प्रेमाश्रम/२१
२१
प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था। किन्तु इस मार्ग में एक बड़ी बाधा खड़ी हो गयी थी। कल सन्ध्या समय शीलमणि ने उनसे ज्ञानशंकर के मुकदमे की बात कहीं थी और तभी से वह बड़े असमंजस में पड़े हुए थे। सामने एक जटिल समस्या थी न्याय या प्रणय, कर्तव्य या स्त्री की मान रक्षा। वह सोचते थे, मुझसे बड़ी भूल हुई कि इस मुकदमे को अपने इजलास में रखा। लेकिन मैं यह क्या जानता था कि ज्ञानशंकर यह कूटनीति ग्रहण करेंगे। बड़ा स्वार्थी मनुष्य है। इंसी अभिप्राय से उसने स्त्रियों से मेल-जोल बढाया।.
शीलमणि वह चाले क्या जाने शील में पड़ कर वचन दे आयी। वह यदि उनकी बात नहीं रखता तो वह रो-रो कर जान हीं दे देगी। उसे क्या मालूम कि इस अन्याय से मेरी आत्मा को कितना दुख होगा। अभी तक जितनी गवाहियाँ सामने आयी हैं। उनसे तो यही सिद्ध होता हैं कि ज्ञानशंकर ने आसामियों को दबाने के लिए यह मुकदमा दायर किया है और कदाचित् बात भी यही है। बड़ा ही बना हुआ आदमी है। लेख तो ऐसा लिखता हैं कि मानो दीन-रक्षा के भाव में पड़ा हुआ है किन्तु पक्का मतलबी है। गायत्री की रियायत का मैनेजर हो जायगा तो अन्धेर मचा देगा। नहीं, मुझसे यह अन्याय न हो सकेगा, देख कर मक्खी न निगली जायगी। शीलमणि रूठेगी तो रूठे। उसे स्वयं समझना चाहिए था कि मुझे ऐसा वचन देने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि वह कैवल रो कर ही मेरा पिंड न छोड़ेगी। बात-बात पर ताने देगी। कदाचित मौके की तैयारी भी करने लगे। यही उसकी बुरी आदत है कि या तो प्रेम और मृदुलता की देवी बन जायगी या बिगड़ेगी तो भालों से छेदने लगेगी। ज्ञानशंकर ने मुझे ऐसे संकट में डाल रखा है कि उससे निकलने का कोई मार्ग ही नही दिखता।
ज्वालासिंह इसी हैस-वैस में पड़े हुए थे कि अचानक ज्ञानशंकर सामने पैरगाड़ी पर आते दिखायी दिए। ज्वालासिंह तुरन्त कुर्सी से उठ खड़े हुए और साईंस को जोर से पुकारा कि घोड़ा ला। साईंस घोड़े को कसे हुए तैयार खडा था। यह हुक्म पाते ही घोडा सामने ला कर खड़ा कर दिया। ज्वालासिंह उस पर कूद कर सवार हो गये। ज्ञानशंकर ने समीप आ कर कहा, कहिए भाई साहब, आज सवेरे-सवेरै कहाँ चले?
ज्वाला—जरा लखनपुर जा रहा हूँ। मौका देखना है?
ज्ञान—धूप हो जायेगी।
ज्वाला—कोई परवाह नहीं।
ज्ञान—मैं भी साथ चलू?
ज्वाला—मुझे रास्ता मालूम है।
यह कहते हुए उन्होंने घोडे को एड लगायी और हवा हो गये। ज्ञानशंकर समझ गये कि मेरा मंत्र अपना काम कर रहा है। यह अकृपा इसी का लक्षण हैं। ऐसा न होता तो आज भी वही मीठी-मीठी बातें होती। चलू, जरा शीलमणि को और पक्का कर आऊँ। यह इरादा करके वह ज्वालासिंह के कमरे में जा बैठे। अरदली ने कहा, सरकार बाहर गये है।
ज्ञान—मैं जानता हूँ। मुझसे मुलाकात हो गयी। जरा घर में मेरी इत्तला कर दो।
अरदली—सरकार का हुक्म नहीं है।
ज्ञान—मुझे पहचानते हो या नहीं?
