प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ११५ से – १२२ तक

 

१६

प्रेमशंकर यह दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छुटनेवाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आयात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा करते कि फिर अमेरिका चला जाऊँ और फिर जीवन पर्यन्त आने का नाम न लूँ। किन्तु यह आशा कि कदाचित देश और समाज की अवस्था का ज्ञान श्रद्धा में सदविचार उत्पन्न कर दे, उनका दामन पकड़ लेती थी। दिन के दिन दीवानखाने में पड़े रहते, न किसी से मिलना, ने जुलना, कृषि-सुधार के इरादे स्थगित हो गये। उस पर विपत्ति यह थी कि ज्ञानशंकर बिरादरीवालों के षडयन्त्रों के समाचार ला कर उन्हें और भी उद्विग्न करते रहते थे। एक दिन खबर लाये कि लोगों ने एक महती सभा करके आपको समाज-च्युत करने का प्रस्ताव पास कर दिया। दूसरे दिन ब्राह्मणों की एक सभा की खबर लाये, जिसमें उन्होंने निश्चय किया था कि कोई प्रेमशंकर के घर पूजा-पाठ करने न जाए। इसके एक दिन पीछे श्रद्धा के पुरोहित जी ने आना छोड़ दिया। ज्ञानशंकर बातों-बातों मे यह भी जना दिया करते थे कि आपके कारण मैं भी बदनाम हो रहा हूँ और शंका है कि लोग मुझे भी त्याग दे। भाई के साथ तो यह व्यवहार था, और बिरादरी के नेताओं के पास आ कर प्रेमशंकर के झूठे आक्षेप करते वह देवताओं को गालियाँ देते हैं, कहते हैं, माँस सब एक है, चाहे किसी का हो। खाना खा कर कभी हाथ-मुँह तक नहीं धोते। कहते हैं, चमार भी कर्मानुसार ब्राह्मण हो सकता है। यह बातें सुन-सुन कर बिरादरीवालों की द्वेषाग्नि और भी भड़कती थी, यहाँ तक कि कई मनचले नवयुवक तो इस पर उद्यत थे कि प्रेमशंकर को कहीं अकेले पा जायें तो उनकी अच्छी तरह खबर ले। 'तिलक' एक स्थानीय पत्र था। उसमें इस विषय पर खूब जहर उगला जाता था। ज्ञानशंकर नित्य वह पत्र ला कर अपने भाई को सुनाते और यह सब केवल इसलिए कि वह निराश और भयभीत हो कर यहाँ से भाग खड़े हो और मुझे जायदाद में हिस्सा न देना पड़े। प्रेमशंकर साहस और जीवट के आदमी थे, इन धमकियों की उन्हें परवाह न थी, लेकिन उन्हें मजूर न था कि मेरे कारण ज्ञानशंकर पर आँच आये। श्रद्धा की ओर से भी उनका चित्त फटता जाता था। इस चिन्तामय अवस्था का अन्त करने के लिए वह कहीं जा कर शान्ति के साथ रहना और अपने जीवनोद्देश्य को पूरा करना। चाहते थे। पर जायें कहाँ? ज्ञानशंकर से एक बार लखनऊ में रहने की इच्छा प्रकट की थी, पर उन्होंने इतनी आपत्तियां खड़ी की, कष्टों और असुविधाओं का ऐसा चित्र खीचा कि प्रेमशंकर उनकी नीयत को ताड़ गये। वह शहर के निकट ही थोड़ी सी ऐसी जमीन चाहते थे, जहाँ एक कृषिशाली खोल सकें। इसी धुन में नित्य इधर-उधर चक्कर लगाया करते थे। स्वभाव में संकोच इतना कि किसी से अपने इरादे जाहिर नहीं करते। हाँ, लाला प्रभाशंकर का पितृवत प्रेम और स्नेह उन्हें अपने मन को विचार प्रकट करने पर बाध्य कर देता था। लाला जी को जब अवकाश मिलता, वह प्रेमशंकर के पास आ बैठते और अमेरिका के वृत्तान्त बड़े शौक से सुनते। प्रेमशंकर दिनों-दिन उनकी सज्जनता पर मुग्ध होते जाते थे। ज्ञानशंकर तो सदैव उनका छिद्रान्वेषण किया करते पर उन्होंने कभी भूल कर भी ज्ञानशंकर के खिलाफ जबान नहीं खोली। वह प्रेमशंकर के विचार से सहमत न होते थे, यही सलाह दिया करते कि कही सरकारी नौकरी कर लो।

