बिखरे मोती/पापी पेट
पापी पेट
[ १ ]
आज सभा में लाठीचार्ज हुआ । प्रायः ५००० निहत्थे और शान्त मनुष्यों पर पुलिस के पचास जवान लोहबन्द लाठियाँ लिये हुए टूट पड़े। लोग अपनी जान बचाकर भागे; पर भागते-भागते भी प्रायः पाँच सौ आदमियों को सख्त चोटें आई और तीन तो बेहोश होकर सभा-स्थल में ही गिर पड़े। तीन-चार प्रमुख व्यक्ति गिरफ्तार करके जेल भेज दिए गए।
पुलिस ने झंडे के विशाल खम्भे के काटकर गिरा दिया और आग लगा दी। तिरंगा झंडा फाड़ कर पैरों
तले रौंद डाला गया। सब के हृदय में सरकार की सत्ता
का आतंक छा गया।
प्रकट रूप से विजय पुलिस की ही हुई। उनके सामने सभी लोग भागते हुए नज़र आए। और यदि किसी ने अपनी जगह पर खड़े रहने का साहस दिखलाया तो वह लाठियों की मार से धराशायी कर दिया गया । परन्तु इस विजय के होते हुए भी उनके चेहरों पर विजय का उल्लास नहीं था, प्रत्युत ग्लानि ही छाई थी। उनकी चाल में आनन्द का हल्कापन न था, वरन ऐसा मालूम होता था कि-जैसे पैर मन-मन भर के हो रहे हों। हृदय उछल नहीं रहा था, वरन एक प्रकार से दवा-सा जा रहा था।
पुलिस लाइन में पहुंँच कर सिपाही लाठीचार्ज की चर्चा करने लगे। सभी को लाठीचार्ज करने, निहत्थे, निरपराध व्यक्तियों पर हाथ चलाने का अफ़सोस हो रहा था। सिपाही राम खिलावन ने अपनी कोठरी में जाकर अन्दर से दरवाजा लगा लिया और लाठी चूल्हे में जला दी। उसकी लाठी के वार से एक सुकमार बालक की खोपड़ी फट गई थी। उसने मन में कहा, विचारे निहत्थे और निरपराधों को कुत्तों की तरह लाठी से मारना ! राम, राम, यह हत्या ! किसके लिए ? पेट के लिए ? इस पापी पेट को तो जानवर भी भर लेते हैं। फिर हम आदमी होकर इतना पाप क्यों करें ? इस बीस रुपट्टी के लिए यह कसाईपन ? न, अब तो यह न हो सकेगा। जिस परमात्मा ने पेट दिया है वह अन्न भी देगा। लानत है ऐसी नौकरी पर, और दूसरे दिन नौकरी से इस्तीफा देकर वह अपने देश को चला गया ।
[ २ ]
थानेदार बरकतउल्ला लाठी चार्ज के समय चिल्ला- चिल्लाकर हुक्म दे रहे थे "मारो सालों को" 'आए हैं स्वराज लेने', 'लगे खूब कस-कसके। परन्तु अपने कार्टर्स में पहुँचते-पहुँचते उनका जोश ठंडा पड़ गया। वे जबान के खराब अवश्य थे, पर हृदय के उतने खराब न थे। दर- वाजे के अन्दर पैर रखते ही उसकी बीवी ने कहा-देखो तो यह गफूर कैसा फूट-फूटकर रो रहा है। क्या किया है आज तुमने ? बार-बार पूँछने पर भी यही कहता है कि "अब्बा ने गोपू को जान से मार डाला है।" मेरी वो समझ में ही नहीं आता कि क्या हुआ ?