अरदली—पहचानता क्यों नहीं हूँ।
ज्ञान—तो चौखट पर जा कर कहते क्यो नही?
अरदली—सरकार ने मना कर दिया है।
ज्ञानशंकर को अब विश्वास हो गया कि मेरी चाल ठीक पड़ी, ज्वालासिंह ने अपने को पक्षपात-रहित सिद्ध करने के लिए ही यह षड्यन्त्र रचा है। वह सोच ही रहे थे कि शीलमणि से क्योंकर मिलूँ कि इतने में महरी किसी काम से बाहर आयी और ज्ञानशंकर को देखते ही जा कर शीलमणि से कहा। शीलमणि ने तुरन्त उनके लिए पान भेजा और उन्हें दीवानखाने में बैठाया। एक क्षण के बाद वह खुद आ कर पर्दे की आड़ में खड़ी हो गयी और महरी से कहलाया, मैंने बाबू जी से आपकी सिफारिश कर दी है।
ज्ञानशंकर ने धन्यवाद देते हुए कहा, मुझे अब आप ही का भरोसा है।
शीलमणि बोली, आप घबराये नही मैं उन्हे एकदम चैन न लेने दूंगी। ज्ञानशंकर ने ज्यादा ठहरना उचित न समझा। खुशी-खुशी विदा हुए।
उधर बाबू ज्वालासिंह ने घोडा दौडाया तो चार मील पर रुके। उन्हें एक सिगार पीने की इच्छा हुई। जेब से सिगार-केस निकाला, लेकिन देखा तो दियासलाई न थी। उन्हें सिगार से बड़ा प्रेम था। अब क्या हो? इधर-उधर निगाह दौड़ायी तो सामने कुछ दूरी पर एक बहली जाती हुई दिखाई दी। घोड़े को बढ़ा कर बहली के पास आ पहुँचे। देखा तो उस पर प्रेमशंकर बैठे हुए थे। ज्वालासिंह का उनसे परिचय था। कई बार उनकी कृषिशाला की सैर करने गये थे और उनके सरल, सन्तोषमय जीवन का आदर करते थे। पूछा, कहिए महाशय, आज इधर कहाँ चले?
प्रेम—जरा लखनपुर जा रहा है, और आप?
ज्वाला—मैं भी वहीं चलता हूँ।
प्रेम—अच्छा साथ हुआ। क्या कोई मुकदमा है?
ज्वालासिंह ने सिगार जला कर मुकदमे का वृत्तान्त कह सुनाया। प्रेमशंकर गौर में सुनते रहे, फिर बोले, आपने उन्हें समझाया नहीं कि गरीबों को क्यों तंग करते हो?
ज्वाला—मैं इस विषय में उनसे क्योकर कुछ कहता? हाँ, स्त्रियों में जो बातें हुई उनमें मालूम होता है कि वह अपनी जरूरतों से मजबूर है, उनका खर्च नहीं चलता।
प्रेम—दो हजार साल की आमदनी तीन-चार प्राणियों के लिए तो कम नहीं होती।
ज्वाला—लेकिन इसमें आधा तो आपका है।
प्रेम—जी नहीं, मैरा कुछ नहीं है। मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया है कि मैं इस जायदाद में हिस्सा नहीं लेना चाहता।
ज्वालासिंह—(आश्चर्य से) क्या आपने उनके नाम हिस्सा कर दिया?
