प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १२ से – १५ तक

 

लखनपुर के जमीदारो का मकान काशी मे औरगाबाद के निकट या। मकान के दो खड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनो बडो के बीच की जमीन वेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनो ओर ऊंँची दीवारे खीची हुई थी, लेकिन दोनो ही बड जगह-जगह टूट-फूट गये थे। कही कोई कडी टूट गयी थी और उसे थूनियो के सहारे रोका गया था, कही दीवार फट गयी थी और कही छन फँस पडी थी--एक वृद्ध रोगी की तरह जो लाठी के सहारे चलता हो। किसी समय यह परिवार नगर मे बहुत प्रतिष्ठित था, किन्तु ऐश्वर्य के अभिमान और कुल-मर्यादा-पालन ने उसे धीरे-धीरे इतना गिरा दिया कि अब मोहल्ले का वनिया पैसे-धेले की चीज भी उनके नाम पर उधार न देता था। लाला जटाशकर मरते-मरते मर गये, पर जब घर से निकले तो पालकी पर। लड़के-लडकियो के विवाह किये तो हौसले से। कोई उत्सव आता तो हृदय सरिता की भांँति उमड़ आता था, कोई मेहमान आ जाता तो उसे सर-आँखो पर बैठाते, साघु-सत्कार और अतिथि सेवा में उन्हे हार्दिक आनद होता था। इसी मर्यादा-रक्षा में जायदाद का बडा भाग बिक गया, कुछ रेहन हो गया और अब लखनपुर के सिवा चार और छोटे-छोटे गॉव रह गये थे जिनसे कोई चार हजार वार्षिक लाभ होता था।

लाला जटाशकर के एक छोटे भाई थे। उनका नाम प्रभाशकर था। यही सियाह और सफेद के मालिक थे। बडे लाला साव को अपनी भागवत और गीता से परमा-नुराग था। घर का प्रबध छोटे भाई के ही हाथो में था। दोनो भाइयो मे इतना प्रेम था कि उनके बीच मे कभी कटु वाक्यो की नौबत न भायी थी। स्त्रियो मे तू-तू, मैं-मै होती थी, किंतु भाइयो पर इसका असर न पड़ता था। प्रभाशकर स्वय कितना ही कष्ट उठाये अपने भाई से कभी भूल कर शिकायत न करते थे। जटाशकर भी उनके किसी काम मे हस्तक्षेप न करते थे।

लाला जटाशकर का एक साल पूर्व देहात हो गया था। उनकी स्त्री उनके पहले ही मर चुकी थी। उनके दो पुत्र थे, प्रेमशकर और ज्ञानशकर। दोनो के विवाह हो चुके थे। प्रेमशकर चार-पांँच वर्षों से लापता थे। उनकी पत्नी श्रद्धा घर में पड़ी उनके नाम को रोया करती थी। ज्ञानशकर ने गत वर्ष बी० ए० की उपाधि प्राप्त की थी और इस समय हारमोनियम बजाने मे मग्न रहते थे। उनके एक पुत्र था, मायाशकर। लाला प्रभाशकर की स्त्री जीवित थी। उनके तीन बेटे और दो बेटियौ । बड़े बेटे दयाशकर सब-इन्स्पेक्टर थे। विवाह हो चुका था। बाकी दोनो लडके अभी मदरसे में अँगरेजी पढ़ते थे। दोनो पुत्रियाँ भी कुंँवारी थी।

