प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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श्रद्धा की बातो से पहले तो ज्ञानशकर को शका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शका निवृत्त हो गयी, क्योकि इस मामले में प्रेमशकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था । ऐसी अवस्था में श्रद्धा के क्रोध से ज्ञानशकर की कोई हानि न हो सकती थी।

ज्ञानशकर ने निश्चय किया कि इस विषय में मुझे हाथ पैर हिलाने की कोई जरूरत नहीं है। सारी व्यवस्था मेरे इच्छानुकूल है। थानेदार स्वार्थवश इस मामले को बढ़ायेंगा, सारे गाँव को फँसाने की चेष्टा करेगा और उसका सफल होना असन्दिग्ध है। गाँव में कितना ही एका हो, पर कोई न कोई मुखबिर निकल ही आयेगा। थानेदार ने लखनपुर के जमीदारी दफ्तर को जाँच-परताल अवश्य ही की होगी । वहाँ [ २०७ ]मेरे ऐसे दो-चार पत्र अवश्य ही निकल आयेंगे जिनसे गाँववालो के साथ भाई साहब की सहानुभूति और सदिच्छा सिद्ध हो सके। मैंने अपने कई पत्रो मे गौसखाँ को लिखा है कि भाई साहब का यह व्यवहार मुझे पसन्द नही। हाँ, एक बात हो सकती है। सम्भव है कि गाँववाले रिश्वत दे कर अपना गला छुडा लें और थानेदार अकेले मनोहर का चालान करे। लेकिन ऐसे संगीन मामले में थानेदार को इतना साहस नही हो सकता । वह यथासाध्य इस घटना को महत्त्वपूर्ण सिद्ध करेगा। भाई साहब से अधिकारीवर्ग उनके निर्भय लोकवाद के कारण पहले से ही बदगुमान हो रहा है। सब इन्सपेक्टर उन्हें इस षड्यन्त्र का प्रेरक साबित करके अपना रंग जरूर जमायेगा । अभियोग सफल हो गया तो उसको तरक्की भी होगी, पारितोषिक भी मिलेगा। गाँववाले कोई बड़ी रकम देने की सामर्थ्य नहीं रखते और थानेदार छोटी रकम के लिए अपनी आशाओ को मिट्टी में न मिलायेगा । बन्धु-विरोध का विचार मिथ्या हैं । ससार मे सब अपने ही लिए जीते और मरते है, भावुकता के फेर मे पड कर अपने पैरो मे कुल्हाडी मारना हास्यजनक है।

ज्ञानशकर को अनुमान अक्षरश सत्य निकला । लखनपुर के प्राय सभी वालिग आदमियो का चालान हुआ । विसेसर साह को टैक्स की धमकी ने भेदिया बना दिया । जमीदारी दफ्तर का भी निरीक्षण हुआ। एक सप्ताह पीछे हाजीपुर में प्रेमशकर की खाना-तलाशी हुई और वह हिरासत में ले लिये गये ।

सन्ध्या का समय था । ज्ञानशकर मुन्नू को साथ लिये हवा खाने जा रहे थे कि डाक्टर इर्फान अली ने यह समाचार कहा । ज्ञानशकर के रोये खडे हो गये और आँखों में आँसू भर आये । एक क्षण के लिए बन्धु-प्रेम ने क्षुद्रभावो को दबा दिया । लेकिन ज्यो ही जमानत का प्रश्न सामने आया, यह आवेग शान्त हो गया। घर में खबर हुई तो कुहराम मच गया। श्रद्धा मूर्छित हो गयी, बड़ी बहू तसल्ली देने आयी। मुन्नू भी भीतर चला गया और मा की गोद में सिर रख फूट-फूट कर रोने लगा।

प्रेमशंकर शहर से कुछ ऐसे अलग रहते थे कि उनका शहर के बड़े लोगों से बहुत कम परिचय था । वह रईसो से बहुत कम मिलते जुलते थे । कुछ विद्वज्जनो ने पत्र में उनके कृषि-सम्बन्धी लेख अवश्य देखे थे और उनकी योग्यता के कायल थे, किन्तु उन्हें झक्की समझते थे। उनके सच्चे शुभचिन्तको मे अधिकाश कालेज के युवक, दफ्तरों के कर्मचारी या देहातो के लोग थे। उनके हिरासत में आने की खबर पाते ही हजारो आदमी एकत्र हो गये और प्रेमशकर के पीछे-पीछे पुलिस स्टेशन तक गये, लेकिन उनमे कोई भी ऐसा न था, जो जमानत देने का प्रयत्न कर सकता।

