प्रेमाश्रम/३६
३६
फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारो के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन में खीच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की कोई जरूरत न समझी । अब वह मुसल्लम गाँव के सत्तावारी शासक थे। उनका हुक्म कानून के तुल्य था । किसी को चूँ करने की मजाल न थी । गाँव का दूध, घी, उपले-लकडी, घाम-पयाल, कद्दू-कुम्हडे, हल-बैल सब उनके थे। जो अधिकार गौम खाँ को जीवन-पर्यन्त न प्राप्त हुए वह समय के उलट-फेर और सौभाग्य से फैजुल्लाह को पहले ही दिन से प्राप्त हो गये । अन्याय और स्वेच्छा के मैदान मे अब उनके घोडो को किसी ठोकर का भय न था। पहले कर्तारसिह की ओर से कुछ शंका थी, किन्तु उनकी नीति-कुशलता ने शीघ्र ही उसकी अभक्ति को परास्त कर दिया। वह अब उनका अज्ञाकारी सेवक, उनका परम शुभेच्छु था । वह अब गला फाड-फाड कर रामायण का पाठ करता । सारे गाँव के ईट-पत्थर जमा करके चौपाल के सामने ढेर लगा दिये और उन पर घडो पानी चढाता। घटों चन्दन रगड़ता, घटो भग घोटता, कोई रोक-टोक करनेवाला न था । फैजुल्लाह खाँ नित्य प्रात काल टाँधन पर सवार हो कर गाँव का चक्कर लगाते, कर्तार और विन्दा महाराज लट्ठ लिये उनके पीछे-पीछे चलते । जो कुछ नीचे-खसोटे मिल जाता वह ले कर लौट आते थे । यो तो समस्त गाँव उनके अत्याचार में पीडित था, पर मनोहर के घर पर इन लोगों की विशेष कृपा थी । पूस में ही विलासी पर बकाया लगान की नालिश हुई और उसके सब जानवर कुर्क हो गये । फैजू को पूरा विश्वास था कि अब की चैत में किसी से मालगुजारी वसूल तो होगी नही, सभी पर वेदखली के दाबे कर दूँगा और एक ही हल्ले में सबको समेट लूँगा । मुसल्लम गाँव को बेदखल कर दूँगा, आमदनी चटपट दूनी हो जायगी । पर इस दुप्कल्पना से उन्हें सन्तोष न होता था। डाँट-फटकार, गाली-गलौज के बिना रोब जमाना कठिन था। अतएव नियमपूर्वक इस नीति का सदुपयोग किया जाने लगा । विलासी मारे डर के घर में से निकलती ही न थी। उसकी रब्बी खेत में खडी सूख रही थी, पानी कौन दे ? न बैल अपने थे और न किसी से माँगने का ही मुँह था।
एक दिन सन्ध्या समय विलासी अपने द्वार पर बैठी रो रही थी। यही उसको मालूम था। मनोहर की आत्म-हत्या की खबर उसे कई दिन पहले मिल चुकी थी। उसे अपने सर्वनाश का इतना शौक न था जितना इस बात का कि कोई उसकी बात पूछनेवाला न था । जिसे देखिए उसे जली-कटी सुनाता था। न कोई उसके घर आता, न जाता । यदि वह बैठे-बैठे उकता कर किसी के घर चली जाती, तो वहाँ भी उसका अपमान किया जाता । वह गाँव की नागिन समझी जाती थी, जिसके विष ने समस्त गाँव को काल का ग्रास बना दिया । और तो और उसकी वह भी उसे ताने देती थी । सहसा उसने सुना सुक्खू चौधरी अपने मन्दिर में आ कर बैठे हैं। वह तुरन्त मन्दिर की ओर चली । वह सहानुभूति की प्यासी थी । सुक्खू इन घटनाओं के विषय में क्या कहते हैं, यह जानने की उसे उत्कट इच्छा थी। उसे आशा थी कि सुक्खू अवश्य निष्पक्ष भाव से अपनी सम्मति प्रकट करेगें । जब वह मन्दिर के निकट पहुँची तो गाँव की कितनी ही नारियों और बालिकाओं को वहाँ जमा पाया । सुक्खू की दाढी बढी हुई थी, सिर पर एक कन्टोप था और शरीर पर एक रामनामी चादर । बहुत उदास और दुखी जान पडते थे । नारियाँ उनसे गौस खाँ की हत्या की चर्चा कर रही थी। मनोहर की खूब ले-दे हो रही थीं। विलासी मन्दिर के निकट पहुँच कर ठिठक गयी कि इतने में सुक्खू ने उसे देखा और बोले, आओ विलासी आओ बैठो। मैं तो तुम्हारे पास आप ही आनेवाला था।
विलासी--तुम तो कुशल से रहे ?