सुनते ही थानेदार साहब सर थामकर बैठ गए। गोपाल बहुत सीधा और स्नेही लड़का था। थानेदार का लड़का और गोपाल एक ही कक्षा में पढ़ते थे और दोनों में खूब दोस्ती थी। थानेदार और उनकी बीवी दोनों ही गोपाल को अपने लड़के की ही तरह प्यार करते थे। थानेदार को बड़ा अफ़सोस हुआ, बोले, "आग लगे ऐसी नौकरी में। गिरानी का ज़माना है, वरना मैं तो इस्तीफ़ा देकर चल देता । पर करूँ तो क्या करूँ ? घर में बीवी-बच्चे हैं, बूढ़ी मा है; इनका निर्वाह कैसे हो ? नौकरी बुरी जरूर है, पर पेट को सवाल उससे भी बुरा है। आज ६०) माहवार मिलते हैं; नौकरी छोड़ने पर कोई बीस रुपट्टी को भी न पूछेगा-पापी पेट के लिए नौकरी तो करनी ही पड़ेगी; पर हाँ, इस हाय-हत्या से बचने का एक उपाय है। तीन महीने को मेरी छुट्टी बाकी है। तीन महीने बहुत होते हैं। तब तक यह तूफ़ान निकल हो जायगा । यह सोचकर उन्होंने छुट्टी की दरख्वास्त दूसरे ही दिन दे दी।
[ ३ ]
उधर कोतवाल बख्तावर सिंह का बुरा हाल था।
मारे रंज के उनका सिर दुखने लगा था ! बख्तावर सिंह
राजपूत थे। उन्होंने टॉड का राजस्थान पढ़ा था! राजपूतों
की वीरता की फड़काने वाली कहानियाँ उन्हें याद थीं।
चितौड़ के जौहर, जयमल और फत्ता के आत्म-बलिदान
और राणा प्रताप की बहादुरी के चित्र उनके दिमाग में
रह-रह के चमक उठते थे। सोचते थे कि मैं समस्त
राजपूत जाति की वीरता का वारिस हूँ। उनका सदियों
का संचित गौरव मुझे प्राप्त है । मेरे पूर्वजों ने कभी निहत्थों
पर शस्त्र नहीं चलाए, मैंने आज वह क्या कर डाला ?
ऐसे मारने से तो मर जाना अच्छा। पर पापी पेट जो
न करावे सो थोड़ा।
इसी संकल्प-विकल्प में पड़कर उन्होंने रात को भोजन भी नहीं किया। आख़िर भोजन करते भी तो कैसे ? उस घायल बच्चें का रक्त-रंजित कोमल शरीर, उसकी सकरुण चीत्कार और उसकी हृदय को हिला देनेवाली निर्दोष, प्रश्नपूर्ण दृष्टि का चित्र उनकी आँखों के सामने रह-रहकर खिच जाता था। उसकी याद उनके हृदय को टुकड़े-टुकड़े किए डालती थी। इस प्रकार दुखते हुए हृदय को दबाकर वे कदमो गए, कोन जाने ? सवेरे उठने पर उन्हें याद आई कि कल ही जो उन्हें तनखाह के तीन सौ रुपये मिले थे, उसे वे कोट की जेब में ही रखकर सो गए थे। कहीं किसी ने निकाल न लिये हो, इस खयाल से झटपट उन्होंने कोट को जेब में हाथ डाला और नोट निकाल कर गिनने लगे। एक-एक करके गिने; सो-सौ के तीन नोट थे। उन पर सम्राट की तसबीर बनी थी और गवर्नमेन्ट की तरफ़ से किसी के हस्ताक्षर पर यह लिखा हुआ था कि "मैं माँगते ही एक सौ रुपये देने का वायदा करता हूँ रुका इन्दुल तलब प्रॉमिसरी नोट"-माँगते ही एक सौ रुपये! इसी प्रकार एक, दो, तीन, एक हो महीने में तीन सौ !! एक वर्ष में छत्तीस सो, तीन हजार छै सौ; तीस वर्ष में एक लाख आठ हजार हर साल तरक्की मिलेगी; फिर तीस साल के बाद पेंशन और ऊपर से !! इसी उधेड़-बुन में थे कि न इतने ही में टेलीफोन को घंटी बजी। वह चट से टेलीकोन के पास गए वोले “हल्लो।" उधर से आवाज आई "डी० एस॰ पी॰ और आप कौन हैं?" इन्होंने कहा "शहर कोतवाल।" शहर कोतवाल का अधिकार पूर्ण शब्द उनके कानों में गूंँज गया । उधर से फिर आवाज़ आई अच्छा, तो कोतवाल साहब ! आज ११ बजे जेल के भीतर कल के गिरफ्तार-शुदा कैदियों का मुकदमा होगा । उसमें आपकी गवाही होगी। आप ठीक ११ बजे जेल पर पहुँच जाइये।” कोवताल साहब ने कहा, “बहुत अच्छा ।"