लाला प्रभाकर ने सुना तो उन्मत्त की भाँति दौडे हुए ज्ञानशकर के पास जा कर बोले, बेटा, तुमने सुना ही होगा । कुल मर्यादा मिट्टी में मिल गयी । (रो कर) भैया की आत्मा को इस समय कितना दुःख हो रहा होगा । जिस मान-प्रतिष्ठा के लिए हमने जायदादँ बर्बाद कर दी वह आज नष्ट हो गयी । हाय ! भैया जीवनपर्यन्त कमी अदालत के द्वार पर नही गये । घर में चोरियाँ हुई, लेकिन कभी थाने में इत्तला तक ने की [ २०८ ]कि तहकीकात होगी और पुलिस दरवाजे पर आयेगी। आज उन्ही का प्रिय पुत्र. . क्यो बेटा, जमानत न होगी ?

ज्ञानशकर इस कातर अधीरता पर रुष्ट हो कर बोले, मालूम नही, हाकिमो की मर्जी पर है।

प्रभा--तो जा कर हाकिमी से मिलते क्यों नहीं ? कुछ तुम्हें भी अपनी इज्जत की फिक्र है या नहीं ?

ज्ञान--कहना बहुत आसान है, करना कठिन है।

प्रभा--भैया, कैसी बातें करते हो ? यहाँ के हाकिमो में तुम्हारा कितना मान है ? बडे साहब तक तुम्हारी कितनी खातिर करते है ? यह लोग किस दिन काम आयेगे ? क्या इसके लिए कोई दूसरा अवसर आयेगा ?

ज्ञान--अगर आपका यह आशय है कि मैं जा कर हाकिमो की खुशामद करूँ, उनसे रियायत की याचना करूँ तो यह मुझसे नही हो सकता । मैं उनके खोदे हुए गढे में नही गिरना चाहता । मैं किस दावे पर उनकी जमानत कर सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि वह अपनी टेक नहीं छोड़ेंगे ओर मुझे भी अपने साथ ले डूबेगे ।

प्रभाशकर ने लम्बी साँस भर कर कहा, हा भगवान ! यह भाई भाइयो का हाल हैं। मुझे मालूम न था कि तुम्हारा हृदय इतना कठोर है। तुम्हारा सगा भाई आफत में पड़ा है और तुम्हारा कलेजा जरा भी नहीं पसीजता। खैर कोई चिंता नहीं। अगर मेरी सामर्थ्य से बाहर नहीं है तो मेरे भाई का प्यारा पुत्र मेरे सामने यो अपमानित न होने पायेगा ।

ज्ञानशकर को अपने चाचा की दयार्द्रता पर क्रोध आ रहा था। वह समझते थे कि केवल मेरी अवहेलना करने के लिए यह इतने प्रगल्भ हो रहे है। इनकी इच्छा है कि मुझे भी अधिकारियो की दृष्टि में गिरा दे। लेकिन प्रभाशकर बनावटी भावो के मनुष्य न थे । वह कुल-प्रतिष्ठा पर अपने प्राण तक समर्पण कर सकते थे । उनमे वह गौरव प्रेम था जो स्वय उपवास करके आतिथ्य-सत्कार को अपना सौभाग्य समझता था, और जो अब, हा शोक । इस देश से लुप्त हो गया है । धन उनके विचार में केवल मान-मर्यादा की रक्षा के लिए था, भोग-विलास और इन्द्रिय-सेवा के लिए नहीं । उन्होने तुरन्त जा कर कपड़े पहने, चोगा पहना, अमामा बाँधा और एक पुराने रईस के वेश मे मैजिस्ट्रेट के पास जा पहुँचे। रात के आठ बज चुके थे, इसकी जरा भी परवाह न की । साहब के सामने उन्होने जितनी दीनता प्रकट की, जितने विनीत शब्दो मे अपनी सकट-कथा सुनायी, जितनी नीच खुशामद की, जिस भक्ति से हाथ बाँध कर खडे हो गये, अमामा उतार कर साहब के पैरो पर रख दिया और रोने लगे, अपने कुल-मर्यादा की जो गाथा गायी और उसकी राज-भक्ति के जो प्रमाण दिये उसे एक नव शिक्षित युवक अत्यन्त लज्जाजनक ही नही बल्कि हास्यास्पद समझता । लेकिन साहब पसीज गये। जमानत ले लेने का वादा किया, पर रात हो जाने के कारण उस वक्त कोई कार्रवाई न हो सकी। प्रभाशकर यहाँ से निराश लौटे । उनकी यह इच्छा [ २०९ ]कि प्रेमशकर हिरासत में रात को न रहे पूरी न हो सकी। रात भर चिंता में पड़े हुए करवटे बदलते रहे । भैया की आत्मा को कितनी कष्ट हो रहा होगा ? कई बार उन्हें ऐसा धोखा हुआ कि भैया द्वार पर खडे रो रहे है । हाय ! बेचारे प्रेमशकर पर क्या बीत रही होगी । तग, अँधेरी, दुर्गन्धयुक्त कोठरी में पड़ा होगा, आँखों में आँसू न थमते होगे । इस वक्त उससे कुछ न खाया गया होगा । वहाँ के सिपाही और चौकीदार उसे दिक कर रहे होगे । मालूम नहीं, पुलिसवाले उसके साथ कैसा बर्ताब कर रहे है ? न जाने उससे क्या कहलाना चाहते हो ? इस विभाग मे जा कर आदमी पशु हो जाता है। मेरा दयाशंकर पहले कैसा सुशील लडका था, जब से पुलिस में गया है। मिजाज ही और हो गया। अपनी स्त्री तक की बात नहीं पूछता। अगर मुझपर कोई मामला आ पडे तो मुझसे बिना रिश्वत लिये न रहे । प्रेमशकर पुलिसवालों की बातो मे न आता होगा और वह सब के सब उसे और भी कष्ट दे रहे होगे । भैया इस पर जान देते थे, कितना प्यार करते थे, और आज इसकी यह दशा ।

