बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

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(४)

सत्तीदीन की स्त्री को आये कई साल हो गये, उन्होंने जगन्नाथजी के दर्शन नहीं किये। पैसा पास न था। एक दिन जमादार से बोलीं, 'जमादार, पैसा तो पास है, लेकिन लड़का बच्चा कोई नहीं। हमारे-तुम्हारे बाद पैसा अकारथ जाएगा। इतने दिन आये हुए, अभी जगन्नाथजी के दर्शन नहीं हुए। अबके सोचती हूँ, बाबा के दर्शन करूँ और कहूँ, बाबा मेरी गोद भर दो तो तुम्हारे चरणों पर लोटकर तुम्हारी एक सौ एक रुपये की शिरनी चढ़ाऊँ। मेरा जी कहता है, बाबा मेरी मनोकामना पूरी करेंगे। देश-देश के लोग जाते हैं, मुँहमाँगा वरदान उन्हें मिलता है, भगवान ही हैं––अरे हाँ––जो कर, थोड़ा। फिर न जाने क्या सोचकर सत्तीदीन की स्त्री फूट-फूटकर रोने लगीं, फिर अपने हाथ आँसू पोंछकर हिचकियाँ लेती हुई बोलीं, 'मुझे सब सुख है। जैसा अच्छा वर मिला, वैसा अच्छा घर; धन है, मान है, गहने है, कपड़े हैं, दूध से भरी हूँ, लेकिन ऊँ हूँ हूँ––'फिर रोदन, यानी पूत नहीं।

सत्तीदीन ने छाती से लगाकर कहा, 'अभी तुम्हारी कोई उमर हो गई है? पहली होतीं तो एक बात होती। वे तो बेचारी चक्की [ १४ ]पीसती हुई चली गईं। पाँच साल हुए तुम्हें ब्याह कर लाया हूँ। अब तुम्हारी उम्र बीस साल की होगी?'

सिसकियाँ लेते हुए स्त्री ने कहा, 'उन्नीसवाँ चल रहा है।' हालां कि उनकी उम्र पच्चीस साल से ऊपर थी।

'फिर?' सत्तीदीन ने कहा, 'इतनी उतावली क्यों होती हो? मैं भी अभी बुड्ढा नहीं। लड़के-बच्चे जब आते हैं, अपने आप आते हैं।'

'ऐसा न कहो', स्त्री ने कहा, 'कहो, जगन्नाथ जी की कृपा से आते हैं।'

सत्तीदीन गम्भीर हो गये; बोले 'जगन्नाथजी की कृपा सब तरफ़ है। ऊँचा ओहदा मिला है, यह भी जगन्नाथजी की कृपा है; और उनके दर्शन हम रोज़ करते हैं मन में, रही बात उनकी पुरी में जाने की, सो चले चलेंगे, दस दिन की छुट्टी ले लेंगे। यह कौन बड़ी बात है?

स्त्री को ढाढस बँधा। इसी समय बिल्लेसुर आये। जमादार ने पूछा, 'बिल्लेसुर, जगन्नाथ जी चलोगे?'

बिल्लेसुर ख़रचा नहीं लगाना चाहते थे। सत्तीदीन समझ गये। लेकिन बिल्लेसुर के पास होगा भी कितना, सोचकर कहा, 'अच्छा, अपनी छुट्टी मंजूर करा लेना दस दिन की, अगले इतवार को चलेंगे।' सत्तीदीन को साथ एक नौकर चाहिये था।

बिल्लेसुर जब दूसरे की एवज़ में काम करने लगे, तब कचहरी की लगातार हाज़िरी ज़रूरी हो गई। सत्तीदीन को गायों के काम के लिये दूसरा नौकर रखना पड़ा। बाहर का बहुत सा काम बिल्लेसुर कर देते थे, यों वे अब अलग रहते थे, अलग पकाते खाते थे। [ १५ ]

