प्रेमाश्रम/२३
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ज्ञानशकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानो मे धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जो उन्होंने
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गौस खाँ ने भी गर्म हो कर कहा, मैंने हजूर से बिलकुल सही अर्ज किया था, लेकिन मैं क्या जानता था कि मालिकों में ही इतनी निफाक है। मुझे पता लगता है कि हुजूर के बड़े भाई साहब ने एक हफ्ता हुआ कादिर को अपील की पैरवी के लिए एक हजार रुपये दिये है।
ज्ञानशंकर स्तम्भित हो गये। एक क्षण के बाद बोले, बिलकुल झूठ है।
गौस खाँ-हरगिज नहीं। मेरे चपरासियों ने कादिर खाँ को अपनी जवान से यह कहते सुना है। उससे पूछा जाय तो वह आपसे भी साफ-साफ कह देगा, या आप अपने भाई साहब से खुद पूछ सकते हाँ।
ज्ञानशंकर निरुत्तर हो गये। उस समय पैरगाड़ी सँभाली, झल्लाये हुए घर आये और श्रद्धा से तीव्र स्वर में बोले, भाभी, तुमने देखी भैया की करामात। आज पता चला कि आपने लखनपुरवालों को अपील की पैरवी करने के लिए एक हजार दिये हैं। इसका फल यह हुआ कि मेरी अपील खारिज हो गयी, महीनों की दौड़-धूप और हजारों रुपयों पर पानी फिर गया। एक हजार सालाना का नुकसान हुआ और रोबदाब बिल्कुल मिट्टी में मिल गया। मुझे उनसे ऐसी कूटनीति की आशंका न थी। अब तुम्हीं बताओं उन्हें दोस्त समझूँ या दुश्मन?
श्रद्धा ने संशयात्मक भाव से कहा, तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। भला उनके पास इतने रुपये कहाँ होंगे?
ज्ञान---नहीं, मुझे पक्की खबर मिली है। जिन लोगों ने रुपये पाये है है खुद अपनी जवान से कहते हैं।
श्रद्धा-तुमसे तो उन्होंने वादा किया था कि लखनपुर से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं वहाँ कभी न जाऊँगा।
ज्ञान–हाँ, कहा तो था और मैंने उन पर विश्वास कर लिया था, लेकिन आज विदित हुआ कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सारे संसार के मित्र होते है, पर अपने घर के शत्रु। जरूर इसमें चचा साहब का भी हाथ है।
श्रद्धा-पहले उनसे पूछ तो लो। मुझे विश्वास नहीं आता कि उनके पास इतने रुपये होगे।
ज्ञान-उनकी कपट नीति ने मेरे सारे मनसुबों को मिट्टी में मिला दिया। जब उनको मुझसे इतना वैमनस्य है तो मैं नहीं समझता कि मैं उन्हें अपना भाई कैसे समझूँ। बिरादरीवालों ने उनका जो तिरस्कार किया वह असंगत नहीं था। विदेश-निवास आत्मीयता का नाश कर देता है।
श्रद्धा- तुम्हें भ्रम हुआ है।
ज्ञान--फिर वही बच्चों की-सी बातें करती हो। तुम क्या जानती हो कि उनके पास रुपये थे या नहीं?
श्रद्धा--तो जरा वहाँ तक चले ही क्यों नहीं जाते?