प्राप्त काल प्रभाशकर फिर मैजिस्ट्रेट के बँगले पर गये । मालूम हुआ कि साहब शिकार खेलने चले गये है। वहाँ से पुलिस के सुपरिन्टेडेंट के पास गये । यह महाशय अभी निद्रा में मग्न थे। उनसे दस बजे के पहले भेट होने की सम्भावना न थी। बेचारे यहाँ से भी निराश हुए और तीसरे पहर तक बे-दाना, बे-पानी, हैरान-परेशान, इधर-उधर दौडते रहे। कभी इस दफ्तर में जाते, कभी उस दफ्तर में । उन्हें आश्चर्य होता था कि दफ्तरो के छोटे कर्मचारी क्यों इतने बेमुरौवत और निर्दय होते हैं। सीधी बात करनी तो दूर रही, खोटी-खरी सुनाने में भी सोच नही करते । अन्त में चार बजे मैजिस्ट्रेट ने जमानत मंजूर की, लेकिन हजार दो हजार की नहीं, पूरे दस हजार की, और वह भी नकद । प्रभाशकर का दिल बैठ गया । एक बडी साँस ले कर वहाँ से उठे और धीरे-धीरे घर चले, मानो शरीर निर्जीव हो गया है। घर आ कर वह चारपाई पर गिर पडे और सोचने लगे, दस हजार का प्रबध कैसे करूँ ? इतने रुपये मुझे विश्वास पर कौन देगा ? तो क्या जायदाद रेहन रख दूँ ? हाँ, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। मगर घरवाले किसी तरह राजी न होगें, घर में लड़ाई ठन जायगी। बहुत देर तक इसी हैस-बैस में पडे रहे। भोजन का समय आ पहुँचा । बडी बहू बुलाने आयी। प्रभाशकर ने उनकी ओर विनीत भाव से देख कर कहा, मुझे बिलकुल भूख नही है ।

वही बहू--कैसी भूख है जो लगती ही नही ? कल रात नहीं खाया, दिन को नही खाया, क्या इस चिन्ता में प्राण दे दोगे ? जिन्हे चिन्ता होनी चाहिए, जो उनका हिस्सा उडाते है, उनके माथे पर तो बल तक नहीं है और तुम दाना-पानी छोडे बैठे हो । अपने साथ घर के प्राणियों को भी भूखो मार रहे हो । प्रभाशकर ने सजल नेत्र हो कर कहा, क्या करूँ, मेरी तो भूख-प्यास बन्द हो गयी है। कैसा सुशील, कितना कोमल प्रकृति, कितना शान्तचित्त लडका है। उसकी सूरत मेरी आँखों के सामने फिर रही है। भोजन कैसे करूँ! विदेश मे था तो भूल गये थे, उसे खो बैठे थे, पर खोये रत्न को पाने के बाद उसे चोरो के हाथ में देख कर सब्र नहीं होता।