सुक्खू--जीता हूँ, बस यही कुशल है। जेल से छूटा तो बद्रीनाथ चला गया ! वहाँ से जगन्नाथ होता हुआ चला आता हूँ । बद्रीनाथ में एक महात्मा के दर्शन हो गये, उनसे गुरुमन्त्र भी ले लिया । अब माँगता खाता फिरता हैं। गृहस्थी के जजाल से छूट गया।
विलासी ने डरते-डरते पूछा, यहाँ का हाल तो तुमने सुना ही होगा।
सुक्खू--हाँ, जब से आया हूँ वही चर्चा हो रही है और उसे सुन कर मुझे तुमपर ऐसी श्रद्धा हो गयी है कि तुम्हारी पूजा करने को जी चाहता है। तुम क्षत्राणी हो, अहीर की कन्या हो कर भी अत्राणी हो । तुमने वही किया जो क्षेत्राणियाँ किया करती हैं। मनोहर भी क्षत्री हैं, उसने वही किया जो क्षत्री करते है। वह वीर आत्मा था। इस मन्दिर मे अब उसकी समाधि बनेगी और उसकी पूजा होगी। इसमें अभी तक किसी देवता को स्थापना नहीं हुई है, अब उसी वीर-मूर्ति की स्थापना होगी। उसने गाँव की लाज रख ली, स्त्री की मजदि रख ली । यह सब क्षुद्र आत्माएँ बैठी उसे बुरा-भला कह रही हैं। कहती हैं, उसने गाँव का सर्वनाश कर दिया। इनमे लज्जा नहीं हैं, अपनी मर्यादा का कुछ गौरव नही है। उसने गाँव का सर्वनाश नहीं किया, उसे वीर-गति दे दी, उसका उद्धार कर दिया । नारियों की रक्षा करना पुरुषो का धर्म हैं। मनोहर ने अपने धर्म का पालन किया । उसको बुरा वही कह सकता है जिसकी आत्मा मर गयी है, जो बेहया हो गया है। गाँव के दस-पाँच पुरुष फाँसी चढ़ जाये तो कोई चिन्ता नहीं यहाँ एक-एक स्त्री के पीछे लाखो सिर कट गये है। सीता के पीछे रावण का राज्य विध्वश हो गया। द्रौपदी के पीछे १८ लाख योधा मर मिटे । इज्जत के लिए दस-पाँच जाने चली जायँ तो क्या बड़ी बात है ! धन्य है मनोहर, तेरे साहस को, तेरे पराक्रम को, तेरे कलेजे को ।
सुक्खू का एक एक शब्द वीर रस में डूबा हुआ था। विलासी के हृदय में वह गुदगुदी हो रही थीं, जो अपनी सराहना सुन कर हो सकती है। जी चाहता था, सुक्खू के चरणों पर सिर रख दूँ, किन्तु अन्य स्त्रियाँ सुक्खू की ओर कुतूहल से ताक रही थी कि यह क्या बकता है।
एक क्षण के बाद सुक्खू ने विलासी से पूछा, खेती-बारी का क्या हाल है?