ज्ञान–अब नहीं जा सकता। मुझे उनकी सूरत से घृणा हो गयी। उन्होंने असामियों का पक्ष लिया है तो मैं भी दिखा दूंगा कि मैं क्या कर सकती हैं। जमींदार के बावन हाथ होते है। लखनपुर वालों को ऐसा कुचलूंगा कि उनकी हड्डियों का पता न लगेगा। भैया के मन की बात मैं जानता हूँ। तुम सरल स्वभाव हो, उनकी तह तक नहीं पहुँच सकती। उनका उद्देश्य इसके सिवा और कुछ नहीं है कि मुझे तंग करें, असामियों को उभारकर मुसल्लम गाँव हथिया लें और हम-तुम कहीं के न रहे। अब उन्हें खुब पहचान गया। रंगे हुए सियार हैं—मन में और मुंह में और। और फिर जिसने अपना धर्म खो दिया वह जो कुछ न करे वह थोड़ा है। इनसे तो बेचारा ज्वालासिंह फिर भी अच्छा है। उसने जो कुछ किया न्याय समझ कर किया, मेरा अहित न करना चाहता था। एक प्रकार से मैंने उसके साथ बड़ा अन्याय किया, उसे देश भर में बदनाम कर दिया। उन बातों को याद करने से ही दुख होता है।
श्रद्धा--उनकी तो यहाँ से बदली हो गयी। शीलमणि की महुरी आज आयी थी। कहती थी, तीन-चार दिन में चले जायेंगे। दर्जा भी घटा दिया गया है।
ज्ञानशंकर ने चौक कर कहा- सच।
श्रद्धा-शीलमणि कल आनेवाली हैं। विद्या बड़े संकोच में पड़ी हुई है।
ज्ञान----मुझसे बड़ी भूल हुई। इसका शोक जीवन-पर्यन्त रहेगा। मुझे तो अब इसका विश्वास हो जाता है कि भैया ने उनके कान भी भर दिये थे। जिस दिन बहू मौका देखने गये थे उसी दिन भैया भी लखनपुर पहुँचे। बस, इधर तो ज्वालासिंह को पट्टी पढ़ायी, उधर गांववालो को पक्का-पोढ़ा कर दिया। मैं कभी कल्पना भी न कर सकता था कि वह इतनी दूर की कौड़ी लायेंगे, नहीं तो मैं पहले से ही चौकशा रहता।
श्रद्धा ने ज्ञानशंकर को अनादर की दृष्टि से देखा और वहाँ से उठ कर चली गयीं।
दूसरे दिन शीलमणि आयी और दिन भर वहाँ रही। चलते समय विद्या और श्रद्धा से गले मिल कर खूब रोयी।
ज्वालासिंह पाँच दिन और रहें। ज्ञानशंकर रोज उनसे मिलने का विचार करते, लेकिन समय आने पर कातर हो जाते थे। भय होता, कहीं उन्होंने उन आक्षेपपूर्ण लेखों की चर्चा छेड़ दी तो क्या जवाब दूंगा? धँधली तो कर सकता हूँ, साफ मुकर जाऊँ कि मैने कोई लेख नहीं लिखा, मेरे नाम से तो कोई लेख छपा नही किन्तु शका होती थी कि कही इस प्रपच से ज्वालासिंह की आँखों मे और न गिर जाऊँ।
पाँचवें दिन ज्वालासिह यहाँ से चले। स्टेशन पर मित्र-जनो की अच्छी सख्या थी। प्रेमशकर भी मौजूद थे। ज्वालासिंह मित्र के साथ मिल-मिल कर बिदा होते थे। गाडी के छूटने में एक-दो मिनट ही बाकी थे कि इतने में ज्ञानशकर लपके हुए प्लेटफार्म पर आये और पीछे की श्रेणी में खड़े हो गये। आगे बढ़ कर मिलने की हिम्मत न पडी। ज्वालासिंह ने उन्हें देखा और गाड़ी से उतर कर उनके पास आये और गले से लिपट गये। ज्ञानशकर की आँखो से आँसू बहने लगे। ज्वालसिंह रोते थे कि चिरकाल की मैत्री का ऐसा शौकमय अन्त हुआ, ज्ञानशकर रोते थे कि हाय ! मेरे हाथो ऐसे सच्चे, निश्छल, नि स्पृह मित्र को अमगल हुआ।
गार्ड ने झंडी दिखायी तो ज्ञानशकर ने कम्पित स्वर में कहा, भाई जान, मैं अत्यन्त लज्जित हूँ।
ज्वालासिंह बोले, उन बातो को भूल जाइए।
ज्ञान--ईश्वर ने चाहा तो इसका प्रतिकार कर दूंँगा।
ज्वाला--कभी-कभी पत्र लिखते रहिएगा, भूल न जाइएगा।
लोगो को दोनो मित्रो के इस सद्व्यवहार पर कुतूहल हुआ। उनके विचार मै उस घाव का भरना दुस्तर था। सबसे ज्यादा आश्चर्य प्रेमशकर को हुआ, जो ज्ञानशकर को उससे कही असज्जन समझते थे, जितने वह वास्तव में थे।