुंज (भ्रमरों के समुह ) से कलित ( मढ़े हुए ) मालती-कुंज मैं ! विश्राम कर के आप इस दुपहरी की कड़ी ] घाम का घड़ी भर निवारण कीजिए ॥ । ‘यमुना-तीर' कह कर वह यह व्यंजित करती है कि मैं वहाँ जल भरने आऊँगी । "कलित ललित अलि-पुंज' कह कर वह यह सूचित करती है कि वह स्थान निर्जन है, क्याँक यदि उस ओर मनुष्य का आना जाना होता, तो भरों का समूह का समूह उस कुंज पर कलित (जड़ा हुआ सा ) न रहता ॥ ‘तमाल-तमिलित मालती-कुंज' कह कर वह यह व्यंजित करती है कि वह स्थान स्त्री और पुरुष के मिलने के निमित्त परमोपयुक़ है, क्योंकि वहाँ, मनुष्य की कौन कहे, ‘तमाल-तरु’ तथा मालती भी आपस में लिपटे हुए हैं। इसी खंड-वाक्य से वह नायक का ध्यान प्री-पुरुष-सम्मेलन की ओर आकर्षित कर के उसके चित्त मैं अपने से मिलने की अभिलाषा भी उद्दीपित करती है ।। ‘घाम घरीक निवारियै', इस खंड-वाक्य से वह जल लेने जाने का समय व्यंजित करती है। उन हरकी हँसि कै, इतै इन सौंपी मुसकाई । नैन मिलै मन मिलि गए दोऊ, मिलवत गाइ ॥ १२८ ॥ (अवतरण )–नायक सबेरे अपनी गाएँ ले कर चराने चला । नायिका भी अपनी गाय उसी के समह में मिलाने लगी । उसी समय दोन के नयन मिले, और नयन मिलते ही मन भी मिल गए। इसी अवसर का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ उधर ] उन्हेंाँने ( नायक ने ) [ तो ] हँस कर हरकी ( नायिका की गाय को अपनी गायों के समूह में मिलने से रोका ), [ और] इधर इन्होंने ( नायिका ने) मुसकिरा कर [ अपनी गाय उनको ] सौंपी । गायों के [ इस प्रकार ] मिलाते समय आँस्यों के मिलने से दोनों मन मिल गए ॥ | १. सहि (५) । २. उतै उन ( ४ ) । ३. सोपिय ( ४ ) । ४. मुसिकाइ (१), मुसुकाइ (४), मुसक्याइ (५)। ________________
बिहारी-रत्नाकर नायिका पहिले तो अपनी गाय नायक की गार्यों में, विना कुछ कहे ही, मिला देना चाहती थी । पर नायक ने चाहा कि वह मेरी ओर देखे, और कुछ बोले । अतः उसने हँस कर उसकी गाय को रोका । हँसा वह इसलिए कि नायिका यह बात समझ जाय कि यह रोकना केवल हँसी से छेड़छाड़ करने के निमित्त है। तब नायिका ने मुसकिरा कर अपनी गाय नायक को, चरा लाने को कह कर, सौंपी । इस हँसी और मुसकिराहट में दोनों की आँखें चार हुईं, और मन मिल गए ॥ पखौ जोरु, बिपरीत रति रुपी सुरत-रन-धीर। करति कुलाहलु किंकिनी, गह्य मौनु मंजीर ॥ १२९ ॥ पस्यौ जोरु-परयो का अर्थ यहाँ पड़ गया, गिर गया, नीचे आ गया है, और जोरु' का अर्थ जोड़ अर्थात् प्रतिद्वंद्वी है । कुश्ती लड़ने के निमित्त जो दो पहलवान अखाड़े में उतरते हैं, उनमें से प्रत्येक दूसरे का जोड़ कहलाता है। कुश्ती लड़ते लड़ते जब एक गिर कर भूमि थाम लेता है, तो दूसरे के पक्ष वाले कहते हैं कि जोड़ पड़ गया अथवा गिर गया । इस दोहे में ‘परयौ जोरु' का अर्थ जोड़ अर्थात् नायक पड़ गया, अर्थात् नीचे आ गया, है ॥ रुपी=दृढ़तापूर्वक स्थिर हुई, डट गई । सुरत-रन-धीर= सुरत-संग्राम में अविचल रहने वाली नायिका ॥ किंकिनी= कटि में पहनने का एक भूषण, जिसमें छोटी छोटी घंटियाँ लगी रहती हैं, जो कटि के हिलने से बजती हैं। इसको छुद्रघंटिका भी कहते हैं । यह शब्द स्त्रीलिंग है । मंजीर=नूपुर । पैरों में पहनने का भूषण विशेष, जिसमें वुवुरू लगे रहते हैं, और पैर के हिलने से बोलते हैं । यह शब्द पुलिंग है ॥ (अवतरण )-रंगमहल की सखियं किंकिणी के बजने से प्रौढ़ा नायिका की विपरीत रति का अनुमान कर के आपस मैं कहती हैं--- | ( अर्थ )-मंजीरों ने [ जो कि पुल्लिंग होने के कारण नायक के पक्ष के हैं, और जो कि अब तक नायक के तथा अपने ऊर्ध्ववर्ती होने के कारण बोल रहे थे, अर्थात् अपने पक्ष का उत्कर्ष विघोषित कर रहे थे, अब ] मौन धारण कर लिया है, [ और ] किंकिणी [ जो कि लिंग होने के कारण नायिका के पक्ष की है, और जो कि अब तक नायिका के तथा अपने दबे रहने के कारण दबी अर्थात् चुप थी, अब ] कोलाहल कर रही है । [इन बातों से जान पड़ता है कि अब ] जोड़ ( नायिका का जोड़ अर्थात् प्रतिद्वंद्वी, नायक ) पड़ गया ( नीचे आ गया ) है, [ और ] सुरत-रण-धीर [ नायिका ] विपरीत में दृढ़तापूर्वक स्थिर हो रही है ( अर्थात् डटी हुई है ) । बिनती रति बिपरीत की करी परसि पिय पाइ । हँसि, अनबोलें हीं दिय ऊतरु, दियो बताइ ॥ १३० ॥ अनबोले हाँ =विना बोले ही ॥ ऊतरु=उत्तर ।। दियौ बताइ = दीपक की ओर इंगित कर के, अथवा दीपक बुझा कर ॥ | ( अवतरण )-सखी का वचन सखी से ( अर्थ )-प्रियतम ने [ प्रिया से उसके ] चरण छू कर विपरीत रति की (विपरीत रति करने के निमित्त ) बिनती की। [ प्रिया ने ] हँस कर, दीपक को बता कर ( दीपक ________________
बिहारी-राकर की ओर इंगित कर के अथवा दीपक को वुझा कर ), विना बोले ही उत्तर दे दिया ( अपनी स्वीकृति विदित कर दी ) ॥ नायिका मध्या है, अतः दीपक के उजाले मैं विपरीत रति नहीं करना चाहती । सो उसने दीपक की ओर इंगित कर के यह व्यंजित किया कि यदि यह बुझा दिया जाय, तो ऐसा किया जा सकता है, अथवा दीपक बुझा कर उक रति के लिये अपना तैयार होना सूचित किया ॥ दीपक बुझाने से दीपक की ओर इंगित करने में विशेष लजी तथा सरसता है ॥ --- --- कैमैं छोटे नरनु हैं सरंत बड़ेनु के काम । मढ़यौ दमौमौ जातु क्य, कहि चूहे कैं चाम ॥ १३१ ॥ दमामौ = बड़ा नगाड़ा, जो ऊँट अथवा हाथी पर लाद कर ले जाया जाता है । ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक़ि है ( अर्थ )--छोटे मनुष्यों से बड़ा के ( बड़ों के करने के अथवा बड़ों के लाभ के) काम कैसे चल सकते हैं (अर्थात् नहीं चल सकते ) । [ भला ] कहो [ तो सही कि ] चूहे के चमड़े से दमामा क्याँकर मढ़ा जा सकता है ।। सकत न तुव ताते बचन मो रस कौ रसु खोइ । खिन खिन औटे खीर लौं खरौ सवादिलु होइ ॥ १३२ ॥ ताते ( तप्त )= गरम, रोषान्वित ॥ मो रस = मेरे प्रेमानंद ।। रसु= स्वाद ॥ खिन खिन =क्षण इस में ॥ खीर ( क्षीर )=दूध ।। सवादिलु =स्वादु ।। ( अवतरण )-प्रातःकाल नायक को सापराध देख कर अधीरा नायिका परुष वचन कहती है। शठ नायक मीठी बातें बना कर उसका क्रोध शांत किया चाहता है ( अर्थ )-तेरे गरम ( रोषान्वित ) वचन मेरे प्रेमानंद के स्वाद को नष्ट नहीं कर सकते, [ प्रत्युत मेरा वह प्रेमानंद तेरे गरम वचनों से तप कर] प्रति क्षण औटे हुए दूध की भाँति अधिक स्वादिष्ट होता है । कहि, लहि कौनु सकै दुरी सौनँजाइ मैं जाइ । तन की सहज सुबास बनँ देती जौ न बताइ ॥ १३३ ॥ सौनजाइ =पीत चमेली ।। ( अवतरण )-सखी नायिका की गुराई तथा शरीर की सुगंधि की प्रशंसा करती हुई नायक को उसे लक्षित कराती है, अथवा अन्य सखी से कहती है ( अर्थ )-[ उस ] पीत चमेली में जा कर छिपी हुई [ नायिका ] को [ भला ]कह १. होत ( २, ४ )। २. बड़े ( १ ) । ३. दमामा (५)। ४. चूहा ( १ )। ५. कोन (४, ५ )। ६. सोनञ्चही (४), सोनजाइ (५) । ७. ता (४)। ________________
[ तो सही ], कौन लह ( लक्षित कर अथवा पा ) सकता था, यदि [ उसके ] शरीर की स्वाभाविक सुगंधि [ फैल कर ] वन में [ उसे ] वता न देती ।।
| अभिप्राय यह है कि उसका रंग ऐसा सुनहरा है कि फूली हुई पीत चमेली के वन मैं बैठ जाने पर उसका लक्षित होना कठिन था, पर उसके अंग की स्वाभाविक सुगंधि ने, जो पीली चमेली की गंध से श्रेष्ठ है, उसको लक्षित करा दिया । चाले की बातें चलीं, सुनत सखिनु नैं टोल । गोएँ हैं लोइन हँसत, बिहसत जात कपोल ।। १३४ ॥ टोल= गोल, मंडल ।।। ( अवतरण )-नायिका अनूदा परकीया मुदिता है। जिस नायक से इससे प्रेम था, उसी से इसका ग्याह हो गया है, और अब गौने की बात हो रही है । अथवा जिस नायक से इससे प्रेम है, वह इसके ससुराल के समीप का रहने वाला है, या और किसी कारण इसको आशा यह है कि उपपति से मिलने का अवसर ससुराल में अधिक प्राप्त होगा। अतः उसको गौने की बात चलने से प्रसन्नता हुई । पर सामान्यतः मवेलि को, गौने के समय, नैहर छुटने का दुःख ही होता है । इसलिए यह अपने प्रसन्न नेत्रों को छिपा रही है। पर उसकी प्रसन्नता इतनी अधिक है कि उसके कपोल भी विकसित हो रहे हैं। अतः आँखों के छिपाने पर भी उसके विशेष ढंग से हँसते हुए कपोल से उसका मोद प्रकट होता है। यह बक्षित कर के कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है ( अर्थ )-चाले ( गौने ) की बातें चली हैं, [ यह समाचार ] सखियों के टोल में सुन कर, हँसते हुए लोचनों के छिपाने पर भी [ उसके ] कपोल विहँसते ( विशेष रुप से हँसते ) जाते हैं ( अर्थात् उसको पेसा मोद हुआ है कि वह छिपाए नहीं छिपता) ॥ सनु सूक्यौ, बीत्यौ बनौ, ऊखौ लई उखारि। हरी हरी अरहरि अर्ज, धरि धरहरि जिये, नारि ।। १३५ ।। बनौ = कपास भी ।। धरहरि= धैर्य । ( अवतरण )-अनुशयाना नायिका को सखी धैर्य देती है ( अर्थ ) यद्यपि ] सन सूख गया, कपास [ का दिन ] भी बीत गया, [ और] ऊस भी उखाड़ ली गई, [ अर्थात् यद्यपि इन खेतों वाले तेरे संकेतस्थल नष्ट हो गए हैं, तथापि ] अरहर अब भी हरी भरी है, [अतः ] हे नारी, हृदय में धैर्यधर (चिंता मत कर) [क्योंकि तेरे लिए उसके खेत में सहेट बना हुआ है ] ॥ १. ऐरी लोचन हँसत ए, विगसत जात कपोल ( ४ ) । २. सहित ( २ ) । ३. सुष्यो ( ४ ) । ४. हरि उर परि जिहि नारि ( ५ ) । ५. हिय (१)। ________________
