प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २१८ से – २२३ तक

 

रात के १० बजे थे । ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशकर के दीवानखाने में ही लेटें, लेकिन प्रेमशकर को मच्छरो ने इतना तग किया कि नीद न आयी। कुछ देर सक तो वह पखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्याकुल हो बाहर आ कर सहन मे टहलने लगे । सहन की दूसरी ओर ज्ञानशकर का द्वार था। चारो ओर सन्नाटा छाया हुआ था नीरवता ने प्रेमशंकर की विचार-ध्वनि को गुञ्जित कर दिया। सोचने लगे, मेरा जीवन कितना विचित्र है ! श्रद्धा जैसी देवी को पा कर भी मैं दाम्पत्य-सुख से वचित हूँ। सामने श्रद्धा का शयनगृह हैं, पर मैं उधर ताकने का साहस नहीं कर सकता। वह इस समय कोई धर्म-ग्रन्थ पढ़ रही होगी, पर मुझे उसकी कोमल वाणी सुनने का अधिकार नही।

अकस्मात् उन्हें ज्ञानशंकर के द्वार से कोई स्त्री निकलती हुई दिखायी दी। उन्होंने समझा मजूरनी होगी, काम-धन्धे से छुट्टी पा अपने घर जानी होगी। लेकिन नही, यह सिर से पैर तक चादर ओढ़े हुए हैं। महरियाँ इतनी लज्जाशील नहीं होती। फिर यह कौन है ? चाल तो श्रद्धा की सी है, कद भी वही है। पर इतनी रात गये, इस अन्धकार में श्रद्धा कहाँ जायेगी ? नही, कोई और होगी। मुझे भ्रम हो रहा है। इस रहस्य को खोलना चाहिए । यद्यपि प्रेमशंकर को एक अपरिचित और अकेली स्त्री के पीछे-पीछे भेदिया बन कर चलना सर्वथा अनुचित जान पडता था, पर इस गाँठ को खोलने की इच्छा इतनी प्रबल थी कि वह उसे रोक न सके ।

कुछ दूर तक गली में चलने के बाद वह स्त्री सडक पर आ पहुँची और दशाश्वमेघ घाट की ओर चली । सडक पर लालटेने जल रही थी। रास्ता बन्द न था, पर बहुत कम लोग चलते दिखायी देते थे । प्रेमशकर को उस स्त्री की चाल से अब पूरा विश्वास हो गया कि वह श्रद्धा हैं। उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही । यह इतनी रात गये इस तरफ कहाँ जाती है ? उन्हें उस पर कोई सन्देह न हुआ। वे उसके पातिव्रत को अखड और अविचल समझते थे। पर इस विश्वास ने उनकी प्रश्नात्मक शका को और भी उत्तेजित कर दिया। उसके पीछे-पीछे चलते रहे, यहाँ तक कि गगातट की ऊँची-ऊँची भट्टालिंकाएँ आ पहुँची । गली में अँधेरा था, पर कही-कही खिड़कियो से प्रकाश ज्योति आ रही थी, मानो कोई सोता हुआ आदमी स्वप्न देख रहा हो । पगपग पर साँडो़ का सामना होता था। कहीं-कही कुत्ते भूमि पर पड़ी हुई पत्तलो को चाट रहे थे। श्रद्धा सीढ़ियो से उतर कर गंगातट पर जा पहुँची। अब प्रेमशकर को भय हुआ, कहीं इसने अपने मन में कुछ और तो नही ठानी है। उनका हृदय काँपने लगा। वह लपक कर सीढ़ियो से उतरे और श्रद्धा से केवल इतनी दूर खड़े हो गये कि तनिक खटका होते ही एक छलाँग में उसके पास जा पहुँचे। गगा निद्रा में मग्न थी। कहीं-कहीं जल-जन्तुओ के छपकने की आवाज आ जाती थी। सीढियों पर कितने ही भिक्षुक पडे सो रहे थे। प्रेमशकर को इस समय असह्य ग्लानि-वेदना हो रही थी। यह मेरी क्रूरता--मेरी हृदय-शून्यता का फल है। मैंने अपने सिद्धान्त-प्रेम ओर आत्म-गौरव के घमड मे इसके विचारों की अवहेलना की, इसके मनोभावों को पैरो से कुचला, इसकी घर्मनिष्ठा को तुच्छ समझा। जब सारी बिरादरी मुझे दूध की मक्खी समझ रही हैं, जब मेरे विषय में नाना प्रकार के अपवाद फैले हुए हैं, जब मैं विधर्मी, नास्तिक और जातिच्युत समझा जा रहा हूँ, सब एक धार्मिक वृत्ति की महिला का मुझसे विमुख हो जाना सर्वथा स्वाभाविक था। न जाने कितनी हृदय-वेदना, कितने आत्मिक कष्ट और मानसिक उत्ताप के बाद आज इस अवला ने ऐसा भयकर संकल्प किया है।

