प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २७४ से – २८० तक

 

४३

दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात ने की। राय साहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगा कर उसपर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है, सौभाग्य चन्द्र उसके दाहिने हैं, क्योकि क्रोष शान्त होते ही वह अपने कटु व्यवहारो का बड़ी उदारता के साथ प्रायश्चित किया करते थे। एक बार एक टहलवे को इसलिए पीटा था कि उसने फर्श पर पानी गिरा दिया था। दूसरे ही दिन पाँच बीघे जमीन उसे मुआफ दे दी। एक कारिन्दे से गवन के मामले में बहुत बिगड़े और अपने हाथो से हंटर लगाये, किन्तु थोड़े ही दिन पीछे उसका वेतन बढ़ा दिया। हाँ, यह आवश्यक था कि चुपचाप धैर्य के साथ उनकी बाते सुन ली जायें, उनसे बातबढ़ाव न किया जाय। ज्ञानशंकर को धिक्कारने के एक ही क्षण पीछे उन्हें पश्चात्ताप होने लगा। भय हुआ कि कहीं वह रूठ कर चल न दें। संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो स्वार्थ के लिए अपनी आत्मा का हनन न करता हो। मैं खुद भी तो निस्पृह नहीं हैं। जब संसार की यही प्रथा है तो मुझे उनका इतना तिरस्कार करना उचित न था। कम से कम मुझे उनके आचरण को कलकित न करना चाहिए था। विचारशील पुरुष हैं, उनके लिए इशारा काफी है लेकिन मैंने गुस्से मे आ कर खुली-सुली गालियाँ दी। अतएव आज वह भोजन करने बैठे नो महाराज से कहा, बाबू जी को भी यहाँ बुला लो और उनकी थाली भी यहां लाओ। न आयें तो कहना आप न चलेंगे तो वह भी भोजन न करेंगे। ज्ञानशंकर राजी न होते थे, पर विद्या ने समझाया, चले क्यों नहीं जाते। जब वह बड़े हो कर बुलाते हैं तो न जाने से उन्हें दुख होगा। उनकी आदत है कि गुस्से में जो कुछ मुंह में आया बक जाते हैं, लेकिन पीछे से लज्जित होते हैं। ज्ञानशंकर अब कोई हीला न कर सके। रोनी सूरत बनाये हुए आयें और राय साहब से जरा हट कर आसन पर बैठ गये। राय साहब ने कहा, इतनी दूर क्यों बैठे हो। मेरे पास आ जाओ। देखो, आज मैंने तुम्हारे लिए कई अँग्रेजी चीजें बनवायी है। लाओ महाराज, यही थाली रखो।

ज्ञानशंकर ने दबी जबान से कहा, मुझे तो इस समय जरा भी इच्छा नहीं है, क्षमा कीजिए।

राय साहब इच्छा तो सुगन्ध से हो जायगी, थाली सामने तो आने दो। महाराज को मैंने इनाम देने का वादा किया है। उसने अपनी सारी अक्ल खर्च कर दी होगी।

महाराज ने थाली ला कर ज्ञानशंकर के सामने रख दी। ज्ञानशंकर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी। एक रंग आता था, एक रंग जाता था। छाती बड़े वैग से धड़क रही थी। भय ने आशा को दबा दिया था। वह किसी प्रकार यहीं से भागन चाहते थे। यह दृश्य उनके लिए असह्य था। उनके शरीर का एक-एक अंग यरथर काँप रहा था, यहाँ तक कि स्वर भी भंग हो रहा था। उन्हें इस समय अनुभव हो रहा था कि जान लेना देने से कही दुस्तर है।

राय साहब ने पाँच ही चार कौर खाये थे कि सहसा उन्होंने थाली से हाथ खींच लिया और ज्ञानशंकर को तीव्र और मर्म-भेदी दृष्टि से देखा। ज्ञानशंकर के प्राण सूख गये। राय साहब ने यदि गोली चलायी होती तो भी उन्हें इतनी चोट न लगती। संज्ञा-शून्य से हो गये। ऐसा जान पड़ता था मानो कोई आकर्षण शक्ति प्राणों को खीच रही है। अपनी नाव को भंवर में डूबते पा कर भी कोई इतना यभीत, इतना असावधान न होता होगा। रायसाहब की तीव्र दृष्टि ने सिद्ध कर दिया कि रहस्य खुल गया, सारे यत्न, सारी योजनाएँ निष्फल हो गयी! हा हतभाग! कहीं का न रहा। क्या जानता था कि यह महाशय ऐसे आत्मदर्शी है।