बिहारी-रत्नाकर आए आपु, भली करी, मेटन मान-मरोर । दूरि करौ यह, देखिहै छला छिर्गुनिया-छोर ॥ १३६ ॥ मान-मरोर= मान की ऐंठे । छिगुनिया= छोटी अँगुली, कानी अँगुली ॥ ( अवतरण )-नायिका ने नायक को अपराधी समझ कर मान किया है । नायक उसको मनाने आया है, पर शीघ्रता मैं अन्य स्त्री का छल्ला, जो छोटा होने के कारण उसकी कानी अँगुली के ऊपर ही अटका है, पहने चला आया है। सखी उससे कहती है कि इसे उतार डालिए, नहीं तो वह इसे देख कर तुम्हारा अपराध निश्चित कर लेगी-- | ( अर्थ )-मान-मरोड़ मिटाने [ के निमित्त जो ] आप आए, [ सो आपने ] अच्छा किया । [ पर ] इसको ( इस छल्ले को ) दूर कर दीजिए, [ नहीं तो वह यह ] छल्ला छिगुनिया के छोर ( अग्र भाग ) पर देख लेगी [ और इससे यह अनुमान कर लगी कि तुम सचमुच अपराधी हो । फिर मानना तो दूर रहा, और भी ऐंठ जायगी ]॥ मेरे बुझत बात तू कत बहरावति, बाल । जग जानी विपरीत रति लखि बिंदुली पिय-भाल ॥ १३७ ॥ बहरावति =टालती है ॥ बिंदुली = टिकुली ॥ ( अवतरण )-दंपति ने अपने रूप का परिवर्तन कर के, अर्थात् नायक ने नायिका का और नायिका ने नायक का रूप धारण कर के, विपरीत रति की थी । नायक ने अपना सब आरोपित श्रृंगार तो उतार डाला है, पर टिकुली भूल से भाल पर लगी रह गई है, जिससे सखी रूप-परिवर्सम तथा विपरीत रति का अनुमान कर के मध्या नायिका से परिहास करती है | ( अर्थ )-है बाला, मेरे पूछते समय तू बात को क्यों बहलाती है । प्रियतम के भाल में बिंदुली देख कर [ मैंने ही नहीं, बरन् ] संसार ने ( सब देखने वालों ने ) [ तेरी ] विपरीत रति जान ली है ॥ फिरि फिरि बिलखी ह्र लखति, फिरि फिरि लेति उसासु । साईं ! सिर-कच-सेत ल बीत्यौ चुर्नति कपासु ॥ १३८॥ बिलखी =दुखी ॥ उसासु ( उत्+श्वास ) = लंबी सॉस, जो कि मनुष्य दुःख अथवा सोच में लेता है । भाषा के कवियों ने इस शब्द को पुलिंग तथा स्त्रीलिंग दोनों रूपों में प्रयुक्त किया है। बिहारी ने भी इसका दोनों प्रकार से प्रयोग किया है । इस दोहे के अतिरिक्त सतसई के और अाठ दोहों में यह शब्द आया है। २६२, ३३४, ४४६, ४८७, ५०७, ५३४, ५५३ तथा ६६० अंकों के दोहे द्रष्टव्य हैं। इनमें से कई दोहों में इसका स्त्रीलिंग-प्रयोग हुआ है, और कई में पुल्लिंग-प्रयोग । इस दोहे में इसका पुलिंग-प्रयोग है ॥ साईं ( स्वामी )= प्रभु । यहाँ यह शब्द 'राम राम', 'हरि हार’, ‘शिव शिव', 'दई' इत्यादि की भाँति खेदसूचक १. बिगुनियन ( २ ) । २. विपरीति ( २, ४) । ३. लखै ( २ ) । ४. लेतु ( १ ), खेत (४, ५ )। ५. उसास ( २, ४, ५)। ६. चुनत ( २, ४, ५) । ७. कपास ( २, ४, ५)। ________________
बिहारी-रत्नाकर अव्यय मात्र है । किसी किसी टीकाकार ने ‘साईं-सर-कच' को एक समस्त पद मान कर उसका अर्थ पति के सिर के बाल किया है । वह भी अर्थ हो सकता है। पर हमारी समझ में यहां साईं को खेदोद्गार-बोधक अव्यय मानना अच्छा है । बीत्यौ= बीता हुआ, समाप्ति पर आया हुआ । यह शब्द 'कपासु' शब्द का विशेषण है । 'बीत्यौ कपासु' का अर्थ समाप्ति पर आया हुआ कपास होता है । कपास की रुई तीन बार चुनी जाती है—पहिली बार क्वार में, दूसरी बार अगहन में और तीसरी बार चैत्र में । तीसरी बार रुई चुनने के पश्चात् खेत काट डाला जाता है । अतः बीत्यौ कपास का अर्थ तीसरी बार की रुई होता है । इसी अंतिम बार की रुई का बिनना अनुशयाना नायिका के विषाद का कारण हो सकता है, क्योंकि इसके पश्चात् खेत कट जाने से उसका संकेत नष्ट हो जायगा ।। कपासु= एक प्रकार की रुई का वृक्ष । यह प्रचलित भाषा में स्त्रीलिंग माना जाता है । पर ज्ञात होता है कि बिहारी के समय में यह शब्द संस्कृत ‘कर्पास' की भांति भाषा में भी पुल्लिंग ही माना जाता था । ( अवतरण ) • इस दोहे की नायिका अनुशयाना है । इसका संकेतस्थल कपास के खेत में है। अतः कपास की अंतिम उपज बीनने के समय, यह विचार कर कि अब कपास का खेत काट डाला जायगा, उसको बड़ा दुःख होता है । उसके इसी दुःख का वर्णन उसकी कोई अंतरंगिनी सखी किसी अन्य अंतरंगिनी सखी से खेद-पूर्वक करती है | ( अर्थ )-[ देखो, यह बेचारी ] फिर फिर दुखी हो कर देखती है, [ और ] फिर फिर लंबी साँस भरती है। हे भगवान् ! [ यह ] समाप्ति पर आया हुआ कपास सिर के श्वत बालों की भाँति [ अत्यंत कष्ट पा कर ] चुनती है ( जिस प्रकार लोगों को श्वेत बाल चुनते समय यह समझ कर दुःख होता है कि अब काम-क्रीड़ा के दिन समाप्त हो रहे हैं, उसी प्रकार इसको, कपास की अंतिम उपज चुनने के समय, यह सोच कर विषाद होता है कि अब शीघ्र ही उपपति से विहार करने का संकेत नष्ट हो जायगा ) ॥ डगकु डगति सी चलि, ठटुंकि चितई, चली निहारि । लिए जाति चितु चोरटी वैहै गोरठी नारि ॥ १३९ ॥ डगकु=एक आध डग अर्थात् पग ॥ ( अवतरण )–नायक सखी से नायिका के हावभाव का वर्णन करता हुआ अपना अनुराग प्रकट करता है ( अर्थ )-दो एक डग डगमगाती सी ( साविक के कारण उलझती सी ) चाल चल कर, [ और फिर ] ठिठक कर [ जिसने इधर उधर ] देख लिया [ कि कोई देखता तो नहीं है, और फिर मुझे ] देख कर चली, वही चोरटी ( चित्त को चुराने वाली ) गोरी नारी [ मेरा] चित्त लिए जा रही है । करी विरह ऐसी, तऊ गैल न छाड़तु नीचु । दीनैं हूँ चसमा चखनु चाहै लहै न मीच ॥ १४० ॥ मीशु मृत्यु ॥ १. ठिठुकि (१)। २. यहै ( १, ५)। ३. दियॆ (२), दीए (५) । ४. ऊँ (४, ५) । ५. लहत (४)। ________________
विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )—सखी नायिका की विरह-दशा नायक से निवेदित करती है ( अर्थ )-विरह ने [ उसको यद्यपि ] ऐसा [ दुबला ] कर दिया है [ कि ] मृत्यु [ उसको ] चाहती ( खोजती ) है, [ किंतु ] आँखौं पर चश्मा लगाने पर भी नहीं पाती, तऊ (तथापि) [वह] नीच [विरह उसकी ] गैल (पैड़) नहीं छोड़ता [अर्थात् इस पर भी उसका विरह दूर नहीं होता। तुमको दया नहीं आती कि जा कर उसका विरह-दुःख मिटा दो ] ॥ जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु । मर्न-काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै राम् ॥ १४१ ।। जपमाला=जपने की माला ।। छापें = छापे से, तप्त मुद्रा इत्यादि से ॥मन काँचै= कच्चे मन वाला ही, विना सच्ची भाक्त वाला ही ।। साचै सच्चे ही से, सच्ची भक्ति वाले ही से।। चै=रंजित होता है, प्रसन्न होता है । ( अवतरण )-बनावटी भक्ति पर कवि की उक्ति है ( अर्थ )—जपमाला, तप्त मुद्रादि, [ तथा ] तिलक से एक भी ( कुछ भी ) काम नहीं सरता ( निकलता )[ क्योंकि ये सब तो ऊपरी दिखाव मात्र हैं ]। कच्चे मन वाला ही वृथा ( विना कुछ लाभ के ) नाचा करता है, राम [तो] सच्चे ही से रचता है ( प्रसन्न होता है) ॥ जौ वाके तन की दसा देख्यौ चाहत अाए । तौ बलि, नैक बिलोकियै चलि अर्चक, चुपचापु ।। १४२ ॥ अचकॉ= एकाएक, ऐसे समय जब आपके वहाँ पहुँचने की संभावना न हो । ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका की दूती ने नायक से नायिका की विरह-दशा कुछ इस प्रकार वर्णन की कि वह विस्मित सा हो गया। उसके विस्मय से लाभ उठा कर चतुर ठूती उसको चटपट नायिका के पास बे चलने का डौल डालती है। उसकी अकथनीय दारुण दशा का प्रभाव नायक के हृदय पर जमाती हुई वह यह व्यंजित करती है कि उसकी दशा आपके चलने के समाचार मात्र से परिवर्तित हो जायगी, और अपने कथन को सत्य प्रमाणित करने के व्याज से नायिका को प्रेमाधिक्य भी जताती है ( अर्थ )-यदि [ आपको मेरे कहने का विश्वास नहीं है, और ] आप [ स्वयं ]उसके तन की [ सच्ची ] दशा ( दयनीय अवस्था, जिसे सुन कर आप विस्मित हो रहे हैं ) देखा चाहते हैं, तो मैं बलिहारी जाती हैं, [प] नैंक अचकाँ[तथा] चुपचाप (अपना चलना किसी पर प्रकट किए विना, जिसमें कि कोई आपके चलने का समाचार उसको न दे सके) चल कर [ गुप्त रीति से ] देख लीजिए, [ जिसमें आपको मेरे झूठ सच का झान हो जाय; क्योंकि यदि उसको आपके आगमन की सुनगुनी लग जायगी, तो हर्ष से उसका शरीर प्रफुल्लित हो जायगा, और वह दशा न रहेगी, जिसका वर्णन मैं ने किया है । और, यदि आपको मेरे कहने का विश्वास है, तो आपको तुरंत चलना नितांत उचित ही है ] ॥
- १. बापा (४, ५) । २. काचें मन ( १ )। ३. स्याम ( २ ) । ४. औचक ( २, ४)। ________________