अब कोतवाल साहब अपने दफ़तर के काम में लग गए । आफ़िस में पहुँचते ही उनका रोज़ को ही तरह कुड़-कुड़ाना शुरू हो गया । कोतवाली में काम बहुत रहता हैं, बड़ा शहर है; दिन भर काम करते-करते पिसे जाते हैं। एड़ी, चोटी का पसीना एक होजाता है। खाने तक की फुरसत नहीं मिलती। चौबीसों घंटे गुलामी बजानी पड़ती हैं, तब कहीं तीन सौ रूपट्टी मिलते हैं। तीन सौ में होता ही क्या है ? आजकल तो पाँच सौ से कम में कोई इज्ज़तदार आदमी रह ही नहीं सकता। इसी के लिये झूट, सच,अन्याय, अत्याचार क्या-क्या नहीं ? उस पड़ता ? पर उपाय भी तो कुछ नहीं है। इसकरुणा के शरीर को कायम रखने के लिये पेट में निर्दोष, झोकना ही पड़ेगा । क्या ही अच्छा होता, यदि-रहकर पेट न बनाता।” इन्हीं विचारों में समय ही टुकड़े-टुकड़े कोतवाल साहब ठीक ११ बजे गवाही देने के लिए दबा चल दिए । बिखरे मोती]
-[४]
. लाठी चार्ज का हुक्म देने के बाद ही मजिस्ट्रटे राय
साहेब कुन्दनलाल जी को बड़े साहब का एक अर्जेन्ट रुका
मिला। साहब ने उन्हें फोरन वंगले पर बुलाया था ।
इधर लाठी चार्ज हो ही रहा था कि उधर वे मोटर पर
सवार हो बड़े साहब के बंगले पहुँचे । काम की बातों
के समाप्त हो जाने पर, उन्हें लाठी चार्ज कराने के लिए
धन्यवाद देते हुए, बड़े साहव ने इस बात का भी आश्वा-
सन दिया कि राय वहादुरी के लिए उनकी शिफारिस
अवश्य को जायगी। बड़े साहब का उपकार मानते हुए
राय साहब कुन्दनलाल अपने बंगले लौटे। उन निहत्थों
पर लाठो चलवाने के कारण उनको आत्मा उन्हीं को
कोस रही थी। हृदय कहता था कि यह बुरा किया।
लाठी चार्ज विना करवाए भी तो काम चल सकता था।
आखिर सभा हो ही जाती तो अमन में क्या खलल
ड़ जाता? वे लोग सभा में किसी से मारपीट करने
of आए न थे। फिर मैंने हो उन्हें लाठी से टवा कर कौनसा भला काम कर डाला ? किन्तु दिमारा उसी समय रोक कर कहा- यहाँ भले-बुरे का सवाल
नहीं है; तुमने तो अपना कर्तव्य पालन किया है। स्वयं
भगवान कृष्ण ने कर्तव्य पालन के लिए निकट सम्बंधियों
तक को मारने का उपदेश अर्जुन को दिया था; फिर तुम्हारा कर्तव्य क्या है? अपने अफ़सर की आज्ञा का पालन.करना । आतंक जमाने के लिए लाठी चार्ज कराने का तुम्हें हुक्म था। तुम सरकार का नमक खाते हो, उसकी आज्ञा की उलंघन नहीं कर सकते । आज्ञा मिलने पर उचित अनुचित का विचार करने की ज़रूरत ही नहीं । स्वयं धर्म-नीति के ज्ञाता पितामह भीष्म ने दुर्योधन का नमक खाने के ही कारण, अर्जुन का पक्ष सत्य होते हुए भी,दुर्योधन की ही साथ दिया था। इसी प्रकार तुम्हें भी अपना कर्तव्य करना चाहिये; नतीजा बुरा हो चाहे भला।'
पर फिर उनके हृदय में काटा,'न जाने कितने निरपराधों के सिर फूट होंगे? दिमाग ने कहा ‘फुटने दो; जब तक सरकार की नौकरी करते हो तब तक तुम्हें उसकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ेगा, और यदि आज्ञा का पालन नहीं कर सकते तो ईमानदारी इसी में है कि नौकरी छोड़ दो। माना कि आखिर ये लोग स्वराज्य के ही लिए झगड़ रहे हैं। उनका काम परमार्थ का हैं,सभी के भले के लिए है; पर किया क्या जाय ? नौकरी छोड़ दी जाय तो इन