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बडी बहू--लडका तो ऐसा है कि भगवान सबको दे । बिलकुल वही लड़कपन का स्वभाव है, वहीं भोलापन, वही मीठी बातें, वहीं प्रेम । देख कर छाती फूल उठती है । घमड तो छू तक नही गया । पर दाना पानी छोडने से तो काम न चलेगा, चलो, कुछ थोडा सा खा लो।

प्रभाशकर--दस हजार नकद जमानत माँगी गयी है ।

बडी बहू--ज्ञानू से कहते क्यो नही कि मीठा-मीठा गप्प, कडबा-कडवा थू । प्रेमू का आधा नफा क्या श्रद्धा के भोजन-वस्त्रों में ही खर्च हो जाता है ?

प्रभाशकर--उससे क्या कहूँ, सुनें भी ? वह पश्चिमी सभ्यता का मारा हुआ है, जो लड़के को वालिग होते ही माता-पिता से अलग कर देती है। उसने वह शिक्षा पायी है जिसका मूलतत्व स्वार्थ है। उसमे अब दया, विनय, सौजन्य कुछ भी नहीं रहा। वह अब केवल अपनी इच्छाओं का, इन्द्रियों का दास है।

बडी बहू--तो तुम इतने रुपयो का प्रबन्ध करोगे ?

प्रभाशकर--क्या कहूँ, किसी से ऋण लेना पड़ेगा।

बडी बहू--ऐसा जान पड़ता है कि थोडा सा हिस्सा जो बचा हुआ है उसे भी अपने सामने ही ठिकाने लगा दोगे । यह तो कभी नहीं देखा कि जो रुपये एक बार , लिये गये वह फिर दिये गये हो। बस, जमीन के ही माथे जाती हैं।

प्रभाशंकर--जमीन मेरी गुलाम हैं, मैं जमीन का गुलाम नही हूँ।

बडी बहू--मैं कर्ज न लेने दूँगी । जाने कैसी पडे, कैसा न पड़े । अन्त में सब बोझ तो हमारे ही सिर पड़ेगा । लडको को कही बैठने का ठाँव भी न रहेगा।

प्रभाशकर ने पत्नी की ओर कठोर दृष्टि से देख कर कहा, मैं तुमसे सलाह नही लेता हूँ और न तुमको इसका अधिकारी समझता हूँ। तुम उपकार को भूल जाओ, मैं नही भूल सकता । मेरा खून सफेद नहीं है। लडको की तकदीर में आराम लिखा होगा आराम करेंगे, तकलीफ लिखी होगी तकलीफ भोगेंगे। मैं उनकी तकदीर नही हूँ । आज दयाशकर पर कोई बात आ पड़े तो गहने बेच डालने में भी किसी को इनकार न होगा। मैं प्रेमू को दयाशकर से जी भर भी कम नहीं समझता।

बडी बहू ने फिर भोजन करने के लिए अनुरोध किया और प्रभाशकर फिर नहीं-नहीं करने लगे । अन्त में उसने कहा, आज कद्दू के कबाव बने हैं। मैं जानती कि तुम न खाओगे तो क्यो बनवाती ?

प्रभाशकर की उदासीनता लुप्त हो गयी । उत्सुक हो कर बोले, किसने बनाये हैं।

बड़ी बहू--बहू ने ।

प्रभा--अच्छा तो थाली परसाओ । भूख तो नही है, पर दो-चार कौर खा ही लूँगा।

भोजन के पश्चात् प्रभाशकर फिर उसी चिन्ता में मग्न हुए । रुपये कहाँ से आये ? बेचारे प्रेमशकर को आज फिर हिरामत में रात काटनी पड़ी। बडी बहू ने स्पष्ट शब्दो में कह दिया था कि मैं कर्ज न लेने दूँगी और यहाँ कर्ज के सिवा ओर कोई तदबीर ही न थी । आज लाला जी फिर सारी रात जागते रहे। उन्होंने निश्चय कर लिया कि [ २११ ]घरवाले चाहे जितना विरोध करें, पर मैं अपना कर्तव्य अवश्य पूरा करूँगा । भोर होते ही वह सेठ दीनानाय के पास जा पहुँचे और अपनी विपत्ति-कया कह सुनायी । सेठ जी से उनका पुराना व्यवहार था । उन्ही की बदौलत सेठ जी जमीदार हो गये थे । मामला करने पर राजी हो गये । लिखा-पढ़ी हुई और दस बजते-बजते प्रभाशकर के हाथों में दस हजार की थैली आ गयी । वह ऐसे प्रसन्न थे मानो कहीं पडा हुआ धन मिल गया हो । गद्गद् हो कर बोले, सेठ जी, किन शब्दों में आपको धन्यवाद दूँ, आपने मेरे कुल की मर्यादा रख ली । भैया की आत्मा स्वर्ग में आपका यश गायेगी ।