बिहारी-रत्नाकर जटित नीलमनि जगमगति सीक सुहाई नाँक । मनौ अली चंपक-कली बसि रसु लेतु निसाँक ॥ १४३ ॥ क= एक पतला सा, सींक की प्रकृति का नासिका-भूषण विशेष ।। (अवतरण )-नायिका की नासिका तथा साँक की अपूर्व शोभा का वर्णन नायक स्वगत करता है ( अर्थ )-[ आहा !] उसकी सुहाई (चित्त को आकर्षित करने वाली ) नाँक में नीलम जड़ी हुई सीकै [ कैसी ] जगमगा रही है, भानो भ्रमर चंपे की कली पर बैठ कर निःशंक ( इस बात की शंका छोड़ कर कि चंपे की कली पर मेरा बैठना अनुचित है ) रस ले रहा है। भ्रमर चंपे पर नहीं बैठता, परंतु नासा-रूपी चंपे की कली ऐसी मनोहर है कि उस पर मुग्ध कर वह विचार-शून्य हो उसका रस ले रहा है। इस कथन से यह व्यंजित होता है कि नासिका की शोभा विलक्षण तथा सामान्य नियम को भुलवा देने वाली है ॥ फेक कछुक करि पौरि हैं, फिरि, चितई मुसकाइ । आई जावनु लैन, जियें नेहैं चली जमाइ ॥ १४४ ॥ पौरि-घर में घुसने के पहिले द्वार के बाहर अथवा भीतर जो आच्छादित स्थान पड़ता है, उसको पौरी कहते हैं। पर इसका प्रयोग द्वार के अर्थ में भी होता है । इस दोहे में दोनों अर्थ घट सकते हैं ॥जीवन जामन, जमाने वाली वस्तु, खट्टा दही, जो दूध में उसे जमाने के लिये थोड़ा सा डाल दिया जाता है। (अवतरण )–नायक किसी पोसिन की मनमोहिनी चेष्टा पर अनुर होकर स्वगत कहता है ( अर्थ )-[ उसने लौट कर जाते समय ] पौरी पर से कुछ फेर ( व्याज, बहाना ) कर के, फिर कर (घूम कर ),[ मेरी ओर] मुसकिरा कर [ ऐसे भाव से ] देखा [ कि ] आई [ तो वह ] थी जामन लेने के लिये, [ पर मेरे ] हृदय में [ अपना] स्नेह ( १. प्रेम । २. घी ) जमा कर चली ॥ जदपि तेजरीहाल-बल पलको लगी न बार। तौ ग्वैड़ी घर को भयौ पैड़ी कोस हजार ॥ १४५ ॥ | तेज (तेज )—यह फारसी शब्द है, जिसका अर्थ तीक्ष्ण है। इसका प्रयोग शीघ्रगामी के अर्थ में भी होता है॥ तैहाल-यह फ़ारसी शब्द 'रवार' का विकृत रूप है । इसका अर्थ चलने वाला है, पर घोड़े के अर्थ में इसकी योगरूद है ॥ ग्वैौ = घर के आसपास की भूमि की सीमा ॥ ( अवतरण )-नायक परदेश से आया है । ग्राम की सीमा पर पहुँच कर उसको, नायिका से मिलने की उत्सुकता के कारण, वहाँ से घर तक का मार्ग सहस्र कोस का प्रतीत हुआ । उसी का वर्णन वह नायिका से करके अपना प्रेमाधिक्य जताता है-- १. जगमगे (४)। २. मुसुकाइ (४), मुसक्याय ( ५ ) । ३. जावन लेन जो ही चली (४)। ४. हिय (२) । ५. नेहहें ( २, ५) । ६. गई ( २ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-[ हे प्यारी, ] यद्यपि शीघ्रगामी घोड़े के बल ( पराक्रम के कारण ) [ मुझे पहुँचने में ] पल मात्र भी बार ( विलंब ) नहीं लगी, तथापि [ तुझसे मिलने की उत्सुकता के कारण] घर का ग्वैड़ा ही मुझे] हज़ार कोस का पेड़ा ( मार्ग ) हो गया (प्रतीत हुआ) ॥ पूस-मास सुनि सखिनु पैं साईं चलत सवारु । गहि कर बीन प्रबीन तिय राग्यौ रागु मलारु ॥ १४६ ॥ सवारु= प्रातःकाल ।। राग्यौ = अलापा ॥ भलारु ( महार ) =राग विशेष । इस राग के विषय में प्रसिद्ध यह है कि इसके यथार्थ रीति से गाने अथवा बजाने से पानी बरसने लगता है ॥ ( अवतरण )—प्रौदा प्रवत्स्यत्प्रेयसी नायिका नायक के परदेश-गमन को रोकने का प्रयत्न करती है । सखी का वचन सखी से ( अर्थ )--पूस के महीने में सखियों से [ यह ] सुन कर [ कि ] प्रातःकाल पति [ परदेश ] चलता है ( जाने वाला है ), प्रवीण ( संगीत-विद्या में निपुण ) स्त्री ने हाथ में बन ले कर मल्लार राग रागा ( अलापा )[ जिसमें पानी बरसने लगे, और प्रियतम का जाना रुक जाय; क्योंकि अकाल वृष्टि में यात्रा निषिद्ध है ] ॥ | -** -- बर्न-तन कौं, निकसत, लसत हँसत हँसत, इत आइ । दृग-खंजन गहि लै चल्यौ चितवनि-चैएँ लगाइ ॥ १४७ ॥ बन-तन= वन की ओर । लसत = क्रीड़ा करता हुआ । चैपु= लासा ॥ ( अवतरण )–नायिका अपने द्वार पर निकल आई थी। इतने ही मैं नायक उसकी ओर मुसकिराता हुआ आ कर और उसको प्यार की दृष्टि से देख कर वन की ओर चला । नायिका उसकी उस लगावट की चितवन से ऐसी मोहित हो गई कि उसके नेत्र नायक के पीछे लग जिए, जिससे अाकर्षित हो कर वह स्वयं भी उधर ही चल पड़ा । अपनी अंतरंगिनी सखी के यह गहने पर कि तू कहाँ चल रही है, वह उत्तर देती है कि मैं क्या करूँ, मेरी अाँख को वह फैसा लिए जाता है ( अर्थ )-[ हे सखी ! मैं क्या करूँ, मेरे घर से ] निकलते ही [ वह ] हँसता हँसता क्रीड़ा करता हुआ इधर आ कर, [ मेरे ] दृग-रूपी खेज को [ अपनी ] चितवन-रूपी बैंप लगा कर वन की ओर पकड़ ले चला [ अतः मैं उसी के पीछे चल रही हूँ ] ॥ खर्जी को बहेलिए जंगल से पकड़ कर नगर मैं लाते हैं, पर इस दोहे में यह विलक्षणता है कि नागर नायक का नायिका के हुग-रूपी खंज को नगर से पकड़ कर वन की ओर ले चलना कहा गया है ॥ -- - -- मरनु भलौ बरु विरह हैं, यह निहचर्ये करि जोइ । मरन मिटै दुख एक कौ, बिरह दुहुँ दुखु होइ ॥ १४८ ॥ १. लें (५) । २. बनठन ( २ ) । ३. गए ( २, ४) । ४. चोप ( ४ ) । ५. बिचार ( २ ) ।। ________________
बिहारी-रजकिर | ( अवतरण )-परस्परानुरक नायक नायिका कुछ ऐसे अंडस मैं पड़े थे कि यद्यपि विरह से व्याकुल रहते थे, तथापि मिल नहीं सकते थे। अंत को नायिका के प्राण प्रयाण कर गए । नायक अत्यंत अधीर हो कर बिलख रहा है। उसके अंतरंग मित्र तथा सखियाँ इत्यादि उसको धैर्यावलंदन करने के लिए समझाते हैं ( अर्थ )-विरह [ के दुःख भोगने] से [तो उसके लिये ] प्रत्युत मरना [ ही ] अच्छा था, यह [ तुम ] निश्चय कर के समझ ले, [ क्योंकि ] मरने से एक का दुःख [ तो ] मिट जाता है, [ पर ] विरह से दोनों के दुःख होता है, [ अतः तुमको उसके मरने पर दुःख न करना चाहिए, प्रत्युत यह समझ कर धैर्य धरना चाहिए कि चलो, वह बेचारी तो दारुण दुःख से छूट गई । हम ते पुरुष शरीर है, किसी न किसी प्रकार झेल ही लगे, पर उस कोमलांगी, प्राण से भी अधिक प्रिय अबला के निमित्त विरह-दुःख सहना बड़ा ही कठिन था । इसके अतिरिक्त यह विरह-दुःख तो अनिवार्य ही था, इसलिये यदि दोनों में से एक उससे मुक्त हो गया, तो अच्छा ही हुआ ] ॥ हरषि न बोली, लखि ललनु, निरखि अमिलु सँग साथु । अखिनु हाँ मैं हँसि, धख सीस हियँ धेरि हाथु ॥ १४९ ॥ अमिलु= बेभेल, जिससे अपना मन नहीं मिला है । ( अवतरण )-सखी सखी से क्रियाविदग्धा नायिका के भाव का वर्णन करती है ( अर्थ )-[ नायिका अपने अथवा नायक के ] संग में अमिल ( विना मन मिले हुए लोगों का ) साथ देख कर, नायक को लक्षित कर के, हर्ष-पूर्वक कुछ बोली नहीं ( बोल न सकी )[ पर उसने ] आँखें ही में हँस कर, हाथ को छाती पर रख सिर पर रक्खा ॥ | आँख ही मैं हँसने से उसने नायक के दर्शन से प्रसन्नता प्रकट की, और हृदय पर हाथ रखने से यह सूचित किया कि मैं तुमको अपने हृदय में स्थापित करती हूँ। फिर सिर पर हाथ रखने से यह व्यजित किया कि तुमने जो चेष्टा-द्वारा मिलने की प्रार्थना की, वह शिरोधार्य है; पर इस सुख की प्राप्ति भाग्य के हाथ है ॥ को जानै, है है कहा; ब्रज उपजी अति आगि । मॅन लागै नैननु लँगै, चले न मग लैंगि लागि ॥ १५०॥ अति अगि= बड़ी भारी आग । बड़ी विलक्षण, अर्थात् बहुत शीघ्र तथा बहुत सहज में सुलगने वाली और न लगने योग्य वस्तु में भी लग जाने वालः, आग ॥ मन =( १ ) हृदय । ( २ ) मानस, मानसरोवर । मानसरोवर से यहाँ अभिप्राय ताल मात्र से है । मन शब्द में श्लिष्टपद-मूलक रूपक हैं । अतः इसका अर्थ मन-रूपी ताल होता है । इस शब्द का ऐसा ही प्रयोग बिहारी ने १८वे दोहे में भी किया है ॥ नैननु-इस शब्द के भी यहाँ दो अर्थ हैं-( १ ) आँख । ( २ ) नमित होने वाले, अर्थात् कोमल, पदाथ ॥ लगें-इस . १. सब ( २, ४ ) । २. अँखियनि ( २ ) । ३. पै ( २ ) । ४. मनु (२) । ५. लागै ( १, २ )। ६. लगो (४) । ७. चलौ ( १ ), चलो ( ४ ) । ८. सँग ( ४ )। ________________
न बिहारी-रत्नाकर शब्द के भी यहाँ दो भावार्थ हैं-(१) नयन-पक्ष में मिलने से, असक्त होने से । (२) कोमल पदार्थ के पक्ष में टकराने से, घिसने से । ११८वें अंक के दोहे में भी लगत' शब्द का ऐसा ही प्रयोग है । लगि तक । लागि=लग कर, पास हो कर ॥ ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका विरह से संतप्त हो कर स्वगत अथवा अंतरंगिनी सखी से कहती है | ( अर्थ )-कौन जाने, [ यहाँ ] क्या होगा ( होने वाला है)। व्रज में बड़ी विलक्षण अग्नि उत्पन्न हुई है, [ जो ] नयन-रूपी कोमल पदार्थों के [ परस्पर ] लगने से मन-रूपी सरोवर में लग जाती है । [यह व्रज तो अब ऐसा हो रहा है कि कोई इसके ] मार्ग तक के पास हो कर न चले ॥ इस दोहे का भाव ११८-संख्यक दोहे से मिलाने के योग्य है ॥ घरु घरु डोलत दीन है, जनु जनु जाचतु जाइ । दियँ लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाइ ॥ १५१ ॥ चसमा ( चश्मा )= ऐनक । यह शब्द फारसी भाषा का है। चश्मे कई प्रकार के होते हैं। एक प्रकार का चश्मा ऐसा होता है, जिसके लगा लेने से छोटी वस्तु बड़ी दिखलाई देने लगती है ॥ ( अवतरण )-लोभ की निंदा पर कवि की उक्ति ( अर्थ )--[ लोभी मनुष्य ] घर घर दीन हो कर ( गिड़गिड़ाता हुआ) फिरता है, [ और ] जन जन ( प्रत्येक सामान्य व्यक्ति ) से जा कर याचना करता है ( माँगता है)। [ इस बात का विचार नहीं करता कि जिस मनुष्य से वह याचना करता है, वह याचना करने के योग्य महान् पुरुष है, अथवा पास भी खड़े रहने के अयोग्य लघ्वात्मा व्यक्ति; क्योंकि उसको तो ] लोभ-रूपी चश्मा आँखों पर दिए रहने के कारण लघु [ प्राणी ] भी बड़ा लक्षित होता ( जान पड़ता ) है ॥ लै चुभकी बलि जाति जित जित जल-केलि-अधीर । कीजत केसरि-नीर से तितं तित के सरि-नीर ॥ १५२ । केसरि ( केशर )= कुंकुम ॥ सरि-नीर= सरिता का पानी ॥ ( अवतरण )--जल-केलि करती हुई नायिका को दिखला कर सखी नायक का ध्यान उसकी गुराई पर दिलाती है ( अर्थ )-[ देखो, वह ] जल-केलि में अधीर (चंचलता से जल-केलि करती हुई ) [ नायिका ] जिस जिस ओर चुभकी ( डुबकी ) ले कर चली जाती है, उस उस ओर के नदी के जल [ उसकी पीत चुति की आभा से ] केसर के जल [ केसर घोले हुए जल ) के सदृश कर दिए जाते हैं ( बना दिए जाते हैं ) ॥ । -- --- १. जित तित ( २ ) ________________