एक दिन प्रेमशंकर को उदास और चिन्तित देख कर लाला जी बोले, क्या यहाँ जी नही लगता है।

प्रेम--मेरा विचार है कि कही अलग मकान ले कर रहूँ। यहाँ मेरे रहने से सबको कष्ट होता है।

प्रभा-मेरे घर उठ चलो, वह भी तुम्हारा ही घर है। मैं भी कोई बेगाना नहीं हैं। वहाँ तुम्हे कोई कष्ट न होगा। हम लोग इसे अपना धन्य भाग समझेंगे। कही नौकरी के लिए लिखा?

प्रेम-—मेरा इरादा नौकरी करने का नहीं है।

प्रमा--आखिर तुम्हें नौकरी से क्यों इतनी नफरत है नौकरी कोई बुरी चीज है?

प्रेम-जी नहीं, मैं उसे बुरा नहीं कहता। पर मेरा मन उससे भागता है।

प्रभा—तो मन को समझाना चाहिए न? आज सरकारी नौकरी का जो मानसम्मान है, वह और किस का है? और फिर आमदनी अच्छी, काम कम, छुट्टी ज्यादा। व्यापार में नित्य हानि का भय, जमींदारी में नित्य अधिकारियों की खुशामद और असामियों के बिगड़ने का खटका। नौकरी इन पैसों से उत्तम है। खेती-बारी का शौक उस हालत में भी पूरा हो सकता है। यह तो रईसों के मनोरंजन की सामग्री है। अन्य देशों के हालात तो नहीं जानता, पर यहाँ किसी रईस के लिए खेती करना अपमान की बात है। मुझे भूखों मरना कबूल है, पर दुकानदारी या खेती करना कबूल नहीं।

प्रेम--आपको कथन सत्य है, पर मैं अपने मन से मजबूर हैं। मुझे थोड़ी सी जमीन की तलाश है, पर इधर कहीं नजर नहीं आती।

प्रभा–अगर इसी पर मन लगा है तो करके देख लो। क्या कहें, मेरे पास शहर के निकट जमीन नहीं है, नहीं तुम्हें हैरान न होना पड़ता। मेरे गाँव में करना चाहो तो जितनी जमीन चाहो मिल सकती है; मगर दूर है।