श्रद्धा कई मिनट जलतट पर चुपचाप खड़ी रहीं। तब वह धीरे-धीरे पानी मे उतरी। प्रेमशंकर ने देखा अब विलम्व करने का अवसर नही है। उन्होंने एक छलाँग मारी और अन्तिम सीढ़ी पर खड़े हो कर श्रद्धा को जोर से पकड़ लिया । श्रद्धा चौंक पडी, सशक हो कर बोली--कौन है, दूर हट ।

प्रेमशकर ने सदोष नेत्रो से देख कर कहा, मैं हूँ अभागा प्रेमशंकर । श्रद्धा ने पति की ओर ध्यान से देखा और भयभीत हो कर बोली, आप --यहाँ ?

प्रेमशकर--हाँ, आज अदालत ने मुझे बरी कर दिया। चचा साहब के यहाँ दावत थी। भोजन करके निकला तो तुम्हे इधर आते देखा। साथ हो लिया । अब ईश्वर के लिए पानी से निकलो । मुझपर दया करो।

श्रद्धा पानी से निकल कर जीने पर आयी और कर जोड़ कर गंगा को देखती हुई बोली, माता, तुमने मेरी विनती सुन ली, किस मुँह से तुम्हारा यश गाऊँ । इस अभागिनी को तुमने तार दिया।

प्रेम--तुम अँधेरे में इतनी दूर कैसे चली आयी ? डर नहीं लगा ?

श्रद्धा--मैं तो यहाँ कई दिनों से आती हूँ, डर किस बात का ?

प्रेम--क्या यहाँ के बदमाशो का हाल नही जानती ?

श्रद्धा ने कमर से छुरा निकाल लिया और बोली, मेरी रक्षा के लिए यह काफी है। संसार मे जब दूसरा कोई सहारा नहीं, होता तो आदमी निर्भय हो जाता है।

प्रेम--घर के लोग तुम्हे यो आते देख कर अपने मन में क्या कहते होगे ?

श्रद्धा--जो चाहे समझें, किसी के मन पर मेरा क्या वश हैं? पहले लोक-लाज का भय था । अब वह भय नहीं रहा, उसका मर्म जान गयी। वह रेशम का जाल है, देखने में सुन्दर, किन्तु कितना जटिल । वह बहुधा धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म बना देता है।

प्रेमशकर का हृदय उछलने लगा, बोले, ईश्वर, मेरा क्या भाग्य-चन्द्र फिर उदित होगा ? श्रद्धा, मैं तो तुमसे सत्य कहता हूँ मेरी कितनी ही बार इच्छा हुई कि फिर अमेरिका लौट जाऊँ; किन्तु आशा का एक अत्यन्त सूक्ष्म, काल्पनिक बन्धन पैरों मे वेडियों का काम करता रहा। मैं सदैव अपने चारो ओर तुम्हारे प्रेम और सत्य व्रत को फैले हुए देखता हूँ। मेरे आत्मिक अन्धकार में यही ज्योति दीपक का काम देती है । मैं तुम्हारी सदिच्छाओ को किसी सघन वृक्ष की भाँति अपने ऊपर छाया हालते हुए अनुभव करता हूँ। मुझे तुम्हारी अकृपा में दया, तुम्हारी निष्ठुरता मे हार्दिक स्नेह, तुम्हारी भक्ति में अनुराग छिपा हुआ दीखता है। अब मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे ही उद्धार के लिये तुम यह अनुष्ठान कर रही हो। यदि मेरा प्रेम निष्काम होता तो मैं इस आत्मिक सयोग पर ही संतोष करता, किन्तु मैं रूप और रस का दास हूँ, इच्छाओ और वासनाओं का गुलाम, मुझे इस आत्मानुराग से सतोष नहीं होता ।

श्रद्धा--मेरे मन से यह शका कमी दूर नहीं होती कि आपसे मेरा मिलना अधर्म है और अधर्म से मेरा हृदय काँप उठता है ।

प्रेम--यह शका कैसै शान्त होगी ?

श्रद्धा--आप जान कर मुझसे क्यों पूछते हैं ?

प्रेम--तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हूँ।

श्रद्धा--प्रायश्चित से ।

प्रेम--वहीं प्रायश्चित जिसका विधान स्मृतियो मे है ?