= विहारी-रत्नाकर छिर के नाह नवोढ़-दृग कर-पिचकी-जल-जोर । रोचन-रंग-लाली भई बिथतिय-लोचन-कोर ॥ १५३ ।। नवोढ़ ( नवोढ़ा )= नई व्याहा हुई ।। कर-पिवको हाथ की पिचकारी, हाथों को मिला कर बनाई हुई पिचकारी ।। जल-जोर= जल-वंग अर्थात् जल की धारा ।। रोवन = गोरोचन ।। बिय = दुसरी ॥ ( अवतरण )—सखा का वचन सखी से ( अर्थ )---[ जल-क्रीड़ा के समय ! नाड ( नाथ अर्थात् नायक ) ने हाथ की पिचकारी की जल-धारा से दृग [ ता] नई व्याहा हुई ! नायिका के छिड़के, [ और ] गोरोचन के रंग की लाली हुई अन्य स्त्री को ऑखा को कारा में ॥ अन्य स्त्री का श्राखाँ मैं लाली ईप तथा रोप से हुई । विलक्षणता यह है कि पानो र का श्राखाँ मैं पढ़ा, शोर लाली ग्रार का ग्राखा में हुई ।। कहा लईने दृग करे, परे लाल बेहाल । कहुँ नुरली, कहूँ पीत पडु, कहूँ मुटु, बनमाल ॥ १५४ ॥ लड़त = लाइले ॥ वेहाल = विहल, देहाध्यास राहत ।। ( अवतरण )---नायक नायिका के कटाक्ष से घायल हो कर तड़प रहा है। उसकी दशा सखी नायिका से कहती है ( अर्थ )--[ ने अपने 1 दृग ! ऐसे 1 लड़ते क्या कर रक्खे हैं [ कि उनके मारे ] लाल बेहाल (वेसुध ) पड़ हो । मुरली कहां, पति पट कहीं [ तथा ! मुकुट [ और ] वनला कहाँ [ पड़े लुटक रहे हैं ] । राधा हरि, हार राधिका बनि आए संकेत । दंपति रात-विपरीत-सुग्घु सहज सुरतहूँ लेत ।। १५५ ॥ संकेत=पाल से स्थिर किया हुया स्थान ।। सहज = प्राकृत, स्वाभाविक ।। ( अवतरण ).दंपति के लोला हाव में विपरीत राते का सुख प्राप्त करने का वर्णन सखी सखी से करता है ( अर्थ )--श्रीराधिकाजी श्रीकृष्णचंद्र का रूप धारण कर के [ और ] श्रीकृष्णचंद्र श्रीराधिकाजी का वेप बना कर संकेत-स्थल में आए है , [ और ] दंपति स्वाभाविक रति से भी विपरीत रात का सुख ले रहे ह ॥ चलत पाइ निगुनी गुनी धनु मनि-मुक्तेिय-माले । भेंट होतं जयसाहि स भागु चाहियतु भाल ॥ १५६ ॥ १. करि ( २, ४, ५ ) । २. कहूं मुरालका पोत पटु ( १ ) । ३. लकुट ( २ ), मुकुट ( ४ )। ४. मुक्ता ( ४ ) । ५. लाल ( १, ४ ) । ६. भएँ ( २ ) । ७. साह ( १ )।
बिहारी-रत्नाकर निगुनी ( निर्गुणी )= गुणहीन ॥ धनु = रुपया, अशरफी इत्यादि । मनि-मुत्तिय-माल = मणि तथा मोतियों की माला ॥ भेट होत=भेंट होते समय ॥ भाग= सौभाग्य ॥ चाहियतु= चाहिए होता है, श्रावश्यक होता है । भाल=ललाट में ॥ ( अवतरण )--कवि राजा जयशाह की उदारता की प्रशंसा करता है ( अर्थ )-राजा जयशाह से ( केवल ] भेंट होने के समय ( भट होने के निमित्त ) [ याचकों को अपने ] भाल मैं भाग्य की आवश्यकता पड़ती है । [ भेंट हो जाने पर, चाहे उनके भाल में सौभाग्य लिखा हो अथवा नहीं, और चाहे वे गुणहीन हो अथवा गुणी, सभी संपत्तिशाली हो जाते हैं ] निर्गुणी धन पा कर चलता है ( लौटता है ), [ और ]गुणी मणिमुक्ताओं की मालाएँ पा कर । [ भावार्थ यह है कि भाग्यवान् तथा गुणी को तो सब हो देते हैं, पर जयशाह अभागी एवं गुणहीन को भी संपत्तिवान् बना देता है 1॥ पुराने राज में प्रथा यह थी कि वे गुणहीन याचकौं को धन एवं गुणिर्यों के, उनके प्रतिष्टार्थ, मणिमुक़ादि की मालाएँ देते थे, अतः कवि ने गुणहीन तथा गुणवान के निमित्त यथासंख्य धन तथा मणिमुक़ादि की माला का पाना कहा है ॥ जसु अपजसु देखत नहीं देखत साँवल-गात । कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात ॥ १५७ ॥ साँवल-गात= साँवले गात वाले अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र ॥ लालचभरे घपल = सौंदर्य-अवलोकन की लालसा से पूरित होने के कारण चंचल । ( अवतरण )--श्रीकृष्णचंद्र को देख कर नायिका के नयन उन्हीं की ओर जाते हैं। सखी उसे शिक्षा देती है कि परपुरुष को इस प्रकार बेधड़क दखना कुल-वधु का उचित नहीं है, इससे तुझे कलंक लगेगा । उत्तर मैं नायिका कहती है-- ( अर्थ )-क्या करूँ ( मेरा कुछ वश नहीं चलता ), [ मेरे ये ] लालच-भरे चपल नयन श्यामसुंदर को देखते [ ही ] यश अपयश नहीं देखते ( विचारते ), [ उसी ओर ] चले जाते हैं ॥ नख-सिख-रूप भरे खरे, तौ माँगत मुसंकानि ।। तजत न लोचन लालची ए ललचौहीं बानि ॥ १५८ ॥ ( अवतरण )–नायिका खड़ी नायक को देख रही है । सखी उससे कहता है कि अब तो तू भली भाँति देख चुकी, चलती क्या नहीं। नायिका कहती है कि वह नैक मेरी ओर देख कर मुसकिरा दें, ता चलू (अर्थ)-[ यद्यपि मेरे नेत्र नायक के ] नखसिख-सौंदर्य से भली भाँति भर गए है, १. लालिस ( १, २ ) । २. तउ ( ५ ) ।। ३. मुसिकानि ( १ ), मुसुकानि ( ४ ) । ७० बिहारी-रत्नाकर तथापि [ उसकी ] मुसकिराहट की चाहना कर रहे हैं । ये लालची लोचन ललचाने ( अधिक अधिक लालसा करने ) की वान ( प्रकृति ) नहीं छोड़ते ॥ छै छिगुनी पहुँचौ गिलत अति दीनता दिखाई। बलि बावनकी ब्यौतु सुनि को, बलि,तुम्हें पत्याइ॥ १५९ ॥ छिगुनी= कानी अँगुली ॥ गिलत =निगल लेते हो ॥ बलि= राजा बलि ॥ बावन=वामनावतारधारी भगवान् ।। ( अवतरण )–नायक किसी नायिका के रूप, गुण इत्यादि का वर्णन सुन कर, अथवा कहीं उसकी झलक देख कर, रीझ गया है, और उसकी सखी से प्रार्थना करता है कि और नहीं तो बैंक उसका दर्शन तो करा दे । इस पर सखी नायक से परिहास करती है ( अर्थ )-[ तुम्हारी तो यह रीति है कि ] बड़ी दीनता दिखला कर अँगुली छु (छूते ही ) [ चट] पहुँचा निगल ( पकड़ ) लेते हो । मैं तुम्हारी बालि गई, राजा वालि [ तथा ] वामन भगवान् का ब्योंत ( डौल, वृत्तांत ) सुनने के पश्चात् तुमको कौन पतियाय ( तुम्हारा कौन विश्वास करे ) । [ भावार्थ यह है कि अभी तो तुम मुझसे उसके दर्शन करा देने मात्र के निमित्त गिड़गिड़ा रहे हो, पर चार आँखें होते ही तुम उसका हृदय तक हरण कर लोगे, और फिर किसी की सुनोगे भी नहीं ] ॥ | इस परिहास से वह चतुर सखी नायक से यह वचन ले लिया चाहती है कि मैं सदा उस पर एकरस प्रेम रक्खेंगा ॥ नैना बैंक न मानहाँ, कितौ कयौ समुझाइ । तनु मनु हारें हैं हँसैं, तिन सौं” कहा बसाइ ॥ १६० ॥ बसाइ= बस चले ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका नायक को देख कर मुसकिराती है। सखी शिक्षा देती है। कि परपुरुष को देख इस प्रकार मुसकिराना उचित नहीं है । नायिका अपनी अनुराग-विवशता प्रकट करती हुई उसर देती है-- ( अर्थ )-[ मैंने इनसे ] कितना समझा समझा कर कहा, [ पर ] नैना ( १. दृग । २. जिसमें नीति नहीं है अर्थात् अनीतिज्ञ ) बैंक ( १. किंचिन्मात्र भी । २. नीति ) नहीं मानते । [ भला जो ] तन मन हारने पर भी हँसते रहते हैं (कुछ चिंता नहीं करते ), उन [ नासमझ जुवारियों ] से क्या वश चल सकता है ॥ यदि कोई कच्चा जुवारी होता है, तो हारने पर उसके चित्त मैं खेद तथा ग्लानि उत्पन्न होती है, और वह इष्ट मित्र के समझाने से जुवा खेलना छोड़ देता है। पर जो पक्के जुवारी हैं, वे सर्वस्व हार जाने पर भी ग्लानि नहीं मानते, प्रत्युस हँसते ही रहते हैं। ऐसे अनीतिज्ञ जुवारि से कुछ समझाना बुझाना नहीं चलता ॥ १. बिगुरी ( २ ) । २. गहत (२ ) 1३. हरि ( २ )। ४. तुमाह ( १ )। । बिहारी-रत्नाकर मोहन-मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोइ । बसतु सु चित-अंतर, तऊ प्रतिबिंबितु जग होइ ।। १६१ ॥ मोहन-मूरति= मोहने वाली मूर्ति है जिसकी ऐसे । यह समस्त पद 'स्याम' शब्द का विशेषण है ।। ( अवतरण )-कोई भक़, जिसके हृदय मैं श्यामसुंदर बस गए हैं, और जिसको समस्त जगत् मैं सब पदार्थ श्याममय ही दिखलाई देते हैं, अपने मन से कहता है ( अर्थ ) हे मन,] मोहिनी मूर्ति वाले श्याम की [यह ] अति अद्भुत गति ( रीति, व्यवस्था ) देख [ कि यद्यपि ] वह बसते [ तो ] वित्त के भीतर हैं, तथापि प्रतिबिंबित जगत् में होते हैं ( अपना रूप जगत् के सब पदार्थों में दिखलाते हैं, अर्थात् श्यामसुंदर के हृदय में बसने से सर्व जगत् तन्मय दिखाई देने लगता है ) ॥ अन्नतता यह है कि जो वस्तु किसी अन्य वस्तु के भीतर रहती है, उसका प्रतिबिंब बाहर नहीं पडता; पर श्याम यद्यपि चित्त के भीतर बसते हैं, तथापि जगत् भर मैं उन्हीं का प्रतिबिंब भक्त को दिखलाई देता है। 'मोहन-मूरति', यह विशेषण कवि ने यही सूचित करने के लिये रक्खा है कि श्यामसुंदर की मूर्ति मैं ऐसी मोहिनी शक्ति है कि उनके हृदय मैं बसते ही चित्त माहित हो कर सब जगत् को तन्मय । देखने लगता है ॥ लटकि लडकि लटकतु चलतु डटतु मुकट की छाँह । चटक-भयो नटु मिलि गथी अटक भटक-बर्ट महि ।। १६२ ॥ डटतु=सजधज से शोभा देता हुआ ।। अटकभटक-बट=भूलभुलैयाँ का रास्ता । 'अटकभटक भूलभुलैयाँ को कहते हैं । उसमें कुछ ऐसे घुमावझिराव के मार्ग बने रहते हैं, जिनमें पड़ कर मनुष्य ठीक मार्ग बड़ी कठिनता से पाता है । 'बट' बाट का विकृत रूप है। बहुत से शब्दों के दीर्घ स्वरों को, समास होने पर, लघुता प्राप्त हो जाती है, जैसे पनिघट', बटपरा, नवठट इत्यादि में । अथवा 'अटकभटक-बट' का अर्थ भूलभुलैयाँ वाला वट वृक्ष करना चाहिए । भांडीर वन में अभी तक कुछ ऐसे वट के पुराने वृक्ष हैं, जिनकी बहँ लटक लटक कर इस प्रकार जम गई हैं कि उनके नीचे भूलभुलैयाँ सी बन गई हैं ॥ | ( अवतरण )–नायिका को श्रीकृष्णचंद्र के साथ भांडीर वन से निकलते कुछ सखिय ने देख लिया है, एवं उसको प्रेम-क्रीड़ा में लगे रहने के कारण घर आने में विलंब भी हो गया है। अतः वह अपनी वास्तविक बात छिपाने के लिये सखिर्यों से कहती है ( अर्थ )-[ दैवयोग से आज मुझे ] अटकभटक-बट में [ जहाँ मैं भूल कर बड़ी देर से भटक रही थी ] लटक लटक कर (झूम झूम कर ) लटकता ( झुकता हुआ ) चलता,[तथा ] मुकुट की छाया (झलक) से डटता ( शोभित होता हुआ ) [एक] चटकभरा ( चटकीली छवि से भरा हुआ अथवा फुर्तीला ) नट मिल गया [ जिसने मुझे वन के बाहर पहुँचा दिया ] ॥ '१: मुकुट(४, ५) । २. बन (४) ।
बिहारी-रत्नाकर यह गुप्ता नायिका ऐसी चतुर है कि श्रीकृष्णचंद्र का नाम नहीं लेती, प्रत्युत उनके रूप, चेष्टा इत्यादि से उनका वर्णन करती है, जिससे यह जान पड़े कि वह उनसे पहिले से परिचित नहीं थी तथा वन मैं भी वह उनके साथ देर तक नहीं रही कि उनसे नाम इत्यादि पूछने का अवसर उसे प्राप्त होता ॥ मलिन देह वेई बसन, मलिन बिरह ' रूप । पिय-आगम औरै चेढ़ी नन ओप अनुप ॥ १६३ ॥ ( अवतरण )-आगमिष्यत्पतिका नायिका का वर्णन सखी सखी से करती है कि यद्यपि उसने प्रियतम की प्रवाई का समाचार न मिलने के कारण कोई श्रृंगार इत्यादि नहीं किया है, तथापि, सच्चे प्रेम के कारण, उसके हृदय में उस परम शुभ अवसर के निकट होने को भान हो गया है, जिससे रक़ की गति तीव्र हो जाने के का | ( अर्थ )—मलिन शरीर, उसी वस्त्र (विना बदले हुए वस्त्र), [ तथा ] विरह के मलिन रूप ( अवस्था ) में [ स्थित रहने पर भी ] प्रियतम की अवाई [ होने के कारण उसके ] आनन (मुख ) पर कुछ और ही अनूप प ( चमक ) चढ़ गई है ॥ 6 5 जाने के कारण उसके झानः रॅगराती रातें हियँ प्रियतम लिखी बनाई ।। पाती काती बिरह की छाती रही लगाइ ॥ १६४ ॥ रंगराती= अनुराग से रंगी अर्थात् अनुरागमय ।। राते हिये = अनुरक्त हृदय से । काती= कतरनी ॥ | ( अवतरण )-नायक ने अपने परदेश से शघ्र ही लौटने का समाचार बड़े धैर्य देने वाले शव्द में बना कर लिखा है। उस पत्रिका को नायिका कलेजे से लगा कर दुःख का निवारण करती है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )–प्रियतम द्वारा अनुरक्त हृदय से [ धैर्य देने वाले शब्दों में 1 बना कर लिखी गई अनुरागमयी पत्रिका [ को, जो कि] विरह की [ काटने वाली ] कतरनी [ है, नायिका ] छाती से लगा कर रही है ( स्थित हुई है ) ॥ लाल, अलौलिक लरिकई लखि लखि सखी सिहाँति ।। आजकाल्हि मैं देखियतु उर उकसह भाति ।। १६५ ।। अलौलिक= अल्हड़ । अलोल अथवा अल्हड़ ऐसी अवस्था को कहते हैं, जिसमें खेलकूद की उमंग भरी रहती है, और दूसरी बातों पर ध्यान नहीं जाता ॥ सिहाँति= सिहाती हैं। किसी व्यक्ति को उत्तम देख कर मन में उसकी प्रशंसा करते हुए स्वयं भी वैसे ही होने की अभिलाषा करने को सिहाना कहते हैं। यह शब्द शत्रु तथा मित्र दोनों के विषय में प्रयुक्त होता है । शत्रु के संबंध से इसका अर्थ ईर्षा करना, और मित्र के संबंध से संतुष्ट होना, है ॥ १. को ( ५ ) । २. बदी (४, ५)। ________________
विहारी-रत्नाकर ७३ (अवतरण )-ग्रंकुरितौवना नायिका रीर मैं यौवनागमन का वर्शन सखी नायक से करती है ( अर्थ )--हे लाल, [ उसका ] अलैलिक लड़कपन देख देख कर [ और की कौन कहे, उसकी ] सखियाँ [ भी ] लिहाती हैं । अाज ही कल में ( दो ही एक दिन से ) ! उसका] उर ( वक्षस्थल ) [ कुछ ] उकलाही भाँति ( उभरने पर आया हुआ सा ) देखा जाता है। बिलखी डभकॉहैं वखनु तिय लखि, गवनु बराइ ।। पिय गहबरि अाएँ अ रा गर्दै लगाइ ॥ १६६ ॥ वराई'= बचा कर, टाल कर ।। हर आएँ:=भर ग्रान से, सँध जाने से ।। राखी गरें लगाइ= गले से लिपटा कर उसकी रक्षा की, अथवा गले से कुछ देर पिटा रक्खां ।। ( अवतरण )-प्रवत्स्प्रे यसी नायिका की श्रॉखों में आँसू भरा देख कर नारदः का गला भर आया, और उसने गमन रोक कर उसे अपने गले । पिड लियः । सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ उस ] स्त्री के डभकाहे (श्रॉसू-भरे ) दृगी से विलखी ( दुखी ) देख कर प्रियतम ने अपना विदेश ] जाना 27 गले के भर आने से [ उसे समझाने बुझाने में असमर्थ हो कर उसको ] गले से लगा कर रख लिया [ उसके प्राणों की रक्षा की, अथवा उसको कुछ देर गले से लग रक्खा ] ॥ प्रतिबिंबित जयसाहे-दुति दीपति दरपन-धाम । संबु जग जीतन क कखौ काय-व्यूहु मनु काम ॥ १६७ ॥ दरपन-धाभ =शीशमहल ॥ काय-ब्यूटु युद्ध के निमित्त सैनिकों के किसी विशेष शृंखला-बद्ध स्थिति में स्थित होने को व्यूह कहते हैं । इसी का नाम मोरचा भी है । 'काय-व्यूहु' का अर्थ शरीरों का मोरचा होता है । | ( अवतरण )-अमेरगढ़ में राजा जयशाह ने एक शीशमहल बनवाया था, जो अब भी विद्यमान है। उसमें छोटे छोटे शीशे इस प्रकार जड़े हैं कि उनमें बिंब प्रतिबिंब पड़ कर चारों ओर एक मनुष्य के अगणित श्रेणीबद्ध रूप दिखाई देते हैं। उसी का वर्णन तथा राजा जयशाह के सौंदर्य की प्रशंसा कवि इस दोहे मैं करता है-- ( अर्थ )-जयशाह की प्रतिबिंबित द्युति दर्पणधाम में | ऐसी] दीपती है, मानो सब जगत् जीतने के निमित्त कामदेव ने [ माया से अनंत रूप धारण कर के उनका ] काय व्यूह बनाया है ॥ बाल, कहा लाली भई लोइन-कोइनु माँह । लाल, तुम्हारे दृगनु की परी दृगनु मैं छाँह ।। १६८ ॥ १. सिंघ ( ४ ), सिंह ( ५ ) । २. सब जगती जीतन रच्यो ( ५ ) । ७४ बिहारी-रत्नाकर लोइन-कोइनुलोचनों के कोयाँ में ॥ छाँह = छाया, आभा ॥ ( अवतरण )--प्रातःकाल नायक नायिका के घर आया है । उसकी आँख मैं, रात को अन्य स्त्री के साथ जागने के कारण, लाली छाई हुई है, और इधर नायिका की आँखें भी रोष से लाल हो रही हैं। शठ नायक नायिका की आँख की लाली का कारण ऐसी भोली बात से पूछता है, मानो उसका कुछ अपराध ही नहीं है, और खता नायिका उसे उत्तर देती है | ( अर्थ )-हे बाला, [ तेरी ] आँखों के कोयों में लाली क्यों हो आई है । हे लाल, [ यह मेरी आँखों में लाली नहीं हो आई है, प्रत्युत ! तुम्हारी आँखों की आभा [ मेरी ] आँखों में पड़ी है [ अर्थात् तुम अपनी आँखें तो देखो कि रात भर जागने से कैसी लाल हो रही हैं ] ॥ । तरुनकोकनद-बरनबर भए अरुन निसि जाग । वाही कै अनुराग दृग रहे मनौ अनुरागि ॥ १६९ ।। तरुन ( तरुण ) = यौवनावस्था को प्राप्त । यहाँ इसका अर्थ खिले हुए है ॥ कोकनद = लाल कमल ॥ अनुरागि= अनुरक्त हो कर, रँग कर ॥ ( अवतरण )-प्रौढा खंडिता अधीरा नायिका का वचन नायक से - ( अर्थ )-हे लाल, [ तुम्हारे दृग ] रात भर जाग कर तरुण कोकनद के सुंदर रंग के लाल हो गए हैं, मानो [ जिस स्त्री के साथ तुम जागे हो, ] उसी के अनुराग से [ जो तुम्हारे हृदय मैं है, तुम्हारे ] दृग रंग रहे हैं [ अर्थात् तुम्हारे दृगों की लाली से तद्विषयक अनुराग प्रकट होता है ] ॥ तजतु अठान न, हठ पखौ सठमति, आठौ जाम । भयौ बामु वा बाम कौं रहै कामु बेकाम ॥ १७० ॥ अठान= बुरी ठान, दुराग्रह ॥ सठमति = दुष्ट ॥ वामु=टेढ़ा, प्रतिकूल, दुःखदायी । बाम ( वामा )= स्त्री ।। बेकाम=विना काम ही के, व्यर्थ ॥ ( अवतरण )--सखी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है ( अर्थ )—कामदेव उस स्त्री को अठों याम व्यर्थ ( विना किसी अपराध के ) दुःखदायी हुआ रहता है । [ उस ] दुए ने [ ऐसा ] हठ पकड़ लिया है [ कि अपनी ] बुरी ठान नहीं छोड़ता ॥ आवत जात न जानियतु, तेजहि तजि सियरानु । घरेहँ जंवाई लौं घट्यौ खरौ पूस-दिन-मानु ॥ १७१ ॥ सियरानु= शीतल हो गया, ठंढा पड़ गया ॥ घरहूँ जंवाई = घर का जमाई, अर्थात् वह जामाता, १. सत्रु ( ४) । २. घर हूँ जब लो घर खरो पुस मास दिन-मान ( ४ ) । ३. पोस ( ५ ) ________________