प्रेम—जी नहीं, लेकिन हिस्सा ही समझिए। मेरा सिद्धांत है कि मनुष्य को अपनी मेहनत की कमाई खानी चाहिए। यही प्राकृतिक नियम है। किसी को यह अधिकार नहीं हैं कि वह दूसरों की कमाई को अपनी जीवन-वृत्ति का आधार बनाये।
ज्वाला—तो यह कहिए कि आप जमींदारी के पैसों को ही बुरा समझते हैं।
प्रेम—हाँ, मैं इसका भक्त नहीं हूँ। भूमि उसकी है जो उसको जोते। शामक को उसकी उपज में भाग लेने का अधिकार इसलिए है कि वह देश मे शान्ति और रक्षा की व्यवस्था करता है, जिसके बिना खेती हो ही नहीं सकती। किसी तीसरे वर्ग का समाज में कोई स्थान नहीं है।
ज्वाला—महाशय, इन विचारो से तो आप देश में क्रान्ति मचा देगे। आपके सिद्धान्त के अनुसार हमारे बड़े-बड़े जमींदारों, ताल्लुकेदारो और रईसौ का समाज में कोई स्थान ही नहीं है। सब के सब डाकू है।
प्रेम—इसमे इनका कोई दोष नहीं, प्रथा का दोष है। इस प्रथा के कारण देश की कितनी आत्मिक और नैतिक अवनति हो रही हैं, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। हमारे समाज का वह भाग जो बल, बुद्धि, विद्या में सर्वोपरि है, जो हृदय और परिपक के गुणों से अलंकृत हैं, केवल इसी प्रथा के वन आलस्य, विलास और अविचार के बन्धनों में जकड़ा हुआ है।
ज्वालासिंह— कहीं आप इन्हीं बातों का प्रचार करने तो लखनपुर नहीं जा रहे हैं कि मुझे पुलिस की सहायता न माँगनी पड़े।
प्रेम—हाँ, शांति भंग कराने का अपराध मुझ पर हो तो जरुर पुलिस की सहायता लीजिए।
ज्वालासिंह—मुझे अब आप पर कड़ी निगाह रखनी पड़ेगी। मैं भी छोटा-मोटा जमींदार हूँ। आपसे डरना चाहिए। इस समय लखनपुर ही जाइएगा या आगे जाने का इरादा है।
प्रेम---इरादा दो यही से लौट आने का है, आगे जैसी जरूरत हो। इधर आस-पास के देहातो में एक महीने में प्लेग का प्रकोप हो रहा है। कुछ दवाएँ साथ लेता आया हूँ। जरूरत होगी तो उसे बाँट दूंगा, कौन जाने मेरे ही हाथों दो-चार जाने बच जायें।
इसी प्रकार बातें करते हुए दोनो आदमी लखनपुर पहुँचे। गाँव खाली पड़ा था। लोग बागों में झोपडियां डाले पड़े हुए थे। इस छोटी-सी बस्ती में खूब चहल-पहल। उन दारुण दृश्यों का चिह्न कही न दिखायी देता था, जिनसे लोगों के हृदय विदीर्ण हो गये थे। छप्यरों के सामने महुए मुखाए जा रहे थे। चक्कियों की गरज, छाछ की तइप, ओखली और मूसल की धमक दम जीवन-मग्राम की सूचना दे रही थी जो प्लेग के भीषण हत्याकांड की भी परवाह न करता था। लड़के आमों पर ढेले चला रहे थे। कोई स्त्री बरतन मांजती थी, कोई पड़ोसी के घर से आग लिए आती थी। कोई आदमी निठल्ला बैठा नजर न आता था।
प्रेमशंकर तो बस्ती में आते ही बहली से उतर पड़े और एक झोपड़े के सान्ने खाट पर बैठ गये। ज्वालासिंह घोड़े में न उतरे। खाट पर बैठना अपमान की बात थी। जोर से बोले, कहाँ है मुखिया जा कर पटवारी को बुला लाये; हम मौका देखना चाहते है।
यह हुक्म सुनते ही कई आदमी झोपड़ो में मरीजों को छोड़-छोड़ कर निकल आये। चारों ओर भगदड़-भी पड़ गयी। दो-तीन आदमी चौपाल की तरफ कुर्सी लेने दौड़े, दो-तीन आदमी पटवारी की तलाश में भागे और गाँव के मान्य गण ज्वालासिंह को घेर कर खड़े हो गये। प्रेमशंकर की और किसी ने ध्यान भी न दिया। इतने में कादिर खाँ अपनी झोपड़ी से निकले और सुक्खू के कान में कुछ कहा। सुक्खू ने दुखरन भगत से कानाफूसी की, तब बिसेसर साह से सायें-सायें बातें हुईं, मानो लोग किसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार कर रहे हो। दस मिनट के बाद सुक्खू चौधरी एक थाल लिए हुए आये। उसमे अक्षत, दही और कुछ रुपये रखे हुए थे। गाँव के पुरोहित जी ने प्रेमशंकर के माथे पर दही-चावल का टीका लगाया और थाल उनके सामने रख दिया।
ज्वालासिंह कुर्सी पर बैठते हुए बोले, लीजिए, आपकी तो बोहनी हो गयी, घाटे में हम ही रहे। उस पर भी आप जमींदारी के पेशे की निन्दा करते हैं।
प्रेमशंकर ने कहा, देवी के नाम से ईंट-पत्थर भी तो पूजे जाते हैं।
कादिर खाँ-हम लोगों के धनभाग थे कि दोनों मालिकों के एक साथ दर्शन हो गये।
प्रेम-—यहाँ बीमारी कुछ कम हुई या अभी वही हाल है?