श्रद्धा--हाँ, वही ।

प्रेम--क्या तुम्हे विश्वास है कि कई नदियों में नहाने से, कई लकडियो को जलाने से, घृणित वस्तुओं के खाने से,ब्राह्मणो को खिलाने से मेरी अपवित्रता जाती रहेगी ? खेद है कि तुम इतनी विवेकशील हो कर इतनी मिथ्यावादिनी हो ।

श्रद्धा का एक हाथ प्रेमशकर के हाथ में था। यह कथन सुनते ही उसने हाथ खीच लिया और दोनो अँगूठो से दोनो कान बन्द करते हुए बोली, ईश्वर के लिए मेरे सामने शास्त्रो की निंदा मत करो। हमारे ऋषि-मुनियो ने शास्त्रों में जो कुछ लिख दिया है वह हमे मानना चाहिए । उनमे मीन-मेष निकालना हमारे लिये उचित नही । हममें इतनी बुद्धि कहाँ है कि शास्त्रों के सभी आदेशो को समझ सके ? उनको मानने मे ही हमारी कल्याण है ।

प्रेम--मुझसे वह काम करने को कहती हो जो मेरे सिद्धान्त और विश्वास के सर्वथा विरुद्ध है। मेरा मन इसे कदापि स्वीकार नहीं करता कि विदेश-यात्रा कोई पाप है। ऐसी दशा में प्रायश्चित की शर्त लगा कर तुम मुझपर बडा अन्याय कर रही हो।

श्रद्धा ने लम्बी साँस खीच कर कहा, आपके चित्त से अभी अहकार नही मिटा । जब तक इसे न मिटाइएगा, ऋषियो की बाते आपकी समझ में न आयेगी।

यह कह कर वह सीढियों पर चढ़ने लगी । प्रेमशंकर कुछ न बोल सके । उनको रोकने का भी साहस न हुआ । श्रद्धा देखते-देखते सामने गली में घुसी और अन्धकार मे विलुप्त हो गयी ।

प्रेमशकर कई मिनट तक वही चुपचाप खड़े रहे, तब वह सहसा इसी अर्द्ध चैतन्यावस्था से जगे, जैसे कोई रोगी देर तक मूर्छित रहने के बाद चौक पडे । अपनी अवस्था का ज्ञान हुआ । हा ! अवसर हाथ से निकल गया। मैंने विचार को मनुष्य से उत्तम समझा । सिद्धान्त मनुष्य के लिए है, मनुष्य सिद्धान्तो के लिए नहीं है। मैं इतना भी न समझ सका ! माना, प्रायश्चित पर मेरा विश्वास नही है, पर उससे दो प्राणियो का जीवन सुखमय हो सकता था । इस सिद्धान्त-प्रेम ने दोनों का ही सर्वनाश कर दिया। क्यो न चलकर श्रद्धा से कह दूँ कि मुझे प्रायश्चित करना अगीकार हैं। अभी बहुत दूर नहीं गई होगी। उसका विश्वास मिथ्या ही सही, पर कितना दृढ़ है। कितनी नि स्वार्थ पति-भक्ति है, कितनी अविचल घर्मनिष्ठा । प्रेमशकर इन्ही विचारों में डूबे हुए थे कि यकायक उन्होंने दो आदमियो को ऊपर से उतरते देखा । गहरे विचार के बाद मस्तिष्क को विश्राम की इच्छा होती हैं । वह उन दोनो मनुष्यों की ओर ध्यान से देखने लगें । यह कौन हैं ? इस समय यहाँ क्या करने आये हैं ? शनै शनै वह दोनो नीचे आये और प्रेमशकर से कुछ दूर खड़े हो गये । प्रेमशंकर ने उन दोनो की बाते सुनी, आवाज पहचान गये। यह दोनों पद्मशकर और तेजशकर थे !