इसी हैस-बैस में चैत का महीना गुजर गया। प्रेमशंकर ने कृषि-प्रयोगशाला की आवश्यकता की और रईसों का ध्यान आकर्षित करने के लिए समाचार-पत्रो में कई, विद्वत्तापूर्ण लेख छपवाये। इन लेखों का बड़ा आदर हुआ। उन्हें पत्रों ने उद्धृत किया, उन पर टीकाएँ की और कई अन्य भाषाओं में उनके अनुवाद भी हुए। इसका फल यह हुआ कि तालुकेदार एसोसिएशन ने अपने वार्षिकउत्सव के अवसर पर प्रेमशंकर को कृषि-विषयक एक निबन्ध पढ़ने के लिए निमन्त्रित किया। प्रेमशंकर आनन्द से फूले न समाये। वहीं खोज और परिश्रम से एक निबन्ध लिखा और लखनऊ आ पहुँचे। केसरबाग में इस उत्सव के लिए एक विशाल पंडाल बनाया गया था। राय कमलानन्द इस सभा के मन्त्री चुने गये थे। मई का महीना था। गरमी खूब पड़ने लगी थी। मैदानों में सन्ध्या समय तक लू चला करती थी। घर में बैठना नितान्त दुरूह था। रात के आठ बजे प्रेमशंकर राय साहब के निवास स्थान पर पहुँचे। राय साहब ने तुरन्त उन्हें अन्दर बुलाया। वह इस समय अपने दीवनखाने के पीछे की ओर एक छोटी सी कोठरी मे बैठे हुए थे। ताक पर एक धुंधला सा दीपक जल रहा था। गर्मी इतनी थी कि जान पड़ता की अग्निकुंड है। पर इस आग की भट्टी में राय साहब एक मोटा ऊनी कम्बल ओढ़े हुए थे। उनके मुख पर विलक्षण तेज था और नेत्रों से दिव्य प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था। प्रतिभा और सौम्य की सजीव मूर्ति मालूम होते थे। उनका शारीरिक गठन और दीर्घकार्य किसी पहलवान को भी लज्जित कर सकता था। उनके गले में एक रुद्राक्ष की माला थी, बगल में एक चाँदी का प्याला और गडुवा रखा हुआ था। तलों के एक ओर दो मोटे ताजे जवान बैठे पंजा लड़ा रहे थे और उसकी दूसरी ओर तीन कोमलांगी रमणियाँ वस्त्राभूषणों से सजी हुई विराज रही थी। इन्द्र का अखाड़ा था, जिसमे इन्द्र, काले देव और अप्सराएँ सभी अपना-अपना पार्ट खेल रहे थे।

प्रेमशंकर को देखते ही राय साहब ने उठ कर बड़े तपाक से उनका स्वागत किया। उनके बैठने को एक कुर्सी मंगायी और बोले, क्षमा कीजिए, मैं इस समय देवोपासना कर रहा हूँ, पर आपसे मिलने के लिए ऐसा उत्कंठित था कि एक क्षण का विलम्ब भी न सह सका। आपको देख कर चित्त प्रसन्न हो गया। सारा संसार ईश्वर का विराट् स्वरूप हैं। जिसने संसार को देख लिया, उसने ईश्वर के विराट-स्वरूप का दर्शन कर लिया। यात्रा अनुभूत ज्ञान प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। कुछ जलपान के लिए मगाऊँ?

प्रेमजी नहीं, अभी जलपान कर चुका हैं।

राय साहब--समझ गया, आप भी जवानी में बूढ़े हो गये। भोजन-आहार का यही पथ्यापथ्य-विचार बुढ़ापा है। जवान वह है जो भोजन के उपरान्त फिर भोजन करे, ईंट-पत्थर तक भक्षण कर ले। जो एक चार जलपान करके फिर नहीं खा सकता, जिसके लिए कुम्हड़ा वादी हैं, करेला गर्म, कटहल गरिष्ठ, उसे मैं बूढ़ा ही समझता हूँ। मैं सर्वभक्षी हूँ और इसी का फल है कि साठ वर्ष की आयु होने पर भी मैं जवान हूँ।

यह कह कर राय साहब ने लौटा मुँह से लगाया और कई घूट गट-गट पी गये, फिर प्याले में से कई चमचे निकाल कर खाये और जीभ चटकाते हुए बोले, यह न समझिए कि मैं स्वादेन्द्रिय का दास हैं। मैं इच्छाओं का दास नहीं, स्वामी बन कर रहता हूँ। यह दमन करने का साधन मात्र हैं। तैराक वह है जो पानी में गोते लगाये। योद्धा वह है जो मैदान में उतरे। बवा से भाग कर बवा से बचने का कोई मूल्य नहीं। ऐसा आदमी बवा की चपेट में आ कर फिर नहीं बच सकता। वास्तव में रोग-विजेता वही है जिसकी स्वाभाविक अग्नि, जिसकी अन्तरस्थ ख्वाला, रोग-कीट को भस्म कर दें। इस लौटे में आग की चिनगारियाँ हैं, पर मेरे लिए शीतल जल है। इस प्याले में बहू पदार्थ है, जिसको एक चमचा किसी योगी को भी उन्मत्त कर सकता हूँ, पर मेरे लिए सूखे साग के तुल्य है। आजकल यही मेरा आहार है। मैं गर्मी में आग खाता हूँ और आग ही पीता हूँ। मैं शिव और शक्ति का उपासक हूँ। विष को दूध-धी समझता हूँ। जाड़े में हिमकणों का सेवन करता हूँ और हिमालय की हवा खाता हूँ। हमारी आत्मा ब्रह्म का ज्योतिस्वरूप है। उसे मैं देश तथा इच्छाओं और चिन्ताओं से मुक्त रखना चाहता हूँ। आत्मा के लिए पूर्ण अखण्ड स्वतंत्रता सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। मेरे किसी कामे का कोई निदिष्ट समय नहीं। जो इच्छा होती है करता हूँ। आपको कोई कष्ट तो नहीं है, आराम से बैठिए।