पापी पेट के लिए भी तो कुछ चाहिए ? हमारे मन में क्या देश-प्रेम नहीं है ? पर खाली-पेट देश-प्रेम नहीं हो सकता है। आज नौकरी छोड़ दें, तो क्या स्वराज वाले मुझे ६००) दे देंगे ? हमारे पीछे भी तो गृहस्थी लेगी है; बाल-बच्चों का पेट तो पालना ही होगा। इसी प्रकार सोचते हुए वे अपने बँगले पहुँचे ।
[ ५ ]
घर पहुँचने पर मालूम हुआ कि पत्नी अस्पताल गई हैं। लाठी-काण्ड में लड़के का सिर फट गया है। उनका कलेजा बड़े वेग से धड़क उठा। उनका एक ही लड़का था । तुरन्त ही मोटर चढ़ाई, अस्पताल जा पहुँचे; देखा कि उनकी स्त्री गोपू को गोद में लिये बैठी आँसू बहा रही है। गोपू के सिर में पट्टी बँधी है और उसकी आँखें बन्द हैं। उन्हें देखते ही पत्नी ने पीड़ा और तिरस्कार के स्वर में कहा, “यह है तुम्हारे लाठी चार्ज की नतीजा ।” उसका
गली रूंध गया और आँसू और भी वेग से बह चले । राय साहब कुन्दन लाल के मुँह से एक शब्द भी न निकला । इतने ही में डाक्टर ने आकर उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, । "कोई खतरे की बात नहीं है । घाव गहरा जरूर है, पर
इससे भी गहरे-गहरे घाव अच्छे हो जाते हैं। आप चिन्ता न कीजिये।
राय साहेब ने पत्नी से पूछा—आख़िर, तुमने इसे वहाँ जाने ही क्यों दिया? पत्नी ने कहा—तो मुझ से पूछ के ही तो वहाँ गया था न?
रात भर गोपू बेहोश रहा और दूसरे दिन भी बेहोशी दूर न हुई। दूसरे दिन ११ बजे दिन से जेल में मुकद्दमा होने वाला था। परन्तु न्यायाधीश ठीक समय पर न पहुँच सके; आज उन्हें एक मामले में, जो ३ महीने से उनकी अदालत में चल रहा था, सज़ा सुनानी थी। मामला था, एक १३ साल की बालिका को बेचने के लिए भगा ले जाने का। जुर्म साबित हो चुका था न्यायाधीश के द्वारा उसे छः महीने की सख्त क़ैद की सज़ा दी गई थी।
फ़ैसला सुनाकर न्यायाधीश महाशय जेल आए। कोतवाल और राय साहेब कुन्दनलाल की गवाही हो जाने पर अभियुक्तों में से एक को दो साल की सख्त क़ैद और २०००) जुर्माना, दूसरे को डेढ़ साल की सख्त क़ैद और १५००) जुर्माना, तीसरे को एक साल की सख्त क़ैद और ५००) जुर्माना की सज़ा दे दी गई। अभियुक्तों ने
मुकद्दमें में किसी प्रकार का भाग नहीं लिया और न
पेशी ही बढ़वाई, इसलिए मुकद्दमा करीब एक घंटे में ही
समाप्त हो गया।
तीनों अभियुक्त प्रतिष्ठित सज्जन थे और राय साहेब को जान-पहिचान के थे। मुकद्दमा खत्म हो जाने पर राय साहेब ने उसे माफी मांगते हुए कहा "क्षमा करना भाई, इस पापो पेट के कारण लाचार हैं, वरना क्या हमारे दिल में देश-प्रेम नहीं है ? यह कह कर उन्होंने अपनी आत्मा को कुछ सन्तोष दे डाला और जल्दी-जल्दी अस्प- ताल आए। गोपू की हालत और भी ज्यादा खराब हो गई थी। उसकी नाड़ी क्षीण पड़ती जाती थी। राय साहेब के पहुंचने पर उसने पहिली ही वार आँखें खोली; उसके मुँह पर हल्की सी मुस्कुराहट थी; धीमी आवाज से उसने कहा 'वन्देमा... 'म' की ध्वनि नहीं निकल पाई; 'म' के साथ ही उसका मुँह खुला रह गया, और आँखें सदा के लिए वन्द हो गई। उसकी माता चीख़ मार कर लाशपर गिर पड़ी। राय साहब के शून्य हृदय में बार-बार प्रश्न उठ रहा था 'यह सब किसके लिए' ? और मस्तिष्क से प्रति-ध्वनि उसका उत्तर दे रही थी, 'पापी पेट के लिए'।