तेजशकर ने कहा, तुम्हारी बुरी आदत है कि जिससे होता है उसी से इन बातो की चर्चा करने लगते हो। यह सब बाते गुप्त रखने की हैं । खोल देने से उसका असर जाता रहता है।

पद्म--मैंने तो किसी से नहीं कहा।

तेज--क्यो ? आज ही बाबू ज्वाला सिंह से कहने लगे कि हम लोग साधु हो जायेंगे। कई दिन हुए अम्माँ से यही बात कही थी। इस तरह वकते फिरने से क्या फायदा ? हम लोग साधु होगे अवश्य, पर अभी नही। अभी इस 'बीसा' को सिद्ध कर लो, घर में लाख-दो-लाख रुपये रख दो, बस निश्चिन्त होकर निकल खडे हो । भैया घर की कुछ खोज-खबर लेते ही नहीं । हम लोग भी निकल जाये तो लालाजी इतने प्राणियों का पालन-पोषण कैसे करेंगे । इम्तहान तो मेरा न दिया जायगा । कौन भूगोल-इतिहास रटता फिरे और मैट्रिक हो ही गये तो कौन राजा हो जायेंगे । बहुत होगा कही १५), २०) के नौकर हो जायेगे। तीन साल से फेल हो रहे है, अब की तो यो ही कही पढने को जगह न मिलेगी।

पद्म--अच्छा, अब किसी से कुछ न कहूँगा । यह मन्त्र सिद्ध हो जाये तो चचा साहब मुकदमा जीत जायेगे न ?

तेज--अभी देखा नही क्या ? लालाजी बीस हजार जमानत देते थे, पर मैजिस्ट्रेट न लेता था। तीन दिन यहाँ आसन जमाया और आज वह बिलकुल बरी हो गये । एक कौडी भी जमानत न देनी पड़ी।

पद्म--चचा साहब बड़े अच्छे आदमी हैं। मुझे उनकी बहुत मुहब्बत लगती है। छोटे चाचा की ओर ताकते हुए डर मालूम होता है ।

तेज--उन्होंने बडे चाचा को फँसाया है। डरता हूँ, नहीं तो एक सप्ताह-भर भी आसन लगाऊँ तो उनकी जान ही लेकर छोडूँ ।

पद्म--मुझसे तो कभी बोलते ही नही । छोटी चाची का अदब करता हूँ, नहीं तो एक दिन माया को खूब पीटता ।

तेज--अब की तो भायाभी गोरखपुर जा रहा है। वही पढेगा ।

पद्म--जब से मोटर आयी है माया का मिजाज ही नही मिलता । यहाँ कोई मोटर का भूखा नही है।

यो बाते करते हुए दोनो सीडी पर बैठ गये । प्रेमशंकर उठकर उनके पास आये और कुछ कहना चाहते थे कि पद्मशकर ने चौककर जोर से चीख मारी और तेजशकर खड़ा होकर कुछ बुदबुदाने और छू-छू करने लगा। प्रेमशकर बोले, डरो मत, मैं हूँ ।

तेज--चचा साहब ! आप यहाँ इस वक्त कैसे आये ?

पद्म--मुझे तो ऐसी शंका हुई कि कोई प्रेत आ गया ।

प्रेम--तुम लोग इस पाखण्ड में पड़कर अपना समय व्यर्थ गँवा रहे हो। यह बडे जोखिम का काम है और तत्व कुछ नही। इन मन्त्रो को जगाकर तुम जीवन में सफलता प्राप्त नही कर सकते । चित्त लगाकर पढो, उद्योग करो, सच्चरित्र बनो। घन और कीर्ति का यही महामन्त्र है। यहाँ से उठो।

तीनों आदमी घर की ओर चले। रास्ते-भर प्रेमशंकर दोनों किशोरों को समझाते रहे । घर पहुँचकर वे फिर निद्रा देवी की आराधना करने लगे, मच्छरो की जगह अब उनके सामने एक और बाधा आ खडी हुई। यह श्रद्धा का अन्तिम वाक्य था, 'तुम्हारे चित्त से अभी अहंकार नहीं मिटा ।' प्रेमशकर बडी निर्दयता से अपने कृत्यो का समीक्षण कर रहे थे। अपने अन्त करण के एक-एक परदे को खोलकर देख रहे थे और प्रतिक्षण उन्हें विश्वास होता जाता था कि मैं वास्तव में अहकार का पुतला हूँ। वह अपने किसी काम को, किसी संकल्प को अहकार-रहित न पाते थे। उनकी दया और दीन-भक्ति में भी अहकार छिपा हुआ जान पडता था। उन्हें शका हो रही थी, क्या सिद्धान्त-प्रेम अहकार का दूसरा स्वरूप है। इसके विपरीत श्रद्धा की धर्मपरायणता में अहकार की गन्ध तक न थी।

इतने मे ज्वालासिंह ने आकर कहा, क्या सोते ही रहिएगा ? सवेरा हो गया ।

प्रेमशकर ने चौक कर द्वार की ओर देखा तो वास्तव में दिन निकल आया था। बोले, मुझे तो मच्छरों के मारे नीद ही नहीं आयी । आँखे तक न झपकी ।