प्रेम-बहुत आराम से बैठा हूँ।

राय साहब--आप इस मूर्ति को देख कर चौंकते होंगे। पर मेरे लिए यह मिट्टी के खिलौने हैं। विषयासक्त आँखें इनके रूप लावण्य पर मिटती हैं, मैं उस ज्योति को देखता हूँ जो इनके घट में व्यापक है। बाह्यरूप कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मुझे विचलित नहीं कर सकता। वह भकुए हैं, जो गुफाओं और कन्दराओं में बैठ कर तप और ध्यान के स्वाँग भरते हैं। वे कायर हैं, प्रलोभनों से मुँह छिपानेवाले, तृष्णा से जान बचानेवाले। वे क्या जानें कि आत्म-स्वातंत्र्य क्या वस्तु है? चित की वृद्धती और मनोबल का उन्हें अनुभव ही नहीं हुआ। घह सूखी पत्तियाँ हैं जो हवा के एक झोके से जमीन पर गिर पड़ती है। योग कोई दैहिक क्रिया नहीं है, आत्मशुद्धि, मनोबल और इन्द्रिय-दमन ही सच्चा योग, सच्ची तपस्या है। वासनाओं में पड़ कर अविचलित रहना ही सच्चा वैराग्य है। उत्तम पदार्थों का सेवन कीजिए, मधुर गाने का आनन्द उठाइए, सौन्दर्य की उपासना कीजिए; परन्तु मनोवृत्तियों का दास न बनिए; फिर आप सच्चे वैरागी हैं। (दोनों पहलवानो से) पण्डा जी! तुम बिलकुल बुद्धू ही रहे। यह महाशय अमेरिका का भ्रमण कर आये है, हमारे दामाद हैं। इन्हें कुछ अपनी कविता सुनाओ, खूब फड़कते हुए कवित्त हों।

दोनों पंडे खसे हो गये और स्वर मिला कर एक कवित्त पढ़ने लगे। कवित्त क्या था, अपशब्दों का पोथा और अश्लीलता का अविरल प्रवाह था। एक-एक शब्द बेहयायी और बेशर्मी में डूबा हुआ था। मुँहफट भाँड भी लज्जास्पद अगो को ऐसा नग्न, ऐसा घृणोत्पादक वर्णन न कर सकते होंगे। कवि ने समस्त भारतवर्ष के कबीर और फाग का इत्र, समस्त कायस्थ समाज की वैवाहिक गजलों का सत, समस्त भारतीय नारि-वृन्द की प्रथा-प्रणीत गालियों का निचोड़ और समस्त पुलिस विभाग के कर्मचारियों के अपशब्दों का जौहर खींच कर रख दिया था, और वह गन्दे कवित्त इन पंडों के मुँह से ऐसी सफाई से निकल रहे थे, मानो फूल झड़ रहे हैं। राय साहब मूर्तिवत् बैठे थे, हंसी का तो कहना ही क्या, ओठों पर मुस्कराहट का चिह्न भी न था। तीन वेश्याओं ने शर्म से सिर झुका लिया, किन्तु प्रेमशंकर हँसी को न रोक सके। हँसते-हँसते उनके पेट में बल पड़ गये।