बिलासी के खेत सूख रहे थे, पर अपनी विपत्ति-कथा सुना कर वह सुक्खू को दुखी नहीं करना चाहती थी । बोली, दादा, तुम्हारी दया से खेती अच्छी हो गयी है, कोई चिन्ता नहीं है।
कई और साधु आ गये, जो सुक्खू के साथ जान पडते थे। उन्होने धूनी जलायी और चरस के दम लगाने शुरू किये । गाँव के लोग भी एक-एक करके वहाँ से चलने लगे । जब बिलासी जाने लगी तो सुक्खू ने कहा, बिलासी, मैं पहररात रहे यहाँ से चला जाऊँगा, घूमता-घामता कई महीनो मे आऊँगा । तब यहाँ मूर्ति की स्थापना होगी। हम उस यज्ञ के लिए भीख माँग कर रुपए जमा करते है। तुम्हे किसी बात की तकलीफ हो तो कहो ।
विलासी--नही दादा, तुम्हारी दया से कोई तकलीफ नही है ।
सुक्खू तो प्रात काल चले गये, पर बिलासी पर उनकी भावनापूर्ण बातो का गहरा असर पड़ा। अब वह किसी दलित दीन की भाँति गाँववालो के व्यग और लाछन न सुनती और न किसी को उसपर उतनी निर्भयता से आक्षेप करने का साहस ही होता था। इतना ही नही, बिलासी की बातचीत, चाल-ढाल से अब आत्म-गौरव टपका पड़ता था। कभी-कभी वह बढ कर बातें करने लगती, पड़ोसियों से कहती--तुम अपनी लाज बेच कर अपनी चमडी को बचाओ, यहाँ इज्जत के पीछे जान तक दे देते है। मैं विधवा हो गयी तो क्या, घर सत्यानाश हुआ तो क्या, किसी के सामने आँख तो नीची नहीं हुई। अपनी लाज तो रक्खीं। पति की मृत्यू और पुत्र का वियोग अब उतना असह्य न था।
एक दिन उसने इतनी डीग मारी कि उसकी बहू से न रहा गया। चिढ़ कर बोली--अम्माँ, ऐसी बातें करके घाव पर नमक न छिडको । तुम सब सुख-विलास कर चुकी हो, अब विधवा ही हो गयी तो क्या ? उन दुखियारियो से पूछो जिनकी अभी पहाड-सी उमर पडी है, जिन्होंने अभी जिन्दगी का कुछ सुख नही जाना है। अपनी मरजाद सबको प्यारी होती है, पर उसके लिए जनम भर का रँडापा सहना कठिन है। तुम्हे क्या, आज नही कल रॉड होती । तुम्हारे भी खेलने-खाने के दिन होते तो देखती कि अपनी लाज को कितनी प्यारी समझती हो।
विलासी तिलमिला उठी। उस दिन से बहू से बोलना छोड़ दिया, यहाँ तक कि बलराज की भी चर्चा न करती । जिस पुत्र पर जान देती थी, उसके नाम से भी घृणा करने लगी । बहू के इन अरुचिकर शब्दों ने उसके मातृ-स्नेह का अन्त कर दिया, जो २५ साल से जीवन को अवलम्बन और आधार बना हुआ था । कुछ दिनों तक तो उसने मौन रूप से अपना कोप प्रकट किया, किन्तु जब यह प्रयोग सफल होता न दीख पडा तो उसने बहू की निन्दा करनी शुरू की। गॉव मे कितनी ही एसी वृद्ध महिलाएँ थी जो अपनी बहुओ से जला करती थी। उन्हें विलासी मे सहानुभूति हो गयी । शनै शनै यह कैफियत हुई कि विलासी के बरौठे में सासो की नित्य बैंठक होती और बहुओं के खूब दुखडे रोये जाते । उधर बहुओं ने भी अपनी आत्म-रक्षा के लिए एक सभा स्थापित की। इसकी बैठक नित्य दुखरन भगत के वर होती। विलासी की बहू इस सभा की सचालिका थी। इस प्रकार दोनों में विरोध