इतने में रायसाहब ने अपमानसूचक भाव से मुस्करा कर कहा, मैंने एक बार तुमसे कह दिया कि धन-सम्पत्ति तुम्हारे भाग्य में नहीं है, तुम जो चाले चलोगे वह सब उल्टी पढ़ेंगी। केवल लज्जा और ग्लानि हाथ रहेगी।

ज्ञानशंकर ने अज्ञान भाव से कहा, मैंने आपका आशय नहीं समझा।

रायसाहब-बिलकुल झूठ है। तुम मेरा आशय खुब समझ रहे हो। इससे ज्यादा कुछ कहूँगा तो उसका परिणाम अच्छी न होगा। मैं चाहूं तो सारी राम कहानी तुम्हारी जबान से कहा हूं, लेकिन इसकी जरूरत नहीं। तुम्हें बड़ा भ्रम हुआ। मैं तुम्हे बड़ा चतुर समझता था, लेकिन अब विदित हुआ कि तुम्हारी निगाह बहुत मोटी है। तुम्हारा इतने दिनो तक मुझसे सम्पर्क रहा, लेकिन अभी तक तुम मुझे पहचान न सके। तुम सिंह का शिकार बाँस की तीलियो से करना चाहते हो, इसलिए अगर उसके दबोच में आ जाओ तो वह तुम्हारा अपना दोष है। मुझे मनुष्य मत समझो, मैं सिंह हैं। अगर अभी अपने दाँत और पजे दिखा दें तो तुम काँप उठोगे। यद्यपि यह थाल बीस-पच्चीस आदमियों को सुलाने के लिए काफी है, शायद यह एक कौर खाने के बाद उन्हें दूसरे कौर की नौबत न आयेगी, लेकिन मैं पूरा थाल हजम कर सकता हूँ और तुम्हे मेरे माथे पर बल भी न दिखायी देगा। मैं शक्ति का उपासक हैं, ऐसी वस्तुएँ मेरे लिए दूध और पानी है।

यह कहते-कहते राय साहब ने थाल से कई कौर उठा कर जल्द-जल्द खायें। अकस्मात् ज्ञानशंकर तेजी से लपके, थाल उठा कर भूमि पर पटक दिया और रायसाहब के पैरो पर गिर कर बिलख बिलख रोने लगे। राय साहब की योगसिद्धि ने आज उन्हें परास्त कर दिया। उन्हें आज ज्ञात हुआ कि यह चूहे और सिंह की लड़ाई है।

राय साहब ने उन्हें उठा कर बिठा दिया और बोले-लाला, मैं इतना कोमल हृदय नही हूँ कि इन आंसुओं से पिघल जाऊँ। आज मुझे तुम्हारा यथार्थ रूप दिखायी दिया। तुम अधम स्वार्थ के पंजे में दबे हुए हो। यह तुम्हारा दोष नही, तुम्हारी धर्मविहीन शिक्षा का दोष है। तुम्हें आदि से ही भौतिक शिक्षा मिली। हृदय के भाव देबे गये। तुम्हारे गुरुजन स्वयं स्वार्थ के पुतले थे। उन्होंने कभी सरल सन्तोषमय जीवन का आदर्श तुम्हारे सामने नहीं रखा। तुम अपने घर में, स्कूल में, जगत् मै नित्य देखते थे कि बुद्धि-बल का कितना मान है। तुमने सदैव इनाम और पदक पाये, कक्षा में तुम्हारी प्रशंसा होती रहीं, प्रत्येक अवसर पर तुम्हे आदर्श बना कर दूसरों को दिखाया जाता था। तुम्हारे आत्मिक विकास की और किसी ने ध्यान नही दिया, तुम्हारे मनो गत भावो को, तुम्हारे उद्गारो को सन्मार्ग पर ले जाने की चेष्टा नही की गयी। तुमने धर्म और भक्ति का प्रकाश कभी नहीं देखा, जो मन पर छाये हुए तिमिर को नष्ट करने का एक ही साधन है। तुम जो कुछ हो, अपनी शिक्षा प्रणाली के बनायें हुए हो। पूर्व के संस्कारो ने जो अंकुर जमाया था, उसे शिक्षा ने सघन वृक्ष बना दिया। तुम्हारा कोई दोष नही, काल और देश का दोष हैं। मैं क्षमा करता हूँ और ईश्वर से विनती करता हूँ कि वह तुम्हें सद्बुद्धि दे।