प्रेमशकर ने वी० ए० की डिग्री लेने के बाद अमेरिका जा कर आगे पढने की इच्छा की थी, पर जब अपने चाचा को इसका विरोध करते देखा तो एक दिन चुपके से भाग निकले। घरवालो से पत्र-व्यवहार करना भी बद कर दिया। उनके पीछे ज्ञानशकर ने बाप और चाचा से लडाई ठानी। उनकी फजूलम्बचियो की आलोचना किया करते। कहते, क्या आप लोग हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ जायेगे? क्या आपकी यही इच्छा है कि हम रोटियो को मोहताज हो जायें ? किन्तु इसका जवाब यही मिलता, भाई हम लोग तो जिस प्रकार अब तक निभाते आये है उसी प्रकार निभायेगे। यदि तुम इससे उत्तम प्रबध कर सकते हो तो करो, जरा हम भी देखे । ज्ञानशकर उस समय कालेज मे थे, यह चुनौती सुन कर चुप हो जाते थे। पर जब से वह डिग्री ले कर आये थे और इधर उनके पिता का देहात हो चुका था, उन्होने घर के प्रवध मे सशोधन करने का यत्न करना शुरू किया था, जिसका फल यह हुआ था कि उस मेल-मिलाप मे बहुत कुछ अतर पड चुका था, जो पिछले साठ वर्षों से चला आता था । न चाचा का प्रबध भतीजे को पसद था, न भतीजे का चाचा को। आये दिन शाब्दिक सग्राम होते रहते । ज्ञानशकर कहते, आपने सारी जायदाद चौपट कर दी, हम लोगो को कही का न रखा। सारा जीवन खाट पर पड़े-पडे पूर्वजो की कमाई खाने मे काट दिया । मर्यादा-रक्षा की तारीफ तो तब थी जब अपने बाहुबल से कुछ करने, या जायदाद को बचा कर करते। घर बैच कर तमाशा देखना कोन-सा मुश्किल काम हे ? लाला प्रभाशकर यह कटु वाक्य सुन कर अपने भाई को याद करते और उनका नाम ले कर रोने लगते । यह चोटे उनसे सही न जाती थी।

लाला जटाशंकर की बरसी के लिए प्रभाशंकर ने दो हजार का अनुमान किया था। एक हजार ब्राह्मणों का भोज होनेवाला था। नगर भर के समस्त प्रतिष्ठित पुरुषों को निमंत्रण देने का विचार था। इसके सिवा चाँदी के बर्तन, कालीन, पलंग, वस्त्र आदि महापात्र को देने के लिए बन रहे थे। ज्ञानशंकर इसे धन का अपव्यय समझते थे। उनकी राय थी कि इस कार्य में दो सौ रुपये से अधिक खर्च न किया जाय। जब घर की दशा एक है ऐसी चिंताजनक तो इतने रुपये खर्च करना सर्वथा अनुचित है; किंतु प्रभाशंकर कहते थे, जब मैं मर जाऊँ तब तुम चाहे अपने बाप को एक-एक बूंद पानी के लिए तरसाना; पर जब तक मेरे दम में दम है, मैं उनकी आत्मा को दुखी नहीं कर सकता। सारे नगर में उनकी उदारता की धूम थी, बड़े-बड़े उनके सामने सिर झुका लेते थे, ऐसे प्रतिभाशाली पुरुष की बरसी भी यथा योग्य होनी चाहिए—यही हमारी श्रद्धा और प्रेम का अंतिम प्रमाण है।