बढने लगा । यहाँ की बाते किसी न किसी प्रकार वहीं जा पहुँचती और वहाँ की बाते भी किन्ही गुप्त दूतो द्वारा यहाँ आ जाती । उनके उत्तर दिये जाते, उत्तरो के प्रत्युत्तर मिलते और नित्य यही कार्यक्रम चलता रहता था। इस प्रश्नोत्तर में जो आकर्षण था, वह अपनी विपत्ति और विडम्बना पर आँसू बहाने में कहाँ था । इस व्यग-संग्राम में एक सजीव आनन्द था । द्वेष की कानाफूसी शायद मधुर गान से भी अधिक शोकहारी होती है।
यहाँ तो यह हाल था, उधर फसल खेतो मे सूख रही थी। मियाँ फैजुल्लाह सूखे खेतो को देख कर खिल जाते थे। देखते-देखते चैत का महीना आ गया। मालगुजारी का तकाजा होने लगा । गॉव के बचे हुए लोग अब चेते । वह भूल से गये थे कि मालगुजारी भी देनी है। दरिद्रता में मनुष्य प्राय. भाग्य का आश्रित हो जाता हैं। फैजुल्लाह ने सख्ती करनी शुरू की। किसी को चौपाल के सामने धूप में खड़ा करते, किसी को मुश्के कस कर पिटवाते । दीन नारियो के साथ और भी पाशविक व्यवहार किया जाता, किसी की चूड़ियाँ तोडी जाती, किसी के जूठे नोचे जाते । इन अत्याचारो को रोकनेवाला अब कौन था ? सत्याग्रह मे अन्याय को दमन करने की शक्ति हैं, यह सिद्धान्त भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध हो गया। फैजू जानता था कि पत्थर दबाने से तेल न निकलेगा, लेकिन इन अत्याचारों से उसका उद्देश्य गाँववालो का मान-मर्दन करना था। इन दुष्कृत्यों से उसकी पशुवृत्ति को असीम आनन्द मिलता था ।
धीरे-धीरे जेठ भी गुजरा, लेकिन लमान की एक कौडी न वसूल हुई। खेत मे अनाज होता तो कोई न कोई महाजन खडा हो जाता, लेकिन सूखी खेती को कौन पूछता है ? अन्त में ज्ञानशकर ने वेदखली दायर करने की ठान ली। इसी की देर थी, नालिश हो गयी, किन्तु गाँव में रुपयो का बन्दोबस्त न हो सका । उन्नदारी करने वाला भी कोई न निकला। सबको विश्वास था कि एकतर्फी हिंगरी होगी और सब के सब बेदखल हो जायेंगे । फैजू और कर्तार बगलें बजाते फिरते थे। अब मैदान मार लिया है। खाँ साहब गये तो क्या, गाँव साफ हो गया । कोई दाखिलकार असामी रहेगा ही नही, जितनी चाहे जमीन की दर बढा सकते हैं। हजार की जगह दो हजार वसूल होगे । इस कारगुजारी का सेहरा मेरे सिर बँधेगा । दूर-दूर तक मेरी धूम हो जायगी। इन कल्पनाओं से फैजू मियाँ फूले नहीं समाते थे।
निदान फैसले की तारीख आ गयी । कर्तारसिंह ने मलमल का ढीला कुरता और गुलाबी पगडी निकाली, जूते मे कड़वा तेल भरा, लांठी मे तेल मला, बाल बनबाये और माथे पर भभूत लगायी । फैजुल्लाह खाँ ने चारजामे की मरम्मत करायी, अपनी काली अचकन और सफेद पगडी निकाली। बिन्दा महाराज ने भी धूली हुई गाढ़ की मिर्जई और गेरू में रँगी हुई धोती पहनी । वेगारों के सिरो पर कम्बल, टाट आदि लादे गये और तीनो आदमी कचहरी चलने को तैयार हुए। केवल खाँ साहब की नमाज की देर थी ।