बिहारी-रत्नाकर ७५ जो ससुराल में रहता हो । 'घरहँ' में हैं अपभ्रंश के संबंधकारक की विभक्ति ज्ञात होता है । कदाचित् बिहारी के समय में इसका प्रयोग होता रहा होगा । अब इस अर्थ में घर-जमाई' प्रयुक्त होता है । ( अवतरण )-पौष मास के दिन के छोटे होने का वर्णन कवि, सुसराल में रहने वाले आमाता का परिहास करता हुआ, करता है ( अर्थ १ )-पूस के दिन का मान (१. प्रमाण । २. प्रतिष्ठा ) घर-जमाई की भाँति भले प्रकार [ ऐसा ] घट गया है [ कि अब वह ] आता जाता जाना नहीं जाता, [ और] तेज ( १. उष्णता । २. स्वभाव की उग्रता ) को छोड़ कर ठंढा ( १. शीतल । २. नम्र ) हो गया है ॥ | किसी किसी ने इस दोहे मैं मान-संबंधी अर्थ भी निकाला है । वह अर्थ भी इस प्रकार हो सकता है | ( अर्थ २ )-घर-जमाई की भाँति पूस के दिन का भली भाँति घटा हुआ मान [ अपनी ] उग्रता छोड़ कर ठंढा पड़ गया है, [ और ] आते जाते जाना नहीं जाता ॥ | -- - चलत चलत लौं लै चलें सब सुख संग लगाइ । ग्रीषस-बसर सिसिर-निसि प्यौ मो पास बसाइ ॥ १७२ ।। ग्रीषम-बासर = ग्रीष्म ऋतु का सा दिन, अर्थात् बड़ा दुःखद तथा कठिनता से व्यतीत होने वाला दिन । सिसिर-निसि = शिशिर ऋतु की सी रात, अर्थात् बड़ा कष्ट देने वाली तथा कठिनता से व्यतीत होने वाली रात ।। ( अवतरण )--नायक परदेश जाने वाला है। सखिया नायिका को धैर्य दे कर समझाती हैं कि तु घबरा मत, वह शीघ्र ही लौट अवैगे । नायिका कहती है कि तुम मुझे धैर्य क्या देती हो। मैं वियोग-दुःख का अनुभव पहले भी कर चुकी हैं। शीघ्र तथा विलंब कर बात नहीं है । सब सुख तो उनके चलते ही उनके साथ चले जाते हैं, और मेरे लिये एक एक दिन और रात काटना कठिन हो जाता है ( अर्थ )-प्रियतम चलते चलते तक ( अर्थात् जाने की कौन कहे, चलते चलते ही ) ग्रीष्म का दिन [तथा ] शिशिर की रात्रि मेरे पास बसा कर सब सुखों को [ अपने ] साथ लगा ले चलते हैं ( ले जाते हैं )[ अर्थात् उनके चलने के समय ही मेरे सब सुख पयान कर जाते हैं, और एक एक दिन तथा रात्रि का काटना कठिन हो जाता है ] ॥ बेसरि-मोती-दुति-झलक परी ओठ पर आइ ।। चूनौ होइ न चतुर तिय, क्याँ पट-पॉछयौ जाइ ॥ १७३ ॥ ( अवतरण )-नायिका के शरीर मैं नवयौवनागमन से ऐसी कांति तथा अमलता बढ़ गई है। कि उसके ओठ पर बेसर के मोती का प्रतिबिंब पड़ा है, जिसको वह, दर्पण मैं देख कर, अज्ञात होने के कारण, चूना लगा समझ कर पौंछना चाहती है। सखी उससे परिहास करती हुई कहती है-- . ( अर्थ )-[ तेरे ] ओठ पर [ यह ] बेसर के मोती की चमक की झलक आ कर पड़ी ________________
बिहारी-रत्नाकर है । हे चतुर ( भोली ) स्त्री, [ यह ] चूना नहीं हैं, । अतएव ] वस्त्र से पोंछने से क्योंकर जा सकता है ॥ ‘चतुर' शब्द का अर्थ यहाँ लक्षणा से भोली होता है । चितु वितु तु न, हरत हठि लालन-दृग बरजोर । सावधान के वटपर ए, जगत के चोर ॥ १७४ ॥ वितु = धन || जोर = बलवान् ।। बटर =: वाट में पड़ने वाले अर्थात् अाक्रमण करने वाले, डाकू ।। ( अवतरण ) --वानुरागिनी नायक का वचन सखी --- ( अर्थ )--चित्तरूपी धन वधन नहीं पाता। लालन के प्रवल दृग [ उसको ] हठात् हर लेते हैं । ये ( लालन के दृग ) सावधान ( सचेत रहने वाले ) के डाकू, [ तथा ] जागते हुए के चोर हैं [ अर्थात् 'डाकृ शोर वार तो मनुष्य को असावधान तथा सोया पा कर उसका वित्त हरते हैं, पर ये सचेत था जागते रहने पर भी वल-पूर्वक चित्त को हर लेते हैं ]॥ विकसित-बचल्ली-कुभ-निकसित परिमल पाई । परस पजारत बिर- रो रहे कई बाई । १७५ ।। ( अवतरण ) वर्षा ऋन के गंधित वन की ईपकता का वर्णन नायिका सखी से करती है ( अर्थ )-खिलते हुए नवमरिका के फूलों से निकलता हुआ परिमल (सुगंध ) पा कर बरसते हुए [ समय ] का वायु विरह के हृदय को स्पर्श कर के जलाता है ॥ गोप अथइनु , गोरज छाई गैल ।। चलि, बलि, अजि, अभर की भी संझौखें सैल ।। १७६ ॥ अथाइनु = नौपाल, द्वार पर की वैठकें ।। अजार : कान्ग में यह एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है, नायिका का नायक के पास जाना ।। ।।खें = संवा के समय में ॥ सैल ( अरब सर ) = जी बलाने के लिए घूमना फिरना । । ( अवतरण ) - दुनी अथवा सखी नायिका को संध्या-य भर.रि करने की उत्तेजना देती है ( अ )--गोप अधाइया से उठ गए, और मार्ग में गारज छा गई है [ अतः इस समय तुझको कोई देख न सकेगा ।। है अली, में वलि जाती हूँ, [ तू शीघ्र ] चल । अभिसार के निमित्त संध्या-लमय सेल ( सर ) अच्छी होती है ॥ पहुँचति डॅटि रन-सुभट लौं, रोक सकैं सब नाँहि । लाखनु हूँ की भीर मैं ऑखि उहाँ चलि जाँहि ॥ १७७॥ १. आभसारिका ( ४ ), अभिसारिके ( ५ ) । २. खरी ( ५ ) । ३. हरि ( १ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )–लक्षिता नायिका की चितवन से उसको लक्ष्य लक्षित कर के सखी कहती है ( अर्थ )-[ तेरी आँखें ] रणक्षेत्र के सुभट की भाँति डट कर ( निर्भय रूप से ) [ अपने प्रतिद्वंद्वी नायक पर ] पहुँच जाती हैं। सब ( सर्वसाधारण ) [ उनको ] रोक नहीं सकते ( अटका नहीं सकते )। लाखों [ मनुष्यों ] की भीर में भी [ तेरी ] आँखें वहीं [ जहाँ तेरा लक्ष्य नायक है ] चली जाती हैं ।। युद्ध मैं जब कोई सुभट लड़ने को अाता था, तब वह विपक्ष की सेना के अध्यक्ष ही से भिड़ना चाहता था, और यद्यपि व अध्यक्ष लाख सैनिक की भीड़ से घिरा रहता था, तथापि वह सुभट उस भीड़ को काटता छाँटता उस तक पहुँचने की चेष्टा करता था। यदि वह सुभट बड़ा प्रवल तथा पराक्रमी होता था, तो उसको सामान्य सैनिक रोक नहीं सकते थे, और वह विपक्षी सेना के अध्यक्ष तक पहुँच जाता था ।
---- सरस सुमिल चित-तुरंग की करि करि अमित उठान ।
गोइ निबाहैं जीतियै खेलि प्रेम-चौगान ॥ १७८॥ सरस=( १ ) रसले । ( २ ) सधे हुए तथा पुष्ट । सुमिल = ( १ ) अनुरागी । ( २ ) गोल में मिल कर चलने वाले ॥ उठान= ( १ ) उमंगें । ( २ ) कावे ।। गोइ निबाहें = ( १ ) छिपा कर निर्वाह करने से । ( २ ) गोइ ( गेंद ) को निर्दिष्ट सीमा तक वहन करने से । चौगान---फ़ारसी भाषा में एक प्रकार के गेंद के खेल को चौगान कहते हैं, जो अँगरेज़ी खेल पोलो के सदृश घोड़ों पर चढ़ कर खेला जाता है ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका को शिक्षा देती है कि प्रेम को छिपा कर निर्वाह करने से जीत होती है ( अर्थ )-चित्त-रूपी सरस [ तथा सुमिल घोड़े की अमित ( अनंत ) उठाने कर कर के, गोड निबाह कर ( १. छिपा कर निर्वाह करने से । २. गोइ (गेंद) को निर्दिष्ट सीमा तक वहन करने से ), खेल कर प्रेम-रूपी चौगान जीता जाता है। हँस हँसि हेरति नवल तिथे मद के मद उमदाति ।। बलकि बलकि बालति बचन,ललकि ललकि लपटाति ।। १७९ ॥ मद= मदिरा ॥ मद =नशे से । उमदाति =उन्मत्त होती हुई, झूमती हुई । बलकि बलकि= बहक बहक कर ॥ ललकि ललकि=उमंग से लज्जा तथा भय छोड़ छोड़ कर ॥ ( अवतरण )—सखिय ने नवोढ़ा नायिका को मदिरा ले मतवाला कर के नायक को उसके पास बुला दिया है । अब जो चेष्टाएँ नायिका नशे मैं करती है, उनका वर्णन कोई सखी किसी सखी से करती है-- " ( अर्थ )-[ देख, यह ] नवीन स्त्री, मदिरा के नशे से झूमती हुई, हँस हँस कर [चारों ओर ] देखती है, बहक बहक कर वचन बोलती है, [ और नशे की तरंग में ] उमंग से . लज्जा तथा भय छोड़ छोड़ कर [ नायक से ] लिपटती है ॥ विहारी-रत्नाकर मिलि चंदन-बँदी रही गोरें मुंह, न लखाइ । ज्य ज्यौं मद-लाली चदै, त्या त्य उघरति जाइ ॥ १८० ॥ ( अवतरण )--नायिका के मुख की गुराई का तथा मद्य-पान से उसमें लाती आ जाने का वन सखा नायक से करती है, और उसी वर्णन से यह भी व्यंजित कर देती है कि अब उसको नशा हो रा है, अतः अापके चलने का सही उपयुक्र समय है ( अर्थ )-[ उसके | गैरे मुख में चंदन की बेंदी [ऐसी] मिल रही है [कि] लक्षित नहीं होती । ज्यों ज्यों मदिरा-पान की लाली । उसके मुख पर ] चढ़ती जाती है, त्यों त्यों [ वह बँदी ] उधरती ( प्रत्यक्ष होती ) जाती है ॥ > सोरठा ६G मैं समुझ्यौ निरधार, यह जगु काँचो काँच सौ । एकै रूपु अपार प्रतिबिंबित लखियतु जहाँ ॥ १८१ ॥ निरधार= निश्चय ॥ अपार= अनंत ॥ ( अवतरण )—यह किसी ब्रह्मज्ञानी अद्वैतवादी का वाक्य स्वगत अथवा किसी सतसंगी से है ( अर्थ )—मैंने [ तो यह ] निर्धार ( सिद्धांत ) समझा है [ कि ]यह कच्चा ( असत्य) जगत् काच के समान है, जहाँ एक ही रूप ( एक ही ईश्वर का रूप ) अपार ( अनंत रूप से ) प्रतिबिंबित भासित होता है [ अर्थात् जगत् में जितने पदार्थ दिखलाई देते हैं, वे सब एक ही ईश्वर के अनंत रूप की आभा मात्र हैं ] ॥ जहाँ जहाँ ठाढ़ी लख्यौ स्याम सुभग-सिरमौरु ।। बिन हूँ उन छिनु गहि रहतु दृगनु अज वह ठौरु ॥ १८२ ॥ सुभग सिरमौरु= भाग्यवानों का शिरोमणि । यहाँ इसका अर्थ स्वरूपवानों का शिरोमणि है ॥ अजी = अब भी, अर्थात् उनके बहुत दिनों से यहाँ न रहने पर भी ॥ ठौर = स्थान | यह शब्द भाषा में प्रायः स्त्रीलिंग-वत् प्रयुक्त होता है । पर इस दोहे से विदित होता है कि बिहारी इसको पुंलिंग मानते थे । सतसई भर में यह शब्द ४ जगह और शाया है। पर उन चारों जगह इसका प्रयोग ऐसी रीति से हुआ है कि इसका लिंग प्रतीत नहीं होता । ( अवतरण )--श्रीकृष्णचंद्र के मथुरा चले जाने पर प्रज-वधूटियाँ अएस मैं कहती हैं कि जिन स्थान पर श्यामसुंदर के खड़ा देखा था, उन स्थान मैं उनके संसर्ग से कुछ ऐसी रमणीयता आ गई है, और उन्हें देख कर उनका कुछ ऐसा स्मरण हो आता है कि अब तक वे स्थान, कृष्णचंद्र के वहाँ उपस्थित न रहने पर भी, आँख को ऐसे प्रिय लगते हैं कि क्षण भर हम सब श्यामसुंदर के ध्यान मैं मग्न हो कर उनमें लगी रह जाती हैं| १. मुख ( ४ ) । २. ठार्दै ( २ ), ठायौ ( ४ ), ठाढे ( ५ ) । ३. लखे (५) । ४. बिन उन हूँ ( २ ), विन हूँ पिय (४) । ________________