राय साहब के ओठ नीले पड गये, मुख कान्तिहीन हो गया, आँखे पथराने लगी। माथे पर स्वेद बिन्दु चमकने लगे, पसीने से सारा शरीर तर हो गया, साँस बडे वेग से चलने लगी। ज्ञानशंकर उनकी यह दशा देख कर विकल हो गये, काँपते हुए हाथों से पखा झलने लगे, लेकिन राय साहब ने इशारा किया कि यहाँ से चले जाओ, मुझे अकेला रहने दो और तुरन्त भीतर से द्वार बन्द कर दिया। ज्ञाशंकर मूर्तीवत् द्वार पर खड़े थे, मानो किसी ने उनके पैरों को गाड़ दिया हो। इस समय उन्हें अपने कुकृत्य पर इतना अनुताप हो रहा था कि जी चाहता था उसी थाल का एक कौर खा कर इस जीवन का अन्त कर लें। पहले राय साहब की अभिमानपूर्ण बातें सुन कर उन्हें आशा हो गयी थी कि विष का इनपर कुछ असर न होगा। लेकिन अब इस आशा की जगह भय हो रहा था कि उन्होंने अपनी योग-शक्ति का भ्रमात्मक अनुमान किया था? क्या करूँ। किसी डाक्टर को बुलाऊँ? उस घन-लिप्सा को सत्यानाश हो जिसने मेरे मन में यह विषम प्रेरणा उत्पन्न की, जिसने मुझसे यह हत्या करायी। हा कुटिल स्वार्थ तूने मुझे नर-पिशाच बना दिया। मैं क्यों इनका शत्रु हो रहा हूँ? इसी जायदाद के लिए, इसी रियासत के लिए, इसी सम्पत्ति के लिए! क्या वह सम्पत्ति मेरे हाथों में आ कर दूसरो को मेरा शत्रु न बना देगी? कौन कह सकता है कि मेरा भी यही अन्त में होगी।

ज्ञानशंकर ने द्वार पर कान लगा कर सुना। ऐसा जान पडा कि राय साहब हाथपैर पटक रहे है। मारे भय के ज्ञानशंकर को रोमांच हो गया। उन्हें अपनी अधम नीचता, अपनी धोरतम पैशाचिक प्रवृत्तियों पर ऐसा शोकमय पश्चात्ताप कभी न हुआ। था। उन्हें इस समय परिणाम की चिन्ता न थी, न यह शंका थी, कि मेरा क्या हाल होगा। बस, यही धड़का लगा हुआ था कि रायसाहब कीं न जाने क्या गति हो रही है। कोई जबरदस्ती भी करता तो वह वहाँ से न हटते। मालूम नहीं, एक क्षण में क्या हो जाय।

इतने में महाराज थाली में कुछ और पदार्थ लाया। उसे देखते ही ज्ञानशंकर का रक्त सूख गया। समझ गये कि अब प्राण न बचेंगे। यह दुष्ट अभी यहां का हाल देख कर शोर मचा देगा। खोज-पूछ होने लगेगी, गिरफ्तार हो जाऊँगा। वह इस समय उन्हें काल स्वरूप देख पड़ता था। उन्होने उसे समीप न आने दिया, दूर से ही कहा, हम लोग भोजन कर चुके, अब कुछ न लाओ।

महाराज ने बन्द किवाड़ो को कुतूहल से देखा और आगे बढ़ने की चेष्टा की कि अकस्मात् ज्ञानशंकर बाज की तरह झपटे और उसे जोर से धक्का दे कर कहा, तुमसे कहता हूँ कि यह किसी चीज की जरूरत नहीं है, बात क्यों नही सुनते महाराज हक्का-बक्का हो कर ज्ञानशंकर का मुंह ताकने लगा। ज्ञानशंकर इस समय उस संशक दशा में थे, जब कि मनुष्य पत्ते का सुद्धका सुन कर लाठी सँभाल लेता है। उन्हें अब राय साहब की चिन्ता न थी। उनके विचार मैं बह चिन्ता की उद्घाटक शक्ति से बाहर हो गये थे। वह अब अपनी जान की खैर मना रहे थे। सम्पूर्ण इच्छा शक्ति इस रहस्य को गुप्त रखने में व्यस्त हो रही थी।