किन्तु गाँव मे जरा भी हलचल न थी । मर्दो मे कादिर के छोटे लडके के सिवा और सभी नीच जातियों के लोग थे, जिन्हें मान-अपमान का ज्ञान ही न था; और वह बेचारा कानूनी बातो से अनभिज्ञ था । झपट के दिल में ऐसा हौल समाया हुआ था कि घर से बाहर ही न निकलते थे। रही स्त्रियाँ, वे दीन अवलाएँ कानून का मर्म क्या जाने । आज भी नियमानुसार उनके दोनो अखाड़े जमा हुए थे । बूढियाँ कहती थी, खेत निकल जाये, हमारी बला से, हमें क्या करना है? आज मरे, कल दूसरा दिन । रहे भी तो हमारे किस काम आयेंगे ? इन रानियो का घमड तो चूर हो जायगा । यहाँ तक की विलासी भी जो इस सारी विपत्ति-कथा की कैकेयी थी, आज निश्चिन्त बैठी हुई थी। विपक्षी दल को आज सन्धि-प्रार्थना की इच्छा हो रही थी, लेकिन कुछ तो अभिमान और कुछ प्रार्थना की स्वीकृति की निराशा इच्छा को व्यक्त न होने देती थी।
आठ बजे खाँ साहब की नमाज पूरी हुई । इधर बिन्दा महाराज ने चवेना खा कर तम्बाकू फॉका और कर्तारसिह नै घोडे को लाने का हुक्म दिया कि इतने में सुक्खू चौधरी सामने से आते दिखायी दिये। वहीं पहले का-सा वेश था, सिर पर कन्टोप, ललाट पर चन्दन, गले में चादर, हाथ में एक चिमटा । आ कर चौपाल मे जमीन पर बैठ गये । गाँव के लडके जो उनके साथ दौडने आये थे बाहर ही रुक गये । फैजू ने पूछा, चौधरी कहो, खैरियत से तो रहे ? तुम्हे जेल से निकले कितना अरसा हुआ ?
चौधरी ने कर्तार से चिलम ली, एक लम्बा दम लगाया और मुँह से धुएँ को निकालने हुए बोले, आज बेदखली की तारीख हैं न ?
कर्तार--कागद-पत्तर देखा जाय तो जान पड़े । यहाँ नित एक न एक मामला लगा ही रहता है । कहाँ तक कोई याद रखे ।
चौधरी--बेचारो पर एक विपत्ति तो थी ही, यह एक और बला सवार हो गयी ।
फैजू--मैं मजबूर हो गया । क्या करता ? जाले और कानून से बँधा हुआ हैं। चैत, बैशाख, जेठ--तीन महीने तक तकाजे करता रहा, इससे ज्यादा मेरे बस में और क्या था ?
यह कह कर उन्होने चौधरी की ओर इस अन्दाज से देखा, मानो वह शील और दया के पुतले है।
चौधरी--अगर आज सब रुपये वसूल हो जाये तो मुकदमा खारिज हो जायगा न ?
फैजू ने विस्मित हो कर चौधरी को देखा और बोले, खर्चे का सवाल है।
चौधरी--अच्छा, बतलाइए आपके कुल कितने रुपये होते है। खर्च भी जोड़े लीजिए।
यह कह कर चौधरी ने कमर से नोटों का एक पुलिन्दा निकाली । एक थैली में से कुछ रुपये भी निकाले और खाँ साहब की ओर परीक्षा भाव से देखने लगे । फैजू के होश उड गये; कर्तार के चेहरे का रंग उड गया, मानो घर से किसी के मरने की खबर आ गयी हो । बिन्दा महाराज ने ध्यान से रुपयों को देखा। उन्हें सन्देह हो रहा था कि यह कोई इन्द्रजाल न हो। किसी के मुँह से बात न निकलती थी। जिस आशालता को बरसो से पाल और सीच रहे थे वह आँख के सामने एक पशु के विकराल मुख का ग्रास बनी जाती थी। इस अवसर के लिए उन लोगो ने कितनी आयोजनाएँ की थी, कितनी कूटनीति से काम लिया था, कितने अत्याचार किये थे । और जब वह शुभ घड़ी आयी तो निर्दय भाग्य-विधाता उसे हाथो से छीन लेता था। गौस खाँ का खून रग ला कर अब निष्फल हुआ जाता था। आखिर फैजू ने बडे गम्भीर भाव से कहा, इसका फैसला तो अब अदालत के हाथ है।