बिहारी-रत्नाकर ७६ ( अर्थ )-जहाँ जहाँ सुंदर पुरुष के शिरोमणि श्याम ( श्रीकृष्णचंद्र ) को खड़ा देखा था, वह ठौर अब तक उनकी अनुपस्थिति में भी दृगों को क्षण मात्र पकड़ रखता है। रंगी सुरत-हँग, पिय-हियें लगी जगी सब राति । पैंड़ पेंड़ पर ठकि कै, ऍड़-भरी ऍड्राति ॥ १८३ ॥ पैड़ पैड्=पग पग ।। पेंड-भरी = गर्व से भरी हुई ।। पेंड्राति = ऐंठती है, शरीर की ऐंठे से गर्व प्रकट करती है ॥ ( अवतरण )-सुरतांत मैं प्रेमगर्विता नायिका की चेष्टा का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )–प्रियतम के हृदय से लगी रात भर जगी हुई [ यह नायिका ], सुरति-रंग ( संभोग-सुख ) में रँगी ( निमग्न ), पग पग पर ठमक कर, गर्व से भरी हुई, ऐंडाती है । | गर्व उसको इस बात का है कि जो सुख मैंने आज पाया है, वह मेरी सौत को न मिला होगा। वह संभवतः यह भी सोचत होगी कि आज के समागम में मैंने प्रियतम के वशीभूत कर लिया है। | - - लालन, लहि पाएँ दुरै चोरी सौंह करें न । सीस-चढे पनिहा प्रगट कहँ पुकारें नैन ॥ १८४ ॥ सौंह=शपथ ॥ पनिहा ( प्रणिधाः )= गुप्त चर, जो चोरी का पता लगाता है ॥ ( अवतरण )-नायक अन्य स्त्री के यहाँ से सबरे आया है, और झूठी शपथ खा कर अपना अपराध छिपाया चाहता है। पर उसकी आँखें कैंपती हुई तथा लाल देख कर प्रौढ़ा अधीरा खंडिता नायिका कहती है | ( अर्थ )-हे लालन, लख पाने पर ( लक्षित कर लेने पर ) चोरी शपथ खाने से नहीं छिपती ।[ ये तुम्हारे] सिर-चढ़े ( ढीठ) नयन-रूपी पनिहा [तुम्हारी चोरी] पुकार पुकार कर प्रकट ( स्पष्ट ) कह रहे हैं ॥ । तुरत सुरत कैसैं दुरत, मुरत नैन जुरि नीठि। डौंड़ी दै गुन रावरे कहति कनौड़ी डीठि ॥ १८५ ।। डौंड़ी = डुग्गी, ढिंढोरा ॥ कनौड़ी = अपराध से ललित ।। ( अवतरण )-प्रौढ़ा अधीरा खंडिता नायिका की उक्कि नायक से ( अर्थ )—तुरत की की हुई सुरति कैसे छिप सकती है ! [ तुम्हारे ] नयन [ प्रथम तो मेरे नयनों के सामने होते ही नहीं, और यदि होते भी हैं, तो ] बड़ी कठिनता से जुड़ कर ( मेरी आँखों से मिल कर )[ और फिर संकुचित हो कर अपराधियों के नेत्रों की भाँति ] मुड़ जाते हैं (अन्यत्र देखने लगते हैं )[ तुम्हारी ] कनौड़ी दृष्टि तुम्हारे गुण (अवगुण ) ढिंढोरा दे कर कह रही है। १. पाई ( २ )।
बिहारी-रत्नाकर मरकत-भाजन-सलिल-गत इंदुकला कैं बेख । झन झगा मैं झलमलै स्यामगात-नखरेख ॥ १८६ ॥ मरकत ( मर्कत )= नीलमणि ।। झगा= अँगरखे की भाँति का एक पहिरावा, जिसकी कक्षा मैं चुन्नट रहती है ॥ (अवतरण )—अन्य स्त्री से रति करने मैं नायक के नख-क्षत लगा है । उसी को देख कर खंडिता नायिका कहती है ( अर्थ )-[ अपके ] झीने झगा में श्याम शरीर की ( श्याम शरीर में लगी हुई) नख-रेखा, नीलम की थाली में भरे हुए जल में पड़ी हुई ( प्रतिबिंबित ) चंद्रकला के वेष से ( की भाँति ) झलमलाती है [ जिसे देख कर मुझे बड़ा दुःख होता है, क्योंकि किसी पात्र के जल में चंद्र का प्रतिविब देखना अशुभ है ] ॥ बालमु बारें सौति नैं सुनि परनारि-बिहार । भो रसु अनरसु, रिस रली, रीझ खीझ इक बार ॥ १८७ ॥ बारें = पारी में ॥ ( अवतरण )–नायिका ने नायक को सौत की पारी मैं परस्त्री-विहार करते सुना, जिससे उसको अनेक प्रकार के भाव उत्पन्न हुए। उसी का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-सौत की पारी में बालम ( वल्लभ ) को परस्त्री-विहार में [ लगा हुआ ] सुन कर [ उसको ] रस ( सुख ) [ तथा ] अनरस ( दुःख ), रिस (रोष ) [ तथा ]रली ( उपहास करने की वृत्ति ), रीझ ( प्रसन्नता ) [ तथा ] खीझ ( चिढ़ ), [ ये सब विरोधी भावों के जोड़े ] एक बार [ ही ] उत्पन्न हुए ॥ | इन सब भाव के उत्पन्न होने का कारण श्रीलाला भगवानदीनजी ने बड़ी स्पष्टता से लिखा है । अतः हम यहाँ उनका वह लेख ( बिहारी-बोधिनी, पृष्ठ २२२ ) उद्धृत किए देते हैं “सुख ईष्र्या-जन्य, कि अच्छा हुआ सौति को दुःख हुआ । दुःख इस बात का की एक सौत तो थी ही अब एक और हुई । रिस इस बात की कि नायक मेरे ही यहाँ क्यों न चला आया। रली ( क्रीड़ा या मजाक ) इस बात पर कि सौत ऐसी गुणवती नहीं है कि प्रीतम को अपने वश में कर के अपने पास रख सके । रीझ इस बात की कि नायक मेरे ऊपर अधिक अनुरक़ है क्योंकि मेरी पारी में कहीं नहीं जाता । खीझ इस बात की कि बुरी आदत पड़ी, संभव है कभी मेरी पारी के दिन भी नायक परस्त्री के पास जाय ॥ दुरत ने कुच बिच कंचुकी चुपरी, सोरी सेत । कवि-आँकनु के अरथ लौं प्रेगटि दिखाई देत ॥ १८ ॥ सुपरी= चोवा इत्यादि से चुपड़ी हुई । आँकनु= अक्षरौं । १. दुरति ( २ ) । २. सादी ( १ ) । ३. प्रगट ( २, ४)। ________________
विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-अंकुरितयौवना नायिका के कुच के कुछ कुछ लक्षित होने लगने का वर्णन सखी नायक से करती है ( अर्थ )-[ चोवा इत्यादि से ] चुपड़ी हुई अँगिया [ तथा ] श्वेत साड़ी में [अहं उसके ] कुच न हाँ छिपते । [ ध्यानपूर्वक देखने से ये ] कवि के अक्षर के अर्थ की भाँति प्रकट हो कर दिखाई देते हैं [ भाव यह कि यद्यपि उसके उरोज अभी ऐसे छोटे हैं कि सामान्यतः तो कंचुक तथा सारी में छिपे रहते हैं, तथापि ध्यानपूर्वक देखने से लक्षित होने लगे हैं। जैसे कवि के अक्षर का सूक्ष्म अर्थ एकाएकी तो नहीं भासित होता, पर विचार करने पर उसी अक्षर में से प्रकट हो कर व्यजित होता है ] ॥ | इस दोहे के अर्थ मैं अन्य टीकाकारों ने बड़ा झमेला किया है। पर जो अर्थ ऊपर लिखा गया है, वह बहुत स्पष्ट है । ‘प्रगटि' के स्थान पर 'प्रगट' पाठ रखने से ये सब झमेलै हुए हैं। ‘प्रगति पाठ से यह अर्थ स्पष्ट निकलता है कि यद्यपि वे प्रकट तो नहीं हैं, पर विचार-पूर्वक देखने से प्रकट हो कर दिखलाई देते हैं। ‘चुपरी' शब्द से कवि कंचुकी का चोवा इत्यादि के द्वारा कुछ रंग-युत हो जाना कह कर उसका साम्य कवि के अक्षरों से करता है, क्याँक अक्षर काले, पीले, लाल इत्यादि लिखे जाते हैं, और साड़ी का श्वेते कह कर उसका साम्य काग़ज़ से दिखलाता है, जो कि प्रायः श्वेत ही होता है । भई जु छथि तन बसन मिलि, बरनि सकें सु न बैन । आँग-ओप अगी दुरी, आँगी आँगे दुरै म ॥ १८ ॥ आँग= अंग ।। ( अवतरण )-नायिका संदली अँगिया पहने हुए है। उसके शरीर के रंग में कपड़े का स्म ऐसा मिल गया है कि कपड़ा लाक्षत नहीं होता । उसी का वर्णन सखो नायक से कर के उसे मायिका को दिखलाने के व्याज से वहाँ लाया चाहती है-- ( अर्थ )-जो शोभा [उसके] तन में कपड़े के मिल जाने से (अलक्षित हो जाने से) हुई है, उसे वचन वर्णन नहीं कर सकते (वह कहने से नहीं झात हो सकती, अतः आप स्वयं चल कर देख लीजिए )। [उसके ] अंग की चमक में अँगिया छिप गई है, [ किंतु ] अँगिया से अंग नहीं छिपता [ अर्थात् ऐसा ज्ञात होता है, मानो वह अँगिया पहने ही नहीं है, अतः इस समय आपको विना अँगिया के कुचों के देखने का आनंद मिलेगा ] ॥ सोनजुही सी जगमगति अंग अँग जोबन-जोति । सुसँग, कैसँभी कंचुकी दुइँग देह-दुति होति ॥ १९० ॥ सोनजुही= पीले रंग की जुही ॥ सुरंग = सुंदर रंग वालीं, लाल ॥ कभी = कुसुंभ के फूल के रंग से रँगी हुई ॥ दुरंग= दो रंग वाली ॥ १. री ( २ )। २. तन-छबि बसन मिलि (४), छबि मिलि तन बसन (५) । ३. अंग (: ४, ५ )। ४. अँगिया ९.४ ) । ५. अंग ( २, ४, ५)। ६. कुसँभी (४) । ७. वृंदरी (२.) ।। २ बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-सखी नायिका की यौवनावस्था की शोभा नायक से कहती है ( अर्थ )-[ उसके ] अंग अंग में यौवन की चमक सोनजुही सी जगमगा रही है। [ अतः ] कुसुंभ के रंग से रँगी हुई लाल कंचुकी [ उसके ] शरीर की [ सुनहरी ] आभा से दुरंगी ( रक़ और पीत आभाओं से मिश्रित ) हो जाती है ॥ बड़े न है जै गुननु बिनु बिरद-बड़ाई पाइ । कहत धतूरे सौं कनकु, गहनौ गढ्यौ न जाइ ॥ १६१ ॥ बिरद ( विरुद ) = प्रशंसात्मक नाम ॥ कनकु=( १ ) सोना । ( २ ) धतूरा ॥ ( अवतरण )---कवि की प्रास्ताविक उक्ति है-- ( अर्थ )-[ अपने में ] विना गुणा के [ हुए केवल ] प्रशंसासूचक नाम की बड़ाई पा कर [ वस्तुतः ] बड़ा नहीं हुआ जाता । [ देखो, लोग यद्यपि ] धतूरे को कनक [ जो नाम सोने का भी होने के कारण बड़ा प्रशंसात्मक है ] कहते हैं, [ पर केवल इस नाम के पा लेने ही से धतूरे से, उसमें स्वर्ण के गुण न होने के कारण, ] गहना नहीं गढ़ा जाता ॥ कनकु कनक त सौगुनौ मादकता अधिकाइ । उहिँ खाएँ बाइ, इहिँ पाएँ हीं बौराइ ॥ १९२ ॥ मादकता= उन्मत्त करने की शक्ति । अधिकाइ = बढ़ जाता है ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि स्वर्ण, अर्थात् धन, धतूरे से सौगुना अधिक उन्मत्त करने वाला है | ( अर्थ ) -मादकता में कनक ( सुवर्ण ) कनक ( धतूरे ) से सौगुना बढ़ जाता है; [ क्याँकि ] उसको [ त ] खाने से [ मनुष्य ] बौराता है, [ पर ] इसके पाने ही ( पाने मात्र ) से बौरा जाता है ।। डीठिरत बाँधी अटनु, चढ़ि धावत न डरात । ईंतहिँ उतहिँ चित दुहुनु के नट लौं अावत जात ॥ १९३ ॥ बरत ( वर्त )=रस्सी ॥ ( अवतरण ) -- नायक नायिका अपनी अपनी अटारियाँ पर खड़े एक दूसरे को देख रहे हैं, और दोन के मन दोनों की ओर रष्टि-द्वारा जाते हैं। इसी का वर्णन इस दोहे मैं. रस्सी पर दौड़ते हुए नट का रूपक बाँध कर, किया गया है । सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ दोनों ने अपनी अपनी ] अटारी से [ दूसरे की अटारी तक ] दृष्टि१. हुजतु (१) । २. वा ( २ ), वह (४) । ३. बारातु है ( २ ), बोराइ जग ( ४ ), बौराइये ( ५ )। ४. दीठि ( १ ), दीठ ( ५ ) । ५. श्रावत (४) । ६. इत उत तै ( २ ), इत उत चिरा (४), इत उत ही ( ५ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर ६३ रूपी रस्सी बाँध रक्खी है। [ उस पर ] चढ़ कर दोनों के मन दौड़ने में डरते नहीं, [ और ] नट की भाँति इधर उधर आते जाते हैं ॥ रस्सी पर चलने वाले नट दो बाँस गाड़ कर उनमें रस्सी बाँध देते हैं, और उस पर चढ़ कर बेखटके उधर से इधर और इधर से उधर आते जाते हैं। नायक नायिका के मन के पक्ष मैं ‘न डरात' का अर्थ होगा, किसी के देख लेने की शंका नहीं करते ॥ झटक चढ़ात उतरति अटा, नैक न थाकति देह । भई रहात नट कौ बटा अटकी नागर-नेह ॥ १९४ ॥ झटकि= झटके से, झपट कर, फुर्ती से ।। बटा=गोला, गेंद, च । चकई डोरी में बाँध कर फिराई जाती है । वह दो प्रकार की होती है-एक तो हलकी अौर चिपटी और दूसरी कुछ भारी, मोटी और गोलाकृति, जिसे बट्टा भी कहते हैं । अटकी = फँसी हुई, बँधी हुई ॥ नेह= स्नेह । यहाँ इसका अर्थ प्रेम-रूपी डोरी करना चाहिए । | ( अवतरण )-नायक कहाँ खड़ा है। नायिका बार बार उसको देखने के लिए अटारी पर चढ़ती है। उसी का वर्णन, नट की चकई के सादृश्य से, सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ वह ] झटक कर' ( झपट कर, झटके से ) अटारी पर चढ़ती उतरती है। [ उसकी ] देह किंचिन्मात्र भी थकती नहीं ( थाकत नहीं होती, ठहरती नहीं )। नागर (चतुर नायक) के स्नेहं-रूपी डारे में अटकी हुई [वह] नट की चकई हुई (बनी) रहती है। | ‘बटा' का अर्थ अन्य टीकाकारों ने गैंद किया है, और वस्तुतः बटा का अर्थ गैंद है भी । पर ‘झटक', 'चढ़ति', ‘उतरते', 'अटा', ‘थाकति', तथा ‘अटकी', इन शब्द के प्रयोग पर ध्यान देने से यहाँ ‘बटा' का अर्थ चकई ही करना विशेष संगत है। ‘बटा' शब्द ‘वृत्त' शब्द का अपभ्रंश है । इस दोहे का भाव २०६-संख्यक दोहे के भाव से बहुत मिलता है ।। लोभ-लेगे हरि-रूप के करी सॉट जुरि, जाइ । हौं इन बेची बीच हीं, लोइन बड़ी बलाइ ॥ १९५ ॥ रूप={ १) सौंदर्य । (२) रूपा अर्थात् रुपया ॥ साँटि =( १ ) हेल-मेल । ( २ ) क्रय-विक्रय की बातचीत ॥ जुरि=(१) साक्षात् कर के । ( २ ) मिल कर ॥ बीच हीं =विना मुझसे बातचीत किए ही, विना मुझसे पूछे ही, विना मेरी अनुमति ही के । बलाइ = विपत्ति ।। ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका का वचन सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी, ये मेरे ] लोचन-रूपी दलाल बड़ी बला हैं। इन्होंने हरि के रुप-रुपी रुपए के लोभ में लगे हुए ( लग कर ), [ उनके पास ] जा कर, [ और उनसे ] मिल कर सट्टा कर लिया, [ और ] मुझे बीच ही मैं ( विना मेरे जाने ही ) बेच डाला ॥ १. झमक ( २ ) । २. भरे (२) । ३. साट (४)।
बिहारी-रत्नाकर यहाँ खोचन का रूपक अर्थांक्षिप्त दलाल से है॥ चिलक, चिकनई, चटक स लफंति सटक लौं आइ । नारि सलोनी साँवरी नागिनि ल डसि जाइ ॥ १९६ ।। चिलक= चमक ॥ चटक= चटकीलापन, चटकमटक अथवा चंचलता ॥ लफति = लचकती हुई ॥ सटक=पतली तथा लचकीली छड़ी ।। ( अवतरण )-नायक किसी साँवली स्त्री की सलोनी मूर्ति पर मोहित हुआ है, और किसी दूती को उसे दिखला कर कहता है ( अर्थ )-चमक, चिकनाई [ तथा ] चटकीलेपन से सटक की भाँति लचकती हुई [ इस ओर ] आ कर [ वह ] सलोनी साँवली स्त्री नागिन सी डस कर जा रही है ॥ तोरस-राँच्यौ अन-बस केही कुटिल-मति, कूर । जीभ निबौरी क्यों लगै, बौरी, चाखि अँगूर ॥ १९७॥ तोरस-राँच्यौ = तेरे सुख के स्वाद से रचा हुश्री अर्थात् परचा हुआ ॥ कुटिल-मति =टेढी बुद्धि वाले अर्थात् खोटे लोग, जो तुझमें तथा नायक में बिगाड़ कराना चाहते हैं ।। कूर ( कर ) =निर्दय ॥ निबौरी= निंब वृक्ष का फल, निमकौड़ी ॥ | ( अवतरण )–नायिका नायक को अन्य स्त्री पर अनुरक़ सुन कर रुष्ट है । सखी उसको, उसकी प्रशंसा करती हुई, समझाती है . ( अर्थ )-तेरे रस से परिचित को खोटे [ तथा ] निर्दय [ लोग ] दूसरी के वश में । भले ही ] कहो ( कहा करें, पर तू उनका विश्वास मत कर ) । अरी बावली, [ तू यह तो समझ कि ] अंगूर चख कर [ फिर ] निमकौड़ी जीभ कैसे लग सकती है ( जीभ को अच्छी कैसे लग सकती है ) ॥ जुरे दुहुनु के डग झसकि, रुके न झीनै चीर । हलुकी फौज हरौल ज्यौं पैरै गोल पर भीर ।। १९८॥ जुरे= मिल गए, भिड़ गए ॥ झमक= शीघ्रता से ॥ हरौल ( तुक हरावल ) = सेना का वह मोटा भाम, जो मुख्य सेना के आगे रहता है, जिसमें शत्रु एकाएक मुख्य सेना पर आक्रमण न कर सके । गोल (तुर्की गोल )=कुंड । यहाँ इसका अर्थ मुख्य सेना है ॥ | ( अवतरण )–नायक को देख कर नायिका ने पूँघट काढ़ लिया है। पर पट के झीने होने के कारण नायक के नेत्र उस बेध कर नायिका के नेत्र से जा मिले हैं, और दोन के नेत्र में परस्पर रा-भाव, कटाक्ष होने लगे हैं। उसी का वर्णन सखा सखी से करती है ( अर्थ )-दोनों ( नायक नायिका ) के नेत्र झमाझम भिड़ गए, झीने पट से रुके १. लफत ( २ ) । २. लकुट ( २ ) । ३. कहै ( २ ), कहे ( ५ ) । ४. परति ( २ ), परत ( ५ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर नहीं ; जिस प्रकार हरावल की फ़ौज हलकी [ होने से ] गोल ( मुख्य सेना ) पर भीड़ ( लड़ाई का भार ) पड़ती है ॥ नायिका के नयन मुख्य सेना हैं, और पूँघट हरावल । नायफ की मुख्य सेना नेत्र ने धावा किया । हरावल के हलके होने के कारण नायक की सेना रुक न सकी, अतः दोन सेनाएँ झमाझम भिड़ गईं ॥ -- -- केसर केसरि-कुसुर के रहे अंग लपटाई ।। लगे जानि नख अनखुली कत बोलत अनखाइ ।। १९९ ॥ केसर= किंजल्क ।। अनखुली = अपने हृदय के भाव को गुप्त कि: हुए । (अवतरण )—खंडिता नायिका से सखा का वचन-- ( अर्थ )-[ नायक के ] अंग में [ तो ] केसर के फूल के किंजल्क लगे हुए हैं ।[तु उनको अन्य स्त्री के ] नख लगे हुए जान कर अनखुली (विना प्रकट रूप से कारण जनाए) क्यों अनखा कर (रोष-युत, उत्साह-रहित, हो कर ) बोलती है ॥ हग मिहचत मृग-लोचनी भख, उलटि भुज, बाथ । जानि गई तिय नाथ के हाथ परस हाँ हाथ ॥ २०० ॥ बाथ-इस शब्द का अर्थ मानासिंह की टीका में हाथ तथा कृष्ण कवि की टीका, रसचंद्रिका, हरिप्रकाश, लालचंद्रिका और प्रभूदयाल की टीका में ग्रैकवार लिखा है, एवं देवकीनंदन की टीका में इसका अर्थ पहुँचा बतलाया गया है । इस दोहे के अतिरिक्त सतसई में और कहीं इसका प्रयोग नहीं हुआ है, और न और कहीं इसका देखन हमें स्मरण ही आता है । इस दोहे में इसका अर्थ अंक अच्छा प्रतीत होता है। अतः हमने यही अर्थ माना है ॥ ( अवतरण )--नायक ने पीछे से आ कर कौतुकवश नायिका की आँखें अपने हाथ से बंद कर ली हैं। नायिका ने नायक को उसके हाथ के स्पर्श ही से पहचान कर, अपनी भुजाओं को उलट, उसे अंक भर लिया है। सखा-वचन सखी से | ( अर्थ )-[ नायक के पीछे से आ कर ] दृग मीचते ही मृगलोचनी [ नायिका ] ने भुजाओं को उलट कर [ नायक को ] बाथ ( अंक ) में भर लिया । [ वह ] स्त्री हाथ के स्पर्श ही से [ अपने ] नाथ के हाथ पहचान गई ॥ | इस दोहे में दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं ( १ ) नायिका को नायक से ऐसा प्रेम था कि यद्यपि उसने उसे देखा नहीं, तथापि स्पर्श ही से उसके हाथ उसने पहचान लिए । (२) नायिका मैं ऐसा स्वकीयत्व था कि जब उसने रफ् से अपने नाथ को पहचान लिया, तभी अंक भरा ॥