बिरजा/३
जिस वृद्ध को पाठकों ने गंगातीर तनु त्याग करते देखा है उमका नाम रामतनु भट्टाचार्य था, यह विलक्षण मंगति मन्यन्त्र ग्रहस्त था। दम बीघा भूमि घेर कर उसका घर था और एक घर के बाहर और एक घर की खिरकी के पास यह दो पुकारिणी थी प्राय: दो सौ बीघा भूमि जोती बोई जाती थी। बाहर के घर और भीतर के दो उठान ऐसे घे जैसे घुड़दौड़ को होते हैं। एतङ्गित्र रुपया पैसा भी उधार दिया जाता था भट्टाचार्य महाशय के दो पुत्र हैं जिनमें ज्येष्ठ का नाम गोविन्दचन्द्र और कनिष्ट का गंगाधर है, इनके विवाह हो गये हैं इस समय गोविन्द का वय:क्रम पहविंशति और गंगाधर का अष्टादश वर्ष होगा। गंगाधर ने वर्द्धमान के इंगलिश विद्यालय में यत्किञ्जित लिखना पढ़ना सीख लिया था, हम यत्विरित कहते है किन्तु रामतनु भट्टाचार्य अपने मन में जानते थे कि इस्की अपेक्षा अधिक लिखना पढ़ना नहीं हो सका। यकिञ्चित् लिखना पढ़ना सीख कर लो दोष हो जाता है वह गंगाधर में हो गया था किन्तु गोविन्दचन्द्र बड़े धीरस्वभाव थे। यद्यपि उन्होंने कभी विद्यालय के काष्टासन का स्पर्श नहीं किया, तथापि वह सचरित्र थे। गोविन्दचन्द्र सर्वदा संसार को लेकर व्यस्त रहते थे। न तो समय में आहार होता या और न समय में निद्रा होती थी। प्रात: काल चौपाल में आते, एक दो बजे के समय घर में प्राय कर खानाहार करते। आहारान्त में फिर तटाटान (तक़ाज़ा) के लिये घर से निकलते। किन्तु गंगावर इन सब बातों को किमान का काम मानता था। वह सवेरे सवेरे ही खानाहार करके ग्राम के निष्कर्मा लोगों के संग तास पीटता और वही टीपटाप मे समय संहार करता। गुप तो यह था, पर यदि इस्के कोई वस्तु 'दो' कहने पर वह वस्तु घर से न मिले, तो माता के प्रति क्रोध बड़ी बहन के प्रति क्रोध, दास दासियों के प्रति क्रोध होता था। सब जने गंगाधर को बाबू कहते थे, और सब सनेही गंगाधर बाबू के भय से भीत रहते थे। ज्येष्ठ भ्राता गंगाधर को बहुत प्यार करता था। उसकी आखों में गंगाधर का दोष दोषरूप में नहीं बोध होता था। गोविन्दचन्द्र की पत्नी अत्यन्त साधुशीला थी। इसका वय:क्रम विंशति वत्सर था, और उसको दो पुत्र सन्तान भी हुये थे। गोविन्द की माता नाम मात्र को गृहिणी (घर की स्वामिनी) थी, घर का काम काज सब वडी वह केहो हाथ में था। गंगाधर की पत्नी और बिरजा की एकही अवस्था थी। अर्थात् गंगाधर की पत्नी की वयस दस वर्ष मात्र थी नाम नवीनमणि था।
इस वयस में वालिका स्वामी के घर नहीं जाती हैं किन्तु नवीन के माता पिता दोनों की संक्रामिक ज्वर में मृत्यु होने से उसको यहां ले आये थे।
बिरजा इस घर में आय कर रहने लगी, वह अपने स्वभाव गुण से सब की प्रियपात्र बन गई. विशेषतः छोटी वह नवीन के संग उस्की अत्यन्त प्रीति बढ़ गई, वह दोनों एक संग स्नान करती थी, एक संग खेला करती थीं।