अदालत का नाम ले कर वह चौधरी को भयभीत करना चाहते थे ।
चौधरी--अच्छी बात है तो वहीं चलो।
कर्तार ने नैतिक सर्वज्ञता के भाव से कहा, पहले ये लोग मोहलत की दर्खास्त दे, उस दर्खास्त पर हमारी तरफ से उजरदारी होगी, इस पर हाकिम जो कुछ तजवीज करेगा वह होगा। हम लोग रुपये कैसे ले सकते हैं ? जाब्ते के खिलाफ है।
बिन्दा महाराज के सम्मुख एक दूसरी ही समस्या उपस्थित थी--इसे इतने रुपय कहाँ मिल गये ? अभी जेल से छूट कर आया हैं । गाँववालो से फूटी कौड़ी भी न मिली होगी । इसके पास जो लेई पूँजी थी यह तालाब और मन्दिर बनवाने में खर्ज हो गयी। अवश्य उसे कोई ऐसी जडी-बूटी हाथ लग गयी है, जिससे वह रुपय बना लेता है। साधुओं के हाथ में बडे-बडे कर्तव होते हैं।
फैजू समझ गये कि इस धाँधली से काम न चलेगा। कही इसने अदालत के सामने जा कर सब रुपये गिन दिये तो अपना सा मुँह ले कर रह जाना पड़ेगा। निराश हो कर जूते उतार दिये और नालिश का पर्ते निकाल कर हिसाब जोडने लगे, उस पर अदालत का खर्च, अमलो की रिश्वत, वकील का हिसाब, मेहनताना, जमीदार का नजराना आदि और बढाया तब बोले, कुल १७५० रू होते है ।
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चौधरी--फिर देख लीजिए, कोई रकम रह न गयी हो। मगर यह समझ लेना कि हिसाब से एक कौडी भी वेशी ली तो तुम्हारा भला न होगा ? ।
बिन्दा महाराज ने सशक हो कर कहा, खाँ साहब, जरा फिर से जोड़ लो।
कर्तार--सब जोड़ा-जोड़ाया है, रात-दिन तो यही किया करते है, लाओ निकालो १७५० रु० ।
चौधरी--१७५० रु० लेना है तो अदालत में ही लेना, यहाँ तो मैं १००० रू० से वेसी ने दूँगा ।
फैजू--और अदालत का खर्च ?
सहसा चौधरी ने अपना चिमटा उठाया और इतने जोर से फैजुल्लाह के सिर पर मारा कि वह जमीन पर गिर पहा । तब बोले, यही अदालत का खर्च है, जी चाहे और ले लो । बेईमान, पापी कही का । कारिन्दा बना फिरता है। कल का बनिया आज का सेठ । इतनी जल्द आँखों में चरखी छा गयी । तू भी तो किसी जमीदार का आसामी है। तेरा घर देख आया हूँ, तेरे मा-बाप, भाई-बन्धु सब का हाल देख आया हूँ । वहाँ उन सब का वेगार भरते-भरते कचूमर निकल जाया करता हैं। तूने चार अक्षर पढ़ लिये तो जमीन पर पाँव नही रखता । दीन-दुखियो को लूटता फिरता है । ६०० रु० की नालिश है, १०० रु० अदालत का खरच हैं। मैं कचहरी जा कर पेशक से पूछ आया । उसके तू १७५० रु० माँगता है । और क्यो रे ठाकुर, तू भी इस तुरुक के साथ पड़ कर अपने को भूल गया ? चिल्ला-चिल्ला कर रामायण पढता है, भागवत की कथा कहता है, ईंट-पत्थर के देवता बना कर पूजता है। क्या पत्थर पूजते-पूजते