बिखरे मोती
सुभद्रा कुमारी चौहान

जबलपुर: उद्योग मंदिर, पृष्ठ १० से – १५ तक

 

होली

[ १ ]


"कल होली है।"
"होगी।"
"क्या तुम न मनाओगी?”
"नहीं"
"नहीं?”
"न।"
"क्यों?"
"क्या बताऊँ क्यों?"
"आखिर कुछ सुनूँ भी तो।" "सुनकर क्या करोगे?"

"जो करते बनेगा।"

"तुमसे कुछ भी न बनेगा।"

"तौ भी।"

"तो भी क्या कहूँ? क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्यौहार वही मनाता है जो सुखी है। जिसके जीवन में किसी प्रकार का सुख नहीं, वह त्यौहार भला किस विरते पर मनावे?"

"तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊँ?"

"क्या करोगे आकर?"

सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश साइकिल उठा, घर चल दिया। करुणा अपने घर के काम-काज में लग गई।

[ २]

नरेश के जाने के आध घंटे बाद ही करुणा के पति जगत प्रसाद ने घर में प्रवेश किया। उनकी आँखें लाल थीं। मुँह से शराब की तेज बू आ रही थी। जलती हुई
सिगरेट को एक और फेंकते हुए, वे कुरसी खींच कर बैठ गये। भय-भीत हरिणी की तरह पति की ओर देखते हुए करुणा ने पूछा—"दो दिन तक घर नहीं आए, क्या कुछ तबियत खराब थी? यदि न आया करो तो ख़बर तो भिजवा दिया करो। मैं प्रतीक्षा में ही बैठी रहती हूँ।”

उन्होंने करुणा की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया। जेब से रुपये निकाल कर मेज पर ढेर लगाते हुए बोले,——“पंडितानी जी की तरह रोज़ ही सीख दिया करती हो कि जुआ न खेलो, शराब न पियो; यह न करो, वह न करो। यदि मैं जुआ न खेलता तो आज मुझे इतने रुपये, इकठ्ठे कहाँ से मिल जाते? देखो, पूरे पन्द्रह सौ हैं। लो, इन्हें उठाकर रखो, पर मुझ से बिना पूछे इसमें से एक पाई भी खर्च न करना, समझीं!!"

करुणा जुए में जीते हुए रुपयों को मिट्टी समझती थी। गरीबी से दिन काटना उसे स्वीकार था; परन्तु चरित्र को भ्रष्ट करके धनवान बनना उसे प्रिय न था। वह जगत प्रसाद से बहुत डरती थी, इसलिए अपने स्वतंत्र विचार वह कभी भी प्रकट न कर सकती थी। उसे इसका अनुभव कई बार हो चुका था। अपने स्वतंत्र

विचार प्रकट करने के लिए उसे कितना अपमान, कितनी लांच्छना और कितना तिरस्कार सहना पड़ा था! यही कारण था कि आज भी वह अपने विचारों को अन्दर-ही अन्दर दवा कर दबी हुई जबान से बोली-“रुपया उठाकर तुम्हीं न रख दो? मेरे हाथ तो आटे में भिड़े हैं।” करुणा के इस उत्तर से जगत प्रसाद क्रोध से तिलमिला उठे और कड़ी आवाज से पूछा—

“क्या कहा?"

करुणा कुछ न बोली, नीची नजर किए हुए आटा सानती रही। इस चुप्पी से जगत प्रसाद का पारा ११० पर पहुँच गया। क्रोध के आवेश में रुपये उठा कर उन्होंने फिर जेब में रख लिये—“यह तो मैं जानता ही था कि तुम यही करोगी। मैं तो समझा था इन दो-तीन दिनों में तुम्हारा दिमाग ठिकाने आ गया होगा। ऊट-पटांग बातें भूल गई होगी और कुछ अकल आ गई होगी; परन्तु सोचना व्यर्थ था। तुम्हें अपनी विद्वत्ता का घमंड है तो मुझे भी कुछ है। लो, जाता हूँ; अब रहना सुख से"— कहते-कहते जगत प्रसाद कमरे से बाहर निकलने लगे।

पीछे से दौड़कर करुणा ने उनके कोट का सिरा पकड़

लिया ओर विनीत स्वर में बोली—"रोटी तो खालो! मैं रुपये रखे लेती हूँ। क्यों नाराज होते हो?" एक जोर के झटके के साथ कोट को छुड़ाकर जगत प्रसाद चल दिये। झटका लगने से करुणा पत्थर पर गिर पड़ी और सिर फट गया। खून की धारा बह चली, सारी और जाकेट लाल हो गई।

संध्या का समय था। पास ही बाबू भगवती प्रसाद जी के सामने वाली चौक से सुरीली आवाज आ रही थी।

"होली कैसे मनाऊँ?

"सैंया विदेश, मैं द्वारे ठाढो़, कर मल-मल पछताऊँ।"

होली के दीवाने भंग के नशे में चूर थे। गानेवाली नर्तकी पर रुपयों की बौछार हो रही थी। जगत प्रसाद को अपनी दुखिया पत्नी का खयाल भी न था। रुपया बरसाने वालों में उन्हीं का सब से पहिला नम्बर था। इधर करुणा भूखी-प्यासी, छटपटाती हुई चारपाई पर करवट बदल रही थी।

×××
"भाभी, दरवाजा खोलो" किसी ने बाहर से आवाज दी। करुणा ने कष्ट के साथ उठकर दरवाजा खोल दिया। देखा तो सामने रंग की पिचकारी लिए हुए नरेश खड़ा था। हाथ से पिचकारी छूट कर गिर पड़ी।

उसने साश्चर्य पूछा—

"भाभी, यह क्या?"

करुणा की आँखें छलछला आईं; उसने रुँधे हुए कंठ से कहा-—

"यही तो मेरी होली है, भैया।"