फोकट में जगन्नाथ जी के दर्शन होंगे, बिल्लेसुर के आनन्द का आरपार न रहा। उन्होंने छुट्टी मंजूर करा ली। अगले इतवार के दिन सत्तीदीन के सामान के रक्षक के रूप से जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये सत्तीदीन और उनकी स्त्री के साथ रवाना हुए।

जिस तरह सत्तीदीन की स्त्री का विश्वास था कि जगन्नाथ जी की कृपा की दृष्टि पड़ते ही वे गर्भिणी हो जायँगी, उसी तरह बिल्लेसुर का विश्वास था कि सत्तीदीन की इच्छामात्र से उनकी नौकरी स्थायी हो जायगी, चाहे वे डेढ़ इंच की जगह बालिश्त भर छोटे पड़ें।

अपने विश्वास को फलीभूत करने का उपाय बिल्लेसुर रास्ते में सोचते गये।

पुरी पहुँचकर बहुत ख़ुश हुए। ऐसा दृश्य कानपुर से बर्दवान तक न देखा था। समन्दर का किनारा––बालू के दूह––देखकर बहुत खुश हुए, समुद्र देखकर जामे से बाहर हो गये। जगन्नाथ जी की स्मृति में बहुत से घोंघे समुद्र के किनारे से चुनकर रख लिये, कुछ छोटे छोटे शंख-से।

मार्कण्डेय, वटकृष्ण, चन्दनतालाब आदि प्रसिद्ध जगहें देखते फिरे। मन्दिर के अहाते में और छोटे छोटे मन्दिर हैं। एक एक देखते फिरे। एकादशी को एक जगह उल्टा टंगी देखकर हँसे। सत्तीदीन ने कहा 'बाबा के प्रताप से यहाँ एकादशी उल्टा टाँग दी गई हैं; यहाँ कोई एकादशी का व्रत नहीं कर सकता। बिल्लेसुर ने उन्हें भी हाथ जोड़कर प्रणाम किया। फिर सब लोग कलियुग की मूर्ति देखने गये। कलियुग अपनी बीबी को कन्धे पर बैठाये बाप को पैदल चला रहा है। सत्तीदीन की स्त्री ग़ौर से देखती [ १६ ]रहीं। कई रोज़ बड़े आनन्द से कटे। भुवनेश्वर चलने की तैयारी हुई।

जगन्नाथ जी में जूठा नहीं होता, या दूसरे की जूठन खाना प्रचलित है। इधर के लोग जिन्हें चौके की क़ैद माननी पड़ती है, वहाँ खुलकर एक दूसरे की जूठन खाते हैं। कोई बुरा नहीं मानता। बिल्लेसुर ने जमादार और जमादारिन की पत्तलों में अपने जूठे हाथ से भात उठाकर डाल दिया। वे कुछ न बोले, बल्कि खाते हुए हँसते रहे।

दो दिन बीत जाने पर की बात है, जमादार नहा चुके थे, बिल्लेसुर भी नहाकर आये। आकर सीधे जमादार के पास गये और उनके पैर पकड़ कर पेट के बल लेट गये। 'क्या है बिल्लेसुर? क्या है बिल्लेसुर?' जमादार शंका की दृष्टि से देखते हुए पूछने लगे। बिल्लेसुर ने करुण स्वर से कहा, 'कुछ नहीं, बाबा, मेरा भवसागर से उद्धार करो।'

भवसागर से उद्धार हम कैसे करें, बिल्लेसुर? क्या हो गया है?' सत्तीदीन विचलित हो गये।

पैर पकड़े हुए ही बिल्लेसुर ने कहा, 'बाबा, मुझे गुरुमन्त्र दो!'