पंडों के चुप होते ही समाजियों का आगमन हुआ। उन्होंने अपने साज मिलाये, तबले पर थाप पड़ी, सारगियों ने स्वर मिलाया और तीनों रमणियाँ एक ध्रुपद अलापने लगी। प्रेमशंकर को स्वर-लालित्य का वही आनन्द मिल रहा था जो किसी गॅवार को उज्ज्वल रत्नों के देखने से मिलता है। इस आनन्द में रसज्ञता न थी; किन्तु मर्मज्ञ राय साहब मस्त हो-हो कर झूम रहे थे और कभी-कभी स्वयं गाने लगते थे।

आधी रात तक मधुर अलाप की ताने उठती रही। जब प्रेमशंकर ऊँच-ऊँध कर गिरने लगे तब सभा विसर्जित हुई। उन्हें राय साहब की बहुक्षता और प्रतिभा पर आश्चर्य हो रहा था। इस मनुष्य में कितना बुद्धि-चमत्कार, कितना आत्मबल, कितनी सिद्धि, कितनी सजीवता है और जीवन का कितना विलक्षण आदर्श।

दूसरे दिन प्रेमशंकर सो कर उठे तो आठ बजे थे। मुंह-हाथ धो कर बरामदे में टहलने लगे कि सामने से राय साहब एक मुश्की घोड़े पर सवार आते दिखायी दिये। शिकारी वस्त्र पहने हुए थे। कन्धे पर बन्दुक थी। पीछे-पीछे शिकारी कुत्तों का शेड चला आ रहा था। प्रेमशंकर को देख कर बोले, आज किसी भले आदमी का मुंह देखा था। एक बार भी खाली नहीं गया। निश्चय कर लिया था कि जलपान के समय तक लौट जाऊँगा। आप कुछ अनुमान कर सकते हैं कितनी दूर से आ रहा हूँ? पूरे बीस मील का धावा किया है। तीन घंटे से ज्यादा कभी नहीं सोता। मालूम है न, आज तीन बजे से जलसा शुरू होगा। प्रेम—जी हाँ, डेलीगेट लोग (प्रतिनिधिगण) आ गये होंगे?

राय—(हँस कर) मुझे अभी तक कुछ खबर नहीं और मैं है स्वागत करिणी समिति का प्रधान हूँ। मेरे मुख्तार साहब ने सब प्रबन्ध कर दिया होगा। अभी तक मैंने कुछ भी नहीं सोचा कि वहाँ क्या कहूँगा? बस मौके पर जो कुछ मुँह में आयेगा बक डालूँगा!

प्रेम—आपकी सूझ बहुत अच्छी होगी?

राय—जी हाँ, मेरे एसोसिएशन ने ऐसा कोई नहीं हैं, जिसकी सुझ अच्छी न हो। इस गुण नै एक से एक बड कर हैं। कोषाध्यक्ष महाशय को आय–व्यय का पता नहीं पर सभा के सामने वह पूरा ब्योरा दिखा देंगे। यही हाल औरों का भी है। जीवन इतना अल्प है कि आदमी को अपने ही ढोल पीटने से छुट्टी नहीं मिलती, जाति का मजीरा कौन बजाये?

प्रेम—ऐसी संस्थाओ से देश का क्या उपकार होगा?

राय—उपकार क्यों नहीं क्या आपके विचार में जाति का नेतृत्व निरर्थक बस्तु है? आज-कल तो यही उपाधियो का सदर दरवाजा हो रहा है। सरल भक्तों का श्रद्धास्पद बनना क्या कोई मामूली बात है? बेचारे जाति के नाम पर मरनेवाले सीधे–सादे लोग दूर-दूर से हमारे दर्शनो को आते हैं। हमारी गाड़िया खीचते हैं, हमारी पदरज को माथे पर चढ़ाते हैं। क्या यह छोटी बात है? और फिर हमनें कितने ही जाती के सेवक ऐसे भी हैं जो तारा हिसाब मन में रखते हैं, उनसे हिसाद पूछिए तो वह अपनी तौहीन समझेंगे और इस्तीफे की घमकी देंगे। इसी संस्था के सहायक मन्त्री को वकालत विलकुल नहीं चलती; परं अभी उन्होंने बीस हजार का ए बँगला मोल लिया है। जाति से ऐसे भी लेना है, वैसे भी लेना है, चाहे इस बहाने से लीजिए, चाहे उस बहाने से लीजिए!

