बिरजा/२
द्वितीयाध्याय।
गंगा के उभय तीर गंगा यात्रियों के वास करने के लिये स्थान स्थान में घर बने हुये हैं उन्हें "मुर्दे का घर" कहते हैं। किसी को जीवन संशय पीड़ा होने से उसके आत्मीय लोग उसे वहां लाकर उसी घर में रखते हैं, गंगाप्रदेश के अति दूरवर्ती स्थानों में भी मरणासन्न पीड़ित लोग इसी भांति गंगा तीर पर लाये जाते हैं।
पाठक को उस समय हमारे संग एक मुर्दे के घर में जाना होगा। यह देखो! एक पट्टे पर एक जन वृद्ध प्राण संशय पीड़ित होकर पड़ा है। उसकी शय्या के पार्श्व में उसके दो पुत्र बैठे हैं। और यह वृद्धा जो आसन्नमरण व्यक्ति के मस्तक में हस्तप्रचार कर रही है, यह वृद्ध की पत्नी है। अटाह व्यतीत हुआ कि इस पीड़ित व्यक्ति को यहां लाये हैं। जलहिलोल में पीड़ा के किञ्चित् उपशम होने से वृद्ध के आत्मीय लोग अत्यन्त भावनायुक्त हुये, क्योंकि गंगायात्रा के पीछे किसी व्यक्ति के मरण न होने से इस देश में बड़े कष्ट का विषय होता है। बहु व्यय से प्रायश्चित करके उस दुर्भाग्य व्यक्ति को घर में ले जाना पड़ता है। तब भी एक अख्याति रही आती है। किन्तु आज झड़ वृष्टि देखकर वृद्ध के आत्मीय लोग बड़े सन्तुष्ट हैं। उन्होंने वृद्ध को गंगाजल में स्नान कराय कर दधि भात खिलाया। इस पर भी जिस घर में वृद्ध को रक्खा है उसके सब द्वार खोल दिये हैं उन खुले द्वारों में होकर विलक्षण सिग्ध मारुतहिकोल ब्टह में प्रवेश करता है इन सब कारणों से वृद्ध की नाड़ी अत्यन्त क्षीण हो गई। एक जन कविराज ने (जो निकट में था) नाड़ी पकड़कर कहा 'अब विशेष विलम्ब नहीं है।" सब जने वृद्ध के प्राणप्रयाण की प्रतीक्षा में बैठेही थे कि इतने में कविराज की अनुमति पाकर वे लोग उसे गंगाजल में ले गये। उस्को नाभिदेशपर्व्यन्त गंगाजल में रखकर और मस्तक पर गंगाजल और गंगामृत्तिका रख कर (कफ का जोर बढ़ाकर) सब जने हरिनाम करने लगे। रात्रि दोपहर थी, इस समय दृष्टि निवारण हो गई। केवल वेग से शीतल वायु चल रही थी। वृद्ध के लिये चिता प्रस्तुत थी, केवल उस्की मृत्यु होतेही सब बानक बन जाता अनेक क्षण के पीछे उसके कठिन निर्लज्ज प्राणों ने प्रयाण किया। शास्त्रविहित कर्म करके उसकी देह चिता पर रक्खी। चिता वायुभर से जल उठी। वृद्ध की पत्नी चिता से अनति दूर गंगातीर पर बैठकर अनुञ्चस्वर से रोदन करने लगी।
कदाचित हमारे नव्यदल के पाठक कहेंगे कि “यह स्त्री बड़ी निर्लज्ज है। जिसे प्रथम बलपूर्वक मारा अब उसके लिये क्यों रोती है?" हम ऐसे पाठकों को अनुरोध करते हैं कि वह गङ्गासागर में सन्तानविसर्जन करने की कथा स्मरण करें। जो आर्थ्यमाता पुत्र के विद्याशिक्षा के लिये विदेश जाने पर रो रो कर अस्थिर होती हैं वही एक समय धर्म के अनुरोध से छाती में पाषाण बांधकर अपने हाथ से सन्तानविसर्जन करती थीं। धर्म के अनुरोध से स्त्रियेंही क्यों? पुरुष क्या नहीं कर सकते हैं? और क्या नहीं किया है।