ज्ञानशंकर के हृदय में भावी उन्नति की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ थी। वह अपने परिवार को फिर समृद्ध और सम्मान के शिखर पर ले जाना चाहते थे। घोड़े और फिटन की उन्हें बड़ी-बड़ी आकांक्षा थी। वह शान से फिटने पर बैठ कर निकला चाहते थे कि हठात् लोगो की आँखें उनकी तरफ उठ जायें और लोग कहे कि लाला जटाशंकर के बेटे हैं। वह अपने दीवानखाने को नाना प्रकार की सामग्रियों से सजाना चाहते थे। मकान को भी आवश्यकतानुसार बढ़ाना चाहते थे। यह घंटो एकाग्र बैठे हुए इन्ही विचारों में मग्न रहते थे। चैन से जीवन व्यतीत हो, यही उनका ध्येय था। वर्तमान दशा में मितव्ययिता के सिवा उन्हें इसका कोई दूसरा उपाय न सूक्षता था। कोई छोटी-मोटी नौकरी करने में वह अपमान समझते थे; वकालत से उन्हें अरुचि थी। और उच्चाधिकारी का द्वार उनके लिए बंद था। उनका घराना शहर में चाहे कितना ही सम्मानित हो, पर देश के विधाताओं की दृष्टि मे उसे वह गौरव प्राप्त न था जो सच्चाधिकार-सिद्धि का अनुष्ठान है। लाला जटाशंकर तो विरक्त ही थे और प्रभाशंकर केवल जिलाधीशों की कृपा-दृष्टि को अपने लिए काफी समझते थे। इसका फल जो कुछ हो सकता था वह उन्हें मिल चुका था। उनके बड़े बेटे दयाशंकर सब-इन्स्पेक्टर हो गये थे। ज्ञानशंकर कभी-कभी इस अकर्मण्यता के लिए भी अपने चाचा से उलझा करते थे—आपने अपना सारा जीवन नष्ट कर दिया। लाखों की जायदाद भोग—विलास में उड़ा दी। सदा अतिथ्य-सत्कार और मर्यादा-रक्षा पर जान देते रहे। अगर इस उत्साह का एक अंश भी अधिकारी वर्ग के सेवा-सत्कार में समर्पण करते तो आज मैं डिप्टी कलक्टर होता। खानेवाले खा-खाकर चल दिये। अब उन्हें याद भी नहीं रहा कि आपने उन्हें कभी खिलाया या नहीं। खस्ता कचौड़ियाँ और सोने के पत्र लगे हुए पान के बीड़े खिलाने से परिवार की उन्नति नही होती, इसके और ही रास्ते हैं। बेचारे प्रभाकर यह तिरस्कार सुन कर व्यथित होते और कहते, बेटा, ऐसी-ऐसी बातें करके हमे न जलाओ। तुम फिंटन और घोड़े, कुरसी और मेज, आइने और तस्वीरों पर जान देते हो। तुम चाहते हो कि हम अच्छे से अच्छा खायें, अच्छे से अच्छा पहनें, लेकिन खाने पहनने से दूसरों को क्या सुख होगा ? तुम्हारे घन और सम्पत्ति से दूसरे क्या लाभ उठायेंगे ? हमने भोग-विलास में जीवन नही बिताया। वह कुल-मर्यादा की रक्षा थी। विलासिता यह है, जिसके पीछे तुम उन्मत्त हो। हमने जो कुछ किया नाम के लिए किया। घर में उपवास हो गया है, लेकिन जब कोई मेहमान आ गया तो उसे सिर और आँखो पर लेते थे। तुमको बस अपना पेट भरने की, अपने शौक की, अपने विलास की धुन है। यह जायदाद बनाने के नहीं बिगाड़ने के लक्षण है। अंतर इतना ही है कि हमने दूसरों के लिए बिगाड़ा, तुम अपने लिए बिगाड़ोगे।

मुसीबत यह थी कि ज्ञानशंकर की स्त्री विद्यावती भी इन विचारो में अपने पति से सहमत न थी। उसके विचार बहुत-कुछ लाला प्रभाशंकर से मिलते थे। उसे परमार्थ पर स्वार्थ से अधिक श्रद्धा थी। उसे बाबू ज्ञानशकर को अपने चाचा से वाद-विवाद करते देख कर खेद होता था और अवसर मिलने पर वह उन्हें समझाने की चेष्टा करती थी। पर ज्ञानशकर उसे झिड़क दिया करते थे। वह इतने शिक्षित हो कर भी स्त्री का आदर उससे अधिक न करते थे, जितना अपने पैर के जूतों का। अतएव उनका दाम्पत्य जीवन भी, जो चित्त की शाति का एक प्रधान साधन है, सुखकर न था।