एक दिन गृहिणी आहारान्त में खाट बिछाकर आँगन में सो रही है, बिरजा से माथा देखने को कहा वह सिरहाँने बैठी माथा देख रही है इस समय गृहिणी ने बिरजा से नौका डूबने का वृत्तान्त वर्णन करने का अनुरोध किया।
बिरजा वालक थी, नवीन के संग खेल में मत्त रहा करती थी, सुतराम् वह सब विषय एक प्रकार भूल गई थी अब वह सब बातें उसे स्मरण हो आई, उसकी आंखों से जल गिरने लगा। गृहिणी ने काहा 'अब क्या भय है? अब कहे क्यों ना? बिना कहे कैसे तुझे तेरे बाप के घर भेजूंगी विरजा ने कहा "मेरे मां बाप कोई नहीं हैं, मैं कहां जाऊँगी"।
गृहिणी "तो रह क्यों न? कौन निकालता है तब और कोई है?" बालिका ने रोते रोते कहा "मेरे कोई नहीं है"।
वृध्दा ने जिस रात्रि में बिरजा को पाया था उस रात्रि में उसके सोमन्त में सिंदूर का टीका देखा था वह बात वृध्दा के मन में थी इस हेतु उसने फिर पूछा कि तेरा विवाह हुआ है? किस ग्राम में?"।
वि०— मैं उस ग्राम का नाम नहीं जानती।
वृ॰—तेरे बाप का घर किस ग्राम में हैं?
वि०—मैं नहीं जानती
वृ॰—तेरे मामा का घर कहां है ?
वि०—यह भी मैं नहीं जानती।
वृद्धा ने फिर किसी बात का उत्यापन न करके निद्रा मनस्य की, नवीन पास आय कर बिरजा को हाथ पकड़ कर उठा ले गई, जाते जाते उसकी आंखों का जल पोंछ दिया।
इसके एक वत्सर पीछे एक दिन बिरजा ने नवीन से आत्मविवरण कहा, यह यह है कि "अति छोटी अबला में मेरे पिता की मृत्यु हुई उसके पीछे मेरी माता मुझे लेकर शान्तिपुर के एक गोस्वामी के घर में रही। माता उनके घर में पाचिका का काम करती थी ।मेरी जब सात वर्ष की अवस्था थी तब माता की मृत्यु हुई माता के मरण में मैं बहुत रोई थी उस काल में मैं उन्हीं के घर रहने लगी, दस वर्ष की अवस्था में मेरे विवाह की बातचीत हुई, कलकत्ते के बाबू के संग मेरा विवाह हुआ विवाह के आठ दिन पीछे वह बाबू मुझे कलकत्ते लिये जाते थे, उसी दिन झड़ दृष्टि होने से नौका डूब गई, मैं बहुत तैरना जानती धी। यहां तक कि लोग मुझे जलजन्तु कहते थे मैं तैरती २ नदी के तौर पर प्रकाश देखकर वहां उतर आई। इसके पीछे यह लोग मुझे देखकर यहां ले जाये।
हम बिरजा के वृत्तान्त का अवशिष्टांश लिखते हैं। बिरजा गोस्वामी की पालिता कन्या थी, इस कारण उसके विवाह के विषय बड़ा कष्ट हुआ था। बिरजा के निज का कोई दोष न था, वह सर्वाङ्ग सुन्दरी थी। किन्तु वह किस की कन्या है, इसका कोई निश्चय प्रमाण नहीं था। सुतराम् कौन भलामानस विवाह करता शान्तिपुर का एक युवक कलकत्ते में रहकर पढ़ा करता था, उसने यह सम्वाद अपने एक मित्र को दिया। वह सुनकर शान्तिपुर में एक दिन बिरजा को देखने गया देखकर वह उससे विवाह करने का अभिलाषी हुआ वह विदेशी था, इस हेतु पिता माता मे न कहकर गुप्त रूप से उसने विरजा से विवाह किया। उसकी इच्छा थी कि विरजा को कलकत्ते में ले जाय कर किसी विद्यालय में शिक्षा के लिये रख लेंगे, पर मार्ग में नौका डूब गई पाठकों ने वह आप देखा है। इस के आगे का वृत्तान्त बिरजा ने आपही कह दिया है।