यकायक भीतर से हार खुला और रायसाहब बाहर निकले। उनका मुखड़ा रक्तवर्ष हो रहा था। आँखें भी लाल थी। पसीने से तर थे मानो कोई लौहार भट्टी के सामने से उठ कर आया हो। दोनों थाल समेट कर एक जगह रख दिये गये थे। कटोरे भी साफ थे। सब भोजन एक अँगेठी में जल रहा था। अग्नि उन पदार्थों का रसास्वादन कर रही थी।

क्षण-मात्र में ज्ञानशंकर के विचारों ने पलटा खाया। जब तक उन्हें शंका थी कि राय साहब दम तोड़ रहे थे तब तक वह उनकी प्राण-रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे। जब बाहर खड़े-खड़े निश्चय हो गया कि राय साहब के प्राणान्त हो गये तब वह अपनी जान की खैर मनाने लगे। अब उन्हें सामने देख कर क्रोध हो रहा था कि वह मर क्यों न गये। इतना तिरस्कार, इतना मानसिक कष्ट व्यर्थ सहना पड़ा। उनकी दशा इस समय उस थके-मदे हलवाहे की सी हो रही थी जिसके बैल खेत से द्वार पर आकर बिदक गये हो, दिन भर के कठिन परिश्रम के बाद सारी रात अंधेरे में बैंलो के पीछे दौड़ने की सम्भावना उसकी हिम्मत को तोड़े डालती हो।

राय साहब ने बाहर निकल कर कई बार जोर से साँस लीं मानो दम घुट रहा हो, सब काँपते हुए स्वर से बोले, मरा नहीं, लेकिन मरने से बदतर हो गया। यद्यपि मैंने विष को योग-क्रिया से निकाल दिया, लेकिन ऐसा मालूम हो रहा है कि मेरी धमनियों में रक्त की जगह कोई पिघली हुई धातु दौड़ रही है। वह दाह मुझे कुछ दिन में भस्म कर देगी। अब मुझे फिर पोलो और टेनिस खेलना नसीब न होगा। मेरे जीवन की अनन्त शोमा का अन्त हो गया। अब जीवन में वह आनन्द कहाँ, जो शौक और चिन्ता को तुच्छ समझता था। मैंने वाणी से तो तुम्हें क्षमा कर दिया है, लेकिन मेरी आत्मा तुम्हे क्षमा न करेगी। तुम मेरे लड़के हो, मैं तुम्हारे पिता के तुल्य हैं, लेकिन हम अब एक दूसरे का मुंह न देखेंगे। मैं जानता हूँ कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह हमारे वर्तमान लोक-व्यवहार का दोष है; किन्तु यह जानकर भी हृदय को सन्तोष नहीं होता। यह सारी विडम्बना इसी जायदाद का फल है। इसी जायदाद के कारण इम और तुम एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हो। संसार में जिधर देखो ईर्षा और द्वेष आघात और अन्यत का साम्राज्य है। भाई भाई का बैरी, बाप बेटे को बैरी, पुरुप स्त्री का बैरी, इस जायदाद के लिए! इनके हाथों जितना अनर्थ हुआ, हो रहा हैं और होगा उसके देखने कहीं अच्छा है कि अधिकार की प्रथा ही मिटा दी जाती। यही वह खेत है जहाँ छल और कपट के पौधे लहराते हैं, जिसके कारण संसार रणक्षेत्र बना हुआ है। इसी ने मानव जाति को पशुओ से भी नीचे गिरा दिया हैं।