कादिर–सरकार, कुछ न पूछिए, कम तो न हुई और बढ़ती जाती है। कोई दिन नागा नहीं जाता कि एक न एक घर पर बिजली न गिरती हो। नदी यहाँ से छह कोस है। कभी-कभी तो दिन में दो-दो तीन-तीन बेर जाना पड़ता है। उस पर कभी आंधी, कभी पानी, कभी आग। खेतों में अनाज सड़ा जाता हैं। कैसे काटे, कहाँ रखें? बस, भोर को घरों में एक बेर चूल्हा जलता है। फिर दिन भर कही आग नहीं जलती। चिलम को तरस कर रह जाते है। हजूर, रोते नहीं बनता, दुर्दशा हो ही है। उस पर मालिकों की निगाह भी टेढ़ी हो गयी है। सौ काम छोड़ कर कचहरी दौड़ना पड़ता है। कभी-कभी तो घर में लाश छोड़ कर जाना पड़ता है। क्या करे, जो सिर पर पड़ी है उसे झेलते है। हजुर को एक गुलाम था। अच्छा पड़ा था। सारी गृहस्थी सँभाले हुए था। तीन घड़ी में चल बसा। मुँह में बोल तक न निकली। मुक्खू चौधरी का तो घर ही सत्यानाश हो गया। बस, अब अकेले इन्हीं का दम रह गया है। बेचारे डपटसिंह का छोटा लड़का कल मरा है, आज बड़ा लड़का बिमार है। अल्ला ही बचाये तो बचे। जुबान बन्द हो गयी है। लाल-लाल आँखे निकाले खाट पर पड़ा हाथ-पैर पटक रहा है। कहाँ तक गिनाये, खुदा-रसूल, देवी-देवता सभी की मन्नने मानते हैं पर कोई नहीं सुनता। अब तक तो जैसे बन पड़ा मुकदमे की उजरदारी की। अब वह हिम्मत भी नहीं रही। किसके लिए यह सब करे? इतने पर भी मालिकों को दया नहीं आती।
प्रेमशंकर-जरा मैं डपटसिंह के लड़के को देखना चाहता हूँ।
कादिर- हाँ हजूर, चलिए मैं चलता हूँ।
ज्वालासिंह-जरा सावधान रहिएगा, यह रोग संक्रामक होता है।
प्रेमशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया। औषधियों का बैग उठाया और कादिर खाँ के पीछे-पीछे चले। डपटसिंह के झोपड़े पर पहुँचे तो आदमियों की बड़ी भीड़ लगी हुई थी। एक आम के पेड़ के नीचे रोगी की खाट पड़ी हुई थी। डपटसिंह और उनके छोटे भाई डपदसिंह सिरहाने खड़े पखें झल रहे थे। दो स्त्रियाँ पाँयते की ओर खड़ी रो रही थी प्रेमशंकर को देखते ही दोनों अन्दर चली गयी। दोनों भाइयों ने उनकी ओर दीन भाव से देखा और अलग हट गये। उन्होंने उष्णता-मापक यंत्र से देखा तो रोगी को ज्वर १०७ दरजे पर था। त्रिदोष के लक्षण प्रकट थे। समझ गयें कि यह अब दम भर का और मेहमान है। अभी वह बैग से औषधि निकाल ही रहे। थे कि मरीज एक बार जोर से चीख मार कर उठा और फिर खाट पर गिर पड़ा। आँखे पथरा गयी। स्त्रियों मे पिट्टस पड़ गयी। डपदसिंह शोकातुर हो कर मृत शरीर से लिपट गया और रो कर बोला, बेटा! हाय बेटा!