ज्वाला--और यहाँ एक हीं करवट में भोर हो गया ।

प्रेमशकर उठ कर हाथ-मुँह धोने लगे । आज उन्हें बहुत काम करना था। ज्वाला सिह भी स्नानादि से निवृत्त हुए । अभी दोनो आदमी कपड़े पहन ही रहे थे कि तेजशकर जलपान के लिए ताजा हलुआ, सेव का मुरव्वा, तले हुए पिस्ते और बादाम तथा गर्म दूध लाया । ज्वालासिंह ने कहा, आपके चचा साहब बडे मेहमाननवाज आदमी हैं । ऐसा जान पडता है कि आतिथ्य-सत्कार में उन्हें हार्दिक आनन्द आता है और एक हम है कि मेहमान की सूरत देखते ही मानो दब जाते है। उनका जो कुछ सत्कार करते हैं वह केवल प्रथा-पालन के लिए, मन से यही चाहते हैं कि किसी तरह यह व्याधि सिर से टले ।

प्रेम--वे पवित्र आत्माएँ अत्ब संसार से उठती जाती हैं। अब तो जिधर देखिए उधर स्वार्थ सेवा का आधिपत्य है । चचा साहब जैसा भोजन करते है, वैसा अच्छे-अच्छे रईसो को भी मयस्सर नहीं होता । वह स्वय पाक-शास्त्र में निपुण है। लेकिन खाने का इतना शौक नही है, जितना खिलाने का । मेरा तो जी चाहता है कि अवकाश मिले तो यह विद्या उनमे सीखूँ ।

दोनो मित्रो ने जलपान किया और लाला प्रभाशकर से विदा हो कर घर से निकले । ज्वालासिंह ने कहा, कोई वकील ठीक करना चाहिए ।

प्रेम--हाँ, यही सबसे जरूरी काम है। देखें, कोई महाशय मिलते हैं या नही । चचा साहब को तो लोगों ने साफ जवाब दे दिया ।

ज्वाला--डाक्टर इफनिअली से मेरा खूब परिचय है। आइए, पहले वहीं चले।

प्रेम--वह तो शायद ही राजी हो । ज्ञानशकर से उनकी बातचीत पहले ही हो चुकी है।

ज्वाला--अभी वकालतनामा तो दाखिल नहीं हुआ। ज्ञानशकर ऐसे नादान नहीं है कि ख्वाहमख्वाह हजारो रुपयो का खर्च उठाये ! उनकी जो इच्छा थी वह पुलिस के हाथो पूरी हुई जाती है। सारा लखनपुर चक्कर में फँस गया। अब उन्हें वकील रख कर क्या करना है ?

डाक्टर महोदय अपने बाग में टहल रहे थे। दोनो सज्जनो को देखते ही बढ़कर हाथ मिलाया और बँगले में ले गये ।

डाक्टर--(ज्वालासिंह से) आपसे तो एक मुद्दत के बाद मुलाकात हुई है। आजकल तो आप हरदोई में हैं न ? आपके बयान ने तो पुलिसवालो की बोलती ही बन्द कर दी । मगर याद रखिए, इसका परिणाम आपको उठाना पड़ेगा।

ज्वाला--उसकी नौवत ही न आयेगी। इन दो-रगी चालो से नफरत हो गयी । इस्तीफा देने का फैसला कर चुका हूँ ।

डाक्टर–-हालत ही ऐसी है कि कोई खुददार आदमी उसे गगरा नहीं कर सकता। बस यहाँ उन लोगो की चाँदी है जिनके कान्शस मुरदा हो गये है। मेरे ही पेशे को लीजिए, कहा जाता है कि यह आजाद पेशा है। लेकिन लाला प्रभाशकर को सारे शहर में (प्रेमशकर की तरफ देख कर) आपकी पैरवी करने के लिए कोई वकील न मिला । मालूम नही, वह मेरे यहाँ तशरीफ क्यो नहीं लाये ।

ज्वाला--उस गलती की तलाफी (प्रायश्चित) करने के लिए हम लोग हाजिर हुए हैं। गरीब किसानों पर आपको रहम करना पडेगा।

डाक्टर--मैं इस खिदमत के लिए हाजिर हूँ। पुलिस से मेरी पुरानी दुश्मनी है। ऐसे मुकदमो की मुझे तलाश रहती है। बस, यही मेरा आखिरी मुकदमा होगा । मुझे भी वकालत से नफरत हो गयी है। मैंने युनिवर्सिटी में दरख्वास्त दी है। मजूर हो गयी तो वोरिया-वधना समेट कर उधर की राह लूँगा ।