यह कहते-कहते राय साहब की आँखे बन्द हो गयी। वह दीवार को सहारा लिए हुए दीवानखाने मे आये और फर्श पर गिर पड़े। ज्ञानशंकर भी पीछे-पीछे थे, मगर इतनी हिम्मत न पडती थी कि उन्हें सँभाल ले। नौकरों ने यह हालत देखी तो दौडे और उन्हें उठाकर कोच पर लिटा दिया। गुलाब और केवडे का जल छिड़कने लगे। कोई पखा झलने लगा, कोई डाक्टर के लिए दौडा। सारे घर में खलबली मच गयी। दीवानखाने में एक मेला सा लग गया। दस मिनट के बाद राय साहब ने ऑंखें खोलीं और सबको हट जाने का इशारा दिया। लेकिन जब ज्ञानशंकर भी औरो के साथ जाने लगे तो राय साहब ने उन्हें बैठने का संकेत किया और बोले, यह जायदाद नहीं है। इसे रियासत कहना भूल है। यह निरी दलाली है। इस भूमि पर मेरा क्या अधिकार है? मैंने इसे बाहुबल से नहीं लिया। नवाबो के जमाने में किसी सुवेदार ने इस इलाके की आमदनी वसूल करने के लिए मेरे दादा को नियुक्त किया था। मेरे पिता पर भी नवाबों की कृपा-दृष्टि बनी रहीं। इसके बाद अँगरेजो का जमाना आया और यह अधिकार पिता जी के हाथ से निकल गया। लेकिन राज-विद्रोह के समय पिता जी ने तन-मन से अँगरेजो की सहायता की। शान्ति स्थापित होने पर हमे वही पुराना अधिकार फिर मिल गया। यही इस रियासत की हकीकत है। हम केवल लगान वसूल करने के लिए रखे गये है। इसी दलाली के लिए हम एक दूसरे के खून से अपने हाथ रंगते हैं। इसी दीन-हत्या को हम रोब कहते हैं। इसी कारिन्दगिरी पर हम फूले नही समाते। सरकार अपना मतलब निकालने के लिए हमे इस इलाके का मालिक कहती है, लेकिन जब साल में दो बार हमसे मालगुजारी वसूल की जाती है तब हम मालिक कहाँ रहे? यह सब धोखे की टट्टी हैं। तुम कहोगे, यह सब कोरी बकवाद है, रियासत इतनी बुरी चीज है तो उसे छोड़ क्यो नही देते? हा! यही तो रोना है कि इस रियासत ने हमे विलासी, आलसी और अपाहिज बना दिया। हम अब किसी काम के नहीं रहे। हम पालतू चिड़िया है, हमारे पंख शक्ति-हीन हो गये हैं। हममे अब उडने की सामर्थ्य नहीं है। हमारी दृष्टि सदैव अपने पिंजरे के कुल्हिये और प्याली पर रहती है। अपनी स्वाधीनता को मीठे टुकड़े पर बेच दिया है।

राय साहब के चेहरे पर एक दुस्सह आंतरिक वेदना के चिह्न दिखायी देने लगे। लेटे थे, कराह कर उठ बैठे। मुखाकृति विकृत हो गयी। पीड़ा से विकल हृदय-स्थल पर हाथ रखे हुए बोले, आह! बेटा, तुमने वह हलाहल खिला दिया कि कलेजे के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते है। अब प्राण न बचेगें। अगर एक मरणासन्न पुरुष के शाप में कुछ शक्ति है तो तुम्हे इस रियासत का सुख भोगना नसीब न होगा। आँखो के सामने से हट जाओ। सभव हैं, मैं इस क्रोधावस्था में तुम्हें दोनो हाथो मे दबा कर मसल डालूं। मैं अपने आपे में नही हूँ। मेरी दशा मतवाले सर्प की सी हो रही है। मैरी आँखो से दूर हो जाओ और फिर कभी मुंह मत दिखाना। मेरे मर जाने पर तुम्हें आने का अख्तियार है। और याद रखो कि अगर तुम फिर गोरखपुर गये या गायत्री से कोई सम्बन्ध रखा तो तुम्हारे हक में बुरा होगा। मेरे दूत परछाही की भाँति तुम्हारे साथ लगे रहेंगे। तुमने इस चेतावनी को जरा भी उल्लघन किया तो जीते न बचोगे। हाय! शरीर फेंका जाता है। पापी, दुष्ट, अभी गया नही शेरखाँ कोई है?...मेरी पिस्तौल लाओ, (चिल्लाकर) मेरी पिस्तौल लाओ.. क्या सब मर गये।

ज्ञानशंकर तुरन्त उठ कर यहां से भागे। अपने कमरे में आ कर द्वार बन्द कर लिया। जल्दी से कपड़े पहने, मोटर साइकिल निकलवायी और सीधे रेलवे स्टेशन की और चले। विद्या से मिलने का भी अवसर न मिला।