यह कहते-कहते उसकी आँखे रक्त वर्ण हो गयी। उन्माद-सा छा गया, गीली लकड़ी पहली आँच में रसती है, दूसरी आँच में जल कर भस्म हो जाती है। डपटसिंह शौक-संताप से विह्वल हो गया। खड़ा हो कर बोला, कोई इस घर में आग क्यों नहीं लगा देता? अब इसमें क्या रखा है? कैसी दिल्लगी है! बाप बैठा रहे और बेटा चल दे! इन्हीं हाथों से मैंने इसे गोद में खिलाया था। इन्हीं हाथों से चिंता की गोद में कैसे बिठा दूँ। कैसा रुला कर चल दिया मानों हमसे कोई नाता ही नहीं है। कहता था, दादा तुम बूढ़े हुए, अब बैठे-बैठे राम-राम-करो, हम तुम्हारी परवस्ती करेंगे। मगर दोनो के दोनो चल दिये। किसी को मुझ पर दया न आयी । लो राम-राम करती हूँ। अब परक्स्ती करो कि बातो के ही धनी थे।
यह कहते-कहते वह शव के पास से हट कर दूसरे पेड़ के नीचे जा बैठे। एक क्षण के बाद फिर बोले, अब इस माया-जाल को तोड़ दूँगा। बहुत दिन इसने मुझे उँगलियो पर नचाया, अब मैं इसे नचाऊँगा। तुम दोनो चल दिये, बहुत अच्छा हुआ। मुझे माया-जाल से छुड़ा दिया। इस माया के कारण कितने पाप किये, कितने झूठ बोले, कितनो का गला दवाया, कितनो के खेत काटे। अब सब पाप-दोष का कारण मिट गया। यह मरी हुई माया सामने पडी है। कौन कहता है मेरा बेटा था ? नही, मेरा दुश्मन था, मेरे गले का फन्दा था, मेरे पैरों की बेडी था। फन्दा छूट गया, बेडी कट गयी। लाओ, इस घर में आग लगा दो, सब कुछ भस्म कर दो। बलराज, खडा आँसू क्या बहाता है ? कहीं आग नहीं है? लाके लगा दे।
सब लोग खड़े रो रहे थे। प्रेमशकर भी करुणातुर हो गये। डपटसिंह के पास जा कर बोले, ठाकुर धीरज धरो। संसार का यही दस्तूर है। तुम्हारी यह दशा देख कर बेचारी स्त्रियाँ और भाई रो रहे है। उन्हें समझाओ।
डपटसिह ने प्रेमशकर को उन्मत्त नेत्रो से देखा और व्यग भाव से बोले, ओहो आप तो हमारे मालिक है। क्या जाफा वसूल करने आये हैं? उसी से लीजिए जो वहीं धरती पर पड़ा हुआ है, वह आपकी कौडी-कौडी चुका देगा। गौस खाँ से कह दीजिए, उसे पकड़ ले जाये, बाँधे, मारे, मैं न बोलूँगा। मेरा खेती बारी से, घर-द्वार से इस्तीफा है।
कादिर खाँ ने कहा, भैया डपट, दिल मजबूत करो। देखते हो, घर-घर यही आग लगी हुई है। मेरे सिर भी तो वहीं विपत्ति पड़ी है। इस तरह दिल छोटा करने से काम न चलेगा, उठी। कुछ कफन-कपड़े की फिकिर करो, दोपहर हुआ जाता है।