प्रेम—मुझे अपना निवन्ध पड़ने का समय कब मिलेगा?

राय—आज तो मिलता नहीं। कल गार्डन पार्टी हैं। हिज एक्सेलेन्सी और अन्य अधिकारी वर्ग निमन्त्रित हैं। सारा दिन इसी तैयारी में लग जायगा। परसों सब चिड़ियाँ उड़ जायेगी, कुछ गिने-गिनाये लोग रह जायेंगे, तब आप शौक से अपना लेख सुनाइएगा।

यही बातें हो रही थी कि राजा इन्द्रकुमारसिंह ना आगमन हुआ। राय साहब ने उनका स्वागत करके पूछा, नैनीताल कब तक चलिएगा?

राजा साहब—मैं तो सब तैयारियाँ करके चला हूँ। यहीं से हिज एक्सेलेन्सी के साथ चला जाऊँगा। क्या मिस्टर ज्ञानशंकर नही आये?

प्रेम—जी नहीं, उन्हें अवकाश नहीं मिला।

राजा—मैंने समाचार-पत्रों में आप के लेख देखे थे। इसमे सन्देह नहीं कि आप कृषि-शास्त्र के पंडित हैं, पर आप जो प्रस्ताव कर रहे हैं वह वहां के लिए कुछ बहुत उपयुक्त नहीं जान पड़ता। हमारी सरकार ने कृषि की उन्नति के लिए कोई बात उठा नहीं रखी। जगह-जगह पर प्रयोगशालाएँ खोलीं, सस्ते दाम में बीज वेचती हैं, कृषि सम्बन्धी आविष्कारों का पन्नो द्वारा प्रचार करती है। इस काम के लिए कितने ही निरीक्षक नियुक्त किये है, कृषि के बड़े-बड़े कालेज खोल रखे हैं, पर उनका फल कुछ न निकला। जब वह करोड़ो रुपये व्यय करके कृतकार्यं न हो सकी तो आप दो लाख की पूंजी से क्या कर लेंगे? आपके बनायें हुए यश्न कोई सेंत भी न लेगा। आपकी रासायनिक खादे पड़ी सड़ेगी। बहुत हुआ, आप पाँच सात सैकड़े मुनाफे दे देगें। इससे क्या होता है। जब हम दो-चार कुएँ खोदवा कर, पटवारी से मिल कर, कर्मचारियों का सत्कार करके आसानी से अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं, तो यह झंझट कौन करे।

प्रेम--मेरा उद्देश्य कोई व्यापार खोलना नहीं है। मैं तो केवल कृषि की उन्नति के लिए घन चाहता हूँ। सम्भव है आगे चल कर लाभ हो, पर अभी तो मुनाफे की कोई आशा नहीं।

राजा---समझ गया, यह केवल पुण्य-कार्य होगा।

प्रेम-जी हाँ, यही मेरा उद्देश्य है। मैंने अपने उन लेखों में और इस निबन्ध में भी यही बात साफ-साफ कह दी हैं।

राजा--तो फिर आपने श्रीगणेश करने में ही भूल की। आपको पहले इस विषय में लाट साहब की सहानुभूति प्राप्त करनी चाहिए थी। तब दो की जगह आपको दस लाख बात की बात में मिल जाते। बिना सरकारी प्रेरणा के यहाँ ऐसे कामों में सफलता नहीं होती। यहाँ आप जितनी संस्थाएँ देख रहे है, उनमें किसी का जन्म स्वाधीन रूप से नहीं। यहाँ की यही प्रथा है। राय साहब यदि आपको हिज़ एक्सेलेन्सी से मिला दे और उनकी आप पर कृपादृष्टि हो जाय तो कल ही रुपये का ढेर लग जाय।

राय-मैं बड़ी खुशी से तैयार हूँ।

प्रेम--इस-संस्था को सरकारी सम्पर्क से अलग रखना चाहता हूँ।

राजा--ऐसी दशा में आप इस एसोसिएशन से सहायता की आशा न रखें। कम से कम मेरी यही विचार है; क्यों राय साहब?