यहाँ से वह सीधे कचहरी गये और जमानत के रुपये दाखिल कर दिये । इस समय उनका हृदय ऐसा प्रफुल्लित था जैसे कोई बालक मेला देखने जा रहा हो। इस कल्पना से उनका कलेजा उछल पड़ता था कि भैया मेरी भक्ति पर कितने मुग्ध हो रहे होगे !

११ बजे का समय था । मैजिस्ट्रेट के इजलास पर लखनपुर के अभियुक्त हाथों में हथकड़ियाँ पहने लड़े थे । शहर के सहबो मनुष्य इन विचित्र जीवधारियों को देखने के लिए एकत्र हो गये थे । सभी मनोहर को एक निगाह देखने के लिए उत्सुक हो रहे थे। कोई उसे धिक्कारता था, कोई कहता था अच्छा किया । अत्याचारियों के साथ ऐसा ही करना चाहिए । सामने एक वृक्ष के नीचे विलासी मन मारे बैठी हुई थी। वलराज के चेहरे पर निर्भयता झलक रही थीं। डपटसिंह और दुखरन भगत चिन्तित दीख पडते थे । कादिर खाँ वैर्य की मूर्ति बने हुए थे। लेकिन मनोहर लज्जा और पश्चासाप से उद्विग्न हो रहा था । वह अपने साथियों से आँख न मिला सक्ता था। मेरी ही बदौलत गाँव पर यह आफत आयी है, यह खयाल उसके चित्त से एक क्षण के लिए भी न उतरता था। अभियुक्तो से जरा हट कर विसेसर साह खड़े थे--ग्लानि की नजीब मूर्ति बने। पुलिस के कर्मचारी उन्हें इस प्रकार घेरे थे, जैसे किसी मदारी को बालक-बृन्द घेरे रहते हैं। सबसे पीछे प्रेमशकर थे, गम्भीर और आदम्य । मैजिस्ट्रेट ने सूचना दी--प्रेमशकर जमानत पर रिहा किये गये ।

प्रेमशकर ने सामने आ कर कहा, मैं इस दया-दृष्टि के लिए आपका अनुगृहीत हूँ, लेकिन जब मेरे ये निरपराव भाई वेडियाँ पहने खडे है तो मैं उनका साथ छोड़ना उचित नहीं समझता ।

अदालत में हजारों ही आदमी खड़े थे। सब लोग प्रेमशकर को विस्मित हो कर देखने लगे । प्रभाकर करुणा से गद्गद् हो कर बोले, बेटा मुझपर दया करो। कुछ मेरो दौड़-धूप, कुछ अपनी कुल-मर्यादा और कुछ अपने सम्बन्धियों के शोक-विलाप का ध्यान करो। तुम्हारे इस निश्चय से मेरा हृदय फ्टा जाता है।

प्रेमाशकर ने आँखो में आँसू भरे हुए कहा, चाचा जी, मै आपके पितृवत् प्रेम और मदिच्छा का हृदय से अनुगृहीत हूँ। मुझे आज ज्ञात हुआ कि मानव-हृदय कितना पवित्र, कितना उदार, कितना वात्सल्यमय हो सकता है। पर मेरा साथ छूटने से इन वेचारों की हिम्मत टूट जायगी, ये सब हताश हो जायँगे । इसलिए मेरा इनके साथ [ २१२ ]रहना परमावश्यक हैं। मुझे यहाँ कोई कष्ट नहीं है। मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे इन दीनों को तसफीन और तसल्ली देने का अवसर प्रदान किया । मेरी आपसे एक और विनती है। मेरे लिए वकील की जरूरत नहीं है। मैं अपनी निर्दोषता स्वयं सिद्ध कर सकता हूँ । हाँ, यदि हो सके तो आप इन बेजबानो के लिए कोई वकील ठीक कर लीजिएगा, नही तो संभव है कि इनके ऊपर अन्याय हो जाये ।

लाला प्रभाकर हतोत्साह हो कर इजलास के कमरे से बाहर निकल आये ।