डपटसिंह को होश आ गया। होश के साथ आँसू भी आये। रो कर बोले, दादा, तुम्हारा-सा कलेजा कहाँ से लाये ? किसी तरह धीरज नहीं होता। हाय ! दोनों के दोनो चल दिये, एक भी बुढापे का सहारा न रहा। सामने यह लाश देख कर ऐसा जी चाहता है, गले पर गडाॅसा मार लूँ। दादा, तुम जानते हो कि कितना सुशील लडका था। अभी उस दिन मुग्दर की जोड़ी के लिए हल कर रहा था। मैंने सैकडो गालियाँ दी, मरने उठा। बेचारे ने जवान तक न हिलायी। हाँ, खाने-पीने को तरसता रह गया। उसकी कोई मुराद पूरी न हुई। न भर पेट खा सका, न तन भर पहन सका। धिक्कार है मेरी जिन्दगानी पर अब यह घर नही देखा जाता । झपट, अपना घर-द्वार सँभालो, मेरे भाग्य में ठोकर खाना लिखा हुआ है। भाई लोगो । राम-राम, मालिक को राम-राम, सरकार को राम-रामअब यह अभागा देश से जाता है,कहीं-सुनी माफ करना ।
यह कह कर डपटसिंह उठ कर कदम बढ़ाते हुए एक तरफ चले। जब कई आदमियो ने उन्हें पकडना चाहा तो वह भागे। लोगों ने उनका पीछ किया, पर कोई उनकी गर्द को भी न पहुँचा। जान पड़ता था हवा में उड़े जाते हैं। लोगों के दम फूल गये, कोई यह रहा, कोई वहाँ गिरा। अकेले बलराज ने उनका पीछा न छोड़ा, यहाँ तक कि डपटसिंह बेदम हो कर जमीन पर गिर पड़े। बलराज दौड़कर उनकी छाती से लिपट गया और तब अपने अँगोछे से उन्हें हवा करने लगा। जब उन्हें होश आया तो हाथ पकड़े हुए घर लाया।
ज्वालासिंह की करुणा भी जाग्रत हो गयी। प्रेमशंकर से बोले बाबू साहब बड़ा शोकमय दृश्य है।
प्रेमशंकर--कुछ न पूछिए, कलेजा मुंह को आया जाता है।
कई आदमी बाँस काटने लगे, लेकिन तीसरे पहर तक लाश न उठी।
प्रेमशंकर ने कादिर ने पूछा-देर क्यों हो रही है।
कादिर-हुजूर, क्या कहे? घर में रुपयें नहीं है। बेचारा डपट रुपये के लिए इधर-उधर दौड़ रहा है, लेकिन कहीं नहीं मिलते। हमारी जो दशा है सरकार, हमीं जानने है। जाफा लगान के मुकदमे ने पहले ही हाँडी तावा गिरो रखवा दिया था। इस बीमारी ने रही-सही कसर भी पूरी कर दीं। अब किसी के घर में कुछ नहीं रहा। प्रेमशंकर ने ठंडी साँस लेकर ज्वालासिंह से कहा, देखी आपने इनकी हालत? घर में कौड़ी कफन को नहीं।
ज्वालासिंह--मुझे अफसोस आता है कि इनसे पिछले साल मुचलका क्यों लिया। मैं अब तक न जानता था कि इनकी दशा इतनी हीन है।
प्रेम---मुझे खेद है कि मकान से कुछ रुपये ले कर न चला।
ज्वाला-रुपये मेरे पास हैं, पर मुझे देते हुए संकोच होता है। शायद इन्हें बुरा लगे? आप ले कर दे दे, तो अच्छा हो।
प्रेमशंकर ने २० रु० का नोट ले लिया और कादिर खाँ को चुपके से दे दिया। एक आदमी तुरन्त कफन लेने को दौड़ा। लाश उठाने की तैयारी होने लगी। स्त्रियों में फिर कोहराम मचा। जब तक शव घर में रहता है, घरवालों को कदाचित् कुछ आशा लगी रहती है। उसको घर से उठना पार्थिव वियोग का अन्त है। वह आशा के अन्तिम सूत्र को तोड़ देता है।
तीसरे पहर लाश उठी। सारे गाँव के पुरुष साथ चले। पहले कादिर खाँ ने कंधा दिया।
ज्वालासिंह को सरकारी काम था, वह लौट पड़े। लेकिन प्रेमशंकर ने दो-चार दिन उहाँ रहने का निश्चय किया।