'अरे, गुरु यहाँ एक-से-एक बड़े हैं, छोड़ो पाँव, उनमें जिससे चाहो, मन्त्र ले लो।' सत्तीदीन ने पैर छुड़ाने को किया।

'मेरी निगाह में तुमसे बड़ा कोई नहीं। तुम मुझ पर दया करो।' पैर पकड़े हुए बिल्लेसुर ने पैरों पर माथा रख दिया।

'मुझे तो काई गुरुमन्त्र आता ही नहीं। सिर्फ़ गायत्री आती है।' विकल होकर सत्तीदीन ने कहा।

'बाबा, गायत्री से बड़ा गुरुमन्त्र और कोई नहीं। मैं यही मन्त्र लूँगा।' [ १७ ]

'अरे, गायत्री तो जनेऊ होते वक़्त तुम सुन चुके हो।'

'मैं भूल गया हूँ। तुम्हारे पैर छूकर कहता हूँ। कल मैने सपना देखा है कि बाबा जगन्नाथ जी कहते हैं.........लेकिन कहूँगा तो सपना फलियायगा नहीं।'

स्वप्न की बात से सत्तीदीन की स्त्री रोमांञ्चित हुई। बिल्लेसुर बाज़ी मार ले गया, सोचा। पुकार कर कहा, 'बिल्लेसुर, पैर छोड़ दो। तुम्हें बाबा का सपना हुआ है, तो मैं कहती हूँ, जमादार गुरुमन्त्र देंगे। यहाँ आओ, अकेले में मुझसे बताओ कि क्या सपना देखा।'

बात पाकर बिल्लेसुर ने पैर छोड़ दिये। सत्तीदीन की स्त्री कोठरी की तरफ़ बढ़ीं। बिल्लेसुर साथ साथ गये। वहाँ जाकर कहा, 'मैं सोता था, सोता था, देखा भुस्स से एक आग जल उठी, उसमें तीन मुँह वाला एक आदमी बैठा था, उसने कहा, बिल्लेसुर, तू ग़रीब ब्राह्मण है, सताया हुआ है, लेकिन घबड़ा मन, तू जिसके साथ आया है, उनकी सेवा कर, उनसे गुरुमन्त्र ले ले, तू दूधों-पूतों फलेगा। फिर देखता हूँ तो कहीं कुछ नहीं।'

सत्तीदीन की स्त्री ने निश्चय किया, फल उल्टा हुआ। यह सपना दरअस्ल उन्हें होना था। कोई खता न हो गई हो। हर सोमवार बाबा के नाम घी की बत्ती देने का सङ्कल्प किया। फिर सत्तीदीन से मन्त्र दे देने के लिये कहा। सत्तीदीन ने कण्ठी, माला, मिठाई, अँगोछा आदि बाज़ार से ख़रीद लाने के लिये बिल्लेसुर से कहा। बिल्लेसुर गये, क्षण भर में ख़रीद लाये। सत्तीदीन ने गायत्री मंत्र से पुनर्वार बिल्लेसुर को दीक्षित किया।

बिल्लेसुर की श्रद्धालु आँखों का प्रभाव सत्तीदीन की स्त्री पर [ १८ ]पड़ा। जगन्नाथ-दर्शन बिल्लेसुर के मुकाबिले उनका फीका रहा सोचकर जमादार से बोलीं, 'जमादार, मैं कहती हूँ, मंत्र मैं भी क्यों न ले लूँ।' जमादार ने कहा, 'अच्छा, पण्डा जी आवें, तो पूछ लें।' ईश्वर की इच्छा से पण्डा जी कुछ ही देर में आ गये। सत्तीदीन ने पूछा। पण्डा जी ने सत्तीदीन की स्त्री को देखा और कहा 'अभी तुम रख नहीं सकेगा। अभी तो तुमको मासिक धर्म होता है।'

सत्तीदीन की स्त्री कटी निगाह देखती रही। पण्डा जी ने सत्तीदीन को सलाह दी कि चौथेपन में गुरुमन्त्र लेना लाभदायक होता है। जब तक स्त्री को मासिक धर्म होता है तब तक वह मंत्र की रक्षा नहीं कर सकती, अशुद्ध रहती है और तरह तरह से पैर फिसलने की सम्भावना है। सत्तीदीन मान गये।

वहाँ से भुवनेश्वर गये, फिर बर्दवान वापस आये।