राय--आप का कहना व्यर्थ है।

प्रेम- तो फिर मेरा निबन्ध पढ़ना व्यर्थ है।

राजा--नहीं, व्यर्थ नहीं है। सम्भव है, आप इसके द्वारा आगे चल कर सरकारी सहायता पा सकें। हाँ, राय साहब, प्रधान जी का जुलूस निकालने की तैयारी हो रही है न? वह तीसरे पहर की गाड़ी से आनेवाले है।

प्रेमशकर निराश हो गये। ऐसी सभा में अपना निबन्ध पढ़ना अन्धों के आगे रोना था। वह तीन दिन लखनऊ रहे और एसोसिएशन के अधिवेशन में शरीक होते है किन्तु न तो अपना लेख पढ़ा और न किसी ने उनसे पढ़ने के लिए जोर दिया। वहाँ तो सभी अधिकारियों के सेवा-सत्कार में ऐसे दत्तचित्त थे, मानो बरात आयी हो। बल्कि उनका वहाँ रहना सबको अखरता था। सभी समझते थे कि यह महाशय मन में हमारा तिरस्कार कर रहे है। लोगों को किसी गुप्त रीति से यह भी मालूम हो गया था कि यह स्वराज्यवादी हैं। इस कारण से किसी ने उनसे निबन्ध पढ़ने के लिए ग्रह नहीं किया, यहाँ तक कि गार्डन पार्टी में उन्हें निमन्त्रण भी न दिया। यह रहस्य लोगों पर उनके आने के एक दिन पीछे खुला था; नहीं तो कदाचित् उनके पास लेख पढ़ने का आदेश-पत्र भी न भेजा जाता। प्रेमशंकर ऐसी दशा में वहाँ क्योंकर ठहरते? चौथे दिन घर चले आये। दो-तीन दिन तक उनका चित्त बहुत खिन्न रहा, किन्तु इसलिए नहीं कि उन्हें आशातीत सफलता न हुई, बल्कि इसलिए कि उन्होंने सहायता के लिए रईसों के सामने हाथ फैला कर अपने स्वाभिमान की हत्या की। यद्यपि अकेले पड़े-पड़े उनको जी बहुत उकताता था, पर इसके साथ ही यह अवस्था आत्म-चिन्तन के बहुत अनुकूल थी। निस्वार्थ सेवा करना मेरा कर्तव्य है। प्रयोगशाला स्थापित करके मैं कुछ स्वार्थ भी सिद्ध करना चाहता था। कुछ लाभ होता, कुछ नाम होता। परमात्मा ने उसी का मुझे यह दंड दिया है। सेवा का क्या यही एक साधन हैं? मैं प्रयोगशाला के ही पीछे क्यों पड़ा हुआ हूँ? बिना प्रयोगशाला के भी कृषि-सम्बन्धी विषयों का प्रचार किया जा सकता है। रोग-निवारण क्या सेवा नहीं है? इन प्रश्नों ने प्रेमशंकर के सदुत्साह को उत्तेजित कर दिया। वह प्राय, घर से निकल जाते और आस-पास के देहातों मे जा कर किसानों से खेती-बारी के विषय में वार्तालाप करते। उन्हें अब मालूम हुआ कि यहाँ के किसानों को जितना मूर्ख समझा जाता है, वे उतने मूर्ख नहीं है। उन्हें किसानों से कितनी ही नयी बातों को ज्ञान हुआ। शनै-शनै वह दिन-दिन भर घर से बाहर रहने लगे। कभी-कभी दूर के देहात में चले जाते, दो-दो तीन-तीन दिन तक न लौटते।