झड़ वृष्टि थम गई है आकाश में बड़े २ नक्षत्र निकल आये हैं, अनन्त नील नभोमण्डल में शशधर दिखाई दे रहा है, भागीरथी की तरंगें नाना रंग से नक्षत्रशशधर शोभित आकाशमण्डल की छवि हृदय में धारण करके वृत्य करतीं करती सागर के सम्मुख जा रही हैं।
पण्डित लोग कहते हैं कि इस जगत का धन मान सभी अस्थायी है, पर हम कहते हैं कि शोक दुःख भी अस्थायी है। काल में सभी सहा जाता है। वृद्धा का शोकावेग भी अनेक हास को पहुंचा। वह रोदन परित्याग कर के नीरव बैठी थो, और मन मन में कुछ भावना कर रही थी इतनेही में पासही किसी स्त्री का अनुच्च रोदन सुना। प्रथमबार सुनकर कुछ ठहरा नहीं सकी इस निमित्त फिर मन देकर सुना। जाना गया कि एक स्त्री का रोदन शब्द है। वृद्धा ने अपने कनिष्ट पुत्र को पुकारा 'गंगाधर' गंगा धर माता के निकट आया। वृद्धा ने अंगुलिनिर्देश करके कहा 'इस दिशा में स्त्री का रोदन सुना जाता है, मेरे संग आ, देखें। माता पुत्र दोनों जने चले, वहां जाय कर देखा तो एक बालिका नदी के तोर बालू के टीले पर पड़ी है, अगुञ्च रोदन कर रही है। उस रोदन करने की शक्ति कदाचित् न होगी।
वृद्धा ने अत्यन्त व्यस्तता से निकट जाय कर उसे पकड़ कर उठाते २ कहा 'बेटी! तू कौन है?" बालिका ने कुछ उत्तर नहीं दिया हाथ बढ़ाकर वृद्धा का हाथ पकड़ लिया किन्तु वृद्धा को उसके उठाने में असमर्थ देखकर गंगाधर ने उसे उठाकर गोद में ले लिया। वृद्धा ने कहा इसे उसके पास ले चलो। चलते वृद्धा ने बालिका से पूंछा "बेटी! तेरी यह दशा कैसे हुई?” बालिका ने अति अस्फुट स्वर से कहा 'नौका डूब गई" वृद्धा ने समझा कि वैकालिक झड़ ने इसकी यह दशा कर दी। चिता को पास आय कर वृद्धा ने अपनी स्वतन्त्र आंच बलाई। एक जने से एक शुष्क वस्त्र मंगवाकर बालिका को पहिनाया और उसे अग्नि के निकट बिठाकर सेकने का आरम्भ किया। बहुत सेंकते २ बालिका का शरीर किञ्चित उषा हुआ। वृद्धा ने देखा बालिका परम सुन्दरी है और शरीर में नये नये गहने भी हैं। इस समय उसने जिज्ञासा किया कि "ऐरी तेरा नाम क्या है?" बालिका ने उत्तर दिया "मेरा नाम बिरजा है।" वृद्धा ने बालिका के अई शुष्क केश पोंछते २ पुनर्वार जिज्ञासा की कि "तेरे आत्मीय कौन हैं?" बालिका ने रोते रोते कहा "हम बाह्याण है।” वृद्धा ने उस की सांत्वना करके कहा "रो मत, अभी मेरे घर चल खोज करके मैं तुझे तेरे बाप के घर भेज दूंगी और तुझे अपनी बेटी के समान रक्खूंगी।
अनेक क्षण पीछे शवदाह शेष हुआ। शास्त्र कृत्य सम्पादन करके सब जनों ने उस मुर्दे के घर में जाय कर अवशिष्ट रात्रियापन की, पर दिन प्रात:काल गंगास्नान करके सभी ने घर की यात्रा की। उस दिन वह लोग घर नहीं पहुँच सके मार्ग में एक चट्टी में रात्रियापन की दूसरे दिन तीसरे पहर घर पहुंचे। इनलोगों का घर गंगा तीर से १६ कोस दूर था। विरजा इनलोगों के संग जाय कर इनके घर में रहने लगी, और घर के सब जने यथेष्ट स्नेह करने लगे।