तेरा हृदय भी पत्थर हो गया? यह चन्दन क्यो लगाता है ? तुझे इसका क्या अधिकार हैं? तू धन के पीछे धरम को भूल गया ? तुझे धन चाहिए ? तेरे भाग्य में धन लिखा है तो यह थैली उठा ले। (यह कह कर चौधरी ने रुपयो की थैली कर्तार की ओर फेंकी) देख तो तेरे भाग्य मे धन हैं या नहीं ? तेरा मन इतना पापी हो गया है कि तू सोना भी छुए तो मिट्टी हो जायगा । थैली छू कर देख ले, अभी ठीकरी हुई जाती है ।
कर्तार ने पहले बडी धृष्ट अथद्धा से बातें करना शुरू की थी। वह यह दिखाना चाहता था, मैं साधुओं का भेष देख कर रोव में आनेवाला आदमी नहीं हूँ। ऐसे भोले-भाले काठ के उल्लू कही और होंगे पर चौधरी की यह हिम्मत देख कर और यह कठोपदेश सुन कर उसकी अभक्ति लुप्त हो गयी । उसे अब ज्ञान हुआ कि यह चौधरी नहीं है जो गौस खाँ की हाँ में हाँ मिलाया करता था, किन्तु बिना परीक्षा किये वह अब भी भक्ति-सूत्र में न बँधना चाहता था, यहाँ तक कि वह उनकी सिद्धि का परदा खोल कर उनकी खबर लेने पर उतारू था । उसने थैली को ध्यान से देखा, रुपयो से भरी हुई थीं । तब उसने डरने-डरते थैली उठायी, किंतु उसके छूते ही एक अत्यन्त विस्मयकारी दृश्य दिखायी दिया । रुपये ठीकरे हो गये । यह कोई मायालीला थी अथवा कोई जादू या सिद्धि, कौन कह सकता हैं । मदारी का खेल था या नजरबन्दी का तमाशा, चौधरी ही जाने । रुपये की जगह साफ लाल-लाल ठीकरे झलक रहे थे । कर्तार के हाथ से थैली छूट कर गिर पड़ी। वह हाथ बाँधकर बड़े भक्ति भाव से चौधरी के पैरों पर गिर पड़ा और बोलो, बाबा मेरा अपराध क्षमा कीजिए, मैं अधम, पापी, दुष्ट हूँ; मेरा उद्धार कीजिए। मैं अब आपकी ही सेवा में रहूँगा, मुझे इस लोभ के गड्ढे से निकालिए ।
चौधरी--दीनो पर दया करो और वही पुण्य तुम्हे गड्ढे से निकालेगा। दया ही सब मन्त्रो का मूल है।
फैजू मियाँ गर्द झाड़ कर उठ बैठे थे । वृद्ध दुर्वल चौधरी उस समय उनकी आँखों मे एक देव सा दीख पड़ता था। यह चमत्कार देख कर वह भी दग रह गये । अपनी खता माफ कराने लगे---बाबा जी क्या करें । जजाल में फँस कर सभी कुछ करना पडता हैं। अहलकार, अमले, अफसर, अर्दली, चपरासी सभी की खातिर करनी पड़ती है। अगर यह चाले न चले तो उनका पेट कैसे भरे ? वहाँ एक दिन भी निबाह न हो । अब मुझे भी गुलामी में कबूल कीजिए।
कर्तार ने चिलम पर चरस रख कर चौधरी को दी। बिन्दा महाराज का समय भी मिट चुका था | बोले, कुछ जलपान की इच्छा हो तो शर्बत बनाऊँ। फैजुल्लाह ने उनके बैठने को अपना कालीन बिछा दिया । चौधरी प्रसन्न हो गये । अपनी झोली से एक जडी निकाल कर दी और कहा, यह मिर्गी की आजमायी हुई दवा हैं। जनम की मिर्गी भी इससे जाती रहती है। इसे हिफाजत से रखना और देखो, आज ही मुकदमा उठा लेना। यह एक हजार के नोट हैं, गिन लो। सब असामियों को अलग-अलग बाकी की रसीद दे देना । अब मैं जाता हूँ । कुछ दिनो मे फिर आऊँगा ।